रविवार, 6 अक्तूबर 2019

मैंने रखा है मुहब्बत...1


उसका नाम चाहे जो भी हो, पर उसे मुहब्बत थी, इक सुफैद पोश से । यूं तो वो ‘केइ’ द्वीप का रहने वाला था...और वज़ूद बचाये रखने की गरज से शिकारी भी । उस रोज उसका मददगार कुत्ता गहरी घाटी में जा गिरा जिसे बचाने की गरज़ से वो खुद भी जैसे तैसे घाटी के निचले हिस्से में जा पहुंचा जहां उसकी मुलाकात एक बूढ़ी औरत से हुई जोकि उसी घाटी में रहती थी । बूढ़ी ने उसे भूखा जान कर खाने के लिए कंद और अधकच्चे चावल परोसने चाहे तो उसने कहा, चावल मुझे पकाने दो और फिर उसने लकड़ियों की मद्धम आंच में चावल पकाये जिनकी खुशबू पूरी घाटी में फ़ैल गई । बहरहाल भूखे को खाने की पेशकश और कच्चे चावलों को बेहतरीन तरीके से पकाने की कला के दरम्यान इश्क जाग उट्ठा और उन दोनों ने शादी कर ली । 
उधर घाटी में ये खबर दूर दूर तक फ़ैल गई कि चावलों को पकाने का कोई खास तरीका भी हो सकता है । जिन्हें सीखने की चाहत थी शिकारी उन सबको अपने हुनर से आगाह करने लगा । जब कुछ वक्त गुज़रा तो उसे अपने पुश्तैनी गांव की याद सताने लगी । उसने घाटी से वापस, अपने घर लौटने का फैसला कर लिया । उसकी बूढ़ी बीबी उसके साथ उसके गांव आने के लिए तैयार थी पर रास्ते में उन दोनों में झगड़ा हो गया जो शायद अपने घर वापस जाने और अपना घर छूट जाने वाली मुहब्बतों का झगड़ा रहा होगा। शिकारी ने बूढ़ी से कहा ठीक है, तुम अपने घर में ही रहो, हम एक दूसरे से अलग हो जाते हैं । बूढ़ी ने कहा, कोई बात नहीं तुम मुझे मेरे चावल लौटा दो । जो मेरा है उसे लेकर कहीं और ले जाने का तुम्हें हक़ नहीं । इस पर दोनों तैयार थे ।
हालांकि शिकारी ने चोरी से चावल के दो दाने अपने नथुनों में छुपा लिए और अपने गांव वापस लौट आया । कहते हैं कि उनमें एक दाना सुफैद और दूसरा भूरा था । शिकार करने के दौरान मुतवातिर भटकने और खाना मिलने ना मिलने की अनिश्चितता से तंग आ चुका शिकारी खेती करना चाहता था । उसने उन दो बीजों से पौधे उगाये और फिर और ज्यादा पौधे । उसे सुफैद चावलों से मुहब्बत थी...पर गांव वालों को हर किस्म के चावल की ज़रूरत, सो शिकारी से किसान हुआ इंसान, भूरे चावलों को दूसरे लोगों को बेचने लगा । वो अपनी चाहत के सुफैद चावल सिर्फ अपने लिए रखता और भूरे चावल बाज़ार में । भूरे चावलों को इस बात का बेहद रंज था कि शिकारी किसान उन्हें प्यार नहीं करता बल्कि पैसों से बदल लेने वाली शय समझता है ।
वे खेत दर खेत आहिस्ता अहिस्ता समुन्दर के तटों की जानिब भाग निकले ।  गहरी शामों के गहरी रात हो जाने तक अलावों के इर्द गिर्द बुनी गई कहानियों में सुनते हैं कि उन खेतों की मालकिन भी एक बूढ़ी औरत थी, जिसे लगा कि ये चावल बेस्वाद होंगे...पर फसल पकने के बाद उसका शक बेबुनियाद निकला । तटों की माटी और मौसम, भूरे चावलों का हमदर्द निकला । वे जब भी पके बा-स्वाद हुए । बूढ़ी औरत का ख्याल था कि भूरे चावल उसके खेतों तक कोई भी लाया हो, दिखने में चाहे उनकी रंगत कैसी भी हो...पर हैं वो कमाल, उस ईश्वर को धन्यवाद, जिसने उसकी धरती पर नियामत बिखेरी, इंसानी ज़िंदगियों को उपहार दिया ।
कहन के हिसाब से शिकारी समाज के खेतिहर हो जाने का आख्यान है ये । एक इण्डोनेशियाई द्वीप की भूस्थैतिक परिस्थतियों में ऊंची जंगली भूमि में कुत्ते जैसे जानवर को पालतू बना चुकने और शिकार के समय में उसका सहयोग लेने का उद्घाटन करती यह कथा कुत्ते के घाटी में गिर जाने और शिकारी को सहयोगी की चिंता हो जाने का बयान करती है । घाटी में चावल की खेती का स्रोत एक बूढ़ी से जोड़े जाने का आशय कदाचित उसके अनुभव समृद्ध होने से हो । बूढ़ी स्त्री, भूखे शिकारी को भोजन पर आमंत्रित कर, अपने मेहमान नवाज़ होने और सामाजिक शिष्टाचार युक्त होने का परिचय देती है । किन्तु चावल के अधकच्चे होने का कथन उस बूढ़ी की पाक कला पर प्रश्न चिन्ह खड़े करता है यानि कि वो चावल की काश्तकार / मातृदेवी तो है पर भोजन बनाने में निपुण नहीं है । जबकि शिकारी प्रतिदिन कच्चे मांस को मद्धम आंच में पका कर खाने का हुनर ज़रूर जानता होगा ।
कुल मिलाकर अनुभवी काश्तकार और अनुभवी शिकारी रसोइये के अलग अलग नैपुण्य का मिलन था यह, जो उन्होंने ब्याह कर लिया । कथा में उम्र का स्पष्ट उल्लेख ना होने के बावज़ूद प्रतीत यह होता है कि शिकारी उस स्त्री से कम उम्र रहा होगा ? उसे अपनी पाक कुशलता / ज्ञान को अन्य ग्रामीणों से साझा करने में कोई उज़्र ना था...पर अपनी जन्मभूमि / अपने गांव के प्रति उसका मोह और गांव में खेती करने का निश्चय उसे चावल के बीज चुराने और आश्रयदाता, मेहमान नवाज़ पत्नि से छल करने वाला बना देता है यानि कि वो शिकार से अस्तित्व रक्षा के बजाये खेती में अपना भविष्य सुरक्षित मान लेता है । शिकारी की तरह से स्त्री भी अपने गांव से मोहासक्त है और गांव को छोड़ने ना छोड़ने की कशमकश में पति को छोड़ देना मुनासिब समझती है, किन्तु उसे यह मंज़ूर नहीं है कि शिकारी उसके जीवन रक्षण का रहस्य / चावलों की काश्तकारी का ज्ञान खासकर बीज, उससे लेकर चला जाए । वे दोनों बिछड़ने पर सहमत हैं पर उन दोनों में से शिकारी यानि कि पुरुष पात्र छलिया है ।
शिकारी को सुफैद चावलों से मुहब्बत थी सो उसने उन्हें कभी बेचा ही नहीं पर...भूरे चावलों को घर में सहेजा भी नहीं । भूरे चावल बेचे गये, यह खेतिहर व्यवस्था में बाज़ारीकरण के प्रवेश जैसा संकेत है...और अद्भुत कथन ये कि शिकारी की उपेक्षा से भूरे चावल दुखी थे, सो वे खेत दर खेत दूर तक बिखरते चले गये । असल में ये कथन प्रकृति के जीवित होने और वनस्पतियों में मनुष्यों जैसी संवेदनायें / अनुभूतियां होने का कथन है । बहरहाल प्राकृतिक तौर पर आप्रवासी हुए भूरे चावल अनुकूल मौसम और माटी में समृद्ध हुए । संयोगवश यहां भी एक बूढ़ी स्त्री किसान है जो शुरू में भूरे चावलों की खेती के प्रति सशंकित है, लेकिन अनुकूलता में फसलें लहलहाती हैं और उन्हें प्रेम मिलता है जैसा संकेत देती हुई ये कथा समाप्त हो जाती है । आबादियों में भूख और कामुकता नैसर्गिक अपरिहार्यतायें है और अपरिहार्य है प्रेम, स्त्रियों से, भोजन से...