किन्नर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
किन्नर लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 4 अगस्त 2018

किन्नर-36-15

गतांक से आगे...

मिथकीय दृष्टान्तों से हट कर, अगर हम राजतान्त्रिक भारत के सम्राटों / सुल्तानों / शहंशाहों के दिन प्रति दिन की जीवनचर्या  पर निगाह डालें, तो पायेंगे कि वे सभी कम-ओ-बेश यौनिकताओं, विलासिताओं, कामुक लक्ष्यों की प्रतिपूर्ति के लिये,अपने राज प्रासादों / महलों में कम-उम्र स्त्रैण प्रकृति पुरुष सेवक, हसीन लौंडों, कमसिन लड़कियों, एकाधिक रानियों / बेगमों की व्यवस्था पर अत्यधिक ध्यान देते थे । उनकी जायज़, नाजायज़ यौन कामनाओं की पूर्ति के लिये स्वैच्छिक अथवा बल छल पूर्वक जुटाई गई किशोरियों / युवतियों / स्त्रियों और युवा किन्नरों को महलों में रनिवास / हरम कहे जाने वाले कक्षों में रखा जाता था और यह बात निश्चित है कि इनमें से ज्यादातर का सम्बन्ध, जनगण के अर्थहीन / निर्धन तबके अथवा पराजित पक्ष से होता था । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि, राज्य की सीमाओं के विस्तार / राज शक्ति, धन सामर्थ्य वृद्धि हेतु की गई संधियों अथवा कामुक सम्राटों  / शहंशाहों / सामंतों को पसंद आ जाने वाली राजकन्याओं / सामान्य युवतियों / किशोर वय लड़कों  की प्राप्ति के लिये लड़े गये युद्धों से भारतीय इतिहास पहले ही लथपथ है / रक्त रंजित है । उन दिनों हरेक गांव गली की सीमा क्षेत्रों वाले लघु राज्यों से लेकर विस्तृत भूभागों में स्थापित बड़े साम्राज्यों में यही प्रचलन आम था । जन्मना किन्नरों के अतिरिक्त, बंध्याकृत किये किन्नरों के समलैंगिक साहचर्य वाले उपयोग के इतर, प्रतिशोध-गत, मान, अपमान जैसी मनः स्थितियों / धारणाओं के अंतर्गत, विजित क्षेत्रों के जनगण के पौरुष हरण को भी हमें ध्यान में रखना होगा ।

महाभारत कालीन बहुचर्चित, अस्थायी किन्नरत्व धारण-कर्ता उद्धरणों के इतर, मुगलों के आगमन से पूर्व सल्तनत काल की हरम व्यवस्थाओं के आईने में, हमें मालिक काफूर जैसा शक्तिशाली किन्नर नाम परिलक्षित होता है, कहते हैं कि उस समय लगभग दस हज़ार युवकों को बंदी बनाया गया था और सत्तागत / लालसा गत कारणों से उनका बंध्याकरण किया गया था । युद्ध बंदियों के अतिरिक्त क्रीत दासों के विवरण भी हमें मिलते हैं जिनमें से काफूर सर्वाधिक चर्चित नाम था । मुगलों के हरम / कथित सामाजिक अभिजात्यों / प्रतिष्ठित / संभ्रात / कुलीन वर्ग के प्रासादों में किन्नर दासों के संस्तरणात्मक कर्मचारी तंत्र हुआ करते और  किन्नर दास श्रेष्ठता से निचले क्रम की ओर आदेश पालन के लिये अभिशापित । मुगल काल में किन्नर मुखिया ख्वाजासरा कहलाते थे । राजतान्त्रिक व्यवस्था में किन्नरों की विश्वसनीयता, उन्हें उच्चता और निम्नता वाले वर्ग क्रम में बांट देतीं, वे उच्चाधिकारी होते, दरबार के सलाहकार होते, महलों के पहरेदार होते, साधारण सैनिक होते, सामान्य सन्देश वाहक होते। छोटे मोटे दायित्वों का निर्वहन करने वाले मजदूर होते । दरअसल यह समय सामर्थ्यवान आदमजात द्वारा सामान्य आदम अवाम को पशु बनाने का समय था । क्रूरता और शोषण का समय । समलैंगिकता की आकाँक्षाओं की बलात पूर्ति का समय । दैहिक कुंठाओं के सार्वजानिक विसर्जन का समय । 

( ये आलेख श्रृंखला फिलहाल यहीं पर विराम लेगी, अभी तक जो लिखा, वो कहीं ना कहीं, पहले से लिखा हुआ था, सो मौलिकता का कोई दावा नहीं, बहरहाल प्रस्तुतिकरण, विवरण व्याख्या में कोई अंतर हो तो उसे हमारे हिस्से में डाल दिया जाए, इस विषय में लिखने की संभावनाएं अनंत हैं, मसलन वर्तमान को हमने छुआ तक नहीं...)

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

किन्नर-36-14

गतांक से आगे...


सामान्य काल 1499 में वियतनामियों द्वारा चीन के एक जहाज को नष्ट किये जाने का उल्लेख मिलता है जोकि हैनान से गुआंगडोंग जा रहा था और जिसके 12 यात्रियों को खेतिहर मजदूर बना दिया गया था और 1 व्यक्ति को  बंध्याकृत कर दिया गया था । यह व्यक्ति बंदी बनाये गये लोगों में सबसे छोटा था और इसका नाम वू रुई था बाद में इसे थेंग लोंग के शाही महल में किन्नर सहायक के तौर पर नियुक्त कर दिया गया था । कुछ समय बाद  वू रुई बच कर चीन भाग निकला जिसे लोंग झोउ के स्थानीय मुखिया ने दुबारा वियतनामियों को बेचने की कोशिश की थी जोकि पिंगजियांग के न्यायाधीश के हस्तक्षेप के कारण बीजिंग जाने का अवसर मिला गया था । न्गुयेन साम्राज्य के दौर में वियतनामी सामान्य नागरिकों के बंध्याकरण पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था । उस समय केवल बालिग़ लोग ही बंध्याकृत हो सकते थे इसीलिए इस समय को हम वियतनाम के जन्मना किन्नरों का समय मान सकते हैं। तब वियतनामी अधिकारियों ने यह आदेश जारी कर दिया था की यदि किसी घर में देह विकृत / विकृत जननांग वाला बच्चा पैदा हो तो प्रशासन को अनिवार्य रूप से सूचित किया जाए । ऐसे बच्चे के बदले में उसके गांव / शहर के एक बंधुआ खेतिहर मजदूर को स्वतंत्र कर दिया जाता था । इसके बाद जब बच्चा दस साल का हो जाता तो उसे यह विकल्प दिया जाता कि वो किन्नर अधिकारी कर्मचारी बतौर काम करना चाहेगा या फिर राज महल की स्त्रियों की सेवा करना चाहेगा । यह गौर तलब है कि फ़्रांसीसी उपनिवेश काल में वियतनामियों को नीचा दिखाने के लिये, उनका बंध्याकरण करना ज़ारी रखा गया था । वियतनाम की तरह से थाईलैंड में भी भारतीय मुसलमानों को किन्नर बतौर शाही महल की सेवा में रखा गया था और बर्मा में भी ऐसे ही उदाहरण सुनने को मिलते हैं।
भारतीय मिथकों में, दैवीयता के लिंगीय तरलता वाले उद्धरणों में, किन्नरों के हवाले, मिलने की चर्चा हम आगे चलकर करेंगे, जिनके हम उन सूत्रों का उल्लेख करेंगे जहां पर ईश्वर लिंगीयता के भेद से मुक्त होकर, जागतिक लैंगिक समानता के संकेत देता हो अथवा यह उदघोष करता हो कि, चूंकि सवर्त्र वो ही व्यापित है, कण कण में विराजता है, हर शय, हरेक जीव में वो ही मौजूद है सो पृथक पृथक लैंगिकता, किसी लीला / माया के अतिरिक्त कुछ और नहीं है। यदि हम भारतीय वांग्मय में निहित प्रतीकात्मकता / संकेतों को ग्रहण करें तो स्त्री पुरुष, किन्नर या अन्य किसी लिंग का होना, अंततः ईश्वर का होना है । ये ईश्वर ही है जो हर देह में अभिव्यक्त है । बहरहाल धार्मिक आध्यात्मिक विवरणों की चर्चा आगत काल-खंड/ क्षणों के लिये स्थगित । संस्कृत सहित भारत की ज्यादातर भाषाओं में तृतीय लिंग को संबोधित शब्द मिलते हैं । स्त्री, पुरुष सह नपुंसक लिंग । चूंकि भाषायें सामाजिकता को अभिव्यक्ति करती हैं सो हमें यह मान लेना चाहिए कि भारतीय सामाजिकता में नपुंसक अथवा तृतीय लिंग यानि कि किन्नर लिंग अस्तित्वमान है । यही कारण है कि हमें कामुकता / काम कलाओं / यौनिकता संबंधी विषय पर सशक्त हस्तक्षेप करने वाले आचार्य वात्स्यायन के ग्रन्थ कामसूत्र में तृतीय प्रकृति का उल्लेख मिलता है । तृतीय प्रकृति अर्थात वह पुरुष जो कि स्त्रैण है अथवा स्त्रियोचित व्यवहार करने वाला है और स्त्रियों के उपयुक्त परिधानों, साज सज्जा में रूचि रखता है। मिथकीय भारत में किन्नरों और उनके आराध्य देवी देवताओं का स्तुतिगान संभव है, एतिहासिक दस्तावेजों में दर्ज नहीं किया गया हो, किन्तु उससे एक बात निश्चित रूप से सिद्ध होती है कि तत्कालीन जन मानस, तृतीय देह के सम्बन्ध में चिंतन अवश्य करता था ।

...क्रमशः 

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

किन्नर -36-13

गतांक से आगे...

चीन द्वारा उपयोग में लाई गई कष्टप्रद बंध्याकरण प्रविधियों / उपकरणों का इस्तेमाल वियतनाम द्वारा भी किया जाता था । वे धातु के ब्लेड अथवा चाकू से व्यक्ति के सम्पूर्ण जननांग का उन्मूलन कर देते थे यानि कि अंडकोष और लिंग को एक साथ काट दिया जाता था । सबसे पहले बंध्याकृत किये जाने वाले व्यक्ति को एक समान सतह / टेबिल पर लिटा दिया जाता, फिर कुछ लोग उसके पेट और जांघों को कस कर पकड़ लेते / या कस कर बाँध दिया जाता । इसके बाद सम्बंधित व्यक्ति के जननांग को काली मिर्च के पानी से धोया जाता और लिंग सह अंडकोष को काट दिया जाता था । जननांग उन्मूलन के बाद उसकी मूत्रनली के शेष रह गये छेड़ में एक पाइप घुसा दिया जाता ताकि जख्म भरने के दिनों में बंध्याकृत व्यक्ति पेशाब कर सके । वियतनामी किन्नरों को महलों / सामंतों की कोठियों में स्थित हरम / रनिवास / स्त्रियों के रहने के स्थान पदस्थ किया जाता था जहां वे रानियों / राजकुमारियों अथवा उनकी सेविकाओं की सुरक्षा और सेवा का कार्य किया करते थे । कहने का मंतव्य यह है कि रनिवास में सम्राट के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष प्रवेश नहीं कर सकता था । चूंकि किन्नरों के पौरुष का हरण किया जा चुका होता था अतः वे सम्राट की ढ़ेरों रानियों की अतृप्त कामनाओं की पूर्ति / सहवास के योग्य नहीं रह जाते थे अतः उस स्थान पर उनकी तैनाती निरापद मानी जाती थी । ली साम्राज्य (1009-1225) के दौरान ली थु ओंग किएट एक प्रमुख किन्नर था जिसे वियतनामी  इतिहास का स्वतंत्रता संग्राम सेनानी / योद्धा माना जाता था । ट्रान साम्राज्य के समय में किशोर किन्नरों को धन के बदले विनिमय किये जाने के उल्लेख मिलते हैं । 

सामान्य काल 1383 -1385 के मध्य अनेकों वियतनामी किन्नर चीनी साम्राज्य को बतौर नजराना / उपहार सौंपे गये जिनमें से न्गुयेन दाओ, न्गुयेन तोआन, ट्रू का, न्गो टिन नामित किन्नर महत्वपूर्ण है । वियतनाम द्वारा चीन में मिंग साम्राज्य के समय में भेजे गये किन्नरों में से न्गुयेन एन, न्गुयेन लेंग का नाम प्रमुख है जोकि अभियंता / आर्कीटैक्ट थे । उन दिनों बंध्याकरण हेतु चयनित किये जाने की दो शर्ते अहम थीं, एक तो यह कि वह कमसिन हो और दूसरी यह कि वह हसीन भी हो । कथनाशय यह है किन्नर बनाया जाने वाला व्यक्ति, विशिष्ट गुण धर्म वाला हो / शिक्षित हो / दक्ष हो अथवा कमसिन और खूबसूरत । हम ये मान सकते हैं कि दक्षता या फिर शिक्षा के आधार पर किन्नर बनाये गये व्यक्ति से, साम्राज्य को व्यावसायिक लाभ पहुंचता था / साम्राज्य की उन्नति होती थी किन्तु कम उम्र और ख़ूबसूरती के आधार पर बंध्याकृत किये जाने का एक मात्र उद्देश्य समलैंगिक लालसाओं की पूर्ति ही हो सकता है । हालांकि चीन में वियतनामी किन्नर सेना के निचले पदों पर भी तैनात किये जाते थे और कुछेक किन्नर अन्य देशों से आये किन्नरों की तरह से शाही दरबार की सेवा में तैनात किये जाते । बहरहाल  दिलचस्प बात यह है कि ली थु ओंग किएट की आक्रामक सैन्य कार्यवाहियों के बाद वियतनाम से चीनी साम्राज्य का दबाब हट गया था सो वियतनामियों ने अनेकों चीनी जहाजों को पकड़ कर उनमें मौजूद सभी पुरुषों / सैनिकों का बंध्याकरण करते हुए, उन्हें वियतनाम की सेवा में यानि कि किन्नर दासों के बतौर तैनात कर दिया था । निश्चित ही यह बदले की कार्यवाही थी / शताब्दियों के दासत्व का प्रतिरोध था । इतना ही नहीं वियतनामी साम्राज्य ने, मलाया की सल्तनत के अनेकों दूतों, जोकि चीन से मलय वापस लौट रहे थे, को बंदी बना लिया और उन सभी का बंध्याकरण कर दिया गया । उल्लेख मिलता है कि उन्हें भी वियतनाम के किन्नर दासों में सम्मिलित कर दिया गया । इन घटनाओं के बाद, चीन ने अपने नागरिकों और सैनिकों के बाहरी देशों के प्रवास पर रोक लगा दी थी । बल्कि यह कहना समीचीन होगा कि यह कालखंड चीन और वियतनाम द्वारा बंदी बनाये गये सैनिकों और आम नागरिकों के लिये अभिशापित समय था क्यों कि दोनों देश बदले की कार्यवाही के तौर पर पराजितों / बंदी बनाये गये लोगों के बलात बंध्याकरण की नीति अपनाए हुए थे ।  
...क्रमशः 

बुधवार, 1 अगस्त 2018

किन्नर -36-12


गतांक से आगे...

आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मिंग साम्राज्य (1368-1644) के समय में विश्व इतिहास के सर्वाधिक किन्नर मौजूद थे, उनमें से अधिकांश ने किन्नरत्व इसलिए स्वीकार किया था कि वे, यथा शीघ्र धन समृद्धि प्राप्त कर सकें । उस समय राज महल को केवल तीन हज़ार किन्नरों की आवश्यकता थी, किन्तु बीस हज़ार लोगों ने इस कार्य / पद के लिये आवेदन पत्र दिये सो, राज शाही के प्रशासकों द्वारा सत्रह हज़ार किन्नरों के आवेदन पत्र ठुकराए गये । बाद में पन्द्रह सौ किन्नरों को अतिरिक्त मौका दिया गया लेकिन इससे समस्या का समाधान संभव नहीं हो सका । हजारों किन्नर फिर भी निराश बने रहे । राज महल द्वारा नियुक्त किये गये किन्नरों के अतिरिक्त जितने भी किन्नर बेरोजगार रह गये थे, उन्होंने कालांतर में, साम्राज्य के सामने अनेकों समस्याएं खड़ी कर दीं, क्योंकि वे केवल पुरुषों के तौर पर रोजगार पाने की स्थिति में नहीं रह गये थे इसलिए उनके समक्ष एक ही विकल्प शेष रह गया था कि वे आपराधिक दुनिया में प्रवेश कर जायें । अंतत यही हुआ भी, तब साम्राज्य में चोरी / डकैती की घटनाओं में अप्रत्याशित बढोत्तरी देखी गई । उन दिनों रोजगार और समृद्धि की अपेक्षा में स्वेच्छा से किन्नर बने लोगों की बाढ़ सी आ गई थी।  चूंकि साम्राज्य के पास इन सभी किन्नरों के लिये पर्याप्त काम नहीं था । तो बेरोजगार रह गये किन्नरों से अराजक हो जाने के अलावा अन्य कोई अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है ? वास्तव में राजतान्त्रिक समाज में संसाधनों के चुनिन्दा हाथों में केंद्रित हो जाने के बाद, बहुसंख्य लोगों के हिस्से में आई निर्धनता से, किन्हीं सुखद सकारात्मक परिणामों की अपेक्षा को कोरी मूर्खता ही माना जाएगा ।  यह सामाजिक आर्थिक विषमता जनित समाज में हुए अपराधीकरण का ज्वलंत उदाहरण है । इसे वैषम्य के अपराध से उद्भूत अपराधीकरण माना जाना चाहिए । वैषम्य जिसने अनेकों निर्धन पुरुषों को न्यूनतम आय / धनार्जन की लालसा  ने अपना पौरुष खोने के लिये प्रेरित किया / कदाचित बाध्य किया । यह निर्धनता / आर्थिक गैर बराबरी का क्रूरतम पक्ष था कि, जीवन अवसरों की गारंटी के लिये मनुष्य अपनी मूल प्रवृत्ति / यौन सुखों का स्वैच्छिक परित्याग कर दे और उसे हासिल आये शून्य ।

मिंग का राजप्रासाद बहुत विशाल था था सो उसकी देख रेख के लिये किन्नरों को 12 जियान, 4 सी, 8 जू,  24 यामेन में बांट दिया गया था । कुछ प्रमुख जियानों के नाम और काम, क्रमशः इस तरह से थे । नेई गुआन जियान, राज प्रासाद में निर्माण कार्य, यू योंग जियान, सम्राट की आवश्यकताओं से सम्बंधित प्रबंध, सी शोऊ जियान, सम्राट की अनुष्ठानिक आवश्यकताओं से सम्बंधित कार्य, यू-मा जियान, हाथियों और घोड़ों की देखभाल, शेन-गोंग जियान, कब्रों की सफाई और वहाँ प्रकाश व्यवस्था का कार्य (किन्तु ये लोग कुत्ते नहीं पाल सकते थे वर्ना दण्डित किये जाते), शेंग-शान जियान, शाही भोज और दावतों का प्रबंधन करते, शेंग-यी जियान, सम्राट के कपड़ों, जूतों और औपचारिक वस्त्रों का प्रबंधन, दोउ-झी जियान, पुलिस का कार्य तथा शाही जुलूस का स्वच्छ पथ प्रबंधन, करना था । इसके अतिरिक्त अन्य जियान, समस्त जियानों के किन्नर मुखिया तेई जियान के निर्देशानुसार कार्य करते, स्मरण रहे कि तेई जियान का पद राजशाही के सर्वोच्च पदों में से एक था ।  4 सी क्रमशः जी-जिन सी, झोंग-गू सी, बाओ-मियाओ सी और हुन-देंग सी के नाम से जाने जाते थे । ये लोग, उन्हें सौंपे गये विविध कार्य करते यथा लकड़ियों का प्रबंधन, संतरी का कार्य आदि । इसी तरह से 8 जू विभाग के किन्नर युद्ध के लिये हथियार , गन पाउडर बनाते और शाही कारागार की सुरक्षा का प्रबंधन करते । यामे विभाग के किन्नरों का कोई निर्धारित कार्य नहीं था पर वे उच्चाधिकारियों द्वारा निर्दिष्ट कार्य किया करते । इसके अतिरिक्त किन साम्राज्य के भ्रष्ट किन्नर झाओ गाओ, हान साम्राज्य के मशहूर इतिहासकार किन्नर सीमां कियान, कागज के निर्मितिकर्ता किन्नर काई लुन, तेंग साम्राज्य के शक्तिशाली किन्नर गाओ लिशी, मिंग सम्राट झेंग हे के  विशिष्ट किन्नर सहायक, मशहूर समुद्र यात्री झेंग हे, आदि किन्नर अपनी उपलब्धियों अथवा दुष्कृत्यों के लिये चीन के इतिहास के नामचीन किन्नर माने जायेंगे । 
...क्रमशः 

मंगलवार, 31 जुलाई 2018

किन्नर -36-11

गतांक से आगे...


वैश्विक इतिहास में चीन को मानव सभ्यता के बड़े केन्द्र के रूप में स्वीकार किया गया है ।  यहां किन्नरों की उपस्थिति विश्व के अनेकों देशों की तुलना में अधिक रही है, लेकिन चीन में किन्नरों की संख्या के आधिक्य का एक कारण यह भी है कि यह देश अन्य पड़ोसियों की तुलना में शक्तिशाली था और अपेक्षाकृत निर्बल पड़ोसी देशों की जनसँख्या में से, उन लोगों को स्वीकार करने में रूचि रखता था जिनका कि बंध्याकरण कर दिया गया हो । हमें चीन के इतिहास में ई.पू. आठवी शताब्दी के आस पास, किन्नरों का उल्लेख मिलता है । कहते हैं कि जब झोउ साम्राज्य (1045 -256 ई.पू.) ने पूर्वी क्षेत्र में सीमा का विस्तार किया था, तब झोउ सम्राट के पास अनेकों किन्नर सेवक मौजूद थे । इसके अतिरिक्त एक अस्पष्ट विचार / संभावना यह भी है कि शेंग साम्राज्य (1600-1046 ई.पू.) के समय में भी किन्नर अस्तित्वमान थे । इसके पश्चात सामान्य काल 1611-1911 के किंग साम्राज्य, 1368-1662 के मिंग साम्राज्य, में किन्नरों की उपलब्धता के बयान मिलते हैं । जैसा कि हम पहले ही उल्लेख कर चुके हैं कि चीनी राजवंशों ने पड़ोसी देशों के किशोर किन्नरों को बतौर नजराना स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया था सो चीन की अपनी जनसँख्या के बंध्याकृत होने / बनाए जाने की संभावनाएं, तुलनात्मक रूप से न्यूनतम हो गईं थीं ।  इस कहन का मंतव्य ये है कि चीन की देशज जनसँख्या के मुकाबिले में, पड़ोसी देशों से, कर बतौर प्राप्त किन्नर तथा पराजित सैनिकों के रूप में उपलब्ध किन्नर चीन की किन्नर संख्या का बड़ा हिस्सा बन गये थे । चूंकि उन दिनों सर्जरी की तकनीक पिछड़ी हुई थी सो बंध्याकृत किये जाने वाले लोगों में से अनेकों लोगों की मृत्यु भी हो जाया करती थी ।  तब बंध्याकृत किये जाने वाले व्यक्ति को पीठ के बल लिटा दिया जाता और सर्जरी के प्रशिक्षुगण, उस व्यक्ति के हाथ पैर कस कर पकड़ लेते और मुख्य आपरेशन-कर्ता चाकू लेकर तैयार हो जाता  इसके बाद, सम्बंधित व्यक्ति से यह पूछा जाता था कि वो बंध्याकरण के लिये तैयार है अथवा नहीं ।  यदि सम्बंधित व्यक्ति झिझकता और उत्तर देने में थोड़ी भी देर करता तो बंध्याकरण की प्रक्रिया तत्काल स्थगित कर दी जाती और यह मान लिया जाता कि सम्बंधित व्यक्ति नर्वस है ।


इसके बरक्स यदि सम्बंधित व्यक्ति बंध्याकृत होने के लिये अपनी सहमति दे देता तो फिर चाकू अथवा हंसिये की सहायता से उसका लिंग अथवा लिंग के साथ अंडकोष भी एक झटके से काट दिये जाते ।  तत्पश्चात बंध्याकृत व्यक्ति के मूत्राशय में लकड़ी के कीलें डाल दी जातीं और शल्य क्रिया वाले स्थान को ठंडे पानी में डूबे हुए सोखता कागज से ढांक दिया जाता ।  सर्जरी के प्रशिक्षु गण बंध्याकृत व्यक्ति की बांहे पकड़ कर दो तीन घंटे तक पैदल चलाया करते ।  बंध्याकृत व्यक्ति अगले तीन दिनों पानी नहीं पी सकता था क्योंकि पानी पीने के बाद उसे पेशाब करने की आवश्यकता पड़ सकती थी, जोकि उसके लिये उचित नहीं था। तीन दिनों के बाद बंध्याकृत व्यक्ति अपने मूत्राशय से लकड़ी की कीलें निकाल सकता था । यह माना जाता है कि कीलें हटाने के बाद यदि बंध्याकृत व्यक्ति ठीक से पेशाब कर पाता तो उसे स्वस्थ मान लिया जाता अन्यथा उसकी मृत्यु को निश्चित समझा जाता हालांकि युद्ध बंदियों के साथ बंध्याकरण से पूर्व पूछ ताछ की आवश्यकता नहीं समझी जाती  थी । युद्ध बंदियों के अतिरिक्त  दोष सिद्ध अपराधियों को भी बंध्याकृत कर दिया जाता था । हम जानते हैं कि बंध्याकरण चीन के प्रमुख पांच दण्डों में से एक था।  अपराधियों के अतिरिक्त उन लोगों को भी बंध्याकृत कर दिया जाता था जिन्हें सम्राट समलैंगिक संबंधों के लिये चुन लेता था । सामान्यतः इन चयनित लोगों में सुंदर पुरुषों और सुंदर किशोरों की संख्या अधिक हुआ करती थी । सुई साम्राज्य (581-618) के समय में बंध्याकरण को दंड की परिधि से बाहर कर दिया गया था । दुनिया में शायद ही ऐसा कोई मनुष्य हो जो बंध्याकरण की क्रूरता / बर्बरता को देख / जानकर व्यथित ना हो । चीनी इतिहास में (770-403ई.पू.) के वसंत काल में हुआंगओंग नाम के व्यक्ति का उल्लेख मिलता है, जोकि स्वेच्छा से बंध्याकरण के लिये तैयार हो गया था । इसके बाद तेंग साम्राज्य (सामान्य काल 618-1279) और सुंग साम्राज्य  (960-1279) के समय में अनेकों ऐसे व्यक्तियों के हवाले मिलते हैं जोकि स्वेच्छा से किन्नर बनने  के लिये सहमत हो गये थे ।  संभव है कि इसकी पृष्ठभूमि में किन्नरों को मिलने वाली उच्च पद स्थितियों तथा सम्राट की निकटता  हासिल करने जैसे कारक तत्व भी उत्तरदायी रहे हों। कथनाशय यह कि धन की प्राप्ति, समृद्धता पूर्ण  जीवन और प्रतिष्ठित लोगों का नैकट्य इसका कारण रहा हो ।
...क्रमशः 

सोमवार, 30 जुलाई 2018

किन्नर -36-10

गतांक से आगे...

किन्नरों के लिये रसोई प्रबंधन से हटकर एक अन्य भूमिका भी निर्धारित थी, जियोनमियुंग यानि कि शाही पत्राचार / डाक विभाग का प्रबंधन करना । यहां तक कि हरकारे / डाकिये का कार्य करना भी । सामान्यतः शाही महत्व की और गोपनीय चिट्ठियों के प्रसरण / वितरण का कार्य सियोंगजुनवान नामित विभाग करता था जिसमें किन्नरों की भूमिका नगण्य होती थी किन्तु सम्राट अक्सर अपने विश्वस्त और मुंह लगे किन्नरों को यह कार्य भी करने देते थे जिसका विरोध, नागरिक प्रशासन के सामान्य अधिकारीगण, सम्राटों से अक्सर किया करते, उनका मानना था कि किन्नरों को सामान्य डाक विभाग के अतिरिक्त महत्वपूर्ण शाही पत्राचार से पृथक रखा जाना चाहिए । वे यह भी मानते थे कि किन्नर लोग संदेशों को विरूपित कर सकते हैं जिसके कारण से राज शाही को समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है । बहरहाल तमाम विरोधों और समस्याओं के बावजूद किन्नर गण, राज शाही द्वारा सौंपे गये दायित्वों के  निर्वहन में लगे रहते यथा सुमुन नामित किन्नर शाही भवनों की सुरक्षा का कार्य देखा करते यानि कि वे गार्ड / पहरेदार की ड्यूटी के लिये तैनात किये जाते थे । सुरक्षा में कोताही दंड का करना बन सकती थी सो यह कार्य उन्हें सावधानी पूर्वक करना पड़ता था । सुमुन के बरक्स, सोजेई नामित किन्नर साफ़ सफाई और भारी भरकम सामानों की शिफ्टिंग का कार्य करने के लिये तैनात किये जाते थे । कोरियाई किन्नरों के अध्ययन के दौरान एक दिलचस्प तथ्य सामने आता है, वो ये कि 35 की आयु पूर्ण हो जाने पर किन्नरों को चार टेस्ट / परीक्षाएं उत्तीर्ण करना पड़तीं थीं, एक तोंग, दूसरा येक, तीसरा जोई और चौथा बुल तोंग । विविध विषयों से सम्बंधित ये परीक्षाएं बेहद कठिन हुआ करतीं थी और इनमें उतीर्ण किन्नर को बुद्धिमान मानते हुए पदोन्नतियों के मौके दिये जाते थे । गौर तलब है कि परीक्षण की इस कोरियाई पद्यति का माडल चीन में पहले से ही मौजूद था किन्तु उस माडल को ज्यादा सफलता नहीं मिली थी । प्रतीत होता है कि परीक्षण की इस व्यवस्था का उददेश्य, किन्नरों को पदोन्नति / उन्नयन के लिये प्रेरित करने के अतिरिक्त,गलतियों को सुधारने और पुनः सीख लेने के अवसर उपलब्ध कराना रहा होगा । 

चीन में किन्नरों के लिये शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में लागू नहीं था  । ऐसा लगता है कि पढ़े लिखे किन्नरों द्वारा अपनी बौद्धिकता का इस्तेमाल, राज्य के विरुद्ध करने अथवा अन्य सामान्य नागरिक अधिकारियों के विरुद्ध करने या फिर संदेशों को विरूपित करने से, जो संकट उत्पन्न हो सकता था, उसे टालने के लिये चीनी सम्राटों ने किन्नरों को निरक्षर बनाए रखने की योजना बनाई होगी और इसीलिए उनसे शिक्षा का अधिकार छीन लिया गया होगा । हालांकि कोरियाई जोसियोन ने किन्नर शिक्षा के लिये स्कूल स्थापित नहीं किये किन्तु कोरियाई नागरिक अधिकारी किन्नरों को नियमित रूप से पढ़ाया करते थे। यहां पर किन्नर विशेष रूप से स्थानीय प्रशासन का अध्ययन करते और उन्हें कन्फ्यूसियस के शास्त्रीय सिद्धांतों के बारे में भी समझाया जाता था । यह सब उन्हें 35 वर्ष की आयु से पूर्व सीख लेने के आदेश प्रचलित थे । उन दिनों सामान्य किन्नरों को ठहरने की जगह और प्रतिदिन तीन समय के भोजन के अतिरिक्त अन्य कोई भुगतान नहीं दिया जाता था । सो इन किन्नरों की आर्थिक स्थिति निम्न सामाजिक स्तर की मानी जायेगी जबकि उच्च पदों पर जा पहुंचे किन्नरों को मासिक वेतन और कुछ भूमि का स्वामित्व भी दिया जाता था । हालांकि किन्नर की मृत्यु के उपरान्त यह भूमि पुनः राज्य के अधिकार में वापस चली जाती थी । बहरहाल कुछ किन्नर व्यवस्थागत खामियों के चलते अपने रिश्तेदारों के नाम भूमि उपलब्ध करा देते जिसके कारण से साम्राज्य में अवैध उत्तराधिकार की समस्या भी परिलक्षित होने लगी थी । मोटे तौर पर यह स्पष्ट है कि स्वयं किन्नरों में आर्थिक विभेद गहरा गया था ।  एक ओर थे विपन्न किन्नर तथा दूसरी ओर उच्च पदों पर जा पहुंचे अर्थ समृद्ध किन्नर । किन्नरों के विवाह, यदि राजाज्ञा / अनुमति से हो पाते तो बच्चे पैदा होने की सम्भावनायें शून्य होने के कारण उन्हें बच्चे गोद लेने की आवश्यकता पड़ती थी । समझा जा सकता है कि इस तरह के परिवार में पत्नि के यौन तोष का प्रश्न ही नहीं था और बच्चे भी किसी अन्य जैविक पिता के होते इसलिए समूहगत निवास के अतिरिक्त इसे परिवार की किसी सामान्य श्रेणी में स्वीकार करना उचित प्रतीत नहीं होता । 
...क्रमशः 

रविवार, 29 जुलाई 2018

किन्नर -36-9

गतांक से आगे...

इसके दूसरी तरफ वे किन्नर थे जिन्होंने कोरियाई गोरियो की अस्मिता बनाये रखने में सहायता की, भले ही वे स्वयं नजराने के तौर पर युआन सम्राट को सौंपे गये लोग थे । दरअसल युआन सम्राट कोरियाई गोरियो की पहचान मिटाना चाहता था और गोरियो क्षेत्र को युआन साम्राज्य में शामिल करना चाहता था जिससे कि गोरियो की स्वतंत्रता समाप्त हो जाती  । ऐसे समय में युआन दरबार में मौजूद कोरियाई मूल के कुछ किन्नरों ने युआन सम्राट की इस योजना का विरोध किया । इसमें से किन्नर बेंग शिनवू का नाम सबसे प्रमुख है यद्यपि वो स्वयं भी युआन सम्राट को नजराने में प्राप्त हुआ था । इस कथन का मंतव्य यह है कि युआन सम्राट की जिस योजना को गोरियो अधिकारी नहीं रोक पाए उसे कोरियाई मूल के किन्नर बेंग शिनबू जैसे लोगों ने ध्वस्त कर दिया । युआन सम्राट को गोरियो के आधिपत्य ग्रहण की योजना को स्थगित करना पड़ा । बहरहाल इस प्रकरण के बाद सम्राट के दरबार और कोरियाई गोरियो प्रशासन में किन्नरों की भूमिकाओं में कई नकारात्मक और सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिले । युआन साम्राज्य के पतन के बाद भ्रष्ट किन्नरों को नागरिक अधिकारियों ने हाशिए पर डालना प्राम्भ कर दिया खासकर नये सम्राट यू (1374-1388) किन्नरों के लिये निर्धारित विभाग ही समाप्त कर दिया गया जिसके कारण से किन्नरों की भूमिका और प्रतिष्ठा में अप्रत्याशित परिवर्तन देखने को मिले । गौर तलब है कि अवनति के इस समय में गोरियो प्रशासन भी किन्नरों की कोई सहायता नहीं कर पाया । सम्राट गोंगमिन (1351-1374) से पहले गोरियो प्रशासन किन्नरों के लिये सैम जुन नाम का विभाग चलाता था जिसके तीन उप विभाग भी होते थे एक दाई जुन यानि कि महा-कक्ष / दरबार हाल , दूसरा नाई जुन अर्थात आंतरिक गोपनीय शाही कक्ष  और तीसरा ते हु जुन जो कि रानी का आवास परिसर हुआ करता था  । कोरियाई उद्धरण के इतर चीन में किन्नरों के विभाग को नेईशिफु के नाम से जाना जाता था और इस विभाग में तैनात किन्नरों पर सम्राट गण अत्यधिक विश्वास करते थे। उल्लेखनीय है कि इस विभाग में जन्मना और बलपूर्वक बनाये गये किन्नरों की तैनाती में कोई भेदभाव नहीं था । एशिया के अधिकाँश देश किन्नरों को लेकर चीनी माडल का अनुसरण करते थे  । 

गोरियो प्रशासन के क्षय के समय में किन्नरों का महत्व घटने लगा था किन्तु सम्राट तेइ जो (1392-1398) राज शाही में किन्नरीय विभाग को बंद नहीं होने दिया । उसे लगता था कि किन्नर भिन्न कारणों से राज शाही के लिये उपयोगी हैं । मसलन विविध कार्यों के अतिरिक्त, शाही परिवार की रानियों/ स्त्रियों के लिये विश्वस्त सेवकों के तौर पर किन्नरों की आवश्यकता उसे महसूस होती थी। कई प्रकरणों में सम्राट की निज सुरक्षा और शाही भोजन के पूर्व परीक्षण / चखने के लिये किन्नरों की तैनाती के उद्धरण रोमन किन्नरों की भूमिका से साम्य रखते हैं । शाही भोजन का प्रबंधन यानि कि रसोई की व्यवस्था, जिसमें भोजन तैयार करना और मेन्यू का चयन भी किन्नरों के हाथ में होता था । शाही रसोइये किन्नरों की निगरानी में ही सारे कार्य किया करते । कहते हैं कि एक बार सम्राट को फ़ूड पाइजनिंग हो गई थी सो उसकी सजा सम्बंधित किन्नरों को दी गई । किन्नर जुंग दुक क्युंग को 60 बेंतों की सजा के साथ ही जेल में भेज दिया गया था क्योंकि उसने सम्राट के भोजन को पहले नहीं चखा था । रसोई के प्रबंधन से सम्बंधित किन्नरों को सुल्ली कहा जाता था । उल्लेख मिलता है कि सम्राट यियोंसांगून (1494-1506) को हिरणों की दुम और जीभ खाने का शौक था किन्तु यह सामग्री बाजार में सर्वसुलभ नहीं होती थी  । अतः बेचारे सुल्ली पूरे देश के जंगलों में इसका जुगाड़ करने के लिये मारे मारे फिरते थे । समस्या यह थी कि उन दिनों, इस तरह के खाद्य पदार्थों को संरक्षित करने की तकनीक उपलब्ध नहीं थी तो मांस, मछलियों और अन्यान्य समुद्री खाद्य पदार्थों के ताजेपन को बनाये रखना दूभर था । उस पर तुर्रा ये कि सम्राट को यही भोजन प्रिय था...इसके अतिरिक्त प्रति दिन ताजे खाद्य पदार्थों की मांग अलग से, सो किन्नरों के लिये यह व्यवस्था बनाये रखना कठिनतम होता जा रहा था । अक्सर ऐसा भी होता कि शाही भोज / उत्सवों के लिये भी ताजे मांस / अन्य पदार्थों की व्यवस्था भी किन्नरों को ही करना । अतः शाही भोजन का प्रबंधन तलवार की नंगी धार पर चलने जैसा कार्य था जिसमें दण्डित होने / सम्राट का कोप भाजन होने की संभावनाएं बनी ही रहती थीं ।
...क्रमशः 

शनिवार, 28 जुलाई 2018

किन्नर -36-8

गतांक से आगे...

इसी तरह से सामान्य काल 826 से 836 के दौरान सम्राट हियेंगडियोक का इतिहास बांचते समय दिलचस्प जानकारी मिलती है की सम्राट सामान्य लोगों की तुलना में किन्नरों पर अधिक भरोसा करता था । हालांकि कोरिया में किन्नरों के बंध्याकरण के तौर तरीकों, उपकरणों की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलते पर जोसियोन राजवंश के काल खंड में किन्नर बनने के लिये श्वानों / कुत्तों को उत्तरदाई बताया गया है यानि कि वे ही लोग किन्नर बनते थे जिनके लिंग कुत्तों द्वारा काटे गये हों । इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि कोरिया में किन्नर बनाये जाने की व्यवस्थित प्रणाली का अभाव रहा होगा और अनायास ही कुत्तों द्वारा लिंग पर काट लिये जाने के कारण, प्रभावित सामान्य लोग किन्नर बना दिये जाते होंगे । कथनाशय यह कि कोरिया में किन्नरों का वज़ूद कुत्तों द्वारा काटे जाने की आकस्मिकता पर निर्भर था । तो  क्या हम यह मान लें कि कुत्तों से पीड़ित लोग, किन्नर बनाये जाकर, प्रबल पड़ोसी को बतौर नजराने सौंपे जाते थे ? क्या यह पीड़ित व्यक्ति को अनुपयोगी मानने के उपरान्त, शक्तिशाली किन्तु शत्रुवत पड़ोसी को घृणा वश  सौंपा गया उपहार होता था ? क्या यह कृत्य उपहार देने के लिये बाध्य, कोरियाई विवशता में कोरियाई द्वेष की अभिव्यक्ति था ? या फिर किन्नर बनाये गये बच्चों के परिजनों के समक्ष परोसी गई कोई झूठी आश्वस्ति / दिलासा था कि उनके बच्चे कुत्तों द्वारा काटे जाने से, सामान्य जीवन व्यतीत करने योग्य नहीं रह गये हैं सो उन, विषाक्त का, शत्रुता पूर्ण इस्तेमाल किया जाना चाहिए ? बहरहाल हमें यह एक भ्रम लगता है कि निर्बल पड़ोसी अपने सबल पड़ोसी के साथ कोई छल कर पाए । इस लिये हमें लगता है कि किन्नर बनाये गये बच्चों के प्रति सामंती अपराध बोध के चलते, किन्नर बनाये गये बच्चों के प्रतिरोध को हाशिए पर डालने के लिये, इस तरह की श्वान कथाएं प्रसरित की गई होंगी । अभिजात्यता और सामंतवाद को संरक्षित रखने के लिये, बच्चों के प्रति किये गये दुर्भावना पूर्ण / आपराधिक कृत्य को न्यायोचित ठहराने के लिये, स्थानीय कोरियाई क्षत्रपों को मानवीयता का कसाई माना जा सकता है जोकि अपनी सत्ता और सम्मान के लिये किसी भी सीमा तक जा सकते थे । गिर सकते थे । 

चीन और अन्य देशों की तरह से कोरिया में भी जन्मना किन्नरों / नपुंसकों का विचार मौजूद है । यानि कि जन्मना /  बलपूर्वक और आकस्मिक कारणों से बन गये किन्नरों की श्रेणियाँ अन्य देशों की तरह से कोरिया में भी मौजूद हैं । सम्राट वोंजोंग के सत्ता में आने से पहले मंगोलियाई हस्तक्षेप के कारण से किन्नरों के महत्व में कमी आती गई, तब साम्राज्य का सर्वोच्च आधिकारिक पद, पुम, होता था, लेकिन किन्नर केवल सातवें दर्जे के पदों तक पहुंच पाते थे । जब सम्राट वोंजोंग ने सत्ता सम्हाली तब उसने किन्नरों को नागरिक अधिकारियों के साथ चर्चा / तर्क वितर्क का अधिकार दिया और किन्नरों को सातवे स्तर के पदों तक सीमित रखने के नियम को हटा दिया, जिसके परिणाम स्वरुप  किन्नर भी सर्वोच्च पद, पुम तक उन्नति करने के हक़दार हो गये । उन दिनों किन्नरों को सामान्य नागरिक अधिकारियों के दायित्व सौंपे जाने के अतिरिक्त उन्हें विशेष दायित्व भी दिये जाने लगे मसलन युआन साम्राज्य के साथ राजनय का अधिकार भी किन्नरों को मिल गया । यह समय किन्नरों के लिये महत्वपूर्ण था । इससे पहले किन्नरों के साथ जो भेद भाव होता था वो धीरे धीरे तिरोहित होने लगा । यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि, जब गोरियो, मंगोलियाई शासकों को नजराना/ कर / उपहार चुकाने के लिये बाध्य हो गये तब किन्नर ही उपहार बन गये थे । इसी तरह से चीन के सम्राट को भेजे गये नजराने वाले किन्नरों से चीनी सम्राट का सम्बन्ध अक्सर राजनय की प्रकृति का हो जाया करता, तब चीनी सम्राट अथवा उनके उच्चाधिकारी गण, कोरियाई मूल के किन्नरों से उन मुद्दों पर चर्चा करते जो कि दोनों देशों के मध्य बेहतर तालमेल का कारण बन सकते थे । कथनाशय यह है कि गोरियो जिन किन्नरों को चीनी शाही दरबार को नजराने में सौंपता वही किन्नर अंततः चीन और कोरिया के मध्य सेतु बन जाया करते । चीन जा बसे / बसाए गये, किन्नरों की इस भूमिका का परिणाम यह हुआ कि उनके कोरियाई परिजन, राज शाही की कृपा से समृद्ध होने लगे । यहां तक कि कतिपय किन्नर, इस स्थिति का फायदा उठा कर, अपने सगे सम्बन्धियों / परिजनों को, कोरियाई, शाही अधिकारियों पर दबाब डाल कर, उच्च पदों पर तैनात करवाने लगे थे । हालांकि कुछ समय बाद इस अनैतिक गतिविधि के कारण से, युआन को सौंपे गये किन्नरों से, कोरियाई लोग वितृष्णा करने लगे थे लेकिन युआन शक्तिमत्ता के कारण से वे इसे रोक भी नहीं सकते थे क्योंकि इन किन्नरों को युआन सम्राट का समर्थन प्राप्त हुआ करता था ।  
...क्रमशः 

शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

किन्नर -36 -7

गतांक से आगे...

परंपरागत कोरियाई समाज में, यह विश्वास किया जाता है कि गोरियो (1392) राजवंश के समय में, नेजी कहे जाते थे और जोसियोन साम्राज्य में उनके लिये नेजी विभाग बनाया गया था जहां सेंग्जियान उच्च स्तरीय किन्नर अधिकारी होते तथा नेग्वान सामान्य दर्जे के किन्नर कर्मचारी हुआ करते थे। इतना ही नहीं कोरिया में पहरेदारी / गार्ड का काम करने वाले किन्नरों को सुमुन तथा महलों / घरों की सफाई करने वाले किन्नरों को सोजेई कहा जाता था।युआन राजवंश के समय में किन्नरों को उपहार बतौर सौंपे जाने का चलन बढ़ गया था तब कोरियाई सामंत / राजा, आक्रामक पड़ोसियों यानि कि मंगोलियाई सम्राट को नियमित रूप से मानव उपहार भेजा करते थे।चीन के युआन राजवंश को संतुष्ट करने के लिये कोरियाई क्षत्रप, सैकड़ों लड़कियों को बतौर उपहार भेजते थे । एन उसी समय सैकड़ों कोरियाई बालक / किशोर बंध्याकृत करने के उपरान्त उपहार की शक्ल में युआन सम्राट को सौंपे जाते थे।उल्लेखनीय है कि ये किन्नर किशोर, चीनी दरबार की सेवा में लगभग तीन वर्षों के नियमित अंतराल में पहुंचाए जाते थे। हम मान सकते हैं कि कोरिया के सामंत अपने समीपवर्ती देशों के मंगोलियाई और चीनी सम्राटों को नजराने के तौर पर लड़कियों और किशोर किन्नरों का तोहफा भेजा करते थे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इन लड़कियों और किशोर किन्नरों का उपयोग, विषम अथवा समलैंगिक / यौन लालसाओं की पूर्ति के लिये किया जाता था।इसके अतिरिक्त इनका स्वामित्व धारी दरबार इनसे जो चाहे काम ले सकता था।साधारण सैनिक बतौर, साधारण पहरेदार बतौर, साधारण दास बतौर सेवा करते हुए किन्नरों में से कई किन्नर अक्सर अपनी योग्यता के बल पर तथा कई, स्वामी की निकटता का लाभ उठाकर सामाजिक / आर्थिक / सैनिक संस्तरण की उच्च श्रेणियों में जा पहुँचते । किन्नरों को लेकर कोरियाई समाज यह विश्वास करता था कि इनकी औसत आयु 70 वर्ष से अधिक हो सकती है जबकि सामान्य पुरुष इनसे 14-15 वर्ष कम जीवन जी पाता है । 

अगर हम गौर करें तो पायेंगे कि दुनिया में किन्नरों की संख्या का सबसे बड़ा हिस्सा चीन में था, जहां किन्नरों के अस्तित्व और उनकी भूमिकाओं को चीनी सम्राटों से पृथक कर के समझना संभव नहीं हो सकता ।  सम्राटों के बदलने के काल खंड और उनके क्षेत्राधिकार में, किन्नरों की संख्या में, विविधता हो सकती है पर किन्नरों की अनुपस्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।   बस ऐसे ही, कोरिया ने भी किन्नरों की उपस्थिति के आंकड़ों की कल्पना की जा सकती है, क्योंकि उक्त दौर में प्रभुत्वशाली चीन की अपेक्षा, कोरिया की स्थिति प्रभाव ग्रहण करने वाले देश के जैसी थी । सो हम कह सकते हैं कि कोरिया में किन्नरों का अस्तित्व, चीन के पद चिन्हों पर चलने, चीनी ब्रांड की किन्नरीयत के अनुसर्ता होने पर आधारित रहा होगा । चूंकि चीन और मंगोलिया, कोरिया की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली थे तो, कमसिन युवतियों,  किशोर किन्नरों को नजराने / उपहार बतौर प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी भी कोरिया के हिस्से में आयी थी, इसलिए चीन और मंगोलिया की आबादी में, किन्नरों की उपलब्धता का आनुपातिक प्रतिशत भी कोरियाई मूल के किन्नरों पर निर्भर था । स्पष्ट कथन ये कि जेता क्षेत्र से बनाये गये  किन्नरों की तुलना में पराजित / निर्बल क्षेत्र के किन्नरों की संख्या का अधिक स्वभाविक ही था, अस्तु कोरियाई आबादी, चीन और मंगोलिया की तुलना में कहीं ज्यादा अभिशापित मानी जायेगी,जो उसे, दूसरे देशों को नजराने देने के लिये इस्तेमाल किया गया! वहाँ के अबोध बच्चे बलपूर्वक बंध्याकरण का शिकार हुए । उनका विषम लैंगिक / समलैंगिक यौन शोषण हुआ । उन पर अवांछित दासत्व थोपा गया । यद्यपि कोरिया में किन्नरों की मौजूदगी की कोई स्पष्ट तिथि नहीं है पर यह माना जाता है कि ई.पू. 57 से सामान्य काल 935 तक की अवधि में वहाँ पर किन्नरों का उद्भव हुआ होगा ।
...क्रमशः 

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

किन्नर -36-6

गतांक से आगे...

बंध्याकरण के बलात प्रकरणों के इतर अनेकों प्रकरण ऐसे भी मिलते हैं जहां स्वैच्छिक किन्नरत्व का, स्वीकरण / उद्धरण देखने को मिलता है  और इस तरह के प्रकरणों में वे सभी कारक मौजूद हो सकते हैं जोकि बलपूर्वक आरोपित किये गये किन्नरत्व के साथ जोड़ कर देखे गये हों यानि कि, स्वामी भक्ति, ईश्वरीयता, समलैंगिकता अथवा अन्यान्य महत्वाकांक्षाएं / आकांक्षाएं । बहरहाल बाध्यताकारी ढंग से किन्नर बनाये जाने या फिर स्वयमेव किन्नर बन जाने के परिणाम किन्नर बन चुके, व्यक्ति के आगत जीवन में स्पष्ट दिखाई देने चाहिए मसलन बाध्य किया गया बच्चा, प्रौढ़ होने पर, यौन वंचना की कुंठाएं, क्रूरता की शक्ल में प्रदर्शित कर करे या फिर उसकी उपलब्धियां किसी सामान्य मनुष्य की तुलना में सिर चढ़ कर बोलने लगें तो यह अंतर हमें स्पष्ट समझ में आ जाना चाहिए कि अमुक किन्नर के व्यक्तित्व पर किन्नरत्व का प्रभाव कितना सकारात्मक अथवा नकारात्मक है । हमारे कहने का आशय यह है कि किन्नर बनाए गये व्यक्ति और किन्नर बन गये व्यक्ति की अस्मिता के अंतर / पहचान के लक्षण आगत समय में अवश्य ही मुखरित होना चाहिए । महानायक हो जाने अथवा खलनायक बन जाने के सूत्र कारण, किन्नर बनाये जाने अथवा बन जाने की परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं । अच्छा या बुरा मनुष्य होने का प्रदर्शन उन हालातों से तय होगा जिन हालातों ने किन्नरत्व का सूत्रपात किया होगा / बीज बोया होगा । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि किन्नरों द्वारा किये गये भयावह नरसंहार, लूट खसोट, विश्वासघात के कारण निश्चित रूप से किन्नर बनाये जाने में किये गये बाध्यतामूलक तत्व पर निर्भर होंगे जबकि किन्नरों की सृजनात्मक उपलब्धियों के कारण इससे भिन्न हो सकते हैं । बहरहाल अपवाद हर एक स्थिति में होते हैं सो किन्नर व्यक्तित्व  के निर्धारक तत्वों  के अपवाद भी अवश्य पाए जायेंगे । 

उपरोक्त चर्चाओं से किन्नरों के प्रति कुछ धारणाएं बनती हैं, जिनमें से एक यह कि किन्नर, समलैंगिकता में रूचि रखने वाले तो हो भी सकते हैं पर विषम लिंगीयता के प्रति उनकी रूचि की संभावनाएं शून्य ही मानी जायेंगी । या फिर ये कि किन्नर किसी भी लिंग के प्रति यौनाकर्षण नहीं रखते । इसके अतिरिक्त यह कि जन्मजात, जननिक दोषों / देह विकृतियों के कारण से उनके द्वारा संतानोत्पत्ति संभव नहीं हो सकती । इसके साथ ही किन्नरों के विषय में यह विचार भी जन्म लेता है कि वे विवाह करने में सक्षम हो सकते हैं किन्तु ईश्वर को साधने के लिये, वे स्वैच्छिक रूप से विवाह से दूर बने रहते हैं या कि नपुंसक हो जाते हैं । बहरहाल इतिहास और धार्मिक ग्रंथों में किन्नरों की छवि समलैंगिक व्यक्ति का बोध कराती है जोकि शत प्रतिशत सत्य नहीं है । किन्नर सामान्यतः अपने मूल परिवार को, जहां कि उनका जन्म हुआ हो, छोड़ देते हैं और अपनी पुरुष पहचान का परित्याग करके स्त्रियोचित परिचय, वेशभूषा और नाम का उपयोग करने लगते हैं, किसी समय में उनके लिये, परिहासात्मक कथन किया जाता था कि बीमार होने के समय में चिकित्सकों के लिये ये तय करना मुश्किल हो जाता था कि, बीमार किन्नर को पुरुष वार्ड में भरती किया जाए या कि स्त्री वार्ड में । 
...क्रमशः 

बुधवार, 25 जुलाई 2018

किन्नर -36-5

गतांक से आगे...

नि:संदेह यह व्यापार अमानवीय था पर धन लोभी मनुष्य / व्यापारी क्या क्या कर सकता है, इसका ये सर्वाधिक महत्वपूर्ण उदाहरण है । इन मानव मंडियों में, सामान्यतः पराजित युद्ध क्षेत्रों के बच्चे, निर्धन परिवारों के बच्चे तथा वयस्क सैनिक, यदि वे स्व-पक्ष की पराजय के उपरान्त, बंदी बना लिये गये हों तो, विक्रय हेतु प्रस्तुत किये जाते और व्यापारी गण, उनमें अपने मुनाफे की संभावनाएं देख कर दांव लगाते । अक्सर इन क्रीत दासों को प्रथम विक्रय के समय ही बंध्याकृत कर दिया जाता था, इसका अर्थ ये हुआ कि ज्यादातर बचपन, क्रय विक्रय की प्रथम पायदान पर ही पौरुष हीन कर दिया जाता । यह एक तरह से उन बच्चों  के आगत यौन जीवन / यौनाचार पर प्रतिबन्ध लगाये जाने की तरह था । इस व्यापारिक दंड प्रक्रिया में बच्चों की इच्छा, अनिच्छा का कोई मोल नहीं था । इसी तरह से पराजित युद्ध बंदी सैनिकों के किन्नर बनाए जाने की पीड़ा सहज ही समझी जा सकती है । हालांकि हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि किन्नर बनाए जाने की प्रक्रिया के पीछे, धार्मिक अथवा यौन संभावनाओं जैसे कारण भी हो सकते हैं। धार्मिक इसलिए कि विषय वासनाओं / यौन लालसाओं से मुक्त हुआ अथवा मुक्त कर दिया गया व्यक्ति ईश्वरीय, विधि विधानों के निष्पादन के लिये सर्वथा उपयुक्त माना जाएगा, क्योंकि उसके पास स्वयं की सांसारिक अभिलाषाओं की कोई सूची मौजूद नहीं होती और वह ईश्वर के लिये समर्पित भाव से कार्य कर सकता है, यानि कि छीन ली गई सांसारिकता के बदले कथित पारलौकिकता की सच्ची सेवा के भ्रम । बहरहाल किन्नर बनाए जाने की पृष्ठभूमि में यौन संभावनाओं की चर्चा नहीं करना अनुचित होगा । हम यह मानते हैं कि पुरुष, केवल भिन्न लिंगीय सहवास से संतुष्ट होने वाला प्राणी नहीं है सो उसकी समलैंगिक यौन कामनाओं की तुष्टि के लिये, उसे किसी ना किसी रूप में किन्नर सहचर की आवश्यकता हो सकती है । इसका एक अर्थ ये हुआ कि समलैंगिकता का तोष किन्नर बनाये जाने की घटनाओं का एक महती कारक हो सकता है । हमारे इस अभिमत की पुष्टि इस तथ्य से हो जाती है कि ज्यादातर मानव व्यापारी, मानव मंडियों से खूबसूरत बच्चों तथा पुरुषों के क्रय को प्राथमिकता दिया करते थे ।

जिन प्रकरणों में धार्मिकता अथवा समलैंगिकता, बंध्याकरण का कारक नहीं होती होगी, वहाँ तत्कालीन कृषक और पशुपालक अर्थव्यवस्था में सहायता के लिये दासों की आवश्यकता एक कारण हो सकती है । इसके अतिरिक्त सैन्यबलों में संख्या वृद्धि को भी इसका कारण माना जा सकता है क्यों सैन्य बलों के स्वामी, सम्राट / सामंत / सेनानायक किन्नर दासों के क्रय विक्रय के सिलसिले पर पूर्ण विराम लगा देते थे तो अपमानजनक प्रक्रिया से छुटकारा दिलवाने वाले अंतिम स्वामी के प्रति विश्वसनीय स्वामीभक्ति की संभावनाएं बढ़ जाती होंगी । कदाचित इसीलिए हमने अपने अध्ययन के दौरान, अनेकों किन्नरों को साधारण सैनिक से सेना नायक / महा नायक बनते देखा है । किन्नर होने के नाते यौन अभिलाषाओं से मुक्त व्यक्ति, सम्राटों / शाहों / सामंतों की पत्नियों, उप पत्नियों, यौन दासियों आदि से लदे फंदे रनिवासों / हरमों में सुरक्षा के लिये सर्वाधिक उपयोगी माना गया होगा क्योंकि विशुद्ध पुरुष रक्षक से यौन विश्वासघात के खतरे और महिला रक्षकों से षड्यंत्रकारिता जैसी खतरे उठाने की बजाये रनिवासों के स्वामियों को किन्नरों की सेवायें ज्यादा निरापद लगती होंगी सो हम रनिवासों की पहरेदारियों वाले कारक तत्व को, बंध्याकरण के प्रमुख कारणों में से एक मान सकते हैं । ऐतिहासिक विवरण किन्नरों के प्रति हमारी इस समझ को जायज़ भी ठहराते हैं । किन्नर बनाये जाने के कुछ प्रकरण भारतीय जाट बहुल क्षेत्रों की खाप पंचायतों से प्रेरित, प्रकरणों जैसे हो सकते हैं यानि कि प्रेम प्रसंगों में शिश्न मुक्त अथवा अंडकोष कुचल देने जैसे दंड । हालांकि इन प्रकरणों में जाति पंचायतों के नाम / कुल नाम, विश्व परिदृश्य में देशों की आंचलिक विशिष्टताओं के अनुरूप हो सकते हैं किन्तु किन्नरों के सम्बन्ध में प्रेम के दंड भुगतने जैसी आयाम भी जोड़े जा सकते हैं ।
...क्रमशः 

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

किन्नर -36-4

गतांक से आगे...

ओट्टोमन साम्राज्य में किन्नर, विजित क्षेत्रों से लाये जाते थे यहां पुरुष वर्गीय दासों में अधिकाँश लोग किन्नर हुआ करते थे । सामान्यतः उन लोगों को शाही दरबार में अधिकारी तथा शाही हरम की पहरेदारी के कार्य के लिये नियुक्त किया जाता था । सामान्य काल 1465-1853 तथा 1853-1909 में  ओट्टोमन साम्राज्य के शाही महल किन्नरों के प्रशासनाधीन थे । इन किन्नरों में, अफ्रीकी मूल के कृष्ण वर्णी किन्नर तथा अन्य देशों से लाये गये श्वेत वर्णी किन्नर बराबर से सम्मिलित थे । जहां कृष्ण वर्णी किन्नर शाही हरम की निम्न श्रेणी, (जहां शाहों की रखैलें / वेश्यायें / अन्य दोयम दर्जा मानी गई स्त्रियाँ रहती थीं) की देखभाल / सेवा करते जबकि श्वेत वर्णी किन्नरों को शाही शिक्षण संस्थाओं / स्कूलों में तैनात किया जाता था । श्वेतवर्णी किन्नर प्रमुख रूप से यूरोप के बाल्कन या कास्कस क्षेत्रों से लाये गये ईसाई हुआ करते जोकि, जिजिया कर / नजराने के तौर पर स्वीकार किये गये लोग होते थे, यानि कि वे लोग जो नकद नजराना नहीं दे पाते, बंध्याकृत होकर कीमत चुकाते  । ओट्टोमन साम्राज्य के शाही हरम प्रशासन और गुप्तचर तंत्र का मुखिया एक कृष्ण वर्णी किन्नर था । जिसका नाम किजलर अगासी था ।  इतना ही नहीं किजलर अगासी, सल्तनत की हरेक गतिविधि, शाही दरबार की कार्य प्रणाली, मंत्रियों और अधिकारियों से सम्बंधित मुद्दों में सम्मिलित हुआ करता था । सामान्य काल 1730 में बशीर आगा नामित किन्नर बहुत मशहूर हुआ था जिसे हनफी इस्लाम के ओट्टोमन संस्करण तथा शाही पुस्तकालय / स्कूलों की स्थापना / संरक्षण, संवर्धन का श्रेय प्राप्त है । 

किन्नरों की वैश्विक उपस्थिति को स्थानीयताओं / आंचलिक विशिष्टताओं के मद्देनजर देखने के बावजूद, हम पाते हैं कि वे सभी विविध देशज संबोधन के दायरे से बाहर लगभग एक जैसे कारणों से किन्नर बनाए गये थे या बने थे । जैसा कि हमने पिछली चर्चा में यह स्पष्ट किया है कि शारीरिकता की जन्मजात परिस्थितियों से निर्धारित हो चुके किन्नरों के अतिरिक्त बलपूर्वक बनाए गये किन्नरों की अंतर्धारा भी समानांतर रूप से बहती रही है । यानि कि जो लोग जन्मना पौरुष हीन नहीं थे, उन्हें किन्नर बनाये जाने के कारणों का समावलोकन भी हमें करना होगा । हमें यह समझ लेना चाहिए कि अतीत कालीन राजनैतिक व्यवस्थाएं विशुद्ध रूप से राजतान्त्रिक / सामंत वादी व्यवस्थाएं थीं, जहां कुलीनों को अपनी सत्तागत कुलीनता को यथावत बनाए रखने के लिये निर्विवाद संख्याबल वांछित था सो वे धार्मिक जातिगत स्रोतों से इस संख्याबल को जुटाने के अतिरिक्त बंध्याकरण के रास्ते से थोपे गये दासत्व को भी इसका माध्यम बनाते थे । उन दिनों मानव व्यापार आम था । यानि कि मनुष्य विक्रय योग्य वस्तु थे जहां भी जितने भी जिस हाल में मिलते उनकी मंडियां सजा दी जातीं और धनपति क्रेता अपने लिये क्रीत दासों का जुगाड़ कर लेता । इतना ही नहीं अनेकों प्रकरण में क्रीत दासों के पुनर्विक्रय, बारम्बार विक्रय से धनार्जन / अतिरिक्त लाभ कमाने के अवसर भी क्रीत दासों के स्वामियों द्वारा अक्सर भुना लिये जाते । वे छोटी मंडियों में दास खरीदते फिर बड़ी मंडियों में उन दासों को अधिक मुनाफे के साथ बेच दिया जाता और यह सिलसिला तब तक चलता जब तक कि सर्वाधिक समृद्ध राज शाही / सामंत शाही उन्हें अंतिम रूप से क्रय ना कर लेती । 
...क्रमशः 

सोमवार, 23 जुलाई 2018

किन्नर -36-3

गतांक से आगे...

भारत में मुग़ल सल्तनत के समय में, पौरुषहीन लोगों को ख्वाजासरा अथवा उसके विरूपित शब्द खोजासरा से संबोधित किया जाता था, जोकि प्रतिष्ठित और गरिमामय संबोधन है । सामान्यतः विश्व के हर एक कोने में शैया के रक्षक अथवा हरम के रक्षक होना इनका महत्वपूर्ण कार्य है । किन्नर / बंध्याकृत पुरुष शाही हरमों के रखवाले होने के साथ ही साथ दरबार के दैनिक जीवन और प्राश्निक कार्यों में भी, मददगार देखे गये हैं  । वे सम्राट की मसाज करने जैसा कार्य भी करते थे । हेरोडोटस कहता है कि अन्य पूर्वी एशियाई लोगों की तरह से फारस के किन्नर उनकी विश्वसनीयता के लिये जाने जाते थे । महान साइरस अपने सुरक्षा कर्मियों में किन्नर भी रखता था । यह संभव है कि बेबीलोन और सीरियंस की तरह से फारस के लोगों ने भी बंध्याकरण की प्रक्रिया अपनाए रखी हो । साइरस के दरबार में पेटिसाकस एक महत्वपूर्ण किन्नर था जिसे राजा अस्त्यागस को साइरस के सम्मुख प्रस्तुत करने का दायित्व सौंपा गया था । उसकी मृत्यु के बाद उसकी जगह किन्नर बागापेटेस ने ली थी जिसे साइरस की मृत देह फारस वापस लाने का कार्य सौंपा गया था । बाद में उसे, सात वर्षों तक दारियस के मकबरे का गार्ड बना कर रखा गया था । इसी तरह से सम्राट कैम्बीसिस के दरबार में दो मशहूर किन्नर अस्पडेटस और इजाबेट्स का नामोल्लेख मिलता है । रोमन साम्राज्य में किन्नर  कार्यालयीन कार्यों के अलावा सम्राटों को जनता के शारीरिक संपर्क से शील्ड की तरह से दूर रखते थे ! सम्राटों को नहलाना, बाल काटना,कपड़े पहनाना भी इनका कार्य था । असीरियन साम्राज्य (850-622 ई.पू.) में किन्नर चिरपरिचित लोग थे । Neo-Hittite साम्राज्य (1180-700 ई.पू.) में पर्सियन अकमिनिडे के समय किन्नर बहुत शक्तिशाली हो गये थे । 559-330 ई.पू. कालीन पर्सिया में किन्नर  न्यायालय के सलाहकार  अधिकारी होते थे  रोमन सम्राटों. क्लाडियस, नीरो, विटेलियस, टाइटस ने किन्नरों को कर्मचारी नियुक्त कर रखा था । मिस्र के फिरऔन और क्लियोपेट्रा (30 ई.पू.) के शासन काल में ये लोग दरबारी हुआ करते थे और अक्सर नाबालिग राजा के संरक्षक भी। सुमेरियन शहर लगाश में ई.पू. 21 वीं शताब्दी में बंध्याकरण के संकेत मिलते हैं । वहाँ किन्नर गण धार्मिक व्यक्ति, दरबारी, गायक, सैनिक, अन्तःपुर रक्षक, घरेलू नौकर, शाही रक्षक, सरकारी अधिकारी, शाही दरबार के कर्मचारी हो सकते थे ।

अगर हम भूमध्य सागरीय देशों तथा मध्यपूर्व एशिया के राजतंत्रों की ओर देखें तो पायेंगे कि पेडासा का बालक हर्मोटीमस शत्रुओं द्वारा बंधक बना लिया गया था, जिसे पेनियोनियस को बेच दिया गया चूंकि हर्मोटीमस बहुत सुंदर था अतः उसका बंध्याकरण करके उसे सार्डीस या इफेसस को बेच दिया गया था । इसके उपरान्त सार्डीस ने उसे, अनेकों उपहार के साथ फारस के सम्राट के दरबार में पहुंचा दिया । धीरे धीरे वह जेर्ज़स के शाही खानदान, विशेष कर कुलीन बच्चों का प्रभारी बना । जब दारियस तृतीय के हरम पर सिकंदर महान के सैनिकों ने कब्ज़ा कर लिया तो किसी एक किन्नर ने जेल से भाग कर सम्राट को उसकी पत्नि की मृत्यु की सूचना दी।बेबीलोनियंस, फारस के सम्राट का धन्यवाद ज्ञापित करने के लिये, शाही दरबार को प्रतिवर्ष 500 लड़के सौंपा करते थे ताकि उन्हें किन्नर बनाया जा सके । इसके अतिरिक्त सम्राट राज्य के विरुद्ध होने वाले विद्रोहों को कुचलने के बाद सुंदर दिखने वाले लड़कों को बंध्याकृत करवा दिया करता था । सम्राट अरटाजेरेकसस प्रथम के समय में दरबार में किन्नरों का प्रभाव बढ़ गया था । जब उसके तीन पुत्रों में सिंहासन के लिये प्रतिस्पर्धा हुई तो किन्नर पफ्लागोनियन ने दारियास द्वितीय की सहायता की । अरटाजेरेकसस तृतीय के समय में बागोअस महत्वपूर्ण किन्नर कमांडर था । दारियास तृतीय ने सिकंदर महान के विरुद्ध 360 नर्तकियों और किन्नरों की मदद ली थी । 
...क्रमशः 

रविवार, 22 जुलाई 2018

किन्नर -36-2

गतांक से आगे...

ग्रीक शब्द यूनोखोस (εὐνοῦχος) यानि कि पुरुष, जिसका बंध्याकरण कर दिया गया हो । इसके बरक्स लैटिन भाषाई शब्द यूनक (eunuchus), स्पेडो (spado) और ग्रीक शब्द स्पेडोन (σπάδων) तथा कैस्ट्राटस (castratus) एवं तुर्की शब्द हरम अगासी से नपुंसकत्व / क्लैव्यता / किन्नर का अर्थ ध्वनित होता है । ग्रीक शब्द यूनिखोस से स्पष्ट आशय है एक बंध्याकृत पुरुष, जिसके अंडकोष कुचल दिये गये हों या फिर अंडकोष निकाल दिये गये हों अथवा लिंग उन्मूलित कर दिया गया हो । कथनाशय ये है कि अंडकोष या शिश्न विहीन व्यक्ति शुक्राणु पैदा करने में असमर्थ होकर प्रजनन का सामर्थ्य खो देता है । हालांकि इस शब्द का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि कोई व्यक्ति जन्मना नपुंसक हो सकता है, भले ही उसके जीवन काल में उसका अंडकोष और लिंग उन्मूलन नहीं किया गया हो । यद्यपि उसे समलैंगिक व्यक्ति माना जा सकता है । कई बार यूनक शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिये भी किया जाता है जिन्होंने धार्मिक आध्यात्मिक श्रेष्ठता हासिल करने के लिये विवाह का परित्याग कर दिया हो और यह भी संभव है कि ऐसे व्यक्ति को बंध्याकृत नहीं किया गया हो । हालांकि तृतीय लिंग श्रेणी के लोगों के लिये ग्रीक-ओ-रोमन-ओ-मिस्री समाजों में गल्लुस (Gallus) गाला / गल्ली संबोधन ज्यादा प्रचलित रहा है इसी तरह से हीब्रू / अर्मैक भाषाई शब्द सारीस, का संबोधन भी इसी वर्ग के लिये प्रयुक्त होता आया है । हीब्रू शब्द सारीस का शाब्दिक अर्थ भी बंध्याकृत हो सकता है पर जीसस ने ऐसे व्यक्तियों को जन्मना नपुंसक माना है जोकि स्वर्ग के राज्य के लिये विवाह का परित्याग कर सकते हैं यानि कि सभी किन्नर बंध्याकृत हों, ऐसा आवश्यक नहीं है । ग्रीक-ओ- रोमन, गल्ली के सम्बन्ध में, बहुश्रुत एवं बहु-प्रचलित मिथक कहता है कि देवी सायबेले का पुरोहित गल्ली एक बार तूफ़ान से बचने के लिये किसी गुफा में शरणागत हुआ जोकि किसी शेर की गुफा थी । शेर को देख कर गल्ली पुरोहित ने उन्मत्त अनुष्ठानिक नृत्य करना प्रारम्भ कर दिया जिससे कि शेर भी डर गया था । 

वास्तव में इतिहास में किन्नरों के बंध्याकरण और अधुनातन विश्व में पौरुष / अपौरुष को लेकर हमारी समझ, बहुत स्पष्ट नहीं है, कहीं पर किन्नर, पौरुष के विपरीत प्रतीक माने जाकर उपहास का पात्र दिखाई देते हैं और कहीं पर उन्हें बेहद सम्मानजनक पद प्राप्त हैं अर्वाचीन इतिहासकार पियरे ब्रायंट कहता है कि ग्रीक उन्हें अंडकोष उन्मूलित / लिंग उन्मूलित देह रचना की तरह से देखते हैं जबकि पर्सियन दरबार इस तरह की शारीरिक स्थिति का कोई उल्लेख ही नहीं करता । ऐसा प्रतीत होता है कि किन्नर शब्द जानबूझकर बंध्याकृत किये गये पुरुषों के लिये प्रयुक्त होता है । संभव है कि बंध्याकरण दंड का एक स्वरुप हो, मसलन चीन में चाकू से लिंग काट देना, अंडकोष निकाल देना प्रमुख दंड था । सुई साम्राज्य में, ये पांच प्रमुख दंडों में से एक था भारतीय मिथकों के इतर इस अवधारणा को एशिया, असीरिया और चीन की प्रारम्भिक सभ्यताओं से जोड़ कर देखा जाना चाहिए । मिस्र, अरेबिक खलीफाओं, ओट्टोमन साम्राज्य, फारस, रोमन साम्राज्य तथा बाईजेंटाइन / कुस्तुनतुनियाई कालखंडों में किन्नरों के महत्त्वपूर्ण होने के हवाले मिलते हैं । ओट्टोमन साम्राज्य के गोरे काले किन्नर । बाईजेंटाइन साम्राज्ञी आइरिन के (797-802) दरबार में स्टाउराक्योस और एटीयोस किन्नर । चीनी साम्राज्ञी साई जी (1861-1908) के लीलियांग, यानि कि केश विन्यासक किन्नर ऐसे ही महत्वपूर्ण नाम हैं । राजतान्त्रिक कोरियन समाज में किन्नरों को नेजी (Naesi) कहते थे जिनमें से सामान्य किन्नर नेग्वान (Naegwan) कहे जाते थे जबकि प्रमुख किन्नर को सेंग्जियान (Sangseon) के नाम से जाना जाता था । वहाँ किन्नरों के लिये सुमुन (Sumun) सोजेई (sojae) जैसी संज्ञाएँ भी प्रचलित थीं ।
...क्रमशः 


शनिवार, 21 जुलाई 2018

किन्नर -36 -1

उन दिनों जबकि मनुष्य के प्रथम सहवासीय अनुभव के प्रथम क्षण, आरम्भ होने ही वाले थे, उस समय जबकि मनुष्य के ज़ेहन में युग्मन का विचार प्रस्फुटित होने को तत्पर था, उन लम्हों से ऐन पहले, जबकि, मनुष्य पहली बार कामातुर हुआ होगा, तब, जबकि वट वृक्ष रोपे भी नहीं गये होंगे, तब, जबकि कोई गौतम, बोध के लिये घर से भागा भी नहीं होगा, बस उसी काल खंड में मनुष्य यह जान गया था कि धरती पर वो अकेला और एक जैसा देह प्रारूप नहीं है । यौनिकता की नैसर्गिक वृत्ति ने आदिम समय में ही मनुष्य की देहों में जोड़े बनाने की कला का सूत्रपात कर दिया था, ख्याल ये है कि उस दौरान मनुष्य, जिस्मों की द्वि- लिंगीयता / विषम लिंगीयता के विचार से परिचित होकर, देह संसार की खोज यात्रा पर निकल पड़ा होगा । कोई आश्चर्य नहीं कि, इसी यात्रा ने उसे समलैंगिकता के अनुभवों से समृद्ध किया हो । संभव है कि स्त्री पुरुषों के दरम्यान विषम लिंगीय संबंधों के  प्रचलन के बाद, पुरुष सह पुरुष और स्त्री सह स्त्री के यौन कौतूहल ने, यौनिकता के प्राकृतिक और अप्राकृतिक होने की अन्यान्य श्रेणियाँ गढी होंगी । बहरहाल यौन संभावनाओं के असीमित विस्तार को देखते हुए हम अपनी चर्चा का रुख जैव प्रारूपों की ओर मोडना चाहेंगे । हमारा उद्देश्य पुरुषों और स्त्रियों की समेकित काम कलाओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाये, पुरुषों की काम शक्तियों / पौरुष की सामान्यता और असामान्यता के विवरणों की पहचान करना है ।

हमारे ज्ञान के दायरे में ऐसी अनेकों ऐतिहासिक मान्यतायें / स्थापनायें हैं कि कोई पुरुष, जन्मना क्लीब / पौरुषहीन / नपुंसक अथवा शारीरिक अरूपताओं / विकृतियों का शिकार हो सकता है, जिसके कारण से स्त्रियों के प्रति उसकी अरुचि प्रगाढ़ हो जाए । जन्मना देह विकृतियों / क्लैव्यता के इतर कतिपय सामाजिक / धार्मिक / आर्थिक कारणों से पुरुषों / शिशु पुरुषों पर आरोपित, बलात क्लैव्यता या स्वैच्छिक रूप से स्वीकार की गई क्लैव्यता से जन्मा, एक रहस्यमयी संसार है जोकि स्त्री पुरुष के युग्मित संसार से सर्वथा भिन्न है और जिसे अगोपन करने में हमारी रूचि बढ़ती जा रही है ।  हम जानते हैं कि जन्मना क्लैव्यता के आनुवांशिक कारण / देहाधीन / स्वास्थ्यगत कारण होते हैं, किन्तु हमें, यह समझना शेष है कि जन्म के उपरान्त किस प्रकार से सामान्यता, असामान्यता मे बदली जाती है । पुरुष जननांग की जन्मजात निर्बलता हार्मोनल हो सकती है किन्तु जन्म के बाद जननांग का उन्मोचन हमारे अध्ययन / कौतूहल का विषय होना चाहिए । कथनाशय ये है कि पुरुष अंग भंग / बंध्याकरण / शिश्न उन्मूलन / अंडकोष ध्वंस के बलात और स्वैच्छिक प्रकरणों से उद्भूत दुनिया को तृतीय लिंग की श्रेणी में रखा जाना चाहिए अथवा उसका अन्य कोई नामकरण भी होना चाहिए ? बेशक, इस दुनिया के अस्तित्व के औचित्य और समूहगत अस्मिता तथा श्रेणीगत व्यक्तित्व की पहचान ज़रुरी है ।

हमें लगता है कि तृतीय लिंग के दायरे में चिन्हित की गई दुनिया / सामाजिक समूह, को इतिहास अथवा मिथिकीय युग के दायरे से निकाल कर बाहर लाना होगा, लेकिन उससे पहले हमें यह जान लेना चाहिए कि स्त्री और पुरुषों के संबंधों में बंधा हुआ संसार इन शिश्न भंग अथवा जन्मना पौरुष हीन लोगों को किस तरह से संबोधित करता है । भारतीय मिथक, अर्धनारीश्वर के दायरे से बाहर, इन्हें बृहन्नला और शिखंडी की, युद्ध प्रवीण / समर निपुण पहचान दी गई है, किन्तु संस्कृत भाषा में इन्हें, तृतीय प्रकृति अथवा अन्य प्रकृति / अन्य देह / तृतीय देह कहा गया है । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि, बहुप्रचलित शिखंडी शब्द से शिखंडिनी शब्द की व्युत्पत्ति हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ स्वणीयूथिका यानि कि पीली जूही होता है । क्या यह संभव है कि पीत वर्ण / पीला रंग / पीले पड़ जाने को हम बीमार होने / हार्मोनल अथवा अन्य जैविक कारणों वाली पौरुषहीनता मान लें ? क्लीब कहें ? नपुंसक माने ? या फिर स्त्री पुरुष वर्ग विभाजन के इतर, अन्य / संकर / विषम कह कर काम चलायें । संस्कृत शब्द तृतीय प्रकृति को उर्दू में सोयम कह दें ? या कि हीज़ से व्युत्पत्ति वाला हिजड़ा संबोधन स्वीकार कर लें ? स्त्रैण प्रवृत्ति के आधिक्य के चलते पींधा कहें ? जनखा कहें ? मेहरिया (पत्नि / स्त्री) से अनुरूपता रखने वाला नाम मेहरा दें ? या फिर खुसरा, खसुआ, खस्सी, निराला, अलग, मान लें ? अथवा छक्के का निम्नस्तरीय संबोधन दें ? क्या यह उचित होगा कि इन्हें सल्तनत कालीन संबोधन, खोजा-सरा / हरम-सरा / मुहसाना कहें ? या फिर अपेक्षाकृत सहज नाम किन्नर से पहचाने । बहरहाल तृतीय लिंग श्रेणी में चिन्हित किये गये लोगों के लिये भारत के भिन्न भिन्न क्षेत्रों में प्रचलित नामों का उल्लेख हमने कर लिया है, जिनमें से किन्नर, हमें तुलनात्मक रूप से सुयोग्य संबोधन प्रतीत होता है ।बहरहाल आगामी चर्चा में हम, इस आबादी के लिये,  विश्व के अनेकों देशों में प्रचलित संबोधनों का ध्यान भी रखेंगे।
...क्रमशः 

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

किन्नर-35-12

गतांक से आगे...

पवित्र कुरआन में उल्लिखित, गर्भ में, स्त्री पुरुष या अन्य प्रकृति की ईश्वरीय निर्मिति अथवा अन्य इस्लामिक हवालों में उद्धृत किये गये गिलमां, पौरुष ओज हीन किन्तु अनश्वर, अक्षत यौवन, नर्म-ओ-नाज़ुक, हसीन लौंडे, जो कि सेवक हैं, जन्नत नशीनों के इर्द गिर्द सतत उपलब्ध रहेंगे जैसे कि 72 हूरों / अक्षत कुमारियों / हसीन- ओ- ज़मील लड़कियों की उपलब्धता। जागतिक परिदृश्य/ इहलौकिक व्यवस्था, में कतिपय निषेधों / अनिवार्यताओं और तयशुद संस्कारिता के सम्यक अनुपालन की एवज में पारलौकिक जगत में उपहार बतौर मिलने वाली खूबसूरत लड़कियों के समानान्तर, खूबसूरत अक्षत कुमार लड़कों की उपस्थिति को अलग अलग अर्थों में देखने का औचित्य क्या है ? यानि कि विषम लिंगीय यौन अभिलाषाओं की प्रतिपूर्ति के लिये युवतियों की उपलब्धता के साथ समलैंगिक यौन अभिलाषाओं की प्रतिपूर्ति के सूत्र, एक साथ क्यों नहीं जोड़े जाने चाहिए? अन्यथा उन्हें (गिलमां को) अक्षत यौवन / पौरुष ओज हीन कहने / ठहराए जाने का औचित्य क्या हो सकता है ? कहन का आशय ये कि सेवक की पौरुष हीनता / सौंदर्यशास्त्र के बखान / बयान, अनावश्यक थे, अगर गिलमां, समलैंगिक लालसाओं को संतुष्ट करने के लिये उपलब्ध नहीं हों तो । बहरहाल हमें लगता है कि दुनिया में धर्म निर्धारित, दायित्व निर्वहन की सफलता के लिये, जन्नत में हूरों और गिलमां की पेशकश को, समेकित यौनिकता से जोड़े बगैर, निष्पक्ष / निरपेक्ष चिंतनशीलता / तर्कशीलता की धज्जियां बिखेरने जैसा कृत्य माना जाएगा  ।   

ग्रीक-ओ-रोमन समाजों अथवा मिस्र, मेसोपोटामियाई सभ्यताओं के साथ गल्लुस / गल्ली पुरोहितों अथवा हिंदू मिथकों में उद्धृत अस्थायी नपुन्सकत्व तथा ईश्वरीय, लिंगीय सदाशयता / यौन तरलता वाले उद्धरण और ईसाई धर्म में बपतिस्मा योग्य पाए गये काले पुरुष / नीग्रो, दास किन्नर के हवाले, ये सभी वर्तमान से पहले की बहुधर्मी दुनियां में किन्नरों की मौजूदगी के प्रमाण देती हैं। हम जानते हैं कि मनुष्य ने अपनी लालसाओं को ईश्वर में देखा, फिर ईश्वर से वो सब काम करवाए जो कि उसकी (मनुष्य की) स्वयं की इच्छा के अनुकूल थे । मनुष्य ने ईश्वर को अपनी अनुकृति के तौर पर गढा और अपने सुकृत्य / दुष्कृत्य / अपकृत्य / पापाचार / पुण्याचार / सद, असद विचार ईश्वर पर आरोपित कर दिये । ईश्वर की, मनः प्रसव पीड़ा सही, उसे जन्म दिया, उसका जनक बना और उसकी अंगुली थाम, उसकी संतति हो गया । सृजनहारा, स्वयं सृजन बन बैठा । हम यह भी जानते हैं कि यौन लालसाएं मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां हैं, सो उसने इन लालसाओं की उचित अनुचित पूर्ति के लिये, यौन लालसाओं / लैंगिकता / दैहिकता को ईश्वर में प्रकटित किया । उसने ईश्वर को उस अभिनय / लीला / कौतुक के लिये बाध्य किया जो स्वयं उसकी अच्छी, बुरी भूमिकाओं को जायज़ ठहराने के लिये ज़रुरी था ।  

यहां ये उल्लेख करना आवश्यक हो चला है कि हमारे लिये, किन्नरों के धार्मिक संरक्षण सूत्र खोजने का उद्देश्य, ईश निंदा या धर्मों की आलोचना / निंदा करना नहीं है बल्कि हमारा लक्ष्य है कि हम मनुष्य के वैचारिक उन्नयन / अधो-पतन के विवरणों तथा उस द्वैध को प्रमाणित करें जो कि मनुष्य, ईश्वर के हवाले से, अभिव्यक्त करता रहा है । दुनिया में किन्नरों / समलैंगिकता तथा स्त्रियों / विषम लिंगीयता की उपस्थिति और मनुष्य की प्राकृतिक, अप्राकृतिक देह लालसाओं के शमन का इतिहास लंबा है किन्तु इसके लिये, किसी ईश्वर को उत्तरदाई बनाना आवश्यक नहीं था । मनुष्य का इहलौकिक काम, ईश्वर की पारलौकिक उपस्थिति के बगैर भी चल सकता था। बहरहाल मनुष्य ने अपने लिये एक से अधिक वास्तविक और काल्पनिक संसार रचे, और अपनी रचनाधर्मिता / सृजनशीलता को लेकर आत्ममुग्धता में खो गया । कथनाशय यह है कि ईश्वर होता या ना होता, धर्म होते या ना होते, स्वर्ग नरक भी होते अथवा नहीं किन्तु मनुष्य की दैहिकता के निशान, उसके स्त्री, पुरुष या अन्य लिंग के होने से सम्बंधित प्रमाण दुनिया में हर हाल में विद्यमान बने रहते । दुनिया में मनुष्य देह की सदाशय अथवा निर्मम उपस्थिति को किसी भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं थी ।    

    

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

किन्नर-35-11

गतांक से आगे...

हमने पाया कि रोमन, ग्रीक, मिस्री, मेसोपोटामियाई, भारतीय, चीनी मूल की महा-सभ्यताओं में तृतीय लिंग के जन्मना और कृत्रिम प्रारूपों में धार्मिकता / आध्यात्मिकता के नक्श किस तरह से मुखरित हुए हैं । सम्राटों, सुल्तानों और प्रजाजनों की द्वि-वर्गीय व्यवस्था में निहित शोषण को छुपाने के लिये अथवा उसके न्यायोचित होने के तर्कों को आध्यात्मिक्ताओं के मुलम्मे चढ़ा कर पेश करना बेहद शातिराना और चालाकी भरा कृत्य है । सो विश्व के तमाम राजतान्त्रिक / धार्मिक समाजों में किन्नरों को ईश्वरीयता के पवित्र पुरोधा की शक्ल में प्रस्तुत किया जाना भी आर्थिक दैहिक शोषण पे परदे-दारी का रणनीतिक कदम माना जाना चाहिए ।  ये जानना दिलचस्प है कि, ईश्वर की लैंगिक परिवर्तनशीलता और उसकी काम क्रीडाओं / लीलाओं के कथित विवरण मनुष्य की दैहिक अभिलाषाओं / विषम / समलैंगिक सहवासों की लालसाओं के समदर्शी-उद्धरणों की तरह से प्रस्तुत किये गये । यही नहीं इस तरह के खांटी तर्क लैंगिक समानता / स्त्री पुरुष के मध्य विभेद / निषेध के कथ्यो /  दस्तावेजों की तरह से प्रस्तुत किये गये ।

दुनिया में, धार्मिकता के इतर शायद ही ऐसा कोई अन्य दृष्टान्त हो, जहां मनुष्य, द्वारा सृजित पात्र, घटना क्रम, कथ्य ही मनुष्य के स्वामी बन बैठे हों, स्वयं के द्वारा रची गई नितांत काल्पनिक व्यवस्था के दासत्व को, मनुष्य ने सम्मोहन की हदों या फिर भयाक्रांत होने की हदों तक जाकर, स्वीकार किया और कालान्तर में उसके अनेकों दुरूपयोग भी किये, मिसाल के तौर पर तृतीय प्रकृति / तृतीय लिंग के मामले में भी ऐसा ही हुआ जहां जननिक विरूपताओं या शरारतन स्थापित किये गये जननिक प्रारूपों को, पौरोहित्य विशेषज्ञता के झांसे में रखकर समलैंगिक यौन कामनाओं की पूर्ति की व्यवस्था कर ली गई या फिर एकाधिक विषम-लिंगीय संबंधों के निर्विवादित प्रबंधन हेतु पहरेदार बतौर दायित्व सौंपे गये अथवा स्वामित्व की निरंतरता के लिये सुनियोजित देह प्रारूप थोपे गये / आरोपित किये गये । भारतीय सन्दर्भों में इसे, उपासना गृहों में, देवदासियों की  विषम लिंगीय उपस्थिति के रूप में देखा जायेगा और ऐन इसी तरह से ग्रीक-ओ-रोमन-मिस्री मंदिरों में,  इसे किन्नर पुरोहितों / गल्ली की समलैंगिक उपस्थिति के रूप में देखा जाए । यदि हम जननिक कारणों के अपौरुष को नज़र अंदाज़ कर भी दें तो कृत्रिम रूप से सृजित अपौरुष को मनुष्य की समलैंगिक यौन लालसाओं से जोड़ कर क्यों नहीं देखा जाना चाहिए ?
...क्रमशः 


बुधवार, 18 जुलाई 2018

किन्नर-35-10

गतांक से आगे...

युद्ध और सौंदर्य के देव कार्तिकेय के जन्म की कथा में उल्लेख है कि आदि देव शंकर और माता पार्वती के अभिसार के उपरान्त, अग्नि देव ने अपने हाथों में वीर्य को ग्रहण कर उसका पान कर लिया था किन्तु असहनीय ज्वलनशीलता से बचने के लिये उसे ऋषि पत्नियों के समूह में वितरित कर दिया था जिसका एक अंश, ऋषि पत्नियों ने गंगा को दे दिया था, फलस्वरूप कार्तिकेय जन्मे । ये कथाएं सीधे सीधे यौनाचार की कथाएं नहीं हैं बल्कि इन्हें प्रतीकात्मक रूप से बांचा जाना चाहिए । यानि कि देवताओं के मध्य समलैंगिक / विषमलैंगिक यौनाचार के संकेत खोजने के बजाये हमें यह समझना होगा कि देवता धरती के निवासियों को क्या सन्देश देना चाहते हैं ।

हमें लगता है कि हिंदू मिथक स्त्री पुरुष की समान प्रतिष्ठा की कामना के अंतर्गत गढे और कहे गये हैं । ये आश्चर्यजनक होगा जो हम इन कथाओं में सकारात्मक संकेत खोजने के बजाये यौनिकताओं के दस्तावेज गढ़ने लग जायें । हमारा यह मानना है कि संभवतः हिंदू मिथकों, में देवताओं द्वारा दिये गये सन्देश, स्त्री बनाम पुरुष बनाम तृतीय लिंगीयता के विभेदकारी सन्देश नहीं हैं बल्कि इन्हें लिंगीय तरलता / परिवर्तनशीलता के आलोक में देखा जाना चाहिए कि ईश्वर जो चाहे, जैसा चाहे, कोई एक लिंग श्रेष्ठ नहीं कोई दूसरा या तीसरा लिंग हेय भी नहीं, सब सहजता से घटित हो सकता है क्योंकि ईश्वर ने यह कर के दिखाया है, उद्धरण स्वयं प्रस्तुत किया है । यहां कोई व्यभिचार नहीं, कोई भी तुलनात्मक रूप से दीन अथवा बलशाली लिंग नहीं है, सो धरती पर जो भी है वो ईश्वरीय प्रावधान है । अर्थात किन्नर भी ।

हमें, किन्नरों की वैश्विक उपस्थिति के धार्मिक संकेत / चिन्ह सहज सुलभ है, चूंकि धार्मिकता, आदिम मनुष्य की, प्रकृति से प्राथमिक मुठभेड़ की, प्राथमिक कृति है अस्तु मनुष्य के, प्रारम्भिक समाजों से लेकर, अधुनातन समाजों तक के विकास काल में धार्मिकता के विलोपन की कल्पना भी दुरूह मानी जायेगी । ऐसी स्थिति में मानुष जीवन  के समस्त आयामों, समस्त कालखंडों धर्म की मौजूदगी किसी आश्चर्य का विषय नहीं है सो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि मनुष्य की दैहिकता भले ही आनुवंशिकता निर्धारित मानी जा रही हो पर उसमें धार्मिकता की ठोकरें / थपकियां / ताल चिन्ह दिखाई ना दें, ऐसा कैसे संभव होगा ? नि:संदेह दैहिकता के प्रथमतः पुरुष, स्त्री लिंगी अथवा अन्यान्य लिंगी का सुसंगत और परम वैज्ञानिक निर्धारक तत्व आनुवंशिकता है किन्तु धर्म जैसे देहेत्तर / बाह्य किन्तु प्रभावशील निर्धारक तत्व, दैहिकता को प्रभावित ना करें ऐसा कैसे हो सकता है ? हमारा मानना है कि ईश्वरीयता की कल्पनायें एवं आस्थागत विश्वास, दैहिकता की वास्तविकता से कमतर शक्ति तत्व नहीं है ।

...क्रमशः 


मंगलवार, 17 जुलाई 2018

किन्नर-35-9

गतांक से आगे...

महाभारत के तमिल संस्करण के अनुसार भगवान विष्णु के अवतार भगवान श्रीकृष्ण ने अरावान से ब्याह करने के लिये मोहिनी रूप धारण किया था, वे अरावान को उसकी मृत्यु के पूर्व प्रणय का अनुभव / अनुभूति देना चाहते थे क्योंकि उसने स्वयं को बलिदान के लिये प्रस्तुत किया था ।  इस प्रकरण में उल्लेख मिलता है कि भगवान श्रीकृष्ण मोहिनी रूप में अरावान की मृत्यु उपरान्त शोक समय तक मौजूद रहे ।  गौर तलब है कि आजकल, अरावान के ब्याह और उसकी मृत्यु के घटना क्रम को वार्षिक आयोजन के तौर पर मनाया जाता है ।  इस अनुष्ठान को थाली कहते हैं, अनुष्ठान के दौरान तृतीय लिंग / किन्नर लोग, कृष्ण मोहिनी दृश्य अभिनीत करते हैं और विधिवत अरावान से ब्याह का स्वांग रचाते हैं ।  अनुष्ठान कुल 18 दिनों तक चलता है और अरावान की मृत्यु के विधि विधानों / रस्मों के साथ समाप्त होता है ।  इस समय किन्नर गण, अपनी छातियों को पीटते हुए / स्यापा करते हुए, (इसे हम विधवा विलाप भी कह सकते हैं ) तमिल शैली में अनुष्ठानिक शोक नृत्य करते हैं तथा तथा अपनी चूडियां फोड़ते हुए श्वेत वर्ण शोक वस्त्र धारण करते हैं ।

इसी तरह से अर्जुन का वृहन्नला अवतार तथा अम्बा का शिखंडी अवतार भी विचारणीय होगा जिनका उल्लेख हम लैंगिक परिवर्तन / तरलता के तौर पर करना चाहेंगे । पवित्र पद्म पुराण में उल्लेख है कि भगवान श्री कृष्ण के रहस्मयी नृत्य में सम्मिलित होने के लिये अर्जुन शारीरिक रूप से एक स्त्री के रूप में परिवर्तित हुआ था, चूंकि वहाँ के आयोजन में सम्मिलित होने की अनुमति एक ही स्त्री को मिलनी थी सो अर्जुन ने यह अनुमति स्वयं के लिये हासिल की ।  इसके इतर  किन्नरों की आराध्य देवी बतौर माता बहुचरा का उल्लेख भी हम, शिखंडी और वृहन्नला के साथ पृथक से कर चुके है सो उसे यहां पर दोहराने की आवश्यकता नहीं है । भारतीय मिथक वांग्मय के संक्षिप्त उल्लेख का उद्देश्य केवल इतना है कि हम जान सकें कि स्त्री पुरुष भेद, लैंगिकता की सीमा रेखाओं से इतर / परे भारतीय जनमानस, लैंगिक तरलता / लैंगिक परिवर्तन और किसी भी लिंग की गरिमा को आश्रय देता है ।

माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब भी किन्नरों के संरक्षक थे वे स्त्रियों की तरह से कपड़े पहनते ताकि वे लोगों को छल सकें, उनकी नक़ल उतार सकें और स्त्रियों के समूह में सरलता से प्रविष्ट हो सकें उन्हें छेड़ सकें । कहते हैं कि स्त्रियों के वस्त्र धारण करने के कारण से साम्ब अभिशापित हुए थे और इसके परिणाम स्वरुप उन्हें मूसल और ओखली को जन्म देना पड़ा । इतना ही नहीं हमें देवताओं के मध्य भी समलैंगिक और उभयलिंगी यौन क्रियाओं के उद्धरण मिलते हैं, कदाचित इसका कारण, यौन सुख हो या फिर केवल अनुष्ठानिक । अग्नि देव, धन, रचनात्मक ऊर्जा और अग्नि के स्वामी माने जाते हैं पर उन्हें सम-लिंगी गतिविधियों के अतिरिक्त अन्य देवताओं के वीर्य को स्वीकार करने वाला भी कहा गया है । देवी स्वाहा से विवाहित होने के बावजूद उनके सम-लिंगी सम्बन्ध सोम यानि कि चन्द्र देव से बताए गये हैं । इस सम्बन्ध में अग्नि कि भूमिका स्वीकार करने वाले पक्ष की है वे सोम के वीर्य को अपने मुख से स्वीकार करते हैं इसी के समानांतर वे, धरती से स्वर्ग तक बलि / उपहारों को स्वीकार करते हैं । जबकि अन्य गल्पों में इसे मिथुन अनुष्ठान कहा गया है जहां अग्नि का मुख स्त्री की भूमिका में है ।
...क्रमशः 

सोमवार, 16 जुलाई 2018

किन्नर-35-8

गतांक से आगे...

इसलिए प्राप्त वरदान के अनुसार उन्होंने पुत्री रूप में चन्द्र के पुत्र बुध से ब्याह किया और पुरुरवा नाम के पुत्र को जन्म दिया । इसके उपरान्त वे पुरुष रूप में सुद्युम्न बन गईं तथा मनु के कुल में तीन पुत्रों, उत्कल,गय और विन्ताश्व का पिता बन गईं । दूसरे गल्प के अनुसार जंगल की एक गुफा में इच्छाधारी यक्ष और यक्षिणी रहते थे, वे अक्सर मृग और मृगी के रूप में जंगल में घूमते रहते । उसी समय वैवस्वत कुलीन राजा इल शिकार करने के उद्देश्य से जंगल में आया और फिर जंगल की उसी गुफा में ही रहने लगा । चूंकि उसने यक्ष यक्षिणी की गुफा का परित्याग करने से इंकार कर दिया तो एक युक्ति के रूप में यक्षिणी ने उसे मृगया के लिये आकर्षित किया और उसे उमा वन ले गई जहां जो भी व्यक्ति प्रवेश करता, आदि देव शंकर के प्रताप से स्त्री बन जाता । सो इल भी इला बन गया तब यक्षिणी ने प्रकट होकर उसे स्त्रियोचित भाव भंगिमाएं, नृत्य संगीत आदि की शिक्षा दी और उसके स्त्री हो जाने का कारण भी बताया । कालान्तर में इला का ब्याह बुध से हो गया और उसने पुरुरवा को जन्म दिया । पुरुरवा के सुयोग्य होते ही, इला ने गौतमी नदी के किनारे आदि देव शंकर की उपासना की और फिर से इल का रूप प्राप्त किया ।

भारतीय वांग्मय में स्त्री और पुरुष लिंग के पृथक पृथक हवालों के समानान्तर उभयलिंगीय हवाले भी मिलते हैं, हालांकि इन हवालों को स्त्री पुरुष साम्य / समानता और सम गौरव / सम प्रतिष्ठा के दृष्टान्त बतौर देखा जाना उचित होगा ।  आदि देव शंकर और माता पार्वती का संयुक्त रूप अर्धनारीश्वर, जिसके माध्यम से आदि देव, सम्पूर्णता के, द्वैध / द्वि-लिंगीयता के, इतर / पार होने का सन्देश देते हैं, कथनाशय यह है कि सम्पूर्णता, लिंग भेद से ऊपर होती है ।हम यह मान सकते हैं कि यह सन्देश देवों और मनुष्यों को एक साथ / समेकित रूप से दिया गया है । क्या हम अर्धनारीश्वर की छवि में उभयलिंगीयता, समलैंगिकता अथवा भिन्न लिंगीयता के प्रतीकात्मक मूल्यों की उपस्थिति की कल्पना कर सकते हैं ? लगभग इसी तरह के अन्य उद्धरण का उल्लेख करना भी समीचीन होगा, जिसमें माता लक्ष्मी और उनके पति भगवान विष्णु के लिये समेकित / संयुक्त नामकरण है, लक्ष्मी नारायण । पवित्र भागवत पुराण में उल्लेख है कि भगवान विष्णु ने दैत्यों को अमृत से वंचित करने के लिये मोहिनी रूप धारण किया था ।

कहते हैं कि आदि देव शिव कालांतर में मोहिनी पर अनुरक्त हो गये और उनका वीर्य जिस चट्टान पर गिरा वह स्वर्ण बन गई, पवित्र ब्रह्मानंद पुराण कहता है कि मां पार्वती ने अपने पति को मोहिनी का अनुसरण करते देख, लज्जा से अपना शीश झुका लिया । कतिपय अन्य कथाएं कहती हैं कि, आदि देव ने भगवान विष्णु से कहा कि वे मोहिनी रूप पुनः धारण करें ताकि आदि देव स्वयं के लिये, वास्तविक परिवर्तन को देख सकें । अन्य गल्प / कथाओं में यह उल्लेख मिलता है कि आदि देव जानते थे कि यौन आकर्षणों में लिंगीय तरलता (सहज परिवर्तन शीलता) की व्याख्या / सुझाव मोहिनी की वास्तविक प्रकृति है । अगर हम मोहिनी के स्त्रैण तत्व को वास्तविकता के भौतिक पक्ष को व्याख्यायित करने वाला माने तो पायेंगे कि मोहिनी ने जागतिक मामलों में आदि देव की रूचि जागृत करने के लिये यह प्रयास किया ।

यहां पर हमें उस दृष्टान्त को भी ध्यान में रखना होगा जबकि एक दैत्य, स्त्री रूप धारण कर के (अपनी योनि में तीक्ष्ण दांत रख कर) आदि देव को मारने का यत्न कर रहा था और भगवान विष्णु ने अपनी शक्ति से आदि देव को सम्मोहित किया जिससे आदि देव, ढोंगी दैत्य को पहचान गये और उन्होंने प्रणय क्रियाओं के दौरान उसके पौरुष केन्द्र पर विद्युत प्रहार कर के उसका वध कर दिया । एक अन्य पौराणिक कथा कहती है कि भगवान अय्यप्पा की उत्पत्ति आदि देव शंकर के आलिंगन उपरान्त मोहिनी के गर्भवती हो जाने के फलस्वरूप हुई जिसे मोहिनी ने लज्जावश परित्यक्त कर दिया ।  कथा का एक अन्य संस्करण कहता है कि पांडयन राजा, राजशेखर ने उक्त नवजात शिशु को गोद ले लिया था हालांकि इस संस्करण में भगवान अय्यप्पा को अयोनि-जात यानि कि स्त्री जननांग से पैदा नहीं, कहा गया है और बाद में उन्हें हरिहर पुत्र अर्थात आदि देव और भगवान विष्णु का पुत्र भी कहा गया है ।
...क्रमशः