शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

किन्नर-35-12

गतांक से आगे...

पवित्र कुरआन में उल्लिखित, गर्भ में, स्त्री पुरुष या अन्य प्रकृति की ईश्वरीय निर्मिति अथवा अन्य इस्लामिक हवालों में उद्धृत किये गये गिलमां, पौरुष ओज हीन किन्तु अनश्वर, अक्षत यौवन, नर्म-ओ-नाज़ुक, हसीन लौंडे, जो कि सेवक हैं, जन्नत नशीनों के इर्द गिर्द सतत उपलब्ध रहेंगे जैसे कि 72 हूरों / अक्षत कुमारियों / हसीन- ओ- ज़मील लड़कियों की उपलब्धता। जागतिक परिदृश्य/ इहलौकिक व्यवस्था, में कतिपय निषेधों / अनिवार्यताओं और तयशुद संस्कारिता के सम्यक अनुपालन की एवज में पारलौकिक जगत में उपहार बतौर मिलने वाली खूबसूरत लड़कियों के समानान्तर, खूबसूरत अक्षत कुमार लड़कों की उपस्थिति को अलग अलग अर्थों में देखने का औचित्य क्या है ? यानि कि विषम लिंगीय यौन अभिलाषाओं की प्रतिपूर्ति के लिये युवतियों की उपलब्धता के साथ समलैंगिक यौन अभिलाषाओं की प्रतिपूर्ति के सूत्र, एक साथ क्यों नहीं जोड़े जाने चाहिए? अन्यथा उन्हें (गिलमां को) अक्षत यौवन / पौरुष ओज हीन कहने / ठहराए जाने का औचित्य क्या हो सकता है ? कहन का आशय ये कि सेवक की पौरुष हीनता / सौंदर्यशास्त्र के बखान / बयान, अनावश्यक थे, अगर गिलमां, समलैंगिक लालसाओं को संतुष्ट करने के लिये उपलब्ध नहीं हों तो । बहरहाल हमें लगता है कि दुनिया में धर्म निर्धारित, दायित्व निर्वहन की सफलता के लिये, जन्नत में हूरों और गिलमां की पेशकश को, समेकित यौनिकता से जोड़े बगैर, निष्पक्ष / निरपेक्ष चिंतनशीलता / तर्कशीलता की धज्जियां बिखेरने जैसा कृत्य माना जाएगा  ।   

ग्रीक-ओ-रोमन समाजों अथवा मिस्र, मेसोपोटामियाई सभ्यताओं के साथ गल्लुस / गल्ली पुरोहितों अथवा हिंदू मिथकों में उद्धृत अस्थायी नपुन्सकत्व तथा ईश्वरीय, लिंगीय सदाशयता / यौन तरलता वाले उद्धरण और ईसाई धर्म में बपतिस्मा योग्य पाए गये काले पुरुष / नीग्रो, दास किन्नर के हवाले, ये सभी वर्तमान से पहले की बहुधर्मी दुनियां में किन्नरों की मौजूदगी के प्रमाण देती हैं। हम जानते हैं कि मनुष्य ने अपनी लालसाओं को ईश्वर में देखा, फिर ईश्वर से वो सब काम करवाए जो कि उसकी (मनुष्य की) स्वयं की इच्छा के अनुकूल थे । मनुष्य ने ईश्वर को अपनी अनुकृति के तौर पर गढा और अपने सुकृत्य / दुष्कृत्य / अपकृत्य / पापाचार / पुण्याचार / सद, असद विचार ईश्वर पर आरोपित कर दिये । ईश्वर की, मनः प्रसव पीड़ा सही, उसे जन्म दिया, उसका जनक बना और उसकी अंगुली थाम, उसकी संतति हो गया । सृजनहारा, स्वयं सृजन बन बैठा । हम यह भी जानते हैं कि यौन लालसाएं मनुष्य की मूल प्रवृत्तियां हैं, सो उसने इन लालसाओं की उचित अनुचित पूर्ति के लिये, यौन लालसाओं / लैंगिकता / दैहिकता को ईश्वर में प्रकटित किया । उसने ईश्वर को उस अभिनय / लीला / कौतुक के लिये बाध्य किया जो स्वयं उसकी अच्छी, बुरी भूमिकाओं को जायज़ ठहराने के लिये ज़रुरी था ।  

यहां ये उल्लेख करना आवश्यक हो चला है कि हमारे लिये, किन्नरों के धार्मिक संरक्षण सूत्र खोजने का उद्देश्य, ईश निंदा या धर्मों की आलोचना / निंदा करना नहीं है बल्कि हमारा लक्ष्य है कि हम मनुष्य के वैचारिक उन्नयन / अधो-पतन के विवरणों तथा उस द्वैध को प्रमाणित करें जो कि मनुष्य, ईश्वर के हवाले से, अभिव्यक्त करता रहा है । दुनिया में किन्नरों / समलैंगिकता तथा स्त्रियों / विषम लिंगीयता की उपस्थिति और मनुष्य की प्राकृतिक, अप्राकृतिक देह लालसाओं के शमन का इतिहास लंबा है किन्तु इसके लिये, किसी ईश्वर को उत्तरदाई बनाना आवश्यक नहीं था । मनुष्य का इहलौकिक काम, ईश्वर की पारलौकिक उपस्थिति के बगैर भी चल सकता था। बहरहाल मनुष्य ने अपने लिये एक से अधिक वास्तविक और काल्पनिक संसार रचे, और अपनी रचनाधर्मिता / सृजनशीलता को लेकर आत्ममुग्धता में खो गया । कथनाशय यह है कि ईश्वर होता या ना होता, धर्म होते या ना होते, स्वर्ग नरक भी होते अथवा नहीं किन्तु मनुष्य की दैहिकता के निशान, उसके स्त्री, पुरुष या अन्य लिंग के होने से सम्बंधित प्रमाण दुनिया में हर हाल में विद्यमान बने रहते । दुनिया में मनुष्य देह की सदाशय अथवा निर्मम उपस्थिति को किसी भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं थी ।