उन
दिनों जबकि मनुष्य के प्रथम सहवासीय अनुभव के प्रथम क्षण, आरम्भ होने ही वाले थे,
उस समय जबकि मनुष्य के ज़ेहन में युग्मन का विचार प्रस्फुटित होने को तत्पर था, उन
लम्हों से ऐन पहले, जबकि, मनुष्य पहली बार कामातुर हुआ होगा, तब, जबकि वट वृक्ष
रोपे भी नहीं गये होंगे, तब, जबकि कोई गौतम, बोध के लिये घर से भागा भी नहीं होगा,
बस उसी काल खंड में मनुष्य यह जान गया था कि धरती पर वो अकेला और एक जैसा देह
प्रारूप नहीं है । यौनिकता की नैसर्गिक वृत्ति ने आदिम समय में ही मनुष्य की देहों
में जोड़े बनाने की कला का सूत्रपात कर दिया था, ख्याल ये है कि उस दौरान मनुष्य,
जिस्मों की द्वि- लिंगीयता / विषम लिंगीयता के विचार से परिचित होकर, देह संसार की
खोज यात्रा पर निकल पड़ा होगा । कोई आश्चर्य नहीं कि, इसी यात्रा ने उसे समलैंगिकता
के अनुभवों से समृद्ध किया हो । संभव है कि स्त्री पुरुषों के दरम्यान विषम लिंगीय
संबंधों के प्रचलन के बाद, पुरुष सह पुरुष और
स्त्री सह स्त्री के यौन कौतूहल ने, यौनिकता के प्राकृतिक और अप्राकृतिक होने की
अन्यान्य श्रेणियाँ गढी होंगी । बहरहाल यौन संभावनाओं के असीमित विस्तार को देखते
हुए हम अपनी चर्चा का रुख जैव प्रारूपों की ओर मोडना चाहेंगे । हमारा उद्देश्य
पुरुषों और स्त्रियों की समेकित काम कलाओं पर ध्यान केंद्रित करने के बजाये,
पुरुषों की काम शक्तियों / पौरुष की सामान्यता और असामान्यता के विवरणों की पहचान
करना है ।
हमारे
ज्ञान के दायरे में ऐसी अनेकों ऐतिहासिक मान्यतायें / स्थापनायें हैं कि कोई
पुरुष, जन्मना क्लीब / पौरुषहीन / नपुंसक अथवा शारीरिक अरूपताओं / विकृतियों का
शिकार हो सकता है, जिसके कारण से स्त्रियों के प्रति उसकी अरुचि प्रगाढ़ हो जाए ।
जन्मना देह विकृतियों / क्लैव्यता के इतर कतिपय सामाजिक / धार्मिक / आर्थिक कारणों
से पुरुषों / शिशु पुरुषों पर आरोपित, बलात क्लैव्यता या स्वैच्छिक रूप से स्वीकार
की गई क्लैव्यता से जन्मा, एक रहस्यमयी संसार है जोकि स्त्री पुरुष के युग्मित
संसार से सर्वथा भिन्न है और जिसे अगोपन करने में हमारी रूचि बढ़ती जा रही है । हम जानते हैं कि जन्मना क्लैव्यता के आनुवांशिक
कारण / देहाधीन / स्वास्थ्यगत कारण होते हैं, किन्तु हमें, यह समझना शेष है कि
जन्म के उपरान्त किस प्रकार से सामान्यता, असामान्यता मे बदली जाती है । पुरुष
जननांग की जन्मजात निर्बलता हार्मोनल हो सकती है किन्तु जन्म के बाद जननांग का
उन्मोचन हमारे अध्ययन / कौतूहल का विषय होना चाहिए । कथनाशय ये है कि पुरुष अंग
भंग / बंध्याकरण / शिश्न उन्मूलन / अंडकोष ध्वंस के बलात और स्वैच्छिक प्रकरणों से
उद्भूत दुनिया को तृतीय लिंग की श्रेणी में रखा जाना चाहिए अथवा उसका अन्य कोई
नामकरण भी होना चाहिए ? बेशक, इस दुनिया के अस्तित्व के औचित्य और समूहगत अस्मिता
तथा श्रेणीगत व्यक्तित्व की पहचान ज़रुरी है ।
हमें
लगता है कि तृतीय लिंग के दायरे में चिन्हित की गई दुनिया / सामाजिक समूह, को
इतिहास अथवा मिथिकीय युग के दायरे से निकाल कर बाहर लाना होगा, लेकिन उससे पहले
हमें यह जान लेना चाहिए कि स्त्री और पुरुषों के संबंधों में बंधा हुआ संसार इन
शिश्न भंग अथवा जन्मना पौरुष हीन लोगों को किस तरह से संबोधित करता है । भारतीय
मिथक, अर्धनारीश्वर के दायरे से बाहर, इन्हें बृहन्नला और शिखंडी की, युद्ध प्रवीण
/ समर निपुण पहचान दी गई है, किन्तु संस्कृत भाषा में इन्हें, तृतीय प्रकृति अथवा
अन्य प्रकृति / अन्य देह / तृतीय देह कहा गया है । यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक
होगा कि, बहुप्रचलित शिखंडी शब्द से शिखंडिनी शब्द की व्युत्पत्ति हुई है जिसका
शाब्दिक अर्थ स्वणीयूथिका यानि कि पीली जूही होता
है । क्या यह संभव है कि पीत वर्ण / पीला रंग / पीले पड़ जाने को हम बीमार होने /
हार्मोनल अथवा अन्य जैविक कारणों वाली पौरुषहीनता मान लें ? क्लीब कहें ? नपुंसक
माने ? या फिर स्त्री पुरुष वर्ग विभाजन के इतर, अन्य / संकर / विषम कह कर काम
चलायें । संस्कृत शब्द तृतीय प्रकृति को उर्दू में सोयम कह दें ? या कि हीज़ से
व्युत्पत्ति वाला हिजड़ा संबोधन स्वीकार कर लें ? स्त्रैण प्रवृत्ति के आधिक्य के
चलते पींधा कहें ? जनखा कहें ? मेहरिया (पत्नि / स्त्री) से अनुरूपता रखने वाला
नाम मेहरा दें ? या फिर खुसरा, खसुआ, खस्सी, निराला, अलग, मान लें ? अथवा छक्के का
निम्नस्तरीय संबोधन दें ? क्या यह उचित होगा कि इन्हें सल्तनत कालीन संबोधन,
खोजा-सरा / हरम-सरा / मुहसाना कहें ? या फिर अपेक्षाकृत सहज नाम किन्नर से पहचाने
। बहरहाल तृतीय लिंग श्रेणी में चिन्हित किये गये लोगों के लिये भारत के भिन्न
भिन्न क्षेत्रों में प्रचलित नामों का उल्लेख हमने कर लिया है, जिनमें से किन्नर,
हमें तुलनात्मक रूप से सुयोग्य संबोधन प्रतीत होता है ।बहरहाल आगामी चर्चा में
हम, इस आबादी के लिये, विश्व के अनेकों
देशों में प्रचलित संबोधनों का ध्यान भी रखेंगे।
...क्रमशः