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सोमवार, 15 अक्टूबर 2018

घोंसले

सभी परिंदे जानते थे कि मैगपाई घोंसला बुनने में उस्ताद / निपुण है सो उन्होंने मैगपाई से अनुरोध किया कि वो उन्हें घोंसला बनाना सिखा दे ! बहरहाल मैगपाई ने सबसे पहले तिनकों से घोंसला बुना जिसे कुछ परिंदों ने देखा और उड़ गये, हालांकि मैगपाई ने कहा कि मैंने अभी पूरी शिक्षा नहीं दी है, इसके बाद उसने घास से घोंसला बुना जिसे देख कर कुछ और परिंदे उड़ गये इस पर मैगपाई ने फिर से कहा कि मैंने अभी तक अपना काम पूरा नहीं किया है ! इस बार उसने घोंसले में कीचड़ / मिट्टी का लेप लगाया ! तब से आज तक सारे परिंदे अलग अलग तरह से घोंसले बनाते हैं, क्योंकि उनमें से ज्यादातर ने रॉबिन और अबाबील की तरह से टुकड़ा टुकड़ा ज्ञान प्राप्त किया था...

ये कथा निपुणतम शिल्पी से आधा अधूरा ज्ञान प्राप्त करने वाले शिष्यों को संबोधित है ! शिष्यों / परिंदों  को भली भांति पता था कि मैगपाई घोंसला बनाने में सर्वश्रेष्ठ  है ! अस्तु उन सभी ने मैगपाई से स्वयं ही आग्रह किया कि वो उन्हें अपना ज्ञान दे / उन्हें अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर ले ! मैगपाई इस आग्रह पर सहमत थी और उसने अपनी कला अन्य परिंदों को देने का निश्चय कर लिया ! गुरु ने सर्वप्रथम तिनकों का उपयोग कर घोंसला बुना जिसे देख और प्राप्त ज्ञान को पर्याप्त मानकर कुछेक उतावले परिंदे कार्यशाला से पलायन कर गए हालांकि गुरु ने उनसे कहा कि मैंने अभी तक पूरी शिक्षा प्रदान नहीं की है ! पर ये परिंदे जल्दबाजी में थे और इन्होने अपनी शिक्षा पूरी नहीं की !

 

इसके बाद मैगपाई ने घास से घोंसला बुना, जिसे देख कर कुछ परिंदों ने अपनी शिक्षा पूर्ण मान ली और कार्यशाला का परित्याग कर दिया !  यद्यपि मैगपाई ने इन शिष्यों से कहा कि मैंने अभी तक अपना काम पूरा नहीं किया है लेकिन परिंदों में धैर्य नहीं था और वे अधूरी शिक्षा को लेकर गुरु का साथ छोड़ गए ! इसके बाद मैगपाई ने घोंसले में कीचड़ / मिट्टी का लेप लगाया और अपना प्रशिक्षण दायित्व सम्पन्न किया ! कहते हैं गुरु से ज्ञान प्राप्ति के भिन्न चरणों में विदाई ले चुके परिंदे अपने ज्ञान के अनुसार घोंसले बनाते हैं ! इनमें से अधिकांश ने राबिन और अबाबील की तरह से टुकड़ा टुकडा ज्ञान प्राप्त किया था इसलिए ज्यादातर परिंदे अलग अलग तरह से घोंसला बुनते है !

 

कथा कहती है कि शिक्षा प्राप्ति धैर्य का विषय है और इसकी पूर्णता गुरु की सम्मति पर निर्भर होती है ! बहरहाल आख्यान में उल्लिखित शिष्य परिंदों के धैर्य का स्तर उनकी कला के स्तर का निर्धारण करता है ! यदि इस कथा को मानवीय सन्दर्भों में आकलित किया जाए तो गृह का निर्माण प्राकृतिक आपदाओं और अन्य दैनिक संकटों के विरुद्ध मनुष्य को ना केवल सुरक्षा कवच प्रदान करता है बल्कि उसके निर्माण में मौजूद सौन्दर्य बोध उन मनुष्यों की सुरुचि सम्पन्नता / दक्षता का परिचायक भी होता है ! अतः सगरे जगत के मनुष्यों के आवास की निर्मिति में व्यापित भिन्नताएं उनकी शिक्षा का आभास कराती है भले ही इसकी पृष्ठभूमि में अन्यान्य आर्थिक और परिस्थति जन्य कारण भी मौजूद हों...

 

 

शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

अबाबील

जर्मन लोक विश्वास है कि किसी जमाने में स्वैलो / अबाबील बहुत सुरीली थी, लेकिन उसका ख्याल था कि लकड़ियों और जंगल के दरम्यान गायकी, बे-फ़िज़ूल है सो उसने अपना परिवार इकट्ठा किया और शहरों की ओर चल पड़ी ताकि वहां के लोग, उसकी सुर साधना को सुन सकें...मुश्किल यह थी कि जंगलों की तरह से शहरों में तिनके आसानी से मयस्सर ना थे, जिनसे कि वो अपना घोंसला बना पाती !

 

हालांकि बरसात के समय उसे घोंसला बनाने के लिये काफी सारा कीचड़ मिल जाता जिससे कि वो अपना घोंसला बना ले ! ...लेकिन शहर के लोगों के पास स्वैलो के गीत सुनने का वक्त नहीं था, वहाँ शोरगुल बहुत था और लोग अक्सर अपने कामों में व्यस्त बने रहते ! हालात को देख कर स्वैलो वहाँ के शोर से अधिक ऊंचे सुर में गाने की कोशिश करने लगी, जिसकी वज़ह से उसके अपने मूल सुर, ऊंचे सुरों में दब गये / घिस गये / कर्कश हो गये और कालांतर में वो गाना भूल गई...  

 

यह कथा, निष्णात / हुनरमंद को श्रोताओं की कमी से श्रोता आधिक्य की ओर आकर्षित करने जैसे संकेत देती है, जिसके तहत हुनरमंद अबाबील अपनी कला के प्रदर्शन के लिए शांत श्रोता स्थल के परित्याग के बाद शोर गुल और भीड़ भरे इलाके का त्रुटि पूर्ण चयन कर बैठती है ! हालांकि जंगल के बरअक्स शहर में उसके अनुकूल गृह / घोंसला निर्माण के समुचित साधन मयस्सर नहीं हैं, ना तो तिनके और ना ही बरसात के मौसम को छोड़ कर, किसी और मौसम में, तिनकों को जोड़ने के लिए पर्याप्त कीचड़ !

 

शहर की जीवन दशाएं शोर गुल, चिल्लपों आपा धापी से परिपूर्ण होने के कारण से, वहां पर जंगल जैसे एकान्तिक / पुर सुकून, सुर साधना के योग्य स्थल नहीं थे ! इसलिए अबाबील को अपनी गायकी में, शहरी श्रोताओं के अनुकूल, ध्वन्यात्मक संशोधन करना पड़े / तेजतर गायकी का सहारा लेना पड़ा ! ज़ाहिर है कि उसका कंठ, ध्वनि विस्फोट के लिए सहज नहीं था इसलिए उसे अपने मूल स्वर स्थायी रूप से खोना पड़े ! अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि अबाबील के सुर उचित मार्ग से भटक गए !

 

यहां यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि शहर के लोगों की व्यस्तताएं भिन्न थीं, उनके पास अपने कामों को छोड़ कर अबाबील की गायकी से लुत्फंदोज़ होने की फुर्सत भी नहीं थी, इसलिए अबाबील उन्हें आकर्षित करने के लिए अपना सुरीलापन खो बैठी ! इस आख्यान से हम इस निष्कर्ष तक भी पहुंच सकते हैं कि कला निष्णात को भ्रमित करने वाले सवालों में से वो उत्तर चुनने चाहिए जो उसकी कला के अनुकूल हों ! कला को विरूपित करने वाले निर्णयों में कला और कलावंत दोनों के गुम हो जाने का ख़तरा बना ही रहता है !

 

धुरंधर गायक को अपनी श्रेष्ठता और मौलिकता का संरक्षण करना चाहिए या उसे प्रतिकूल स्वभाव वाले श्रोताओं के सामने प्रस्तुत करने का निर्णय लेना चाहिए ? कलात्मक अभिव्यक्ति के सम्मुख श्रोताओं की संख्यात्मक न्यूनता या आधिक्य, श्रोताओं की गुण ग्राह्यता से प्रभावित होना चाहिए अथवा नहीं ? इस आख्यान के वाचन से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि अबाबील के निर्णयों का प्रभाव उसकी जीवन दशाओं के साथ ही साथ उसकी गायकी पर भी पड़ा ! उसने निर्णयात्मक भूल की और उसे खामियाजा भुगतना पड़ा !

 

कथा कहती है कि कलावंत को भ्रामक परिस्थितियों में सोच समझ कर निर्णय लेने चाहिए क्योंकि त्रुटिपूर्ण निर्णयों से केवल उसकी व्यक्तिगत क्षति ही नहीं होती बल्कि एक श्रोता समूह भी उसकी कला के क्षय / कला की स्थायी गुमशुदगी को भुगतने के लिए अभिशप्त हो जाता है! बहरहाल कथन शेष यह कि ये आख्यान अबाबील के बहाने इंसानों पर भी चोट करता चलता है ...

 

 

 

 

 

 

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018

गुन गुन पाखी


अमेरिकन इंडियंस कहते हैं कि, मुद्दतों पहले हमिंग बर्ड बेहद सुरीली गायक हुआ करती थी, लेकिन उसे ख़ुश्बूदार फूलों के नाभि रस से इस कद्र मुहब्बत थी कि वो बर-हमेश इसी जतन में लगी रहती कि जितना ज्यादा हो सके, रस पी ले ! बहरहाल उसकी हवस का नतीजा ये हुआ कि मृदु पेय पी पी कर उसका गला चोक होने लगा और उसकी छाती में कफ की मात्रा बढ़ने लगी !


चूंकि वो अपना ज्यादातर वक्त फूलों के इर्द गिर्द मंडराते हुए बिताती थी, सो उसके पास गायकी के रियाज़ का वक्त कम पड़ने लगा ! नतीजतन सालों-साल तक बे-रियाज़ी रहने, गले के चोक हो जाने और लंबे वक्त से जमें कफ की वज़ह से उसकी आवाज गुम होने लगी और आहिस्ता आहिस्ता पूरी तरह से खो गई बस यही वज़ह है कि हमिंग बर्ड सिर्फ गुन गुन कर पाती है ! बहरहाल इसका मतलब ये भी नहीं कि वो शब्दों को भूल गई हो...


कहने के लिए ये कथा बेहद मुख़्तसर है और अमेरिकन इंडियंस जैसे,  सूदूर धरातल पर खदेड़ दिए गए, कदाचित श्वेतवर्णी यूरोपीय विजेताओं द्वारा नागरिक अधिकारों और नैसर्गिक संसाधनों से वंचित कर दिए गए, आदिम समाज की वाचिक परम्परा का हिस्सा है ! संभव है कि अमेरिकन लोकतंत्र में इस समुदाय को हीनता बोध / घृणा के साथ देखा जाता हो और नतीजतन दुनिया को कृष्णवर्ण जीवन मानी खेज / महत्वपूर्ण है कहने की नौबत आ गई हो !

 

विचार यह है कि बाह्य दृष्टि से कोई सामाजिक समूह, कमजोर / दोयम दर्जा / हीन दिखाई दे सकता है पर सामाजिक - प्राकृतिक जीवन के लिए उसकी समझ बेहद गहरी और उत्कृष्ट बौद्धिक विरासत के सुबूत दे सकती हैं, यानि कि उस समाज की वाचिक परम्परायें बेहद समृद्ध हो सकती हैं ! सो हमिंग बर्ड के बारे में अमेरिकन इंडियंस की इस कथा से यह धारणा पुष्ट होती है कि यह समाज, पर्यावरणीय समझ और कलात्मक उपलब्धियों की दृष्टि से अद्भुत चिंतन परम्परा का सहयात्री है !

 

कथा संकेत यह है कि निष्णात / फनकार के लिए, सुर की सतत साधना / मुतवातिर रियाज बेहद महत्वपूर्ण है, कोई कितना भी बड़ा गायक हो, उसे अपने हुनर को लगातार तराशते रहना होगा, वरना वो अपनी लय-कारी, गायकी की श्रेष्ठता से हाथ, धो सकता है ! वे सतत सुर साधना करने के समांनातर यह कथन भी करते हैं कि निष्णात / हुनरमंद की दृष्टि अपने हुनर में  केन्द्रित रहनी चाहिए !  आशय यह है कि भटकाव आपके लक्ष्य संधान की क्षमता को सीमित कर देता है !

 

नि:संदेह हमिंग बर्ड अतीत में एक शानदार गायक रही होगी और उसे वे शब्द भी याद होंगे जो उसकी गायकी का हिस्सा थे लेकिन रियाज की कमी और स्वाद के मोह ने उसे पथ-च्युत कर दिया ! उसमें मृदु पेय की हवस थी यानि कि उसका स्वाद मोह अतिरेक पर था और गायकी की रियाजत न्यूनतम...सो जो हुआ वो स्वभाविक था ! बहरहाल अमेरिकन इंडियंस की हमिंग बर्ड को लेकर कही गई ये कथा इंसानों से सांकेतिक प्रतीति तो रखती ही है...