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शनिवार, 19 अप्रैल 2014

चाह बर्बाद करेगी...!

ये बात उन दिनों की है, जब कि राजा इयो कालाबार के शासक थे, तब मत्स्य कुमार धरती पर रहता था ! वो तेंदुए का घनिष्ठ मित्र था और उसके झाड़ीनुमा घर में अक्सर, उससे मिलने जाया करता, जहां तेंदुआ उसका यथोचित सत्कार करता !  तेंदुए की पत्नी बहुत सुंदर थी, सो मत्स्य कुमार को उससे प्रेम हो गया, इसीलिये जब भी तेंदुआ घर से बाहर जाता, मत्स्य कुमार अक्सर उसके घर पहुंच जाया करता और तेंदुए की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी से  प्रेम करता, लेकिन एक बूढ़ी स्त्री ने तेंदुए को इस घटना क्रम से अवगत करा दिया जो कि उसकी गैरहाजिरी में घट रहा था !

पहले पहल तो तेंदुए को विश्वास ही नहीं हुआ कि उसका पुराना दोस्त मत्स्य कुमार ऐसा निकृष्ट व्यवहार कर सकता है ! एक रात वो अचानक अपने घर वापस लौट आया तो उसने देखा कि मत्स्य कुमार और उसकी पत्नी प्रेम लीन थे ! यह देखकर वो बहुत क्रोधित हुआ ! वो मत्स्य कुमार को जान से मारना चाहता था पर उसे ख्याल आया कि मत्स्य कुमार उसका बहुत पुराना दोस्त है, तो उसे स्वयं दंड देने के बजाये राजा इयो से इसकी शिकायत करना चाहिए और दंड की मांग करना चाहिए ! उसने ऐसा ही किया ! राजा इयो ने शिकायत पर कार्यवाही के लिये एक बड़ी पंचायत का आयोजन किया जहां तेंदुए ने अपना पक्ष रखा !

मत्स्य कुमार के पास अपनी सफाई में कहने के लिये कुछ भी नहीं था ! राजा इयो ने कहा यह बहुत बुरी बात है मत्स्य कुमार, तेंदुए का दोस्त था...और तेंदुआ उस पर विश्वास करता था ! लेकिन मत्स्य कुमार ने उसकी अनुपस्थिति का नाजायज फायदा उठाया, उससे विश्वासघात किया ! इसके बाद राजा ने निर्णय किया कि अबके बाद से मत्स्य कुमार को धरती के बजाये जल में रहना होगा ! वो जब भी धरती में आने की कोशिश करेगा उसकी मृत्यु हो जायेगी !  उसने यह भी कहा कि जब भी कोई मनुष्य या पशु मत्स्य कुमार को पकड़ पायें, उसे मार कर खा लें ! यही उसका दंड है , मित्र की पत्नी के साथ अनुचित व्यवहार करने का !

इस नाईजीरियाई लोक कथा में अन्तर्निहित संकेतों को चीन्हने की कोशिश करें तो किसी एक समय में भिन्न जातियों के सहअस्तित्व और मित्रवत रहवास की पुष्टि होती है, सामाजिकता के हिसाब से तेंदुआ किसी आक्रामक, आखेटक अथवा शौर्यजीवी जाति का प्रतिनिधि है जबकि उसका मित्र मत्स्य कुमार नि:संदेह किसी अन्य जाति का व्यक्ति है ! तेंदुए के घर का झाड़ीनुमा होना यह संकेत देता है कि वह आर्थिक रूप से संपन्न नहीं था पर उसमें अपने विजातीय मित्र के लिये सत्कार की भावना की कोई कमी नहीं थी ! कहने का आशय यह है कि तब के समय में मित्रता पर सजातीयता की बंदिशे नहीं हुआ करती होंगी !   

कथा में उल्लिखित बूढ़ी स्त्री, प्रचलित परम्पराओं की प्रतीक है, जोकि एक विवाहित स्त्री और उसके पति के मित्र के मध्य पनपते प्रेम के विरुद्ध आ खड़ी होती है, उसे परम्पराओं के विरुद्ध घट रहे , एक नवाचार को रोकना था, किसी विवाहिता के फिर से प्रेम में पड़ जाने का निषेध करना था ! मत्स्य कुमार अपने मित्र की पत्नी से प्रेम करता है पर...यह प्रेम एक तरफ़ा प्रतीत नहीं होता, अतः सामाजिकता / नैतिकता की दृष्टि से इसे भले ही अनुचित या निषिद्ध माना जाये, किन्तु समवयस्क स्त्री पुरुष के मध्य कभी भी पनप जाने वाले व्यवहार के रूप में आश्चर्यजनक भी नहीं कहा जा सकता !

ये कथा एक सुव्यवस्थित न्याय प्रणाली का कथन करती है जो मित्र के विश्वासघाती को अपना पक्ष रखने का अवसर देती है, यह एक किस्म की सार्वजानिक सुनवाई है, जहां राजा इयो, पर्याप्त पारदर्शिता पूर्ण प्रक्रिया अपनाता है !  प्रकरण में तेंदुए की पत्नी के व्यवहार पर विचारण का कोई उल्लेख नहीं मिलता, जिससे यह प्रतीत होता है कि उन दिनों विवाहेत्तर संबंधों के लिये पुरुषों को ही मूलतः उत्तरदाई माना जाता होगा ! मत्स्य कुमार को दंड स्वरुप, जन्म भूमि से बेदखल किया गया, उसकी मृत्यु के लिये सर्व समाज को अधिकृत किया गया, उसके लिये नये जलीय पर्यावास में रहने का आदेश नि:संदेह सामाजिक बहिष्कार का प्रतीक है !

मत्स्य कुमार अकेला तो उस धरती का वासी नहीं रहा होगा, उसके परिजन भी उस भूभाग के निवासी रहे होंगे अतः यह कल्पना की जा सकती है कि उसके, परम्परा / सामाजिक परिपाटी विरोधी, एक कृत्य / एक अपराध का दंड, उसके परिजनों को भी भुगतना पड़ा होगा ! आज की न्याय प्रणाली में भी, दंडित किसी अपराधी के परिजन, कारागार में निरुद्ध भले ही ना किये जायें, उन्हें अपराधी के साथ मृत्यु दंड भले ही ना दिया जाये पर उसके, अपराध का अप्रत्यक्ष भुगतान वे करते ही हैं ! इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कथा में उल्लिखित तेंदुआ विजातीय दिख रही न्याय प्रणाली पर भी पूर्ण विश्वास करता है !

सलिल वर्मा कहते हैं कि बूढ़ी स्त्री तेंदुए से सीधा शिकायत ना करते हुए, उस स्त्री को भी तो समझा सकती थी, वो अनुभवी थी उसे सामाजिक मर्यादाओं की चिन्ता होना स्वाभाविक है किन्तु उस स्त्री के लिये यह अगम्य गमन की तरह था तो उसे मर्यादाओं का आभास दिलाना उचित होता ! तेंदुए का अपने मित्र पर क्रोधित होना और पत्नी पर तनिक भी क्रोध ना करना अजीब लगता है ! उसमें मित्र के प्राण लेने की इच्छा जागृत हुई, किन्तु पत्नी को लेकर ऐसा कुछ भी नहीं अर्थात उसके क्रोध का मूल कारण मित्र का विश्वासघात है ! अगर उसकी पत्नी किसी अन्य पुरुष के साथ संलग्न होती तो वो क्या करता ?

उसके मन में दोनों को जान से मारने की बात क्यों नहीं आई ? जबकि वो दोनों इस अपराध में समान रूप से भागीदार थे ! विवाहेत्तर संबंधों के लिये केवल पुरुष को दोषी माने जाने की संभावना कम ही लगती है बल्कि यह मुकदमा मूलतः मित्र के विश्वासघात का रहा होगा ! इस बात की पुष्टि उस बूढ़ी स्त्री के व्यवहार से होती है , जो तेंदुए की पत्नी को समझाने की अपेक्षा, घटनाक्रम तेंदुए के ही संज्ञान में लाती है ! घटनाक्रम में राजा का न्याय तथा समाज का बहिष्कार समझ में आता है, किन्तु मारे जाने की अंतहीन सजा कि जो भी, उसे, जब भी पाये, उसका भक्षण कर जाये, औचित्य हीन है ! कब समाप्त होगी ये सजा ?  

(आलेख का शीर्षक मशहूर ब्लागर सलिल वर्मा के सौजन्य से)
  

सोमवार, 21 मई 2012

जलप्रलय : प्रणय और सृजन !

धरती में चहुंदिश पसरे अनेकानेक जनसमूहों की तरह वे भी, अपनी जड़ों / अपनी उत्पत्ति के विवरणों को वाचिक परम्पराओं के माध्यम से सतत जीवित बनाये हुए हैं ! उनके आख्यान सामान्यतः प्रश्नोत्तर शैली में कहे जाते हैं, किन्तु उनकी ‘कहन’ की लयात्मकता, आख्यान को पद्य की श्रेणी में ला खड़ा करती है ! चीन के जनसमुदाय विशिष्ट की उत्पत्ति के इन विवरणों को गेय बना कर प्रस्तुत करने के लिए कम से कम दो या दो से अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता होती है ! मंदरिन भाषी, ये वृत्तान्त, अपनी मौलिकता की दृष्टि से मंदरिन में ही कहे जाने चाहिये लेकिन तब, ये हमारे लिये नितांत अपठनीय हो जायेंगे और अगर इन्हें आंग्ल या हमारी ही किसी भाषा में उद्धृत किया जाये तो इनकी भाषाई मौलिकता, भले ही हाशिये पर चली गई मानी जाये, किन्तु इस स्थिति में उद्धृतकर्ता भाषाई जनसमूह के लिये, यही वृत्तान्त सहज ग्रहणीय हो जायेंगे ! अतः हमने आख्यान की मूल भावना को लेकर अपनी पूरी सतर्कता के साथ आख्यान की कथित भाषाई विशुद्धता / मौलिकता वाली अव्यवहारिकता / सैद्धांतिकता के बदले सहज ग्रहणीयता का व्यावहारिक विकल्प चुना है !

वे गाते हैं... बुरा स्वभाव लिये कौन आया ? अग्नि को भेजने और पहाड़ को जलाने के लिए ! ...बुरा स्वभाव लिए कौन आया ? जल को भेजने और धरती को नष्ट करने के लिये !...मैं जो गाता हूं , नहीं जानता ? ‘जी’ ने ये किया, उसका बुरा स्वभाव था ! उसने अग्नि भेजी और पहाड़ जलाया !...‘गरज / वज्र’ ने ये सब किया !...उसका बुरा स्वभाव था ! ‘गरज / वज्र’ ने जल भेजा धरती को नष्ट करने के लिए ! तुम कैसे नहीं जानते ? 

जलप्रलय जैसी इस कथा में, पहले पहल पहाड़ों की आग को बुरा माना गया है और उसे भेजने वाली शक्ति के स्वभाव को भी ! ‘जी’ नाम की इस बुरी शक्ति ने गर्जन और वज्रपात के साथ जल भी भेजा, धरती को नष्ट करने के लिये ! यानि कि वज्रपात से पहाड़ों के जलने वाली घटना दुखदाई तो थी ही...फिर गर्जन के साथ हुई वर्षा ने इस समुदाय को ज़रूर बाढ़ पीड़ित बना दिया होगा ! बस्तियों को नष्ट कर दिया होगा !

जलप्रलय से बस्तियों और जनसमुदाय के विनाश के बाद केवल दो ही प्राणी, एक बड़े से कुम्हड़े की नाव की सहायता से अपने प्राण बचाते हैं ! ये दोनों भाई बहन हैं ! बाढ़ की समाप्ति के पश्चात, भाई अपनी बहन को अपनी पत्नि बनाने की इच्छा व्यक्त करता है किन्तु बहन इसका विरोध करती है ! जीवित प्राणी द्वय के मध्य दाम्पत्य संबंधों को लेकर हुई, लंबी बहस के उपरान्त बहन अपने भाई के सम्मुख एक सशर्त परीक्षा का प्रस्ताव करती है, जिसमें भाई की सफलता के बाद, उसे अपने भाई की पत्नि बन जाना स्वीकार करना था ! उसने कहा कि यदि तुम, घाटी के दोनों ओर के पहाड़ों को पत्थरों से जोड़ पाओगे, तो मैं तुम्हारी पत्नि बन जाऊंगी ! भाई ने अनिच्छा पूर्वक इस चुनौती को स्वीकार करके पहाड़ से नीचे पत्थरों को लुढ़का कर एक दूसरे के ऊपर व्यवस्थित करने की सोची ताकि वह घाटी के दोनों छोरों पर मौजूद पहाड़ों के दरम्यान एक रास्ता / पुल जैसा आकार बना सके, किन्तु उसके लुढ़काये हुए सारे पत्थर गहरी घाटी की लंबी घास में खो गये ! उसकी बहन उसके कार्य से संतुष्ट नहीं हुई ! परीक्षा में वो, असफल रहा!

भाई की प्रथम असफलता को देखकर, बहन ने उसे एक और परीक्षा का अवसर दिया ! उसने कहा कि दोनों पहाड़ों की चोटियों से दो अलग अलग चाकू फेंक कर, घाटी के बीच रखी म्यान में डाल देने की स्थिति में भी वह उसका प्रस्ताव मान लेगी ! अन्यथा वे दोनों अलग अलग जीवन यापन करेंगे ! भाई ने ऐसा ही किया ! इस बार वह सफल हुआ ! उसकी इच्छा पूर्ण हुई ! उसकी बहन उसकी पत्नि बन गई ! कालांतर में इस दंपत्ति को, एक संतान हुई जिसके हाथ पैर नहीं थे और वह कुरूप दिख रहा था ! बच्चे के पिता ने क्रोध में आकर अपनी संतान के टुकड़े टुकड़े कर दिये और टुकड़ों को पहाड़ के चारों ओर फेंक दिया ! किन्तु अगली सुबह जब वे जागे तो वे सारे टुकड़े, स्त्री पुरुषों में बदल गये और इस तरह से धरती पर मानव जीवन प्रारम्भ हुआ !

कथा में उल्लिखित जलप्रलय के समय, एक बड़े से कुम्हड़े की नाव का ख्याल घड़े की सहायता से पानी में तैरने जैसा लगता है, जिसमें मिट्टी के घड़े के स्थान पर कुम्हड़े का इस्तेमाल किया गया हो ! आख्यान, यौन नैतिकता के लिहाज़ से भाई बहन के संबंधों पर वर्जनायें आरोपित करने के स्थान पर दो परीक्षाओं का उल्लेख करता है, जिसके अंतर्गत एक स्त्री, पुरुष पात्र को अपने पति के रूप में वरण करने से पूर्व, उसकी निर्माण क्षमता / दक्षता को परखना चाहती है, अतः वो पहाड़ों पर सुलभ आवागमन के लिए एक पुल जैसे रास्ते की कामना करती है ! पुरुष की असफलता के बावजूद वो उसे ठुकराती नहीं है बल्कि उसे दूसरा लक्ष्य देती है ! कोई आश्चर्य नहीं कि यह लक्ष्य, पुरुष की आखेटक क्षमताओं को परखता है ! नि:संदेह वह समय आखेट द्वारा जीवन यापन के लिये उपयुक्त समय था ! इस अर्थ में वह स्त्री एक चतुर स्त्री थी, जिसने पुरुष के साथ जीवन यापन से पूर्व, उसकी जीवन यापन सामर्थ्य / योग्यताओं / क्षमताओं की परीक्षा ली !

स्पष्टतः भाई बहन के यौन / प्रणय संबंधों को लेकर किसी वर्जना के संकेत इस कथा में नहीं मिलते है, किन्तु निकट संबंधों से उत्पन्न विकलांग शिशु का जन्म एक बड़ा प्रतीक है ! यह कथा शिशु के टुकड़ों से अनेकों पुरुषों और स्त्रियों के बन जाने की बात कह कर महाभारत के कौरवों के जन्म को अनायास ही स्मरण करा देती है ! भले ही, काल और स्थान तथा जनसमुदाय विशेष को लेकर इन दो घटनाओं में कोई सीधा सम्बंध नहीं है ! इस आख्यान को बांचते हुये एक प्रतीति, निरंतर होती रही कि, कहीं ऐसा तो नहीं कि  ‘द ब्ल्यू लैगून’ भी इस लोककथा से प्रेरित रही हो...



सोमवार, 26 दिसंबर 2011

लोक आख्यान के बहाने एक बार फिर से वर्जित विषय ...


कह नहीं सकते कि दुनिया में मर्द और औरत के दरम्यान पहले पहल  जिस्मानी रिश्ता किस तरह पनपा  होगा ! ठीक पहला , किस की पहल पर और कैसे ? कोई दस्तावेज नहीं खालिस ख्याल शायद...कुछ यूं  हुआ  हो...की तर्ज़ पर !  ये दुनिया है , ना जाने कब से...सो कायम है, ये रिश्ते भी मुतवातिर बे-रोक टोक, ज्यादातर शर्तों के हिसाब के अंदर और कभी कभार शर्तों से बाहर भी ! इस मुकम्मल अहसास की शर्ते किन लोगों ने, कब और कैसे बनाई ? ये  जानने से पहले मानना होगा कि ज़रूर , इसकी ज़रूरत रही होगी कि लोग देह के सम्मोहन की अराजकता से महफूज रहें, आबाद रहें...और कायम रहे उनके दरम्यान एक सुचिंतित निजाम के अधीन जिस्मों की खूबसूरत यकज़हती और नस्लों की निरंतरता भी...अपनी लय में बनी रहे !

फिलहाल , सवाल शर्तों से पहले के रिश्ते की शुरुवात का है , जिसका कोई सबूत इंसानी इतिहास में दर्ज नहीं ! कोई तहरीर, कोई शिला लेख , कोई ताड़पत्र इस घटना के आद्य बिंदु और उसके प्राथमिक हवालों की जिम्मेदारी नहीं लेता कि आखिर वो बंदा कौन था जिसने इसकी शुरुवात की ! किसी अनुभवहीन जोड़े का पहला अनुभव ! वाचिक परम्पराओं में इस घटना का छोर पकड़ने के ख्याल से हाथ डाला तो प्रकृति और इंसान की गुरु शिष्य परम्परा के चिराग जल उठे ! 

मंडला जिले के एक लोक आख्यान के मुताबिक़, प्रारम्भ में मनुष्य यौन क्रियाओं के विषय में नहीं जानता था ! तब एक बूढा व्यक्ति और एक स्त्री अपने पुत्र के साथ रहते थे , जिसका जन्म अपने अभिभावकों के दैहिक संसर्ग  के बिना ही हुआ था ! आगे चलकर बूढ़े व्यक्ति ने अपने पुत्र की शादी करा दी किन्तु उसकी पुत्रवधु अपने मायके में ही बनी रही , एक दिन बूढा व्यक्ति अपनी पुत्रवधु को लेने के लिए गया किन्तु वापसी के समय रास्ते में ही रात्रि हो गई! अतः वे दोनों एक दूसरे से अलग एक पेड़ के नीचे सो गये ! देर रात एक तेंदुआ गुर्राया...हिरको हिरको...लड़की ने पूछा ससुर जी यह क्या कह रहा है  !  ससुर ने कहा हिरको हिरको...तब लड़की ने कहा ठीक है...हिरक आओ , ससुर लड़की के पास आ गया !  इसके बाद एक पक्षी चीखा...दर दूदू दर दूदू  !  लड़की ने ससुर से पूछा कि इसने क्या कहा और फिर वही जबाब सुनकर ससुर को अपने सीने में हाथ रखने को कहा !थोड़ी देर बाद दूसरा पक्षी बोला...कप्केह कप्केह ! लड़की ने कहा तो फिर कपक जाओ, ये सुनकर ससुर, लड़की के ऊपर लेट गया ! रात और बीतने पर एक अन्य पक्षी की आवाज गूंजी...कर-कास  कर-कास, जिसे सुनकर लड़की ने ससुर को ध्वनि साम्य के अनुसार दैहिक  क्रियायें करने दीं  !  इस कृत्य में इन दोनों को बहुत आनंद आया !  घर वापसी पर बूढ़े व्यक्ति ने अपने पुत्र को पुत्रवधु सौंप दी किन्तु पुत्र को कुछ भी पता नहीं था अतः पुत्रवधु ने पिछली रात की शिक्षा के अनुसार उसे ज्ञान दिया और तब से मनुष्यता ने संसर्ग करना सीख लिया !

आख्यान प्रथम दृष्टया ही कल्पनाओं से भरपूर नज़र आता है जैसे कि बूढ़े स्त्री पुरुष के पुत्र का जन्म बिना सहवास के होना और किसी दूर स्थान में पुत्रवधु और उसकी माता की मौजूदगी भी इसी तर्ज़ पर...किन्तु शारीरिक चेष्टाओं को प्राकृतिक परिवेश और भिन्न जीवों के ध्वनि साम्य से जोड़कर देखने के कारण यह कथा विलक्षण बन जाती है जैसे कि ससुर और पुत्रवधु का निकट आना तेंदुए के उच्चारण से साम्य रखता है...और फिर तीन अलग अलग पक्षी उनमें दैहिक नैकट्य के क्रम को सतत बनाये रखते है ! प्रथम पक्षी स्त्री के संवेदित के अंग विशेष पर पुरुष के आधिपत्य की घोषणा करता है जबकि दूसरा पक्षी अपने स्वर से उन्हें सहवास की मुद्रा में ले आता है ! इसके ठीक बाद तीसरा पक्षी अंग विशेष के प्रवेश और आघात प्रत्याघात जैसी ध्वनि उत्पन्न करता है ! ज़ाहिर है कि मनुष्य के यौन संबंधों की प्रथम अनुभूति का कारण परिवेश के अन्य जीवधारी हैं, जैसी कल्पना सहवास की गतिविधियों और जीवधारियों के ध्वनि उच्चार से गजब की एकरूपता रखती है ! कह नहीं सकते कि यह घटना सत्य है, किन्तु यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि मनुष्य अपनी नैसर्गिक गतिविधियों / मूल प्रवृत्तियों के तोष के प्रथम हवाले बतौर प्रकृति के गुरुवत व्यवहार को सहज स्वीकार करता है और उसे यह मानने में कोई हर्ज़ दिखाई नहीं देता कि उसने अपने व्यवहारों और अनुभवों  के शिक्षण / प्रशिक्षण और परिष्कार के लिए प्रकृति का अनुयाई  / शिष्य होना स्वीकार कर लिया  है  !





( लोक आख्यान वैरियर एल्विन के संग्रह से साभार ) 


बुधवार, 13 मई 2009

संगतराश परिंदे और मैं दुखी हो जाते हैं !

पिछले कई महीनो से संगतराश , परिंदे और मुझ जैसे तमाम लोग दुखी हैं ! कारण ये कि चुनाव आचार संहिता लगते ही राजनेताओं के बुतों और उदघाटन के पत्थरों की मांग शून्य हो जाती है सो इस धंधे से रोज़ी रोटी कमा रहे संगतराश (पाषाण कला निष्णात लोग) अपने परिजनों के भूखों मरने की आशंका से पीड़ित हो जाते हैं और परिंदे इसलिए दुखी हो जाते हैं कि पुराने बुतों पर विष्ठा विसर्जन की भी कोई हद तो होती ही है ना !
अब मीडिया चाहे जितना भी चिल्ला चोट कर ले , सोलह मई के बाद भी त्रिशंकु लोकसभा तय है सो सरकार बनाने बिगाड़ने में जो नग्न नृत्य ( परदे के पीछे के समझौते ) संभावित है मै उसकी आशंका से दुखी हूं !
आखिर मुझ जैसे नाचीज़ करदाताओं के खून पसीने की कमाई का ऐसा लोकतंत्रीय दुष्परिणाम क्यों है ?
नहीं पता ?
लेकिन ये सुनिश्चित है कि चुनाव के हर एक मौसम में संगतराश परिंदे और मैं दुखी हो जाते हैं !

सोमवार, 30 मार्च 2009

पंचन को कहो सही पै ..........

काफी समय पूर्व घटित ग्राम्य जीवन की एक घटना स्मरण में है जिसे आपके साथ शेयर करना चाहूंगा ! हुआ ये कि एक छोटे से गांव में दो पड़ोसियों में से दबंग पड़ोसी नें अपने घर का गन्दा पानी अपने सीधे साधे पड़ोसी के घर के सामने से बहाना शुरू कर दिया ! खुन्नस की वज़ह जो भी रही हो नाली पड़ोसी के घर के सामने से निकाल कर दबंग नें झगडे के बीज गांव की फिजा में बिखेर ही दिये थे सो बात तू तू मैं मैं से पंचायत तक जा पहुंची ! पंच परमेश्वरों नें मामले में दोनों पक्षों को सुना और पाया कि गलती दबंग पड़ोसी की है ! अब पंचों के फैसले पर सहमति व्यक्त करते हुए दबंग नें अपनी प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार से दी ............ "पंचन को कहो सही पै नरदहा वहीं से बही " यानि कि पंचों का कहना सही है किंतु नाली वहीं से बहेगी !
भले ही यह घटना एक गांव के स्तर के लोकतान्त्रिक ढांचे और मूल्यों का उपहास उडाती हुई दिखाई दे किंतु देश की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है ! आज़ादी के बाद हम सभी नें ऐसे कई उदाहरण देखे हैं जबकि दोयम दर्जा और प्रतिभाहीन नेता 'विवादों' को हवा देकर कुख्यात से प्रख्यात हो गए ! कोई धनबल तो कोई बाहुबल और कोई अपनी न्यूसेंस वैल्यू के दम पर लोकतंत्र की रेस का विजेता घोड़ा बन बैठा है और आश्चर्य की बात है कि लोकतंत्र की असली ताकत जनता जनार्दन या तो राजनैतिक समझ बूझ के अभाव या फ़िर अन्यान्य तात्कालिक कारणों से इस घुड़दौड़ को अपनी मूक सहमति प्रदान कर चुकी है ! देश की लोकतान्त्रिक मर्यादाओं ,संवैधानिक मूल्यों और संविधान का जितना अनादर आज के छुटभैये नेता करते हैं उसे देख कर क्या आपको ये नहीं लगता कि जैसे नेता जी कह रहे हों ........"संविधान को कहो सही पै.................."