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मंगलवार, 8 अक्टूबर 2019

मैंने रखा है मुहब्बत...2


उस रोज़ लकड़हारे ने घायल हिरण को शिकारी के चंगुल से बचाया था । अहसानमंद हिरण ने लकड़हारे को बताया कि हरेक महीने के एक ख़ास दिन परियां, जंगल के तालाब में नहाने के लिए आया करती हैं और अगर लकड़हारा चाहे तो उनसे शादी भी कर सकता है । हिरण ने लकड़हारे से कहा कि वो तालाब के पास छुप कर परियों का इंतज़ार करे और फिर उनमें से किसी एक के पंख चोरी कर लेऔर उन्हें ऐसी जगह छुपा दे जो किसी को पता ना हो । हिरण ने लकड़हारे से यह भी कहा कि पंख, परियों की धरती में आमद और स्वर्ग वापसी का एक मात्र ज़रिया होते हैं सो पंख चोरी की ज़द में आई परी स्वर्ग वापस नहीं जा पायेगी । इसके बाद लकड़हारा मदद की पेशकश के साथ, उस परी को अपनी ब्याहता बना सकता है ।

हिरण ने लकड़हारे को ख़ास तौर पर यह ताकीद की, कि कम से कम तीन बच्चे होने तक वो पंख चोरी का राज़ अपनी पत्नि को ना बताये वर्ना परी उसे छोड़ कर स्वर्ग वापस चली जायेगी । जैसा हिरण ने कहा था लकड़हारे ने वैसा ही किया, फिर हुआ ये कि हिरण की सलाह के मुताबिक़ लकड़हारे ने अपने लिए परी पत्नि का इंतजाम कर लिया । बहरहाल ये शादी लकड़हारे की नज़र में बेहद खुशहाल और कामयाब शादी थी, सो वो अपनी पत्नि की सोहबत के लिए बेहद मुतमईन हो गया था और उसने हिरण की, तीसरे बच्चे की पैदाइश तक पंख चोरी की गोपनीयता बनाये रखने वाली सलाह से मुंह मोड़ते हुए, अपनी परी पत्नि को छुपाये हुए पंख दिखला दिये । पंख मिलते ही परी अपने दोनों बच्चों सहित स्वर्ग वापस चली गई ।

लकड़हारा अपनी गलती पर मायूस और शर्मिन्दा था पर...उसके पास इस अनपेक्षित घटनाक्रम से निपटने के लिए हिरण से बढ़कर कोई दूसरा सलाहकार भी नहीं था । हिरण ने लकड़हारे को जादुई फलियां दीं जिनकी मदद से लकड़हारा नश्वर मनुष्यों के लिए निर्धारित, अनेकों बाधायें पार करता हुआ स्वर्ग जा पहुंचा और उसे उसका परिवार दोबारा मिल गया । लेकिन मुश्किल ये थी कि लकड़हारे की बीमार मां धरती पर अकेली रह गई थी और लकड़हारे को उसकी फ़िक्र हो चली थी । लकड़हारे की फ़िक्र से हमदर्दी जताते हुए पत्नी ने उसे उड़ने वाला घोड़ा दिया ताकि वो धरती पर जाकर अपनी मां को लेकर स्वर्ग वापस आ जाये । पत्नि ने उसे यह भी कहा कि घोड़े से किसी भी हालत में अलग मत होना वर्ना स्वर्ग वापसी असंभव हो जायेगी ।

इस यात्रा के दौरान हुआ ये कि लकड़हारे ने गलती से अपनी मां की गर्म खिचडी घोड़े की पीठ पर छलका दी । घोड़ा उड़ने के लिए तैयार था । उसने अपने दोनों अगले पैर आकाश की ओर उठा लिए थे । लकड़हारे ने घोड़े की पीठ पर हल्की सी थपकी दी ताकि वो धीरज रखे पर घोड़े ने इसे रवानगी का संकेत समझा और स्वर्ग की ओर उड़ गया ।  लकड़हारा एक बार फिर से अकेला ही रह गया, धरती पर अपनी पत्नि और बच्चों के बिना । कहते हैं कि पत्नि के बिछोह से दुखी लकड़हारा कुछ अरसे बाद मुर्गे में तब्दील हो गया जो आसमान की ओर मुंह उठा कर चीखता है । अपने दुःख को अभिव्यक्त करता, मारा मारा फिरता है ।

ज़ाहिर है कि लकड़हारा निर्धन किन्तु सदाशय व्यक्ति था सो उसने घायल हिरण की जान बचाई । वो अपनी बूढ़ी और बीमार मां के साथ रहता था और उसकी शादी भी नहीं हुई थी । संभव है कि उस समय पशु पक्षियों और इंसानों की जागतिक अन्योनाश्रितता तथा सम्बन्ध, श्रेष्ठतम पायदान पर रहे होंगे । आख्यान का हिरण, दैवीय रूप से सक्षम और लकड़हारे को समुचित मार्गदर्शन देने की स्थिति में दिखाईं देता है । सो कह नहीं सकते कि हिरण का घायल होना और प्राण बचाने की एवज़ में लकड़हारे का अहसानमंद हो जाना, प्रतीकात्मक रूप से हिरण को हिरण ही बना रहने देगा । निश्चय ही कथा का यह पशु पात्र, हिरण केवल पशु पात्र नहीं है बल्कि उसे निर्धन लकड़हारे के शुभचिन्तक और मददगार दैवीय शक्ति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए

कथा का नायक आर्थिक दृष्टि से समाज के निम्नतम तबके से ताल्लुक रखता है और उसमें सामान्य लोगों के जैसी चिंतायें हैं, वो सहज विश्वास करता है और फिर अपने निर्णयों पर पछताता है, उसकी सामान्यतायें / सहजतायें, उसकी असाधारण उपलब्धियों पर धूल डाल देती हैं । वो जीना चाहता है प्रेम के साथ, विश्वास और सदाशयता के साथ । पर उसका साधारण होना, सामाजिक  अभिजात्यता की गति से एक लय नहीं हो पाता और वो हमेशा वंचित हो जाता है, उस सुख से जो उसकी मुट्ठी से रेत सा फिसल गया हो । कहने को ये कथा कोरियाई द्वीप की है किन्तु एक सामान्य सा श्रोता भी इस जैसी अंतर्वस्तु वाली सैकड़ों गाथायें, भारतीय उपमहाद्वीप में खोज निकालेगा । कहन का मंतव्य ये है कि जन सामान्य के सपने, समूची दुनिया में कम-ओ-बेश एक जैसे होते हैं ।


शनिवार, 30 दिसंबर 2017

पर्वत आत्मा

वो पर्वत आत्मा थी, जोकि कब्रों से लाशें चुरा लेती और घर लौट कर उन्हें खा डालती ! एक व्यक्ति, यह जानना चाहता था कि लाशों को चुराने वाला कौन है ? सो उसने स्वयं को, कब्र में ज़िंदा दफन करवा लिया ! आत्मा ने जैसे ही नई कब्र देखी उसे खोद कर, उस व्यक्ति की देह निकाल ली ! दफनाए गये व्यक्ति ने अपने कपड़े के अंदर, सीने में, समतल पत्थर छुपा कर रखा था ताकि कोई उसका सीना चीरना चाहे तो ऐसा ना कर सके, रास्ते में मिलने वाले दरख्तों की टहनियाँ पकड़ पकड़ कर वो व्यक्ति, स्वयं को अधिक भारी बनाने का यत्न करता रहा, जिसके कारण से आत्मा को, उसे ढोने में काफी मेहनत करना पड़ी और वो अपने घर पहुंचने तक थक कर चूर हो गई ! घर पहुंच कर आत्मा ने देह को फर्श पर फेंक दिया और थकान मिटाने के लिये सो गई, इसी दौरान उसकी पत्नि खाना पकाने के लिये लकड़ियाँ एकत्रित करने के लिये घर से बाहर चली गई !

मृत होने का नाटक कर रहे व्यक्ति ने जैसे ही आंखें खोल कर चारों तरफ का जायज़ा लिया, तो आत्मा के बच्चे चिल्लाये, पिता जी, पिता जी, उसने अपनी आंखें खोली थीं ! आत्मा ने कहा, बकवास मत करो, ये एक मृत देह है जो रास्ते में, कई दरख्तों की टहनियों में अटक / गिर गई थी, तभी मृत-देह बना हुआ व्यक्ति उठा, और उसने आत्मा तथा उसके बच्चों को मार डाला फिर जितना भी तेज होना संभव था, उतना ही तेज, वहाँ से भाग निकला ! रास्ते में आत्मा की पत्नि ने उसे देखा, पत्नि ने समझा कि उसका पति भाग रहा है, उसने पूछा, तुम कहां जा रहे हो ? उस व्यक्ति ने कोई जबाब नहीं दिया, केवल भागता रहा ! आत्मा की पत्नि को लगा कि कुछ ना कुछ अघट घट गया है, सो वो भी उसके पीछे भागने लगी ! व्यक्ति चिल्लाया, पर्वतो ऊपर उठो और कई पर्वत, ऊंचे उठ गये ! आत्मा की पत्नि पीछे छूटने लगी थी क्योंकि उसे कई पर्वतों पर चढ़ना था !

भागते हुए व्यक्ति ने एक छोटी सी जलधारा देखी, वो कूद कर उसे पार कर गया और पुनः चिल्लाया, दोनों किनारों तक बढ़ कर बहो ! इसके बाद आत्मा की पत्नि के लिये, उफनती हुई जलधारा को पार करना असंभव हो गया वो तेज आवाज़ में बोली, तुमने इसे कैसे पार किया ? व्यक्ति ने कहा, मैं इसका पानी पी गया था, तुम भी ऐसा ही करो ! आत्मा की पत्नि, पानी पीने लगी, जिसके कारण से उसका पेट फूलने लगा था ! व्यक्ति ने उसकी तरफ घूम कर कहा, देखो, तुम्हारे अंगरखे का कोना, तुम्हारे पैरों के बीच लटक रहा है ! आत्मा की पत्नि ने जैसे ही झुक कर नीचे देखना चाहा, दबाब से उसका पेट फट गया और उसके बाहर, भाप निकलने लगी, जो धुंध में तब्दील हो गई और...आज तक पहाड़ों में तैरती है !

इस इन्युइट आख्यान में किसी अनजान, पर्वत वासी, मुर्दाखोर व्यक्ति और उसके परिजनों से पीड़ित, गांव वालों के प्रतिक्रियात्मक व्यवहार का विवरण दिया गया है ! कब्रों से मृत देहों का गायब होना, मृतक और उसके सम्बन्धियों के भावुक जुड़ाव को ठेस पहुंचाने वाला कृत्य माना जा सकता है, जिसके विरुद्ध प्रथम दृष्टया अपराधी की पहचान तदुपरांत दंड की व्यवस्था सहज सामाजिक व्यवहार है / अपराध निषेध की कार्यवाही है ! आख्यान कहता है कि आरोपी एक पर्वत आत्मा थी, तो सांकेतिक अर्थों में यह मान लिया जाए कि मृत देहों से आहार जुटाने वाला व्यक्ति और उसके परिजन, असामान्य व्यवहार करने वाले लोग हैं भले ही इसका कारण कुछ भी हो, चाहे बेरोजगारी, निर्धनता, दुर्भिक्ष या नर मांस खाने का शौक अथवा अन्य कोई भी कारण ! कहने का आशय ये है कि असामान्यता, मनुष्यों के लिये, मनुष्यवत ना होकर, आत्मा कदाचित प्रेतात्मावत है !

आरोपी को रंगे हाथों पकड़ने के प्रयास में, एक व्यक्ति स्वयं को, मौका-ए-वारदात में, मृत देह / चारे की तरह से प्रस्तुत कर देता है, वहाँ खतरा है सो अपने सीने को पत्थर के चपटे टुकड़े से संरक्षित कर लेता है, ये सहज सुलभ नैसर्गिक संसाधनों से निर्मित  कवच है, वस्तुतः अपराधी की खोज में निकले व्यक्ति की बुद्धिमत्ता / आत्मरक्षार्थ किये गये जतन का प्रमाण है ! खोजी व्यक्ति, मृत देह के अपहरण के दौरान, देह अपहर्ता आत्मा / व्यक्ति को थकाने का प्रयास करता है, ताकि सशक्त प्रतिकार की संभावनायें न्यूनतम की जा सकें ! कथा के अनुसार सारा घटनाक्रम खोजी व्यक्ति की अपेक्षाओं के अनुरूप घटता है और वो अपराधी को दंड देकर भाग निकलता है किन्तु अपराधी की पत्नि का दृष्टि भ्रम अब भी उसके सामने बाधक बन कर खडा हुआ है, वो भागता है और पीछा कर रही अपराधी की पत्नि के सामने पर्वतों और विशाल जलधाराओं की बाधायें खड़ी करता जाता है !

जनश्रुति का प्रथम पक्ष विशुद्धतः मुर्दाखोर परिवार की पहचान और अपराधीगण को दण्डित कर भागते हुए नायक की शौर्यगाथा को समर्पित है, किन्तु दूसरा पक्ष ये है कि पर्वतों में तिरती धुंध कैसे जन्मी होगी ? रुचिकर कथन ये कि उदर की गर्मी और उसमें समाहित पानी का मिश्रण भाप बन कर धुंध हो जाता है ! संभव है कि भोजन पकाने के दौरान, प्रज्ज्वलित आग में रखे खौलते पानी से निकलती हुई भाप इस निष्कर्ष का आधार बनी हो, या फिर पहाड़ों, घाटियों में मौजूद कोई तप्त जलकुंड इस निष्पत्ति का आधार बन गया हो ! बहरहाल अपने प्राकृतिक पर्यावास के प्रति सतत, सजग, चौकन्ने आदिम समुदाय के पर्यवेक्षणीय अनुभवों के प्रमाण बतौर, धुंध बनने का ये विवरण, इस कथा का महत्वपूर्ण बिंदु है !

बुधवार, 20 दिसंबर 2017

मगरमच्छ

सदियों पहले की बात है जब कि मगरमच्छों की त्वचा मुलायम और सुनहरी रंगत लिये होती थी क्योंकि वे, दिन तमाम दलदल  में रहते और रात में ही बाहर निकला करते ! तब दिन में जितने भी पशु पक्षी बाहर घूमते फिरते, वे सभी मगरमच्छों की सुनहरी त्वचा की तारीफ़ किया करते ! कहते हैं कि अपनी रंगत की तारीफ़ सुन सुन कर मगरमच्छों को घमंड हो गया और वे धूप सेकने के बहाने से दिन में भी दलदलों से बाहर आने लगे ताकि दूसरे जानवरों से अपनी सुनहरी त्वचा की और भी ज्यादा तारीफ सुन सकें ! तारीफ का लालच उन्हें, तेज चमकते सूरज वाले दिनों में भी, दलदल से बाहर ले आता ! 

धीरे धीरे उन्हें यह विश्वास होने लगा कि वे दूसरे जानवरों से बेहतर हैं सो वे दूसरे जानवरों पर हुक्म चलाते / दादागिरी दिखाते  हुए घूमने लगे ! मगरमच्छों के इस बदले हुए रवैय्ये से अन्य जानवर उकताने लगे थे, इसलिए मगरमच्छों की त्वचा देखने वाले जानवरों की संख्या दिन-ब-दिन घटने लगी थी ! बहरहाल हर एक दिन तेज चमकते सूरज के सामने अपनी त्वचा को उजागर करने के कारण से मगरमच्छों की त्वचा, भद्दी, मोटी और ऊबड़ खाबड़ होने लगी थी...और फिर जल्द ही ऐसा लगने लगा कि जैसे मगरमच्छों ने बख्तरबंद / कवच पहन रखा हो !
त्वचा की ख़ूबसूरती को खो बैठने की ज़िल्लत / अपमानजनक हालत से वे आज तक नहीं उबर पाए हैं और आज कल, अन्य जानवरों और मनुष्यों की पहुंच / निगाहों से दूर पानी में छुप कर रहते हैं ! उनकी शर्मिंदगी का आलम ये है कि पानी की सतह के ऊपर सिर्फ उनकी आँखे और नथुने ही देखे जा सकते हैं...
यह आख्यान नामीबियाई वाचिक परम्परा का हिस्सा है ! कथा को बांचने से प्रथम दृष्टया यह आभास होता है कि ये कहानी पूरी तरह से मगरमच्छों को संबोधित है, जिसमें उनकी त्वचा की रंगत तथा बनावट में परिवर्तन के बहाने, उनके पर्यावास और अन्य जीव जंतुओं, यहां तक कि मनुष्यों से दूरी बनाए रखने के कारणों का उल्लेख किया गया है ! प्रतीत होता है कि मगरमच्छों की देह रचना के भद्देपन और कुरूपता के लिये मगरमच्छ स्वयं ही उत्तरदाई हैं, अन्यथा नैसर्गिक तौर पर, वे बेहद खूबसूरत स्वर्णिम आभायुक्त, मुलायम त्वचा वाले जीव हुआ करते थे !
पूरी दुनिया में घडियाली आंसू और मोटी चमड़ी के साथ ही साथ भयावह जबड़ों के लिये ख्यात / कुख्यात मगरमच्छ...यह कहना कठिन है कि वे पिछली कितनी शताब्दियों से इन्हीं आशयों में, मनुष्यों के स्वभाव / चरित्र और व्यक्तित्व को विश्लेषित तथा  वर्गीकृत किये जाने का माध्यम बने हुए हैं, अतः बड़ी सम्भावना यह है कि ये जनश्रुति वास्तव में मगरमच्छों को संबोधित नहीं है बल्कि उनके हवाले से मनुष्यों को संबोधित है ! कहन निहितार्थ  यह है कि मनुष्यों में, घडियाली आंसू बहाने वाले, मोटी चमड़ी वाले और भयावह जबड़ों जैसी हिंसक प्रवृत्ति वाले श्रेणीदार  / वर्गवार विभाजन मौजूद हैं !   
इस कथा को उसके प्रातीतिक अर्थों में देखा जाए तो वो, समाज में मनुष्यों के स्व / आत्म / व्यक्तित्व को संबोधित करने वाली सुस्पष्ट कहन बन जाती है ! जब कथा कहती है कि पहले पहल मगरमच्छ सुनहली देहयष्टि के मालिक थे और अन्य जीवधारी उनकी प्रशंसा किया करते थे, तो इसका एक आशय यह भी हुआ कि पहले पहल मनुष्य प्रशंसा के योग्य व्यक्तित्व और कृतित्व के मालिक हुआ करते होंगे और फिर कालांतर में आत्म प्रशंसा / चाटुकारिता प्रिय होते गये होंगे ! ये कहना बिलकुल भी कठिन नहीं है कि चाटुकार प्रियता मनुष्य की सबसे बड़ी निर्बलता है,जो आत्मश्लाघा / दादागिरी की हद तक अभिव्यक्त हो सकती है, ठीक वैसे ही जैसे कि जनश्रुति के मगरमच्छों के साथ हुआ !   
प्रारंभिक मनुष्यों ने समाज में नियमों / अनुशासन के सौंदर्य के साथ बंध कर रहना सीखा होगा और फिर आत्मस्तुति जैसी प्रवृत्ति ने उन्हें अनुशासन तोडक / बर्बर / बड़बोला बना डाला होगा, जैसे सांकेतिक अर्थ के साथ, इस जनश्रुति को पढ़ना रुचिकर लगता है ! नि:संदेह कथा के मगरमच्छों का छुप कर रहना, अपने ही कारणों से सर्वस्व लुट जाने / पोल खुल जाने के बाद के मनुष्यों के मुंह छुपाने जैसा कथन है ! उचित हो जो हम इसे मनुष्यों का अपराध बोध मान लें !         

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

पतले लंबे दरख़्त



वो गर्मियों का मौसम था और मौसम के एक तपते हुए दिन में, सूरज के कहर से बचने के लिये, एक ही परिवार की दस लड़कियां, नदी की शरण में जा पहुंचीं ! पानी में उछलती / कूदती / खिलवाड़ करती हुई, इन लड़कियों के पास अचानक एक अपरिचित बूढ़ा आया और उसने कर्कश आवाज़ में कहा, सुंदर लड़कियो, मुझे पानी दो, मैं बहुत प्यासा हूँ ! बूढ़े के अनपेक्षित आगमन से खिसियाई हुई लड़कियों ने कहा, ओह ये कितना बदसूरत है, एक बूढ़े मेढक की तरह...और वे हँसने लगीं, हालांकि उनमें से एक लड़की खामोश थी, वो अपनी बहनों के अशिष्ट व्यवहार पर शर्मिन्दा थी !

दुर्भाग्यवश वो बूढ़ा, एक जादूगर था, सो उसके एक इशारे पर नौ लडकियां, पतले लंबे दरख्तों में तब्दील हो गईं, नदी तट पर समानान्तर खड़े हुए...और यह सब देख कर, नर्ममिजाज़ लड़की, बदहवास, चीखती, चिल्लाती, रोती हुई अपने पालकों के पास जा पहुंची, उसने, उन्हें घटनाक्रम की जानकारी दी ! दु:खी माता पिता नदी तट की ओर भागे, पिता के हाथों में कुल्हाड़ी थी, उसने पेड़ को काटने की कोशिश लेकिन...यह देख कर आतंकित हो गया कि पेड़ पर, कुल्हाड़ी की चोट वाले स्थान से खून बहने लगा है, वो रुक गया, उसने रुक रुक कर, तीन कोशिशें कीं लेकिन हर बार पेड़ से खून बहने लगता !
दुखियारे माता पिता के पास कोई विकल्प नहीं था, अब उन्हें, उस बूढ़े जादूगर के कोप से, बच गई पुत्री को सुरक्षित रखना था, इसलिए उन्होंने, उस लड़की को अपने से दूर, बहुत दूर देश, भेज दिया ताकि लड़की जीवित और सलामत बनी रहे...और वे स्वयं हमेशा हमेशा अपने आंसुओं के साथ, उन पतले लंबे दरख्तों के नीचे अपना जीवन गुज़ारते रहे...
अफ्रीकी बुशमैन कबीले की यह कथा दो पीढ़ियों की आपसी समझ और पारस्परिक तालमेल के अभाव की कहन है ! बुशमैन समाज के लोग सामान्यतः जादुई कहानियों, प्रेतों और चुड़ैलों के किस्सों के मज़े लेने वाले लोग हैं, उन्हें यह लगता है कि यह सब उनकी वास्तविक दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा है ! कहानी में किरदार बतौर मौजूद दसों बहनों में से केवल एक संवेदनशील और बड़ी पीढ़ी के प्रति आदर भाव रखने वाली लड़की है, जबकि शेष नौ बहनों का आचरण उम्रदराज़ लोगों के प्रति लगभग अशिष्टता की सीमा को लांघता हुआ नज़र आता है !
यह तो संभव नहीं कि कोई एक बूढ़ा अपने जादू से वाचाल प्रतीत हो रही लड़कियों को पतले लंबे दरख्तों में तब्दील कर दे...पर लड़कियों की सामान्य दैहिक किन्तु सांकेतिक तुलना में दरख्तों का पतला और लंबा होना, ध्यान देने योग्य कथन है ! बूढ़ा प्यासा था और उसकी अपेक्षा थी कि लड़कियां, उसकी प्यास बुझाने में उसकी मदद करें किन्तु नौजवान / कमसिन लड़कियां उस बूढ़े की देह रचना के मेढक जैसा होने का प्रतीकात्मक...किन्तु उपहासपूर्ण और अनादरपूर्ण कथन करती हैं, जोकि पुरानी पीढ़ी के प्रति नई पीढ़ी की सर्वथा अवांछित और अनुचित समझ का उदाहरण है !
दुनियां में शायद ही ऐसा कोई आदिम समाज हो, जहां के लोगों के मन में, जादुई कृत्यों तथा प्रेतों और चुड़ैलों के प्रति आतंकित होने की हद तक विश्वास मौजूद ना हो ! अतः लगता यह है कि जैसे पुरानी पीढ़ी, नितांत सांकेतिक कथा शैली में, नई पीढ़ी को अपनी शक्तिमत्ता का पाठ पढ़ाना चाहती हो, उसे, उस आस्था / विश्वास की योजना के अंतर्गत सबक देना चाहती हो, जिससे कि वे आतंक की हद तक प्रभावित रहे हों, कहने का तात्पर्य यह है कि पुरानी पीढ़ी के द्वारा, नई पीढ़ी की वाचालता और पुरानी पीढ़ी के प्रति उनके उपहासपूर्ण दृष्टिकोण तथा अनादर भाव की काट बतौर जादुई कथानक का सृजन किया जाना संभव है !   
आख्यान के मुताबिक नई पीढ़ी के असंगत आचरण का परिणाम ना केवल वे स्वयं बल्कि उनके माता पिता भी भुगतते हैं, जैसा कि इस कथा में उल्लिखित नौ बहने, पेड़ बन, अभिशप्त हुईं, एक बहन, लगभग देश निकाले जैसे हालात में जीवन व्यतीत करने के लिये बाध्य हुई और उनके निकट संबंधी / पालकगण यानि कि उनकी पुरानी पीढ़ी भी, आंसुओं के संग, घर से बेघर हुई...

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

ज़ुल्फ़ के शर होने पर...

चाहनामीड समुद्री किनारे से दूर एक द्वीप में अकेला रहता था, उसके पास एक घर और दो डोंगियां थी ! डोंगियां, ताकि वो आस पास आना जाना कर सके ! एक दिन उसने मुख्य भूमि के समुद्र तट पर खूबसूरत युवती को देखा, उसने युवती से कहा, चलो मेरे साथ द्वीप में रहना ! पहले युवती झिझकी...फिर चाहनामीड के दबाब में द्वीप जाने को तैयार हो गई, युवती ने कहा, द्वीप में रहने के लिये उसे कुछ वस्तुओं की आवश्यकता होगी, फिर वो अपने घर गई और वहां से लकड़ी का बड़ा खल बट्टा तथा कुछ अंडे लेकर आई ! इसके बाद वो दोनों डोंगी में बैठ कर द्वीप जा पहुंचे, जहां बहुत दिनों तक एक साथ रहे ! लंबे समय तक अविवाहित रहने के कारण चाहनामीड की अपनी ही तरह की आदतें थीं, यथा अपनी पत्नि को बताये बिना, वो लंबे समय के लिये घर से बाहर चला जाया करता, उसकी पत्नि को यह पसंद नहीं था पर...वो कुछ कहती नहीं थी ! निर्जन द्वीप में अकेला रहना उसे अच्छा नहीं लगता था, सो उसने, चाहनामीड को छोड़ने का फैसला कर लिया ! 

वापस जाने की तैयारी में उसने बहुत सारी गुड़ियां बनाईं, जिनमें से एक अन्य सब से बड़ी थी, आदतानुसार जैसे ही चाहनामीड, घर से गायब हुआ, युवती ने तट पर रखी दूसरी डोंगी में खल बट्टा सहित कुछ अण्डों को रख दिया और घर वापस लौट कर गुड़ियों को करीने से सजा दिया, कुछ इस तरह कि सबका मुंह घर के मध्य भाग की तरफ रहे, फिर उसने सबसे बड़ी गुड़िया को बिस्तर में लिटा कर, उसे फर से ढंक दिया ! युवती ने सारी गुड़ियों के पास थोड़ा थोड़ा जादुई पदार्थ भी रख दिया ! इसके बाद वो डोंगी लेकर मुख्य भूमि की ओर चल पड़ी ! जब चाहनामीड घर वापस लौटा तो उसने अपनी पत्नि को आवाज़ दी पर इसका कोई जबाब उसे नहीं मिला ! घर के अंदर घुस कर उसने गुड़ियों को देखा जो उसका मुंह दूसरी तरफ घूमते ही ठठाकर हंसतीं ! चाहनामीड को लगा कि बिस्तर पर उसकी पत्नि होगी सो उसने एक बड़ी छड़ी के सहारे बिस्तर से फर को हटाया, उसने देखा कि वो एक बड़ी गुड़िया थी, जो दूसरी गुड़ियों के मुकाबले और भी जोर से हंसी !

चाहनामीड ने चारों तरफ ध्यान से देखा, घर में खल बट्टा नहीं था, वो समझ गया कि युवती उसे छोड़कर जा चुकी है ! वो दौड़ते हुए तट पर पहुंचा तो उसने पाया कि उसकी दूसरी डोंगी पानी में बहुत दूर तक जा चुकी है ! उसकी पत्नि मुख्य भूमि में पहुंचने के लिये डोंगी को बहुत तेजी से खे रही थी, वो पहली डोंगी लेकर पत्नि के पीछे चल पड़ा, यथा शक्ति तेज दर तेज, चूंकि वो अपनी पत्नि से बेहतर और ताकतवर खिवैय्या था सो जल्द ही पत्नि की डोंगी के निकट जा पहुंचा ! यह देख कर पत्नि, डोंगी के अगले हिस्से में गई और उसने पानी में बट्टे को फेंक दिया जो सैकड़ों बट्टों में तब्दील हो गया ! डोंगी के सामने से इतने सारे बट्टे हटाने में चाहनामीड को समय लगा, तब तक युवती और भी दूर जा चुकी थी ! चाहनामीड ने चप्पू ज्यादा तेज चलाये और फिर से युवती के नज़दीक जा पहुंचा ! इस बार युवती ने पानी में खल फेंका, जो सैकड़ों खल में तब्दील हो गया, जिससे चाहनामीड के सामने एक नई बाधा खड़ी हो गई, उसने जैसे तैसे सैकड़ों खल सामने से हटाये !

उसने पुनः युवती के निकट पहुंचने की कोशिश की, लेकिन इस बार युवती ने पानी में अंडे फेंक दिये !  अण्डों की बाधा को रास्ते से हटा कर चाहनामीड, युवती को पकड़ने के लिये लेकर आगे बढ़ा, चूंकि युवती के पास अन्य कोई सामग्री नहीं बची थी, जिससे कि वो परित्यक्त पति का रास्ता रोक पाती, सो वो डोंगी में खड़ी हो गई और उसने अपने सिर से एक लम्बा बाल तोड़ा, जो उसके हाथों में आते ही भाले की तरह से सख्त हो गया, जिसे उसने चाहनामीड के माथे की ओर निशाना साध कर फेंका, चूंकि चाहनामीड तेजी से डोंगी खे रहा था तो वो यह देख नहीं सका कि युवती ने क्या किया ! भाला तेजी से चाहनामीड के माथे पर टकराया जिसके कारण वो डोंगी से पलट कर, नीचे पानी में गिर गया और डूब कर मर गया ! इसके बाद वो युवती मोहेगान लोगों तक वापस जा पहुंची और उसने मृत्यु होने तक का जीवन सुख पूर्वक जिया !

आख्यान कहता है कि युवक, सुंदर युवती की ओर आकर्षित हुआ और उसने युवती को सहजीवन व्यतीत करने के लिये प्रेरित / आमंत्रित किया ! युवती प्रथम दृष्टया अनिच्छुक थी फिर युवक के साथ जाने के लिये उसकी सहमति, स्त्रियोचित लज्जा जनक हो सकती है, चूंकि इस ब्याह कथा में, ब्याह के समय अभिभावकों का विवरण अलोप हैं सो माना जा सकता है कि यह प्रेम विवाह रहा होगा ! हालांकि युवती ने अनजाने द्वीप की ओर प्रस्थित होने से पहले, मक्का कूटने के लिये खल बत्ता रख लिया और अंडे शायद इसलिए कि घरेलू स्तर पर, खाने योग्य परिंदों के प्रजनन / पुनुरुत्पादन / मांसाहार की सतत व्यवस्था बनी रहे ! निश्चय ही युवती,परिवार बसाने की आकांक्षा के साथ मुख्य भूमि छोड़ कर द्वीप में पहुंची थी लेकिन पारिवारिक सामंजस्य के अभाव की कल्पना भी उसने नहीं की होगी, युवक को अकेले रहने की आदत थी, वह पहले भी किसी अन्य व्यक्ति के लिये उत्तरदायी नहीं था सो उसे, घर में अपनी उपस्थिति / अनुपस्थिति का विवरण किसी अन्य को देने का अभ्यास ही नहीं था !

कथन मंतव्य यह कि, कामजनित कारणों से युवती, उस युवक के जीवन में आई ज़रूर, लेकिन वह युवक अपने एकाकी जीवन काल की आदतों में अपेक्षित संशोधन नहीं कर सका जबकि युवती अपने बंधु बांधवों को तज कर युवक के भरोसे में, सहजीवन व्यतीत करने आई थी और परिवार चलाने की उसकी तैयारी, खल बत्ते और अण्डों की सांकेतिकता से स्पष्ट है ही ! हम मान सकते हैं कि युवती सामुदायिक जीवन छोड़कर, एक अकेले युवक के साथ रहने के लिये तत्पर थी किन्तु युवक अपने सामाजिक दायित्व के निर्वहन के लिये तैयार नहीं था ! उसे यह भी ध्यान नहीं रहा कि युवती ने उसके लिये क्या क्या छोड़ा है और उसे युवती के त्याग की एवज किन किन अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहिए ! बहरहाल कथा, युवक की लंबी अनुपस्थिति के बावजूद, कुछ नहीं कहने के आशय से युवती के संयम का संकेत देती है लेकिन युवक, साहचर्य को लेकर पत्नि की अपेक्षाओं को समझ ही नहीं सका   या शायद महसूस ही नहीं कर पाया !

प्रेम में एक पक्षीय त्याग / समर्पण / अनुभूतियों की समझ को ढ़ोने का ठेका निश्चय ही उस युवती के हिस्से नहीं आया था, जोड़ा हो जाने के हालात में यह सब उस युवक का भी कर्तव्य था ! संभवतः द्वीप पर एकाकी जीवन जीते हुए उस युवक को, पशुवत यौनिकता का बोध अर्थात संगी से मिलो, सहवास करो और भूल जाओ का, ज्ञान तो था पर...उसे प्रणय और सहजीवन के मौलिक दायित्वों का बोध ही नहीं था ! युवती ने पति को पर्याप्त समय देने के उपरान्त ही परित्याग का निर्णय लिया ! उसने मुख्य भूमि की ओर पलायन करने से से पूर्व, पति से पिंड छुड़ाने के लिये यथा संभव तैयारियां की थीं, जो जल यात्रा के दौरान उसके काम आयीं ! दिलचस्प बात ये कि गृहस्थी के लिये जुटाये गये सामान का इस्तेमाल उसने, पीछा कर रहे परित्यक्त पति को बाधा पहुंचाने के लिये किया ! इस आख्यान बांचते हुए प्रतीत होता है कि कथाकालीन समुदाय की उक्त युवती को निर्णय लेने का अधिकार था सो उसने ब्याह करने का निर्णय लिया और परित्याग का भी ! इतना ही नहीं आक्रामक होते हुए, परित्यक्त पति / पुरुष के वध का निर्णय भी...


शनिवार, 19 अप्रैल 2014

चाह बर्बाद करेगी...!

ये बात उन दिनों की है, जब कि राजा इयो कालाबार के शासक थे, तब मत्स्य कुमार धरती पर रहता था ! वो तेंदुए का घनिष्ठ मित्र था और उसके झाड़ीनुमा घर में अक्सर, उससे मिलने जाया करता, जहां तेंदुआ उसका यथोचित सत्कार करता !  तेंदुए की पत्नी बहुत सुंदर थी, सो मत्स्य कुमार को उससे प्रेम हो गया, इसीलिये जब भी तेंदुआ घर से बाहर जाता, मत्स्य कुमार अक्सर उसके घर पहुंच जाया करता और तेंदुए की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी से  प्रेम करता, लेकिन एक बूढ़ी स्त्री ने तेंदुए को इस घटना क्रम से अवगत करा दिया जो कि उसकी गैरहाजिरी में घट रहा था !

पहले पहल तो तेंदुए को विश्वास ही नहीं हुआ कि उसका पुराना दोस्त मत्स्य कुमार ऐसा निकृष्ट व्यवहार कर सकता है ! एक रात वो अचानक अपने घर वापस लौट आया तो उसने देखा कि मत्स्य कुमार और उसकी पत्नी प्रेम लीन थे ! यह देखकर वो बहुत क्रोधित हुआ ! वो मत्स्य कुमार को जान से मारना चाहता था पर उसे ख्याल आया कि मत्स्य कुमार उसका बहुत पुराना दोस्त है, तो उसे स्वयं दंड देने के बजाये राजा इयो से इसकी शिकायत करना चाहिए और दंड की मांग करना चाहिए ! उसने ऐसा ही किया ! राजा इयो ने शिकायत पर कार्यवाही के लिये एक बड़ी पंचायत का आयोजन किया जहां तेंदुए ने अपना पक्ष रखा !

मत्स्य कुमार के पास अपनी सफाई में कहने के लिये कुछ भी नहीं था ! राजा इयो ने कहा यह बहुत बुरी बात है मत्स्य कुमार, तेंदुए का दोस्त था...और तेंदुआ उस पर विश्वास करता था ! लेकिन मत्स्य कुमार ने उसकी अनुपस्थिति का नाजायज फायदा उठाया, उससे विश्वासघात किया ! इसके बाद राजा ने निर्णय किया कि अबके बाद से मत्स्य कुमार को धरती के बजाये जल में रहना होगा ! वो जब भी धरती में आने की कोशिश करेगा उसकी मृत्यु हो जायेगी !  उसने यह भी कहा कि जब भी कोई मनुष्य या पशु मत्स्य कुमार को पकड़ पायें, उसे मार कर खा लें ! यही उसका दंड है , मित्र की पत्नी के साथ अनुचित व्यवहार करने का !

इस नाईजीरियाई लोक कथा में अन्तर्निहित संकेतों को चीन्हने की कोशिश करें तो किसी एक समय में भिन्न जातियों के सहअस्तित्व और मित्रवत रहवास की पुष्टि होती है, सामाजिकता के हिसाब से तेंदुआ किसी आक्रामक, आखेटक अथवा शौर्यजीवी जाति का प्रतिनिधि है जबकि उसका मित्र मत्स्य कुमार नि:संदेह किसी अन्य जाति का व्यक्ति है ! तेंदुए के घर का झाड़ीनुमा होना यह संकेत देता है कि वह आर्थिक रूप से संपन्न नहीं था पर उसमें अपने विजातीय मित्र के लिये सत्कार की भावना की कोई कमी नहीं थी ! कहने का आशय यह है कि तब के समय में मित्रता पर सजातीयता की बंदिशे नहीं हुआ करती होंगी !   

कथा में उल्लिखित बूढ़ी स्त्री, प्रचलित परम्पराओं की प्रतीक है, जोकि एक विवाहित स्त्री और उसके पति के मित्र के मध्य पनपते प्रेम के विरुद्ध आ खड़ी होती है, उसे परम्पराओं के विरुद्ध घट रहे , एक नवाचार को रोकना था, किसी विवाहिता के फिर से प्रेम में पड़ जाने का निषेध करना था ! मत्स्य कुमार अपने मित्र की पत्नी से प्रेम करता है पर...यह प्रेम एक तरफ़ा प्रतीत नहीं होता, अतः सामाजिकता / नैतिकता की दृष्टि से इसे भले ही अनुचित या निषिद्ध माना जाये, किन्तु समवयस्क स्त्री पुरुष के मध्य कभी भी पनप जाने वाले व्यवहार के रूप में आश्चर्यजनक भी नहीं कहा जा सकता !

ये कथा एक सुव्यवस्थित न्याय प्रणाली का कथन करती है जो मित्र के विश्वासघाती को अपना पक्ष रखने का अवसर देती है, यह एक किस्म की सार्वजानिक सुनवाई है, जहां राजा इयो, पर्याप्त पारदर्शिता पूर्ण प्रक्रिया अपनाता है !  प्रकरण में तेंदुए की पत्नी के व्यवहार पर विचारण का कोई उल्लेख नहीं मिलता, जिससे यह प्रतीत होता है कि उन दिनों विवाहेत्तर संबंधों के लिये पुरुषों को ही मूलतः उत्तरदाई माना जाता होगा ! मत्स्य कुमार को दंड स्वरुप, जन्म भूमि से बेदखल किया गया, उसकी मृत्यु के लिये सर्व समाज को अधिकृत किया गया, उसके लिये नये जलीय पर्यावास में रहने का आदेश नि:संदेह सामाजिक बहिष्कार का प्रतीक है !

मत्स्य कुमार अकेला तो उस धरती का वासी नहीं रहा होगा, उसके परिजन भी उस भूभाग के निवासी रहे होंगे अतः यह कल्पना की जा सकती है कि उसके, परम्परा / सामाजिक परिपाटी विरोधी, एक कृत्य / एक अपराध का दंड, उसके परिजनों को भी भुगतना पड़ा होगा ! आज की न्याय प्रणाली में भी, दंडित किसी अपराधी के परिजन, कारागार में निरुद्ध भले ही ना किये जायें, उन्हें अपराधी के साथ मृत्यु दंड भले ही ना दिया जाये पर उसके, अपराध का अप्रत्यक्ष भुगतान वे करते ही हैं ! इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कथा में उल्लिखित तेंदुआ विजातीय दिख रही न्याय प्रणाली पर भी पूर्ण विश्वास करता है !

सलिल वर्मा कहते हैं कि बूढ़ी स्त्री तेंदुए से सीधा शिकायत ना करते हुए, उस स्त्री को भी तो समझा सकती थी, वो अनुभवी थी उसे सामाजिक मर्यादाओं की चिन्ता होना स्वाभाविक है किन्तु उस स्त्री के लिये यह अगम्य गमन की तरह था तो उसे मर्यादाओं का आभास दिलाना उचित होता ! तेंदुए का अपने मित्र पर क्रोधित होना और पत्नी पर तनिक भी क्रोध ना करना अजीब लगता है ! उसमें मित्र के प्राण लेने की इच्छा जागृत हुई, किन्तु पत्नी को लेकर ऐसा कुछ भी नहीं अर्थात उसके क्रोध का मूल कारण मित्र का विश्वासघात है ! अगर उसकी पत्नी किसी अन्य पुरुष के साथ संलग्न होती तो वो क्या करता ?

उसके मन में दोनों को जान से मारने की बात क्यों नहीं आई ? जबकि वो दोनों इस अपराध में समान रूप से भागीदार थे ! विवाहेत्तर संबंधों के लिये केवल पुरुष को दोषी माने जाने की संभावना कम ही लगती है बल्कि यह मुकदमा मूलतः मित्र के विश्वासघात का रहा होगा ! इस बात की पुष्टि उस बूढ़ी स्त्री के व्यवहार से होती है , जो तेंदुए की पत्नी को समझाने की अपेक्षा, घटनाक्रम तेंदुए के ही संज्ञान में लाती है ! घटनाक्रम में राजा का न्याय तथा समाज का बहिष्कार समझ में आता है, किन्तु मारे जाने की अंतहीन सजा कि जो भी, उसे, जब भी पाये, उसका भक्षण कर जाये, औचित्य हीन है ! कब समाप्त होगी ये सजा ?  

(आलेख का शीर्षक मशहूर ब्लागर सलिल वर्मा के सौजन्य से)
  

सोमवार, 17 जून 2013

पहले आंसू ...!

बहुत पहले की बात है, जबकि इन्युइट कबीले का एक व्यक्ति, समुद्र के किनारे सील के शिकार के लिए गया था ! वहां, पानी से बाहर बड़ी तादाद में मौजूद सीलों को देख कर वह बहुत आनंदित हो रहा था ! उसने सोचा कि आज वह निश्चित रूप से अपनी पत्नि और पुत्र के लिए अच्छे भोजन का प्रबंध कर सकेगा सो वह सीलों  की ओर सतर्कतापूर्वक धीरे धीरे रेंगने लगा ! किन्तु सीलों को किसी बहिरागत / आगंतुक की उपस्थिति की अनुभूति हो चली थी अतः वे बेचैन होने लगीं, यह देख कर उस आखेटक ने अपनी गति और भी कम कर दी ! अचानक सारी की सारी सीलें पानी में कूदने लग गईं ! वह व्यक्ति यह देखकर बावला सा होने लगा क्योंकि अपने परिजनों के लिए सम्यक भोजन प्रबंध की उसकी कल्पना चूर चूर होने लगी थी !

तभी उसने देखा कि समुद्र में कूद चुके सील समूह से पृथक एक सील और भी है जो सील समूह की तुलना में मंथर गति से समुद्र की ओर बढ़ रही थी ! आह यह पुरस्कार , उसकी उम्मीद अभी शेष थी ! उसके सामने उसकी पत्नि का गर्वीला चेहरा और पुत्र की आनन्द आपूरित आँखें कौंध गईं ! इस एक सील से अगले कई दिनों तक उन सब की उदरापूर्ति संभव है ! आखेटक चाहता था कि वह सील उसे देख ना पाये, सो अतिरिक्त सावधानी पूर्वक रेंगते हुए वह , उस सील की ओर बढ़ा, तभी सील उछलकर गहरे समुद्र में समां गई ! स्तब्ध आखेटक अपने पैरों पे खड़ा हुआ तो वह एक अनजान सी संवेदनात्मक अनुभूति से थरथरा रहा था , उसके गले से पहले पहल घुटी घुटी, फंसी फंसी सी , फिर एक तीव्र असहज सी ध्वनि निकलने लगी थी !

आखेटक को लगा कि उसकी आँखों से पानी जैसी बूँदें झर रही हैं ! उसने अपनी अँगुलियों से उन बूंदों को छुआ और चख कर देखा,वे खारी थीं ! उसके आर्तनाद को सुनकर उसकी पत्नि और पुत्र किसी अनहोनी की आशंका में समुद्र के किनारे की ओर भागे ! उसकी आँखों से बहते तरल को देख कर वे चिंतित हुए ! आखेटक ने उन्हें सारे घटनाक्रम से अवगत कराया और यह भी कि उसका भाला और चाकू किस तरह से निष्फल सिद्ध हुए ! आखेटक की व्यथा उसके पत्नि और पुत्र के लिए भी व्यथा थी सो वे भी आखेटक के साथ क्रंदन करने लगे और  इस प्रकार से मनुष्य जाति ने पहले पहल रोना सीखा ! अगले दिन उन सब ने मिलकर एक सील का शिकार किया और अगले शिकार की सुगमता के लिए उसकी खाल से फंदे बनाये !

यह आख्यान सामाजिक दायित्वबोध के आलोक में संवेदनाओं के प्रथम प्रकटीकरण की बात करता है !  कथा में उद्धृत आखेटक को दुनिया के पहले पहले रुदन का उदाहरण बनाया गया है , जिसका कारण , अपने परिजनों के भरण पोषण के लिए उसकी समूहगत चिंतायें हैं ! अगर आख्यान के अंतर्गत चोट लगने जैसी किसी घटना के फलस्वरूप निकले आंसुओं की बात की जाती तो नि:संदेह उसका आशय दैहिकता मात्र ही होता , एक नितांत व्यक्तिगत जैविक कारण , किन्तु यह आख्यान , एक आखेटक के समक्ष पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध शिकार के आह्लाद में आखेटक के परिजनों को भी समाविष्ट करता है और शिकार के हाथों से फिसल जाने की असहायता के समय में भी ! यह आख्यान अपनी सम्पूर्ण कहन के दौरान  आखेटक के निज कौशल से इतर उसकी पत्नि और पुत्र को बारम्बार आखेट का मूल कारण इंगित करता है !

शिकार के समय आखेटक अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य का उपयोग, अपने परिवार के हित में करता है ! वह हर क्षण अपने स्वजनों को स्मरण करते हुए , सतर्क अथवा अति-सतर्क , आनंदित अथवा दुखी होता है !  कहने का आशय यह है कि उस समय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भले ही एक भौतिक / तरल और द्रव्य रूप में हुई हो , किन्तु उसका मौलिक कारण उसकी पृष्ठभूमि में अन्तर्निहित सामाजिकता ही है ! इस आख्यान के तईं , आदिम जातीय समाजों की अपनी समझ , उनके बोध के अनुसार सामाजिकता के अधीन संचालित / सामूहिकता निर्दिष्ट / स्वजनता प्रेरित , दैहिक जैविक घटनाक्रम से यह संकेत मिलता है कि वे , वैयक्तिकता बनाम सामाजिकता में से तुलनात्मक रूप से सामाजिकता को ही प्रधानता देते हैं !

( दो माह से ज्यादा समय गुज़रा, कार्याधिक्य के चलते, कोई पोस्ट नहीं डाली, सोचा ब्लॉग मृतप्राय दिखे इससे बेहतर है कि मैं लोक आख्यान के नाम से ही उसे आक्सीजन दे दूं  )

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

लड़की का प्रतिशोध ...!

ये वर्षों पहले की बात है ! शहंशाह यान की इकलौती पुत्री का नाम न्युवा था ! वो बहुत सुन्दर, प्यारी और मजबूत इच्छा शक्ति वाली युवती थी ! उसे तैरने का शौक था इसलिये वो अक्सर पूर्वी समुद्र में तैरने चली जाया करती थी ! वो नीली लहरों से खेलती और प्रकृति की निकटता से आनंदित हुआ करती थी ! एक दिन तैरते हुए वो पानी में डूब गई, किन्तु उसकी आत्मा ने हार नहीं मानी, वह पानी से बाहर निकल आई और एक पक्षी बन गई ! उसके सिर पर काले सफ़ेद धब्बे और उसकी चोंच भूरी तथा पंजे लाल थे ! उसने प्रतिशोध लेने में ज़रा भी समय नष्ट नहीं किया ! वह प्रतिदिन पश्चिमी पहाड़ों से कंकड और तिनके / लकड़ी के टुकड़े उठाकर पूर्वी समुद्र में डाल देती है ! वो पूर्वी समुद्र को भर देने और बदला लेने के लिए दृढ संकल्पित है, ताकि समुद्र किसी और को डुबा पाने की क्षमता हमेशा के लिए खो बैठे ! बारिश हो या धूप वह कभी आराम नहीं करती ! सर्दी हो या गर्मी वो हमेशा काम करती रहती है, यहां तक कि वह अब भी स्वयं को अपने काम में व्यस्त रहती है ! 

कई बार आख्यानों को पढ़ते हुए लगता है कि, जैसे देश काल का फ़र्क मिट गया हो ! विदेशी धरती पर कही गई कथाओं में कमोबेश वैसी ही भावनाओं की अभिव्यक्ति जैसे कि हमारी अपनी देशज कथाओं में ! हमारे यहां सद्कार्य हेतु, एक गिलहरी, समुद्र के विराटत्व के विरूद्ध अपना योगदान देती है, ताकि एक अन्याय का निवारण किया जा सके तो चीन में एक राजकुमारी स्वयं के साथ हुए व्यवहार का प्रतिकार इस तरह से करना चाहती है कि, कोई दूसरा इंसान, आतताई समर्थ के अकारण / अवांछित शौर्य प्रदर्शन का शिकार ना हो जाये ! एशिया महाद्वीप के खेतिहर समाजों में सत्ता का राजतान्त्रिक स्वरूप अच्छे और बुरे, दोनों ही तरह से अभिव्यक्त होता है, जैसे कि हमारे यहां अगर रावण और दुर्योधन का राज है, तो राम राज भी है, ऐन इसी तरह से चीन का राजतान्त्रिक ढांचा भी नायक और खलनायक के द्वैध रूप में दिखाई देता है, मसलन महान दीवार को बनवाने वाले शहंशाह के क्रूर निर्णय बनाम इस कथा की नायिका का सोद्देश्य कर्म ! 

अगर इस कथा को राजपरिवार से ना भी जोड़ा जाये तो भी राजकुमारी एक प्रभावशाली परिवार की सुन्दर कन्या है ! वो अपने शौक, अपनी रुचियों के चलते, छुई मुई लाजवंती की तर्ज वाली, घर की चार दीवारों के दरम्यान सिमटी हुई,कोई एक लड़की नहीं है, बल्कि वह बहिर्जगत के साथ खुलकर अंतःक्रिया करती है, प्रकृति के साथ तादात्मीकारण चाहती है ! उसे तैरने का शौक है, सो उसके देश का पूर्वी समुद्र उसकी क्रीड़ा स्थली है, सत्य यह कि उसे प्रकृति से प्रेम है ! कथा से लेशमात्र भी संकेत नहीं मिलता कि वह प्रकृति के प्रतिकूल कोई कर्म कर रही थी ! प्रतीकात्मक रूप से समुद्र एक सामर्थ्यशाली दैत्य / खलनायक बन कर उभरता है, जब वह प्रकृति प्रेमी राजकुमारी की अप्राकृतिक मृत्यु का कारण बनता है ! कथा कहती है कि राजकुमारी एक दिन पानी में तैरते समय डूब गई यानि कि उसकी मृत्य हो गई, किन्तु उसकी दृढ इच्छा शक्ति के कारण से उसकी आत्मा एक पक्षी के रूप में जीवित बनी रही! एक इंसान के तौर पर उसका देहांत हो चुका है, जिसका कारण वह समुद्र है, जिससे वह अठखेलियां करती थी, जिसके साहचर्य में आनंदित हुआ करती थी ! 

प्रेम के इस प्रकटीकरण में समुद्र कहीं अधिक शक्तिशाली पक्ष था किन्तु उसने अमर्यादित व्यवहार किया, स्वयं से प्रेम करने वाली लड़की की जान ली ! लड़की को इस बात का दुःख है कि सामर्थ्यशाली ने उस पर भरोसा कर रहे जीवन को नष्ट कर दिया ! अब वह अपनी जिजीविषा के रूप में एक पक्षी है और उस समुद्र को कंकड़ और तिनकों पाट देना चाहती है, ताकि अन्य कोई इंसान उसकी तरह से समुद्र के अमर्यादित व्यवहार शिकार ना हो जाये ! उसका प्रतिशोध स्वयं के लिए नहीं है बल्कि वह भविष्य की ओर देखती है, उसे दूसरों के जीवन की फ़िक्र है ! वह समुद्र से उसकी प्राण हर लेने वाली सामर्थ्य छीन लेना चाहती है ! वह तैरना जानती थी, पर समुद्र पर भरोसा करके डूब गई, अब उसे धोखेबाज़ समुद्र से अन्य जीवनों की रक्षा करना है !  संभव है कि आख्यान की नायिका का पक्षी हो जाना और कंकड़ और तिनकों से समुद्र को पाटने का यत्न भी सांकेतिक हो !  शायद वह डूब कर मरने से बच गयी हो ? मुमकिन है कि उसे स्वयं समुद्र में तैरती हुई किसी एक लकड़ी का सहारा मिल गया हो ?

अब वह समुद्र में तिनकों / लकड़ी के टुकड़ों के रूप में जीवन रक्षक संकेत छोड़ रही है !  समुद्र की गहराई में कमी के संकेत बतौर कंकड़/पत्थरों, के उपयोग की प्रतीकात्मकता से भी इंकार नहीं किया जा सकता ! बहरहाल एक लड़की, सारे मौसम, दिन रात एक ही काम कर रही है, अमर्यादित शक्ति को मर्यादा में रहने की सीख दे रही है, होने वाली क्षति के विरुद्ध उपाय कर रही है, इंसानी जीवन को साधने का यत्न कर रही है...और अविश्वस्त को मृत्यु का भय दिखा रही है  !

बुधवार, 20 जून 2012

अभिशप्त स्त्री ...!

एक आदिवासी युवा आखेटक योद्धा अपनी पत्नी और मां के साथ सागर तट की ओर आकर रहने लगा ! उन दिनों गर्मियां बेहद सख्त थीं और मछलियों ने किनारों पर आना छोड़ दिया था ! वन्य पशु भी सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में चले गये थे ! आखेटक मीलों दूर तक भटकता , पानी में जाल लगाता और जंगलों में फंदे लेकिन शिकार हाथ नहीं आता ! खाने के लिए घास के कंद और बेरियों के सिवा कुछ नहीं मिलता पर वे भी पर्याप्त नहीं थे ! परिवार के लिए भीषण दुर्भिक्ष के दिन थे ! वृद्ध मां जिसे कम दिखाई देता था , वह भोजन की अल्पता के चलते दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी जबकि युवा पत्नी उपलब्ध रसद में से प्रतिदिन पर्याप्त खा लेने के कारण स्वस्थ बनी रही ! आखेटक यह देख देख कर कुढ़ता , उसे लग रहा था कि वह भी अपनी शक्ति खोता जा रहा है ! 

एक सुबह वृद्ध मां ने अपने पुत्र को एक दु:खद किस्सा सुनाया कि उसने एक स्वप्न*देखा है कि हवा में मछली भूने जाने की गंध फ़ैली हुई है और जब उसने गन्ध की दिशा में देखा तो पुत्रवधु ताजी भुनी हुई मछली खा रही है ! वृद्ध मां ने अपने लिए एक निवाला मांगा तो पुत्रवधु ने कहा , यह सच नहीं है , भुनी हुई मछली की गंध तुम्हें स्वप्न में आई होगी ! स्वार्थी युवती ने भूखी वृद्धा की गुहार नहीं सुनी और स्वयं पूरी मछली खाने के बाद उसके गर्म कांटे , वृद्ध मां के हाथ में रख दिये , जिससे उसके हाथों की त्वचा जल गई ! यह सुनकर आखेटक पुत्र को बहुत गुस्सा आया पर उसने अपनी मां को सावधान किया कि वह अभी शांत बनी रहे ताकि वह अपनी पत्नी की गतिविधियों पे नज़र रख सके ! आखेटक ने घटनाक्रम से अनजान बने रहने का अभिनय किया और दिन यूंहीं गुज़र गया !

रात में उसकी पत्नी चुपचाप उठकर समुद्र तट की ओर बढ़ी तो उसने उसका पीछा किया , उसने सुना कि पत्नी ने ज़ोर से कोई मंत्र कहा, जिसके कारण दो मछलियां उसकी टोकरी में आ गईं और वह उन्हें लेकर घर की ओर वापस चल दी , आखेटक ने पत्नी द्वारा कहे गये मंत्र को सुनकर याद कर लिया था और वह पत्नी से भी पहले घर वापस आकर सोने का अभिनय करने लगा ! पत्नी को संदेह भी नहीं हुआ और उसने चुपके से आकर मछलियां भूनी और उन्हें खाकर कांटे जमीन में दबा दिये ! सुबह आखेटक शिकार को चला गया जहां उसे एक मोटी सील मछली मिली जिसके कारण शाम को पूरे परिवार की दावत जैसी हो गई ! देर रात जब पत्नी गहरी नींद में सो रही थी तो युवा समुद्र के किनारे की ओर गया और उसने वही मंत्र दोहराया जो उसकी पत्नी कहती थी , उसे एक बड़ी मछली मिली जिसे लेकर वह घर आया और सुबह सुबह उसने आग में मछली भूनी जिसे उसकी मां ने बड़े शौक से खाया , वह हर निवाले पर खुश होती / हंसती जैसे कि उसे , उसकी पुत्रवधु पर विजय मिल गई हो ! युवा स्त्री जागते ही समझ गई कि उसके शर्मनाक स्वार्थी व्यवहार को उसका पति जान गया है !

पति के क्रोध से बचने के लिए वह पहाड़ों की तरफ भागी , तेज बहुत तेज , पंजों के बल पर ! उसे लगता कि उसका पति उसका पीछा कर रहा है ! उसके कानों में पति के पदचाप गूंजते और वह भागती रही ! उसे महसूस हुआ कि उसका शरीर छोटा होता जा रहा है ! पहाड़ पर एक बड़े शिलाखंड तक पहुंचते ही उसके पूरे जिस्म पर पक्षियों जैसे रोम उभरने लगे , उसके हाथ पंखों में बदल चुके थे ! वह भयभीत हो गई , उसे पता चल गया कि उसने मन्त्रों का स्वार्थपूर्ण इस्तेमाल किया है , जबकि उसका परिवार भूखों मर रहा था और अब उसे अपने किये की सजा मिल रही है ! उसका पति उसका पीछा करते हुए जब तक उस शिलाखंड में पहुंचा , पत्नी पूरी तरह से निशाचर परिंदे , उल्लू में तब्दील हो चुकी थी ! वह दुःख से चीखना चाहती थी , पर उसके कंठ से केवल घू घू की ध्वनि निकली ! वह शोकाकुल होकर उड़ चली , उसका पति देखता रहा , मानवता को निज स्वार्थ के कारण दण्डित होते हुए ! उसने सोचा कि वह उसे घर ले जाकर प्रेम से पुनः मानव बना लेगा , किन्तु वह स्त्री स्वार्थ की दुष्ट शक्तियों के अधीन उसकी पहुंच से दूर जा चुकी थी ...अलास्का के जंगलों में आज भी उल्लू की दर्दनाक और घृणास्पद चीखें सुनाई देती हैं , आज भी सब याद करते हैं , उस स्त्री के स्वार्थी व्यवहार और उसे मिले दंड को !

सामान्यत: वर्ष पर्यंत हिमाच्छादित भू-अंश अलास्का के इस आख्यान की कहन ग्रीष्म ऋतु काल की है ! बर्फ के पिघलने वाले दिनों में मत्स्य तथा अन्य प्रकार के शिकार की अनुपलब्धता / अल्पता से आखेटक परिवार को भूखे मरने की नौबत है ! आखेटक परिवार किसी अन्य स्थान से आकर नये स्थान में बसता है , तो यह अनुमान स्वभाविक रूप से लगाया जा सकता है कि पिछली बसाहट वाले स्थान में जीवन के लिए पर्याप्त / समुचित संसाधनों का अभाव उसके विस्थापन का प्रमुख कारण रहा होगा ! चूंकि हिमाच्छादित भूखंडों में कृषि कर्म की संभावनायें अपेक्षाकृत न्यूनतम हो जाया करती हैं , इसलिये यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि वह युवा पारिवारिक विस्थापन से पूर्व भी एक कृषक होने के बजाये एक आखेटक ही रहा होगा , जिसे वन्य जीवों और मत्स्य संपदा से अपने परिवार का भरण पोषण करना था ! निष्कर्ष यह कि यह परिवार परिस्थितिवश ही सही मांसाहारी परिवार था और उसे सदैव उसी दिशा में आप्रवास करते रहना था जहां उसके लिए नियत आहार की उपलब्धता की संभावना हो ! हालांकि उसकी नई बसाहट में भी उसे भोजन सामग्री की न्यूनता का शिकार होना पड़ा !

इस परिवार में केवल तीन सदस्य थे , जिनमें से आयु श्रेणी के हिसाब दो युवा और एक वृद्ध तथा लैंगिक विभाजन के हिसाब से एक पुरुष और दो स्त्रियां मौजूद थीं ! दोनों स्त्रियां परस्पर रक्त संबंधी नहीं थी बल्कि उनके सम्बंध वैवाहिकता पर आधारित थे ! वृद्धा की तुलना में आखेटक युवा , युवती का प्राथमिक विवाह स्वजन था जबकि वृद्धा युवती की दूसरे क्रम की विवाह स्वजन थी ! यह सहज ही है कि युवती अपनी दूसरे क्रम की विवाह स्वजन से उतनी आत्मीयता ना रखती हो जोकि वो अपनी स्वयं की मां ( रक्त संबंधी ) के प्रति रखती हो !  कथा से प्राप्त विवरण कहता है कि भीषण दुर्भिक्ष के दिनों में युवती स्वयं की आहार पर्याप्तता का ध्यान तो रखती थी किन्तु वृद्ध सास के प्रति उसमें सदाशयता का अभाव था ! आखेटक दिन भर श्रम करता / भटकता और जो भी रसद अर्जित करता , वो तीन प्राणियों की क्षुधापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं हुआ करती थी ! यहां तक कि घास के कंद खाकर भी उनका गुज़ारा नहीं हो पा रहा था !

यह तो निश्चित है कि आखेटक दिन भर की हाड़ तोड़ मेहनत के बाद रात में बेसुध होकर सोया करता होगा और उसके मध्य रात्रि में जाग उठने की कोई संभावना नहीं थी ! युवा पत्नी को दैवीय कृपा प्राप्त थी जिसके चलते वह मन्त्रों के आह्वान मात्र से ही मत्स्य भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकती थी , किन्तु युवती इस दैवीय आशीष का प्रयोग अपने परिवार के सम्यक कल्याण में करने के बजाये अपने निज स्वार्थ की पूर्ति के लिए करती है ! वह अपने पति को भी अपनी इस उपयोगी मंत्र सिद्धि से अनभिज्ञ बनाए रखती है ! स्पष्ट तथ्य यह है कि वह अपने प्राथमिक और दूसरे क्रम के दोनों ही स्वजनों के प्रति सदाशयी नहीं है और मन्त्रों की सर्वकल्याणकारिता की भावना के विरुद्ध केवल अपने ही हित साधन के प्रति सचेष्ट है ! इतना ही नहीं वह अपनी वृद्ध सास , जोकि भूखे रहने के कारण गहरी नींद में सो भी नहीं पा रही है , को मछलियों के भूने जाने की गंध को स्वप्न की अनुभूति मान लेने का सुझाव भी देती है और गर्म कांटों से उसकी हथेलियां भी झुलसा देती है ! इसे वृद्ध स्त्री के प्रति युवती की क्रूरता ही माना जा सकता है ! 

युवा आखेटक अपनी मां से अपनी पत्नी की शिकायत सुनकर दुखी तो होता है पर वह घटना क्रम की पुष्टि स्वयं करना चाहता है ! संकेत यह कि युवक उन लोगों में से नहीं है जो कान के कच्चे होते हैं तथा सुनी सुनाई बातों पर विश्वास कर लेते हैं ! उसे , इस अर्थ में एक संयत संतुलित मस्तिष्क वाला इंसान माना जाना चाहिये ! युवा आखेटक के बेहतर इंसान होने की पुष्टि कथा के अंत के उस विवरण से भी होती है , जहां वह अपनी पत्नी को उल्लू के रूप में अभिशप्त होने के बावजूद घर वापस लाना चाहता है , उसे प्रेम से पुनः मानव रूप में परिवर्तित कर पाने की कामना करता है , जबकि उसे भली भांति पता था कि उसकी पत्नी ने दण्डित किये जाने योग्य कार्य किया है ! यह आख्यान सामान्यतः सास और पुत्रवधु के असहज संबंधों की ओर संकेत करता है और यह भी स्पष्ट करता है कि आशीषित होने के नाते पुत्रवधु की जिम्मेदारियां कहीं ज्यादा बड़ीं थीं , उसे दैवीय कृपा का उपयोग सार्वजनिक पारिवारिक कल्याण के लिए करना था किन्तु वह निज स्वार्थ में लिप्त बनी रही ! वह प्रेम की अपेक्षा घृणा-पगी युवती थी , इसलिये जिन शक्तियों ने उसे आशीष दिया था , उन्हीं ने आशीष के दुरूपयोग का दंड भी दिया ! कथा बोध यह कि मानव अपने कर्मों का फल अवश्य भुगतता है , जैसे कि जंगलों से आज भी , उल्लू के रूप में परिवर्तित हो गई युवती का दर्दनाक स्वर मुखरित होता है !


*वृद्ध सास को यह पुत्रवधु का सुझाव था कि उसने स्वप्न देखा है जबकि वृद्धा ने स्वप्न नहीं बल्कि सत्य देखा था अतः वह पुत्रवधु द्वारा दिये गये सुझाव को अपने पुत्र से शिकायत के रूप में कह रही है !

शनिवार, 2 जून 2012

अग्नि का जन्म ...!

मूल अमेरिकी आदिवासी समुदाय में कही जाने वाली इस कथा के अनुसार, बहुत समय पहले की बात है,जबकि दरख्त और जानवर एक दूसरे से बात कर सकते थे, लेकिन उस ज़माने में धरती पर अग्नि नहीं थी ! उन दिनों लोमड़ी सबसे होशियार जानवर थी, सो उसे अग्नि को बनाने का ख्याल आया ! एक रोज उसने कलहंसों से मिलने की बात सोची क्यों कि, वो उनके उड़ने / चीखने / कलरव की नक़ल करना सीखना चाहती थी ! कलहंसों ने लोमड़ी को सब कुछ सिखाने का वादा किया ! इसके लिए उन्होंने लोमड़ी को कृत्रिम पंख बांध दिये और कहा कि उड़ते समय वह अपनी आंख ना खोले ! इसके बाद कलहंसों ने आकाश की ओर उड़ान भरी ! उनसे उड़ना / कलरव सीखने की कोशिश के तहत लोमड़ी ने भी अपने कृत्रिम पंखों के साथ, ऊपर की दिशा में उड़ान भरी ! जब वे जुगनुओं के गांव के ऊपर से उड़ रहे थे कि अचानक अंधेरा घिर आया! जुगनुओं की चमक / झिलमिलाहट के कारण लोमड़ी अपना मकसद भूल गई और उसने आंखें खोल दीं  ! बस इसी क्षण उसके कृत्रिम पंख नीचे गिर गये और वो स्वयं अनियंत्रित होकर जुगनुओं के गांव की दीवाल वाले घेरे के अन्दर जा गिरी ! गांव के बीचो बीच लगातार अग्नि जल रही थी !

तभी दो दयावान जुगनू नीचे गिरी हुई लोमड़ी को देखने आये तो लोमड़ी ने उन दोनों को हपुषा फल / जुनिपर बेरीज का एक एक हार दिया ! लोमड़ी उनसे फुसला कर पूछती है कि वह गांव की दीवाल वाले घेरे से बाहर कैसे निकल सकती है ? तो जुगनुओं ने उसे बताया कि वो देवदार की टहनी को इतना नीचे झुकाये कि टहनी वापस पलट कर, गुलेल की तरह से उसे, दीवाल के बाहर फेंक दे, जैसा कि वो चाहती है ! शाम को लोमड़ी ने वो झरना देखा, जहां से जुगनू पानी प्राप्त करते थे ! उसने वहां रंगीन मिट्टी भी देखी जिसे पानी में घोलकर अनेक रंग बनाये जा सकते थे ! उसने तय किया कि वह अपने आपको सफ़ेद रंग से रंग लेगी और फिर जुगनुओं को सुझाव दिया कि हमें मिलकर एक उत्सव मनाना चाहिये, जिसमें सारे जुगनू नृत्य करें और वो स्वयं उनके लिए संगीत बजाये ! जुगुनू इसके लिए तैयार हो गये और उन्होंने लकडियां इकठ्ठा करके बड़ी सी अग्नि प्रज्ज्वलित कर ली ! इस बीच लोमड़ी ने गुप्त रूप से अपनी पूंछ में देवदार की छाल बांध ली और फिर एक ढ़ोल तैयार किया, जोकि शायद दुनिया का पहला ढ़ोल था ! फिर उसने उत्साह पूर्वक नाचते हुए जुगनुओं के लिए जोर जोर से ढ़ोल बजाना शुरू किया और स्वयं धीरे धीरे खिसकते हुए अग्नि के पास पहुंचती गई ! 

कुछ देर बाद लोमड़ी ने ढ़ोल बजाने से थकने का नाटक करते हुए, ढ़ोल तथा उसे बजाने वाली लकड़ी, उन जुगनुओं को दे दी, जोकि थकी हुई लोमड़ी की, मदद बतौर  ढ़ोल बजाना चाहते थे और फिर उसने जल्दी से अपनी पूंछ में बंधी हुई छाल में अग्नि सुलगा / जला ली ! इसके बाद उसने कहा कि यहां बहुत गर्मी है, मैं एक ठंडी जगह में जाना चाहती हूं ! वह भाग कर सीधा देवदार के पास पहुंची और कहा, मेरे लिए नीचे झुको, ओ देवदार...नीचे झुको ! देवदार की डाल जैसे ही नीचे झुकी, वह उस पर लटक गई और फिर डाल ने गुलेल की तरह से वापस पलट कर, उसे गांव की दीवाल के उस पार फेंक दिया ! वह तेजी से भागी जबकि जुगनू उसका पीछा कर रहे थे ! लोमड़ी जितना तेजी से भाग रही थी उसकी पूंछ में बंधी छाल से गिर रही चिंगारियों से भागने वाले रास्ते की झाड़ियां और लकड़ियां सुलग उठीं ! जब लोमड़ी भागते भागते थक गई तो उसने जलती हुई छाल, बाज़ को दे दी ! जोकि उसे भूरी सारस तक ले गया ! भूरी सारस अग्नि को लेकर तेजी से दक्षिण दिशा की ओर उड़ी और चारों ओर चिंगारियां बिखेरती गई ! इस तरह से अग्नि पूरी धरती पर फ़ैल गई ! जुगनू इसके बावजूद भी लोमड़ी का पीछा करते हुए उसके बिल तक गये और घोषणा की, कि ऐ चालाक लोमड़ी तुमने हमारी अग्नि चोरी की है किन्तु अब तुम स्वयं अपने लिए, इसका कभी भी उपयोग नहीं कर पाओगी ! 

दक्षिण पूर्व एशियाई प्रशांत क्षेत्र की कथा के इतर इस आख्यान के अनुसार अग्नि, पत्थरों और बांस के घर्षण के बजाये, जुगनुओं की देन है ! कथा, पशुओं और वृक्षों में पारस्परिक संवाद की कल्पना करती हैं, यही कारण है कि लोमड़ी, देवदार से सहायता मांगते समय, उससे बात कर सकी ! आशय यह कि बातचीत के लिए कोई विशेष भाषाई बंधन, शायद ज़रुरी ना रहा हो तब, वर्ना , पशु / वृक्ष / पक्षी / जुगनू आपस में बातें कैसे कर पाते ! मोटे तौर पर इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि इस कथा को कहने वाला समाज, संकीर्ण भाषावादी आग्रहों से मुक्त अथवा बहुभाषी समाज रहा होगा ! एक चालाक जानवर के तौर पर लोमड़ी अग्नि की चोरी करती है, किन्तु स्वयं उसका उपयोग स्वयं नहीं कर पाती, संभवतः लोमड़ी, यहां पर एक चतुर सुजान / मनुष्य का प्रतीक है, जोकि समाज हित में चोरी जैसा कर्म करके भी स्वयं का अहित कर लेने में कोई कोताही नहीं करती,यानि कि लोमड़ी के बहाने कथा, समाज के चतुर/बुद्धिमान सदस्यों को समाज के हित में अपने व्यक्तिगत हित त्यागने के लिए तत्पर रहने, यहां तक कि अवांछित काम करने जैसा सन्देश देती है ! मेरे विचार से आजकल की जासूसी विधा / कृत्य इस श्रेणी का एक सर्वोत्तम उदाहरण है !

लोमड़ी मिट्टी में रंगों की खोज करती है ! वह रंगों और नृत्य तथा संगीत को उत्सव / उल्लास से जोड़ती है तथा यह संकेत भी देती है कि उत्सव प्रियता में लीन होकर हम अपनी किसी महत्वपूर्ण वस्तु को गवां भी सकते हैं ! वस्तुओं को दूर तक फेंके जाने के लिए, गुलेल बतौर वृक्ष की टहनी को नीचे झुका कर झटके से वापस छोड़ने की तकनीक वह दूर देश के जुगनुओं को उपहार / रिश्वत देकर प्राप्त करती है ! यही नहीं वो कलहंसों से उड़ना / कलरव सीखना चाहती है! गौर तलब है कि आकाश में पक्षियों सी उड़ान के लिए नकली पंखों का उपयोग भी आदिम मनुष्य की आकांक्षाओं का उदाहरण है ! बेशक यह कथा, राईट बंधुओं के जन्म से पूर्व की है, जिसमें प्रतीकात्मक तौर पर लोमड़ी के रूप में चतुर मनुष्य पक्षियों से उड़ने की तकनीक/ कृत्रिम पंख / प्रेरणा प्राप्त करता दिखाई देता है ! अगर गौर करें तो बाज़ / सारस और लोमड़ी की जुगलबंदी समाज हित में समाज के भिन्न सदस्यों के योगदान को रेखांकित करती है ! संभवतः कथा ये भी कहती है कि अपने समाज के लिए ज्ञान / तकनीक, अगर कलहंस से मिल सके तो सीख लो और अगर दूसरे देश के जुगनुओं को उपहार देकर अथवा छल से भी संभव हो, तो प्राप्त कर लो ! अपने समाज के लिए अलग अलग रंग रूप/ कद काठी / हैसियत के होकर भी आपस में एक बने रहो !


शनिवार, 28 अप्रैल 2012

स्त्री देह से भयभीत सुधिजन !

यूं तो स्त्री देह से भयभीत होने का कोई कारण नहीं बनता पर सुधिजनों का क्या ? समाज की चिंता में दुबले होने का कोई अवसर नहीं छोड़ते ! असल में चिन्तित बने रहना उनकी नियति है या फिर चिंतायें उनके साथ के लिए अभिशापित हैं ! अक्सर ये ख्याल आता है इंसान ने धरती में पैदा होने से पहले खुद के लिए कपड़े ईजाद किये और उसके बाद मय कपड़ा संसार सागर में अवतरित हो गया ! आदिम सभ्यताओं में भी नैतिकता की ऐसी जोर जबरदस्ती कहीं देखी ना सुनी ! अगर इंसान इस तरह पैदा ना होता तो दुनिया तहस नहस हो गई होती , वेश्यालयों और देहाधारित जीविकोपार्जन के अवसरों की बाढ़ आ गई होती ! सतत सुचिंतित सुधिजनों ने भूलोक के कल्याणार्थ नैतिकता और कपड़ों के जो कड़े प्रावधान किये थे उससे धरती का कल्याण हुआ हो कि नहीं उनकी खुद की नींदे हराम ज़रूर हो गईं ! कारण ये कि अपने ही कड़े प्रावधानों के अभ्यस्त वे कपड़ों के फटने / छोटे होते जाने और नैतिकता के टूटने की आशंका में अपना आत्म विश्वास खो बैठे ! प्रावधान उन्होंने इतने कड़े किये / करते गये कि उनके अपने आत्म संयम का माद्दा बेहद कमज़ोर हो गया उसकी मजबूती पर ध्यान ही नहीं दे सके ! ध्यान तो ध्यान है वो नैतिकता और कपड़ों पर ऐसा टिका कि आत्मसंयम सामर्थ्य रसातल को जा पहुंचा ! 

यहां आदिवासी क्षेत्रों में और उस संसार में जहां निर्धन बसते हैं सुधिजनों की चिंता खासकर बढ़ा दी है खाने को रोटी हो ना हो कपड़े और नैतिकता का साथ कभी ना छूटे दिन दहाड़े तो कभी भी नहीं ...हां रात की गहन कालिमा कपड़ों का विकल्प हो सकती है और नैतिकता का बदल भी ! यानि इन इलाकों के लोगों को दिन वाले कपड़े या रात वाले अन्धियाले कपड़ों के अलावा तीसरा कोई विकल्प नहीं है ! मेरे ख्याल से सुधिजन उस पालतू घोड़े की तरह से हैं जिनकी आँखों पे चढी पट्टी / खब्त उन्हें आजू बाजू देखने नहीं देती ! उनके लिए ग़ुरबत और रोजगार के सन्दर्भ मायने नहीं रखते मायने रखते हैं तो सिर्फ कपड़े  !  कपड़े पहनों कपड़े नहाओं कपड़े निचोड़ों  !  सोना गाछी सलामत रहे  ! कपड़े सलामत रहे  !  नैतिकता सोना गाछी में रोजगार देती है ! रात के रोजगार सलामत ,नैतिकता सलामत ! हर शहर , एक सड़क , एक मोहल्ला रात वाली रोजी रोटी वाला ! मय कपड़ा मय नैतिकता ! अन्धेले कपड़ों वाली नैतिकता ! आसन्न संकट  !  सुधिजनों की चिंताओं का स्रोत स्त्री देह  !  उनके भय का कारण स्त्री देह  !  देह के रास्ते , देह का शहर ,देह का देश ,भूखे मर जाओ पर वस्त्र ना छूटें ! एक दिन एक शाम एक रोटी ना बांट सकने वाले सुधिजन किस मुंह से दिशा निर्देश जारी करते हैं ! स्त्री के पिता से अपने पुत्र का मोल वसूलने वाले सुधिजन स्त्रियों को उपदेश देते अच्छे तो नहीं लगते पर उनके भयग्रस्त चेहरे उनके अपौरुष की यकीन दिहानी ज़रूर कराते हैं ! उन्हें स्त्री देह आतंकित करती है ! जिस देह से उपजे वही देह उनकी चिंता का सबब ,खुद पे काबू नहीं ,देह के लिए आवरण चाहिये ! मनः दुर्बल सुधिजन ! कामुक साइट्स पे अंगुलियां चटकाने और हिट्स बढ़ाने वाले पाखंडी सुधिजन  ! रात्रि के अखंड यात्री , उजालों से डरे हुए हैं ! उन्हें स्त्री देह भयभीत करती है !

नौटंकियां होती हैं  , वेश्यालय चलते हैं  , कोठे भी सुधिजनों की कृपा से आबाद हैं  , सब चलें  , चला करें पर कपड़े पहन के ! सुधिजनों की नैतिकता रात्रि कालीन अंधियाले कपड़ों वाली ! वे समाज को अपनी जागीर समझते हैं  ! इंसान गोया उनके इशारों पे नाचने वाली कठपुतलियां हों ! असहमतियां उन्हें बर्दाश्त नहीं ! कपड़े की सामर्थ्य पर इतना भरोसा कि अपनी खुद की सामर्थ्य से भरोसा उठ गया ! उन्हें परवाह नहीं कि दुनिया में जीवित रहने के अवसरों में भारी असंतुलन है ! अपने जीवन के हर मौके का फायदा उठाने की कोशिश करने वाले गरीब गुरबा बिना रेफरेंस / अकारण उनके निशाने पर हैं ! वे नहीं चाहते कि कोई बालिग / परिपक्व बंदा अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से गुज़ार सके ! अपनी सोच की तानाशाही उन्हें समाज की बहबूदी का रास्ता नज़र आती है ! रेत के ढ़ेर में सिर घुसाए हुए शुतुरमुर्ग जैसे सुधिजन ! बदलाव को तुम रोक नहीं सकते ,कोई भी नहीं रोक सकता ,मैं भी नहीं ! धार के साथ बहो वर्ना तालाब के ठहरे पानी की तरह सडांध मारते हुए खुद भी दुखी होओगे और दूसरों का जीवन तो पहले ही दूभर किये हुए हो ! नैसर्गिकता बदलाव में है ! सहजता बदलाव में है ! स्त्रियों को तुम्हारी मुट्ठी में बाँधने की कोशिश मत करो ! वो जो चाहती हैं वह उनका हक़ है ! अपनी निर्बलता का इलाज़ करो ,आत्मसंयम की साधना करो ! तुम्हारे रोकने से हवाएं रुकने वाली नहीं ! ख़ारिज कर दिए जाने से पहले सुधर जाओ ! ओ कायर स्त्री देह से भयभीत होकर तुम अनजाने में ही कुदरत से भी द्रोह कर रहे हो !





ये दोनों चित्र संजीव तिवारी जी के सौजन्य से प्रकाशित और ग़ुरबत की पृष्ठभूमि में अश्लीलता अथवा यथार्थ उदभूत श्लीलता के निर्णय के लिए पारखी मित्रों के समक्ष प्रस्तुत  !









शनिवार, 31 मार्च 2012

तुम जो आये ज़िन्दगी में मौत बन गई ... ओह प्रेम !

पिछले तीन दशक से आदिम जीवन शैली के बीच जिंदगी गुज़ारते हुए  , ये ख्याल रहा कि वे प्रेम को लेकर बेहद सहज हैं ! देश की मुख्यधारा होने , अधुनातन और विकसित समाज होने की हमारी अपनी अहमन्यता युक्त धारणा में वास्तविक रूप निहित / मौजूद / व्याप्त कुंठाओं और विसंगतियों की अनदेखी किये जाने की हमारी शुतुरमुर्गीय प्रवृत्तियों से अलग उनकी सामाजिक दिनचर्या और व्यक्तिगत संबंधों की सरलता का मैं हमेशा से कद्रदान रहा हूं  !  मुझे सदैव ही यह आभासित हुआ कि उनका सामाजिक ताना बाना हमारी अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ और तनाव मुक्त है फिर भले ही हम उन्हें आदिम या पिछड़े हुए समाज की संज्ञा से नवाजते हों / नवाजते रहें  ! स्त्री पुरुष संबंधों में सहज / मुक्त हृदय परिवर्तनशीलता और गतिशीलता के स्वीकार , उन्हें हमारे समाज की जड़वत धारणाओं और कीचड़युक्त हो चुके कथित स्थायी संबंधों को ढोते रहने की बाध्यताओं / परम्पराओं के बर-अक्स कहीं ज्यादा बेहतर समाज की श्रेणी में स्थापित करते हैं  ! कह नहीं सकता कि स्वयं मेरे अपने समाज के विद्वतजन मेरे अनुभव जन्य इन निष्कर्षों से सहमत होंगे भी कि नहीं पर बतौर सामाजिक अध्येता अपने ही अवलोकन / पर्यवेक्षण उदभूत यथार्थों को ठुकराना कम से कम मेरे लिए अनुचित ही माना जाएगा !

बांगला देश से विस्थापित हुए परिवारों की सैकड़ों बस्तियां इन आदिम ठिकानों पर बसाने की शासकीय समझ और फैसले के अपने मानदंड रहे होंगे और फिर नौकरी या व्यवसाय के सिलसिले में आप्रवासी होकर आये मेरे जैसे हजारों परिवारों का आगमन ! भिन्न समाजों के स्थायी दीर्घकालिक संपर्क के परिणामों के प्रति मेरी अपनी आशंकायें तो थीं ही पर मुझे यह ज़रा भी अंदेशा नहीं था कि प्रेम को लेकर आदिम समाज पर हमारी अपनी समस्यायें इतनी जल्दी रंग दिखाने लग जायेंगी !  आदिम समाज के सामने हमने सदैव खुद को ,  उनकी तुलना में , आदर्श / सभ्य और विकसित समाज की तरह से प्रस्तुत किया है  ! लगभग ज़िल्ले -इलाही की तरह से पेश आये हैं  ! उनके प्राकृतिक संसाधनों पे कब्जे के होड़  / दौड़ में जैसे ही हम उनसे आगे निकले , कि अपनी सामाजिक रीतियों नीतियों को भी उनकी सामाजिक रीतियों और नीतियों पर विजयी घोषित कर डाला  !  सरल समाजों पर जटिल समाजों के दुर्दांत वर्चस्व आरोपण का इससे बड़ा कोई दृष्टान्त शायद ही मिले !

इससे पहले के दो आलेखों में कबीलाई प्रेम पर हमारे समाज के दुष्प्रभावों का संकेत मैं पहले ही दे चुका हूं ! वो  तनाव / वो सोच / वो चिंतन प्रणालियाँ जिन्हें हम अपने प्रेम संबंधों को बाधित करने वाले आवरणों सा ओढते बिछाते आये हैं  , अब आदिम जातीय प्रेम संबंधों पर भी नमूदार होने लगे हैं जबकि उनका अपना समाज इस मामले में बेहद सहज लोक धारणाओं से अनुप्राणित होता आया है ! मेरी अपनी हैरानगी का कारण यह है कि सामाजिक बदलाव को शताब्दियों लंबे समय की दरकार होती है जबकि मेरी अपनी कर्मभूमि में यह लक्षण मात्र पचास साठ वर्षों में ही दिखाई देने लगे हैं ! मुईन अपने ही कबीले की ज़रीना से मोहब्बत कर बैठा ! मुईन जिस कार्यालय में चपरासी बतौर काम करता था उसके अधीन के ही एक इंटरमीडियेट  स्कूल में ज़रीना बारहवी जमात की छात्रा थी ! लड़कियों के लिए बनाये गये हास्टल के बजाये वह मुईन और उसकी भतीजी के साथ उसके ही घर में रहती थी ! एक ही गांव और एक ही कबीले से वास्ता होने के कारण विवाह से पहले इस तरह से साथ रहना और प्रेम करना अस्वाभाविक भी नहीं था पर ...

मुईन और ज़रीना की प्रेम कहानी में भावी जिंदगी को संवारने के तौर तरीकों की चर्चाएं भी शामिल थीं ! वो दोनों अक्सर ये बात करते कि 'आगे क्या'  ?  बहस-ओ-मुबाहिसे में वो अपने पड़ोसियों के उद्धरण देते ! उनकी जीवन शैली जैसे घर की कल्पना करते ! उनकी कल्पनायें उनकी आर्थिक चादर से कहीं ज्यादा विशाल हो चलीं थीं...पर प्रेम के अन्धों को हरे और केवल हरे के सिवा सूझना भी क्या था ? चपरासी की नौकरी और मुख्तसर सी तनख्वाह वाले मुईन और बेरोजगार शिक्षार्थी ज़रीना के प्रेम की डगर में बाहरी समाज के चमकीले दमकीले ख्वाब आ ठहरे थे !  हकीकत और ख्वाब के फासले मिटाए जाना मुमकिन नहीं रहा होगा तभी तो ज़रीना ने खुदकुशी कर ली और उसके एक घंटे के अंदर मुईन ने भी...प्रेम कथाओं में गाये जाने वाले एक बेहद खूबसूरत गीत के मुखड़े में , मैं अपनी तईं एक संशोधन देख रहा हूं ...तुम जो आये जिंदगी में मौत बन गई नियति मेरी ...ओह प्रेम !


इस आदिम धरती पर गाज़र घास से पसर गये हैं हम ! तारकोल की इस सड़क सी हमारी घुसपैठ उनकी जिंदगी में ! हरियल वादियों के दरख्त अब तिनकों की शक्ल अख्तियार कर चले हैं  ! दूर एक पहाड़ी की छाती को अपने पैने नाखूनों से चटियल कर डाला है  हमने...और हम...उनके आकाश पर गहन अवसाद युक्त बादल से छा गये हैं  !

रविवार, 29 जनवरी 2012

बसदा जहान मेरा तेरे दम नाल ...पालतूपन


सेहत बनाने के ख्याल से भोर में टहलने का शगल अपनी पसंद में शुमार नहीं रहा कभी...पर वे लोग बाकायदगी से एक छड़ी के हौसले पर, गुज़रे कई सालों से सेहतमंद होने के मुगालते में जी रहे हैं ! और वे , जिनकी जनानियां शायद, छड़ी अपने कंट्रोल में रखती होंगी, अपने पालतू चौपायों की गर्दन वाले पट्टे से सधी हुई डोर के छोर पर अपने हौसले को अटका कर रखते हुए सेहत बनाये रखने के नित्य कर्म में लीन, मेरे घर के सामने वाली सड़क से यूं गुज़रते हैं कि घड़ी मिला लूं जो एक लम्हा भी इधर से उधर हो जाये ! क़दमों में नपी हुई तेजी और सीने में कलफ लगी हुई अकड़ वाली स्मार्टनेस ! अक्सर ये फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि दोनों में से कौन किसे टहला रहा है और  किसका  पालतू  कौन ? सेहतमंद बने रहने की खातिर खास वक़्त पर सड़क नापने से पहले या बाद में या फिर इसके ठीक बीचो बीच किसी एक के फारिग होते रहने की कल्पनाओं और क्रियान्वयन-शीलता से मुझे बेहद कन्फ्यूजन होता है  कि देह से त्याज्य पदार्थों को त्यागने का वास्तविक समय क्या है ? बेशक दोनों के पालतू होने के अहसास के समानान्तर विसर्जन की टाइमिंग एवं स्थानिक भिन्नता के कारण ही मेरा कन्फ्यूजन स्थाई  भाव में बना  रहता  है  !

जिन बन्दों के परिवार नई फसलों के मौसमों से गुज़र रहे हैं वे प्राम में अपनी उपलब्धियों को घुमाते वक़्त बे-औलाद घुमक्कडों से बेनियाज़ बने रहते हैं ! हालांकि डोर पट्टे से जुड़े टहल-रत जोड़े पर वो इस तरह से निगाहें डालते हैं जैसे अभी कह बैठेंगे...ओह आप भी ! मुझे समझ में नहीं आता कि डोर से बंधे पालतू और प्राम के संरक्षण वाले पालतू में से आगे चलकर किसकी सेहत ज़्यादा बेहतर रहने वाली है ! लेकिन मुझे पता है कि थोड़ी ही देर बाद सूरज सारे परिदृश्य बदल देगा उस वक़्त बे-टहले हुए लोग अपने चौपायों के साथ खेतों की ओर ...और एक बड़ी भीड़ शहर के निर्माणाधीन गंतव्यों की ओर चल पड़ेगी, उन्हें जीवित रहने के लिए खाने की और खाने के लिए टहल कर देह को झोंक देने वाली गतिविधि में लिप्त होने की अनिवार्यता है जबकि उनसे थोड़ी ही देर पहले इसी सड़क पर टहल रहे लोगों को अपने खानपान के बाद की समस्याओं से निपटने के नाम पर टहलना था !

मेरा ख्याल है कि इंसान धरती पर दाखिल होने से लेकर ख़ारिज होने तक के, दरम्यान ठीक उसी तरह के पालतूपन की प्रक्रिया से गुज़रता है जिसे कि उसने अपने अस्तित्व रक्षण के मद्दे नज़र चौपायों के लिए तय कर रखा है ! यानि कि धरती पर पशुओं के पालतूपन की शुरुवात से एन पहले इंसानों के खुद के पालतूपन की शुरुवात हुई होगी ! अगर वह खुद के पालतूपन के दौर / अनुभवों से नहीं गुज़रता तो फिर पशुओं के पालतूपन को अपने लिए मुफीद कैसे जानता ? सच कहूं तो पालतूपन से पहले के मनुष्य और पशु में कोई अंतर भी नहीं है और अगर पशु जगत में से कोई एक वर्ग भी, मनुष्यों से पहले पालतू हो पाया होता तो शायद दुनिया का नज़ारा कुछ और ही होता ! नि:संदेह पहले के पालतू को बाद वाले पालतू पर वैसे ही बढ़त हासिल होती जैसे कि आज मनुष्यों को पशुओं पर है ! मुझे यकीन है  कि खालिस देह से मनुष्य हो जाने और मनुष्य होकर दूसरी देहों को अपने मातहत कर लेने में पालतूपन का बहुत बड़ा योगदान है !  

अगर हम इंसान अपने जन्म और मरण के बीच का वक़्त खुद के पालतू होने और बाद में दूसरों को पालतू बना लेने में, नहीं गुज़ारते तो, पशुओं की तर्ज़ पर एक घर और  नियमित भोजन की सुविधा के अभाव तथा  प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध स्वयं के संरक्षित बने रहने की समस्या से जूझ रहे होते ! यौन जीवन की अनियमितता, अनियंत्रित प्रजनन से दुनिया का तब क्या हाल हुआ होता यह सहज ही कल्पना की जा सकती है ! तब कोई किसान भोजन नहीं उपजाता, कोई  मजदूर घरौंदों का निर्माण नहीं करता, कोई अनुभव समृद्ध ज्ञान को नहीं सहेजता, कोई यांत्रिक उन्नति भी नहीं होती, कोई राग नहीं रचे जाते और ना ही नृत्य गीत, तब कोई उत्सव और उल्लास के सामूहिक आयोजनों के कारण भी नही होते, इस सूरत-ए-हाल  में कोई प्राम भी नहीं होती और ना ही श्वानों के गलों पे बंधे हुए पट्टे से जुड़ी हुई डोर के स्वामियों का आत्म विश्वास बढ़ता ! कहन और श्रवण से उपजे संसार, सभ्यता और संस्कृति का भी कोई अस्तित्व नहीं होता अगर मनुष्य ने पालतूपन को स्वीकार नहीं किया होता और हां...तब अच्छी सेहत के ख्याल से भोर में टहलने का तो सवाल ही नहीं उठता था  !