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मंगलवार, 26 जनवरी 2010

समंदर से जुडी हुई आंखें और ...

आज सुबह सवेरे कडकडाती ठण्ड में स्नान ध्यान करके ऑफिस पहुंचा तो लगा शायद ध्वजारोहण का उतावलापन मुझे ही है ! मित्रगण घड़ियों के कांटे नापते तौलते आहिस्ता आहिस्ता पहुंचते रहे और मैं उनके मशीनी अंदाज़ पर खीजता रहा ...महसूस हुआ कि वे सब ड्यूटी पर हैं वर्ना मुमकिन है ... ना भी आते ! उनके चेहरे हमेशा की तरह अवसरों पर ढल जानने की कला में निष्णात सो पता भी नहीं चला कि वे सच में उल्लसित है या...? घर वापसी में सोचा कि थोड़ी बहुत ब्लागरी कर ली जाये लिहाज़ा अपडेट देखने के चक्कर में द्विवेदी जी के अनवरत में प्रकाशित हुई कविता और तस्वीरों से चिपक गया ...पता नहीं वे इतनी सुन्दर सुन्दर तस्वीरें कहां से लाते हैं ? बॉडी बिल्टअप...घिसापिटा / मुरझाया / कुम्हलाया / कैसा भी हो मन कुलांचें भरने लगता है ! यक़ीनन यहां पर घडियां उल्टी चलती हैं !
आज  छुट्टी का दिन है और मैं घर पर हूँ पर बीबी दुखी नहीं ... दूसरों की बीबियां ब्लागिंग के बारे में क्या सोचतीं हैं पता नहीं ? पर अपनी बेगम बेहद खुश होती हैं , खास तौर पर अगर छुट्टी का दिन हो और मैं ब्लागिंग से जूझना चाहूं तो उनका चेहरा खिल उठता है ! उनकी खुशियों को ध्यान में रखते हुए मैं भी एडजस्टमेंट करता हूँ ! अरे भाई अगले ब्रेक में चाय तो दे दीजिये और मजाल है जो विज्ञापन ख़त्म होने से पहले चाय मेरी टेबल पर मौजूद ना हो ! यूं तो मैं इस बात का ज़िक्र पहले भी कभी कर चुका हूँ कि टीवी सीरियल्स नें हमारी जिन्दगी और संबंधों की रवानगी की कुछ नयी सी समय सारणी फिक्स कर डाली है ! सीरियल्स उनकी कमजोरी है ... तो बच्चों के अपने शौक हैं यानि कि कार्टून्स और मैं... न्यूज़ चैनल पर अटका हुआ !
इधर मैं तो न्यूज़ चैनल्स की बलि देकर ब्लागिंग से दिल लगाता हूँ ... एडजस्टमेंट कर लेता हूँ ! लेकिन बच्चे ...उनका कुडकुडाना जारी रहता है ! वे अपनी मां से तर्क करते हैं सीरियल्स को लेकर...सारे सीरियल्स की कहानी एक जैसी क्यों है ? सभी में एक अदद स्त्री भली मानुष बनते हुए लगातार अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों मारती रहती है ? ये लोग रोने धोने से पहले इतना मेकअप क्यों करते हैं ? और मम्मी ये पवित्र रिश्ता वाले इतना कैसे रो पाते हैं ?
बच्चों का ख्याल है कि समंदर से जुडी हुई आँखे और कर भी क्या सकती हैं ? ये बच्चों का उपहास ही सही पर मैं भी सोचता हूँ ... कि सीरियल्स में इतनी इमोशनल क्राइसेस...भला क्यों ?

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

उसे मेरी फ़ोन काल का इल्म नहीं है

मौसम का मिजाज बदला हुआ है और मुझे भी कुछ ठीक नहीं लग रहा है , सोचता हूँ , छुट्टी कर ली जाये ! दो एक दिन ! लिहाज़ा फ़ोन कर दिया है ...हुज़ूर के दुश्मनों की तबियत नासाज़ है... आराम की सख्त जरुरत है.. आफिस पहुँच नहीं पायेंगे !....आह.....सिर भारी है , जैसे किसी नें जकड लिया हो ...शायद सर्दी की वज़ह से ! ख्याल आता है कि जब छुट्टी ली है तो चलो न्यूज़ वगैरह देख ली जाये !
बीबी पूछ रही है , पानी गर्म कर दूँ , नहायेंगे ? ...आफिस जाने में देर क्यों कर रहे हैं ? उसे मेरी फ़ोन काल का इल्म नहीं है , अपनी ही धुन में ....कहती जा रही है ...हल्की सर्दी है ?.... फ्लू तो नहीं लगता ? मैं भी सोचता हूँ ....फ्लू होना कितनी ख़तरनाक बात है पर होता तो क्या मैं घर पर रुकता ? ...नहीं शायद बिल्कुल भी नहीं ...क्या पता कुछ खास दोस्तों से दोस्ती निबाहने का इससे अच्छा मौका कब मिलता ...आह.... कितना सैडिस्ट ख्याल है ? लानत है बीमारी के नाम पर दोस्तों से .....तौबा तौबा !... सिर की तरह ख्यालात भी जकडन भरे और निहायत ही घटिया ...! चलो न्यूज़ देखी जाये ..रिमोट उठाता हूँ अब बीबी कुछ परेशान सी लगती हैं उसे मेरे लक्षण /मेरा व्यवहार आफिस जाने जैसा नहीं लग रहा है ! उधर गृह सेविका भी चिंतित लग रही है ...भैय्या कुछ पियेंगे ? मैं कहता हूँ , नहीं ....वो पूछती है आफिस कितनी देर बाद जायेंगे ...खाना अभी खायेंगे या लौट कर ? मैं न्यूज़ देखना चाहता हूँ ! मैं बीमार सा हूँ ,मुझे अच्छा नहीं लग रहा है ! वो दोनों भी फ़िक्र मंद हैं ? जानता हूँ वो दोनों मुझसे कह नहीं पा रही हैं कि आफिस नहीं जाना तो मत जाइये ..... पर रिमोट ?
फिलहाल मेरे पास कोई विकल्प शेष नहीं है...सो मैं सोने जा रहा हूँ , बीबी पूछ रही है , कफ सिरप दे दूँ ? आराम मिलेगा ! रिमोट मेरे हाथ से छूट चुका है और उन दोनों के चेहरों से चिंता की लकीरें मिटने लगी हैं !