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रविवार, 16 अगस्त 2009

अपशब्दों की दुनिया में जेहन का फौरी रिएक्शन और कुछ ........ ?

पिछले कुछ दिनों से लग रहा है कि कुछ ब्लागर्स जानबूझकर , भड़काऊ आलेख /कवितायें / दर्शन / वगैरह , बिखेर रहे हैं ! इसके बाद इन प्रविष्टियों पर जो टिप्पणियां आती हैं वो बेहद अशालीन ,भाषाई मर्यादाओं /संस्कारों के विपरीत लगभग अपशब्दों की श्रेणी में रखी जाने लायक मानी जा सकती हैं ! तेरी ...मेरी / तू ...तडाक /जूतम.... पैजार से भरपूर... ! ..... ये कहना झूठ होगा कि मैं इन आलेखों / टिप्पणियों को पढता ही नहीं हूँ ! बेशक कुछ अच्छे की उम्मीद में मैं इस गंद को भी खंगालता हूँ कि शायद ... ब्लागर मित्र नें असहमति /अपशब्दों के स्थाई सुरों के बीच कोई तर्कपूर्ण बात भी कह दी हो ! हालाँकि ब्लागर परिवार के सदस्य के रूप पर ऐसा करते हुए मैं जज्बाती तौर पर सही हो सकता हूँ लेकिन तर्कसम्मत तो बिल्कुल भी नहीं ! ...कतई नही ! हम सभी जानते और मानते हैं कि जहाँ से तर्क विलुप्त होना शुरू होते हैं , अपशब्दों के कैनवास वहीं से प्रकट होते और दीर्घाकार बनते जाते हैं ! वैसे ये सब लिखते हुए मैं स्वयं को दूध का धुला हुआ सिद्ध करने कोशिश नहीं कर रहा हूँ क्योंकि हम सभी, कभी न कभी , जीवन के किसी निजी या सार्वजानिक हिस्से में , तर्कहीन हो सकते हैं !.... अपशब्दों की दुनिया के नागरिक बन सकते हैं ! इसलिए किसी पर प्रश्न चिन्ह लगाये बिना इतना ही कहना चाहूँगा कि इंसान होने के नाते हमें तर्कवान और भाषाई संस्कारों से लैस होने की कोशिश करना चाहिए ! विशेष कर तब ,जबकि हम आपस में इन्टरेक्ट कर रहे हों !
हाँ तो मैं कह रहा था कि पिछले कई दिनों से एक खास जेहनियत को लगातार पढ़ते हुए मैं और मेरे एक मित्र भी उसका शिकार होते होते रह गए ! हुआ यूँ कि ब्लाग "तितली सा दिन" वाले जय भाई नें मुझे कल देर रात फ़ोन कर बताया कि उनकी प्रविष्टि पर मेरी टिप्पणी के तत्काल बाद ब्लागर भाई रंजीत नें जो टिप्पणी दी है उसमें .......? चलिए आप भी देखिये हुआ क्या था !.....
titli sa din तितली-सा दिन
saturday, August 8, 2009

हे भगवान ;तुम भी मेरे जैसे निकले
उचक के उसने कोशिश की मन्दिर की घंटी बजाने की। भगवान प्रसन्न हुए। थोडी हवा में उसने आरती की। वे प्रसन्न हुए। लेते समय गिरा प्रसाद उसने उठाकर खाया। वे प्रसन्न हुए। एक बच्चे को प्रसाद का बड़ा टुकड़ा दिया। भगवान् प्रसन्न हुए। एक ने ऐसा कुछ नहीं किया। भगवान प्रसन्न हुए।
-----भगवान को होना कहाँ था कुछ।
प्रस्तुतकर्ता जय श्रीवास्तव पर 3:19 AM
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3 टिप्पणियाँ:
ali ने कहा…
वो तो मन के किसी कोने में दुबक कर बैठा ख्याल सा है.... शायद .....इसके अलावा .... उसके पास कुछ भी होने का विकल्प कहाँ है ?
August 8, 2009 8:33 AM
रंजीत ने कहा…
jee han bhagwaan tab bhee nahin aaye jab koshi me dahaye logon ke anna dalal aur officer kha rahe the.Ali saheb theek kahte hain. man kee galee bahut sankaree ho chalee hai...
August 13, 2009 12:12 AM
संदीप ने कहा…
:)
14, 2009 8:58 AM
डाक्टर साहब बहुत चिंतित थे उन्होंने कहा यार अली आज कल ब्लागर्स गाली गलौज बहुत कर रहे हैं , माहौल बहुत ख़राब है जरा देखो तो रंजीत भाई नें क्या लिख दिया है कुछ समझ में नहीं आ रहा है और संदीप भाई नें तो कुछ लिखा ही नहीं ! हालाँकि रात बहुत हो चुकी थी लेकिन मैंने उनका ब्लाग खोलकर टिप्पणी पढ़ी , चूँकि जेहन में ब्लागिंग के पिछले कुछ दिन हाबी थे और रंजीत भाई की टिप्पणी भी रोमन में लिखी हुई थी इसलिए मैंने भी प्रथम द्रष्टया वैसा ही पढ़ा जैसा कि जय भाई नें बताया था ( देखिये बोल्ड अंश ) ! मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया ! मैंने कहा जय क्या मजाक है तुमने रंजीत नाम कब से रख लिया क्या मैं तुम्हारी फोटो पहचानता नहीं हूँ , तब तुम काफी कम उम्र थे ! जय नें कहा यार फोटो तो मेरी ही लगती है मगर मैं हूँ नहीं ! ये सच में रंजीत हैं ! मैंने कहा झूठ मत बोलो यार ये तुम ही हो , एक तो रंजीत के नाम से ख़ुद ही टिप्पणी कर ली फ़िर उसमें "मां की गाली " भी लिख दी , ये बात ग़लत है भाई , बहुत ग़लत ! चलो सुबह बात करेंगे ! खैर सुबह मैंने फ़िर से टिप्पणी पढ़ी अब मेरे दिमाग में कोई दूसरा ब्लाग नहीं था और न ही कोई सजेस्ट करने वाला लिहाजा मैंने पढ़ा "मन की गली "...जाहिर है रोमन में लिखित टिप्पणी से ग़लत फहमी तो पनपी ही साथ ही मन में रंजीत जी के लिए अपशब्दों की दुनिया गढ़ने की नौबत भी आ गई !
जबकि हकीकत ये है कि ब्लागिंग की गंद हमारे जेहन में बस गई थी और हमें एक साफ सुथरी टिप्पणी भी अपशब्द लगने लगी थी ! अपशब्दों की दुनिया में जेहन का फौरी रिएक्शन और कुछ हो भी कैसे सकता है !............. रंजीत भाई से खेद सहित !

गुरुवार, 18 जून 2009

उसने ईश्वर को अपशब्द कहे और फ़िर .......?

पृष्ठभूमि :
मेरे मित्र वी.संदीप गोट मारी के लिए मशहूर गांव पांढुरना में जन्मे और पले बढे , उनके परिवार को निम्न मध्यवर्गीय धार्मिक परिवार कहा जाए क्योंकि पिता जी स्वप्नजीवी थे ,लिहाज़ा जो भी काम करते असफल रहते ! यूं कहिये आर्थिक संकटों जूझ रहे परिवार के लोग ईश्वर के सिवा किस का मुंह देखते ! जैसे तैसे उच्च शिक्षा पूरी कर , नौकरी मिली तो बहनों के ब्याह की जिम्मेदारी , भला अपने शौक ( रोमांस , शेरो शायरी वगैरह वगैरह ) पूरे करते भी तो कैसे ? ईश्वर पर आस्था थी ही , ज्योतिष कर्म में भी रूचि जागी , ख़ुद का भाग्य देखते देखते दूसरों का भी बांचने लग गए ! चूंकि भूविज्ञान से वास्ता था तो रत्न विज्ञानं में पीएच.डी.भी कर डाली जोकि उनके ज्योतिष्कर्म को निखारने में मददगार साबित हुई ! वैसे सरकारी नौकरी अच्छी खासी है लेकिन वेतन के अलावा ऊपर की कमाई का कोई चांस नहीं ! बहनों की शादी के बाद ख़ुद की शादी उसके बाद मामला ठनठन गोपाल ! सब कुछ निपटा तो घरौंदे की फ़िक्र हुई , एक ही विकल्प , कर्ज लो घी पियो , अपना बैंक भारतीय स्टेट बैंक ! कभी ठेकेदार नहीं , कभी मजदूर नहीं , कभी सामान नहीं , कभी समय पर पैसा नहीं , घर का मुखिया डाक्टर वी.संदीप , एकदम अकेला , कोई दूसरा सहारा नहीं , सारी भागदौड़ ख़ुद करो और नौकरी भी तो करना है वर्ना घर के खर्चे और कर्ज की किश्तें कौन भरेगा ?
"हर सुबह पूरा परिवार ईश वंदना में लग जाता और उसके बाद ही घर से बाहर की दिनचर्या शुरू होती "
घटना :
उस दिन सैकडों बोरी सीमेंट खुले में पड़ी थी और छत ढलाई का कार्यक्रम प्राम्भ होने ही वाला था कि बादल गहराने लगे ठेकेदार नें कहा आप ताल पत्री ले आयें वर्ना सीमेंट खराब हो सकती हैं ! ईश्वर से गिडगिडाते हुए जब तक मोटर साइकल स्टार्ट करते बारिश शुरू भी हो गई ! मकान रायपुर शहर के बाहरी हिस्से में बन रहा था बाजार तक पहुंचते पहुंचते बारिश मूसलाधार हो गई थी ! सड़कों में घुटनों घुटनों पानी , तेज हवा , बिजली की धमाचौकडी और बेचारी मोटर साइकल की पेट्रोल टंकी के ऊपर भारी भरकम ताल पत्री रख कर उसे चलानें की मजबूरी , आँखों में आंसू , उधर सीमेंट भीग जाने से हजारों रुपयों का नुकसान होने का डर , ईश्वर से सारे अनुरोध व्यर्थ ! परिवार का मुखिया डाक्टर वी.संदीप , पैसों की तंगी , भयंकर बारिश से जूझता , मजबूर , असहाय कातर , अपने एकमात्र सहारे ईश्वर की अनसुनी से परेशान !
"...........क्या करता उसने ईश्वर को अपशब्द कहे और कहा तुझे मैं ही मिला बरबाद करने के लिए ?" आशंकित निर्माण स्थल पर पहुँचा तो ठेकेदार नें कहा , यहाँ तो आपके जाते ही बारिश बंद हो गई थी अब ताल पत्री की जरुरत नहीं हैं !
पहले उसने ईश्वर को अपशब्द कहे और फ़िर बारिश से लथपथ , जमीन पर औंधा पड़ा हुआ ईश्वर से क्षमा मांग रहा था ! कौन जानता हैं कि ये महज संयोग था या सच में ईश्वर हैं ?

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

उन्होंने अपशब्द तो नहीं कहे ......

पिछले दिनों एक प्रश्न वाचक आलेख ? ( या शायद उपदेश ) पढ़ रहा था जिसमें चिंता व्यक्त की गई थी कि लोग उत्सव के दौरान मद्यपान क्यों करते हैं ? मांसाहार क्यों करते हैं ?.......... वगैरह वगैरह ? पहले पहल आलेख को पढ़ कर मुझे लगा कि कहीं सच में हमारी परम्पराओं के साथ खिलवाड़ तो नहीं हो रहा है ? कहीं कुछ लोग हमारी सांस्कृतिक धार्मिक शुचिता को नष्ट करने की कोशिश में लिप्त तो नहीं हैं ?
इस मसले पर कुछ भी कहने से पहले बताना चाहूँगा कि मैं स्वयं मद्यपान नहीं करता हूँ और ना ही मुझे मांसाहार प्रिय है ! ...........
मैं कह रहा था कि उस आलेख ने मुझे समाज के 'अवमूल्यन' की चिंता में डाल दिया था जिसके चलते मेरे मन में कुछ विचार उपजे हैं ! ज़ाहिर है कि इन्हे आपके सामने रखना मेरा फ़र्ज़ बनता है :

(१) भिन्न जलवायु , भूक्षेत्रों तथा प्राकृतिक पर्यावास में सहज उपलब्ध विकल्पों और परिस्थितियों में मनुष्य की फ़ूड हैबिट्स विकसित हुई हैं ! जोकि कालांतर में समूहों की आदत में तब्दील हो चुकी हैं अतः एक समान धार्मिक आस्था रखने वाले मनुष्यों के समूहों की फ़ूड हैबिट्स एक जैसी हों ये आवश्यक नहीं है ! मसलन उत्तर भारतीय शुद्ध शाकाहारी ब्राम्हण और बंगाल, बिहार तथा उडीसा के मत्स्याहारी ( मांसाहारी ) ब्राह्मण की अपनी अपनी भोजन प्रियता और प्राथमिकता है ! जिसे वे स्वयं तो पसंद कर सकते हैं पर दूसरे पर थोप नहीं सकते ! और उनका ऐसा करना जायज़ भी नहीं होगा ! हो सकता है कि किसी विशिष्ट भोज्य पदार्थ के पक्ष या विपक्ष में वैज्ञानिक तर्क भी हों ! तो भी लंबे समय में विकसित सामुदायिक आदतों को खुरच कर फेंका भी तो नहीं जा सकता ! मेरे कहने का आशय ये है कि भोजन , वस्त्र और अभिव्यक्ति की प्राथमिकता सम्बन्धी तमाम आदतें सुदीर्घ कालावधि का अनुशासन है जिसे एक साथ एक ही कालोनी में बसा कर भी बदल पाना सहज नहीं है ! इसलिए इस तरह की मानवीय प्राथमिकताओं पर बहस बेमानी और समय नष्ट करने के अलावा कुछ भी नहीं है ! यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि धार्मिक ग्रंथों और आख्यानों में शाकाहार तथा मांसाहार दोनों की ही संस्वीकृति मौजूद है ! फ़िर बहस किसलिए ? अच्छे बुरे , पहले दूसरे , बढ़िया घटिया का क्रम देने की फिजूल कवायद क्यों ? भोजन ही नहीं दूसरी मानवीय अभिरुचियों में भी यही तर्क लागू होता है यहाँ आदमी ही क्यों देवता भी सुरापान करते रहे हैं तो फ़िर प्राब्लम क्या है ? धर्मराज युधिष्ठिर द्यूत क्रीडा करें तो परम्परा , अवतार सिंह करें तो पाप ,भला ये भी कोई बात हुई ?
(२) 'उत्सव' दुनिया के तमाम इंसानों , धर्मावलम्बियों , कबीलों , गिरोहों की , उल्लास प्रियता अथवा दुःख की अभिव्यक्ति के अवसर हैं और इनमें सभी को अधिकार है कि अपनी परम्परागत आदत और रूचि के अनुसार ,भोजन ,वस्त्र ,सुरापान ,द्यूत क्रीडा करें बशर्ते कि इससे किसी दूसरे की प्राथमिकताओं पर खलल न पड़ता हो !

मुद्दे की बात :
कुछ लोगों ने होली के दिन फार्म हॉउस में मद्यपान किया , मांसाहार किया , डी जे से गाने बजवाये , रंग बेहिसाब फेंके वगैरह वगैरह , उन्होंने अपशब्द तो नहीं कहे , तुम्हें छेड़ा तो नहीं , तुम्हे मद्यपान के लिए बाध्य तो नहीं किया , तुम्हे मांसाहार करने के लिए प्रेरित तो नहीं किया , उन्होंने बाहर, सार्वजानिक रूप से अशालीनता तो नहीं की ?............. अब 'समूह' उनका , फार्म हॉउस उनका , पसंद उनकी , आनंद उनका !.......
उनके मद्यपान , मांसाहार, द्यूत क्रीडा को धार्मिक वर्जना भी नहीं है ! फिर तुम्हें क्या तकलीफ है ? और क्यों है ? इसमें उत्सव और परम्परा से स्खलन कहाँ है ?
और हाँ ..जब तक उन्होंने कानून का उल्लंघन नहीं किया ! उन्हें उत्सव के मजे लेने दो मित्र !
पुनश्च : जब तक वे पकड़े नहीं गये हैं , उन्होंने द्यूत क्रीडा नहीं की है !