शुक्रवार, 13 मार्च 2009

उन्होंने अपशब्द तो नहीं कहे ......

पिछले दिनों एक प्रश्न वाचक आलेख ? ( या शायद उपदेश ) पढ़ रहा था जिसमें चिंता व्यक्त की गई थी कि लोग उत्सव के दौरान मद्यपान क्यों करते हैं ? मांसाहार क्यों करते हैं ?.......... वगैरह वगैरह ? पहले पहल आलेख को पढ़ कर मुझे लगा कि कहीं सच में हमारी परम्पराओं के साथ खिलवाड़ तो नहीं हो रहा है ? कहीं कुछ लोग हमारी सांस्कृतिक धार्मिक शुचिता को नष्ट करने की कोशिश में लिप्त तो नहीं हैं ?
इस मसले पर कुछ भी कहने से पहले बताना चाहूँगा कि मैं स्वयं मद्यपान नहीं करता हूँ और ना ही मुझे मांसाहार प्रिय है ! ...........
मैं कह रहा था कि उस आलेख ने मुझे समाज के 'अवमूल्यन' की चिंता में डाल दिया था जिसके चलते मेरे मन में कुछ विचार उपजे हैं ! ज़ाहिर है कि इन्हे आपके सामने रखना मेरा फ़र्ज़ बनता है :

(१) भिन्न जलवायु , भूक्षेत्रों तथा प्राकृतिक पर्यावास में सहज उपलब्ध विकल्पों और परिस्थितियों में मनुष्य की फ़ूड हैबिट्स विकसित हुई हैं ! जोकि कालांतर में समूहों की आदत में तब्दील हो चुकी हैं अतः एक समान धार्मिक आस्था रखने वाले मनुष्यों के समूहों की फ़ूड हैबिट्स एक जैसी हों ये आवश्यक नहीं है ! मसलन उत्तर भारतीय शुद्ध शाकाहारी ब्राम्हण और बंगाल, बिहार तथा उडीसा के मत्स्याहारी ( मांसाहारी ) ब्राह्मण की अपनी अपनी भोजन प्रियता और प्राथमिकता है ! जिसे वे स्वयं तो पसंद कर सकते हैं पर दूसरे पर थोप नहीं सकते ! और उनका ऐसा करना जायज़ भी नहीं होगा ! हो सकता है कि किसी विशिष्ट भोज्य पदार्थ के पक्ष या विपक्ष में वैज्ञानिक तर्क भी हों ! तो भी लंबे समय में विकसित सामुदायिक आदतों को खुरच कर फेंका भी तो नहीं जा सकता ! मेरे कहने का आशय ये है कि भोजन , वस्त्र और अभिव्यक्ति की प्राथमिकता सम्बन्धी तमाम आदतें सुदीर्घ कालावधि का अनुशासन है जिसे एक साथ एक ही कालोनी में बसा कर भी बदल पाना सहज नहीं है ! इसलिए इस तरह की मानवीय प्राथमिकताओं पर बहस बेमानी और समय नष्ट करने के अलावा कुछ भी नहीं है ! यहाँ यह कहना भी जरूरी है कि धार्मिक ग्रंथों और आख्यानों में शाकाहार तथा मांसाहार दोनों की ही संस्वीकृति मौजूद है ! फ़िर बहस किसलिए ? अच्छे बुरे , पहले दूसरे , बढ़िया घटिया का क्रम देने की फिजूल कवायद क्यों ? भोजन ही नहीं दूसरी मानवीय अभिरुचियों में भी यही तर्क लागू होता है यहाँ आदमी ही क्यों देवता भी सुरापान करते रहे हैं तो फ़िर प्राब्लम क्या है ? धर्मराज युधिष्ठिर द्यूत क्रीडा करें तो परम्परा , अवतार सिंह करें तो पाप ,भला ये भी कोई बात हुई ?
(२) 'उत्सव' दुनिया के तमाम इंसानों , धर्मावलम्बियों , कबीलों , गिरोहों की , उल्लास प्रियता अथवा दुःख की अभिव्यक्ति के अवसर हैं और इनमें सभी को अधिकार है कि अपनी परम्परागत आदत और रूचि के अनुसार ,भोजन ,वस्त्र ,सुरापान ,द्यूत क्रीडा करें बशर्ते कि इससे किसी दूसरे की प्राथमिकताओं पर खलल न पड़ता हो !

मुद्दे की बात :
कुछ लोगों ने होली के दिन फार्म हॉउस में मद्यपान किया , मांसाहार किया , डी जे से गाने बजवाये , रंग बेहिसाब फेंके वगैरह वगैरह , उन्होंने अपशब्द तो नहीं कहे , तुम्हें छेड़ा तो नहीं , तुम्हे मद्यपान के लिए बाध्य तो नहीं किया , तुम्हे मांसाहार करने के लिए प्रेरित तो नहीं किया , उन्होंने बाहर, सार्वजानिक रूप से अशालीनता तो नहीं की ?............. अब 'समूह' उनका , फार्म हॉउस उनका , पसंद उनकी , आनंद उनका !.......
उनके मद्यपान , मांसाहार, द्यूत क्रीडा को धार्मिक वर्जना भी नहीं है ! फिर तुम्हें क्या तकलीफ है ? और क्यों है ? इसमें उत्सव और परम्परा से स्खलन कहाँ है ?
और हाँ ..जब तक उन्होंने कानून का उल्लंघन नहीं किया ! उन्हें उत्सव के मजे लेने दो मित्र !
पुनश्च : जब तक वे पकड़े नहीं गये हैं , उन्होंने द्यूत क्रीडा नहीं की है !

3 टिप्‍पणियां:

  1. सही है ... दुनिया में हर तरह के लोग हैं और सबों को अपने अपने ढंग से जीवन जीने का अधिकार है ... जबतक व्‍यक्तिगत तौर पर बाधा न उपस्थित हो ... हमें इसपर ध्‍यान नहीं देना चाहिए।

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  2. वैसे तो आपने बिल्कुल सही लिखा है कि सब को अपने ढंग से जीवन जीने का अधिकार ह‌ै....किन्तु आपने एक जगह कहा है कि "धार्मिक ग्रंथों और आख्यानों में शाकाहार तथा मांसाहार दोनों की ही संस्वीकृति मौजूद है!" अगर बता सके तो मुझे उस धर्मग्रन्थ के बारे में जानने की उत्सुकता हो चुकी है,जिसमें अभक्ष्य भक्ष्ण की स्तुती की गई है.....आभार

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  3. Pt.डी.के.शर्मा 'वत्स'जी सबसे पहले तो आपका आभार कि आप हमारे आलेख तक पहुंचे !आपको ज्ञात है कि पुराने समय में पशुओं की बलि मांस को फेंकने के लिए तो नहीं ही दी जाया करती थी ! यहाँ बस्तर में कुछ समय पूर्व तक , माई दंतेश्वरी के सम्मुख पशु बलि देने की परंपरा प्रचलित रही है !इस प्रसाद को अभक्ष्य तो नहीं कहेंगे आप ! मेरे द्वारा उद्धृत सन्दर्भ "महर्षि बाल्मिकी" से सम्बंधित है ! चूँकि आलेख में इसका उल्लेख जरुरी नहीं लगा ! इसलिए सकारण ऐसा नहीं किया !
    वैसे भी मेरा आग्रह फ़ूड हैबिट्स की स्वीकार्यता और सामुदायिक रुचियों के सम्मान को लेकर है ! आलेख में मैंने निवेदन किया था कि मुझे स्वयं मांसाहार प्रिय नहीं है ! आशा है कि आप मेरी भावनाओं से सहमत होंगे कि हमें अपनी रुचियां दूसरों पर थोपने का यत्न नहीं करना चाहिए !

    (अब आप मित्र हो गए हैं तो कहना ये है कि कभी व्यक्तिगत रूप से आपको ग्रन्थ,कांड,अध्याय और पदों का विवरण भी दे देंगे फ़िलहाल संकेत से काम चलाइयेगा)



    और हाँ आप ज्योतिष पर लिखते हैं मुझे अच्छा लगता है कभी इस विषय पर आपसे संवाद ज़रूर करना चाहूँगा कृपया अनुमति दें !

    शुभकामनाओं सहित !

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