पिछले तीन दशक से आदिम जीवन शैली के बीच जिंदगी गुज़ारते हुए , ये ख्याल रहा कि वे प्रेम को लेकर बेहद सहज हैं ! देश की मुख्यधारा होने , अधुनातन और विकसित समाज होने की हमारी अपनी अहमन्यता युक्त धारणा में वास्तविक रूप निहित / मौजूद / व्याप्त कुंठाओं और विसंगतियों की अनदेखी किये जाने की हमारी शुतुरमुर्गीय प्रवृत्तियों से अलग उनकी सामाजिक दिनचर्या और व्यक्तिगत संबंधों की सरलता का मैं हमेशा से कद्रदान रहा हूं ! मुझे सदैव ही यह आभासित हुआ कि उनका सामाजिक ताना बाना हमारी अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ और तनाव मुक्त है फिर भले ही हम उन्हें आदिम या पिछड़े हुए समाज की संज्ञा से नवाजते हों / नवाजते रहें ! स्त्री पुरुष संबंधों में सहज / मुक्त हृदय परिवर्तनशीलता और गतिशीलता के स्वीकार , उन्हें हमारे समाज की जड़वत धारणाओं और कीचड़युक्त हो चुके कथित स्थायी संबंधों को ढोते रहने की बाध्यताओं / परम्पराओं के बर-अक्स कहीं ज्यादा बेहतर समाज की श्रेणी में स्थापित करते हैं ! कह नहीं सकता कि स्वयं मेरे अपने समाज के विद्वतजन मेरे अनुभव जन्य इन निष्कर्षों से सहमत होंगे भी कि नहीं पर बतौर सामाजिक अध्येता अपने ही अवलोकन / पर्यवेक्षण उदभूत यथार्थों को ठुकराना कम से कम मेरे लिए अनुचित ही माना जाएगा !
बांगला देश से विस्थापित हुए परिवारों की सैकड़ों बस्तियां इन आदिम ठिकानों पर बसाने की शासकीय समझ और फैसले के अपने मानदंड रहे होंगे और फिर नौकरी या व्यवसाय के सिलसिले में आप्रवासी होकर आये मेरे जैसे हजारों परिवारों का आगमन ! भिन्न समाजों के स्थायी दीर्घकालिक संपर्क के परिणामों के प्रति मेरी अपनी आशंकायें तो थीं ही पर मुझे यह ज़रा भी अंदेशा नहीं था कि प्रेम को लेकर आदिम समाज पर हमारी अपनी समस्यायें इतनी जल्दी रंग दिखाने लग जायेंगी ! आदिम समाज के सामने हमने सदैव खुद को , उनकी तुलना में , आदर्श / सभ्य और विकसित समाज की तरह से प्रस्तुत किया है ! लगभग ज़िल्ले -इलाही की तरह से पेश आये हैं ! उनके प्राकृतिक संसाधनों पे कब्जे के होड़ / दौड़ में जैसे ही हम उनसे आगे निकले , कि अपनी सामाजिक रीतियों नीतियों को भी उनकी सामाजिक रीतियों और नीतियों पर विजयी घोषित कर डाला ! सरल समाजों पर जटिल समाजों के दुर्दांत वर्चस्व आरोपण का इससे बड़ा कोई दृष्टान्त शायद ही मिले !
इससे पहले के दो आलेखों में कबीलाई प्रेम पर हमारे समाज के दुष्प्रभावों का संकेत मैं पहले ही दे चुका हूं ! वो तनाव / वो सोच / वो चिंतन प्रणालियाँ जिन्हें हम अपने प्रेम संबंधों को बाधित करने वाले आवरणों सा ओढते बिछाते आये हैं , अब आदिम जातीय प्रेम संबंधों पर भी नमूदार होने लगे हैं जबकि उनका अपना समाज इस मामले में बेहद सहज लोक धारणाओं से अनुप्राणित होता आया है ! मेरी अपनी हैरानगी का कारण यह है कि सामाजिक बदलाव को शताब्दियों लंबे समय की दरकार होती है जबकि मेरी अपनी कर्मभूमि में यह लक्षण मात्र पचास साठ वर्षों में ही दिखाई देने लगे हैं ! मुईन अपने ही कबीले की ज़रीना से मोहब्बत कर बैठा ! मुईन जिस कार्यालय में चपरासी बतौर काम करता था उसके अधीन के ही एक इंटरमीडियेट स्कूल में ज़रीना बारहवी जमात की छात्रा थी ! लड़कियों के लिए बनाये गये हास्टल के बजाये वह मुईन और उसकी भतीजी के साथ उसके ही घर में रहती थी ! एक ही गांव और एक ही कबीले से वास्ता होने के कारण विवाह से पहले इस तरह से साथ रहना और प्रेम करना अस्वाभाविक भी नहीं था पर ...
मुईन और ज़रीना की प्रेम कहानी में भावी जिंदगी को संवारने के तौर तरीकों की चर्चाएं भी शामिल थीं ! वो दोनों अक्सर ये बात करते कि 'आगे क्या' ? बहस-ओ-मुबाहिसे में वो अपने पड़ोसियों के उद्धरण देते ! उनकी जीवन शैली जैसे घर की कल्पना करते ! उनकी कल्पनायें उनकी आर्थिक चादर से कहीं ज्यादा विशाल हो चलीं थीं...पर प्रेम के अन्धों को हरे और केवल हरे के सिवा सूझना भी क्या था ? चपरासी की नौकरी और मुख्तसर सी तनख्वाह वाले मुईन और बेरोजगार शिक्षार्थी ज़रीना के प्रेम की डगर में बाहरी समाज के चमकीले दमकीले ख्वाब आ ठहरे थे ! हकीकत और ख्वाब के फासले मिटाए जाना मुमकिन नहीं रहा होगा तभी तो ज़रीना ने खुदकुशी कर ली और उसके एक घंटे के अंदर मुईन ने भी...प्रेम कथाओं में गाये जाने वाले एक बेहद खूबसूरत गीत के मुखड़े में , मैं अपनी तईं एक संशोधन देख रहा हूं ...तुम जो आये जिंदगी में मौत बन गई नियति मेरी ...ओह प्रेम !
इस आदिम धरती पर गाज़र घास से पसर गये हैं हम ! तारकोल की इस सड़क सी हमारी घुसपैठ उनकी जिंदगी में ! हरियल वादियों के दरख्त अब तिनकों की शक्ल अख्तियार कर चले हैं ! दूर एक पहाड़ी की छाती को अपने पैने नाखूनों से चटियल कर डाला है हमने...और हम...उनके आकाश पर गहन अवसाद युक्त बादल से छा गये हैं !
प्रेम ऐसा विषय रहा है जिसके बारे में कोई पुख्ता धारणा अभी तक नहीं बन पाई है और न बन सकती है. यह कोई नियम-कायदे या परम्पराओं में बांधने वाली या उससे चलने वाली चीज़ नहीं है.पुराने समय से अलग-अलग दृष्टान्त मिलते हैं जब प्रेम किन्हीं दो को खुशी प्रदान करता है या दुःख. अधिकतर मौकों पर इसकी परिणति बड़ी कारुणिक हो उठती है.
जवाब देंहटाएंआपने आदिम समाज के बारे में जो मान्यताएं बताईं,उनमें और 'सभ्य-समाज' में अंतर-सा दिखता है पर यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि आदिवासी समाज का बहुत कुछ खुला होता है और तथाकथित सभ्य-समाज का ढंका-छुपा !
बाकी,प्रेम सबके लिए अलग अनुभूति है,इसे किसी फार्मूले से नहीं पाया जा सकता !
खुलेपन की सहजता और ढंके / छुपेपन की असहजताओं के घालमेल / सतत संपर्क से जो कुछ उपजा वह साबित करता है कि असहजता सहजता को लील रही है !
हटाएंप्रेम का फार्मूला दिखे याकि नहीं ...पर नहीं है यह कह नहीं सकते ! होगा ज़रूर ! आखिर को 'घट' जाना अकारण तो नहीं हो सकता !
अली सा.
जवाब देंहटाएंआज उस मोहब्बत की दास्तान पर कहने को कुछ नहीं, लेकिन जिस तारकोल की सड़क की तस्वीर के साथ उस सड़क का ज़िक्र करते हुए आपने कहा है कि इस आदिम धरती पर गाज़र घास से पसर गये हैं हम ! तारकोल की इस सड़क सी हमारी घुसपैठ उनकी जिंदगी में!
उस पर अपने बच्चे स्वप्निल कुमार 'आतिश'की एक लंबी कविता का एक छोटा टुकड़ा यहाँ पेश करने की इजाज़त चाहूँगा:
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चहेंटुआ पहले ठाकुर साब किहाँ
काम करता था
सड़क बनते ही
बम्बई भाग गया
अब बर्तन धोता है
एगो होटल में...!
सड़क पक्की होने से
खाली सड़क पक्की होती है
नहीं पक्का होता गांव का भाग्य,
हाँ
बढ़ जाता है खतरा
गांव के सहर चले जाने का
या सहर के गांव में घुस जाने का।
सलिल जी ,
हटाएंजनाब आतिश साहब के लिए जितनी भी शुभकामनायें / जितने भी आशीष दूं कम ही होंगे ! वो कहते हैं ना कि पूत के पांव पालने में ...! उन्होंने मुझे बेहद प्रभावित किया है ! निश्चय ही आपके संस्कार !
दुआगो
अली
यह घुसपैठ तो कहर ढायेगी ही.. दोनो पर। लेकिन देर सबेर यह घुसपैठ तो होनी ही है। इसे कोई रोक भी नहीं सकता। घुसपैठ के साथ-साथ हमे सहना ही है छिन्न भिन्न होती सामाजिक व्यवस्थाएं। हम उनकी सरल जिंदगी में घुसपैठ करते हैं साथ ही चीखते भी हैं कि इन्होने हमारे पूरे शहर को गंदा कर दिया..कहाँ से आई गये हरामी! विकास के साथ-साथ घुसपैठ और घुसपैठ के साथ-साथ प्रेम कहानियों में ऐसी असहज शहरी परिस्थियाँ आना भी एक स्वाभाविक लक्षण है। समाजशास्त्री के तौर पर आपका अंचभित होना स्वाभाविक है लेकिन आप अपनी दार्शनिकता से इससे निजात पा जायेंगे ऐसा लगता है।
हटाएंशहर की सड़कें मुड़ीं
गांव की पगडंडियों पर
जंगलों की ओर भागीं
गांव की पगडंडियाँ।
घाटियों की तलहटी से
पर्वतों के शिखर तक
पग पड़े जब आदमी के
बन गईं पगडंडियाँ।
अरे हां भूल ही गया..यहाँ लिखने का मतलब स्वप्निल कुमार को शुभकामनाएं देना भी था और उसकी कविता से प्रभावित होना भी था।
हटाएंवाह,वाह !
हटाएंगुरु-दक्षिणा आपने तो दे दी,मेरी बकाया है अभी !
सलिल जी के बच्चे ने बड़ों से कहीं ज़्यादा कह दिया है...बहुत उम्दा !
हटाएंदेवेन्द्र जी ,
हटाएंएक संपर्क होता है सहज और दूसरा जबरिया ! मैं यहां पर जबरिया वाले संपर्क पर फोकस कर रहा हूं ! इसमें , सैकड़ों बस्तियां गवर्नमेंट ने लाकर अपनी तरफ से ठोंक दीं और वो लोग जो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए बलात कूद पड़े , शामिल हैं !
प्रकरण में , मैं तो बाहर का दिखवैय्या हूं / एक तटस्थ पर्यवेक्षक , मुझे केवल घटनाक्रम रिकार्ड करने हैं ! उनका बयान करना है , निर्लिप्त रह कर !
यहां पग डंडियों वाले पद चिन्हों को बूटों से रौंदे जाने का भय है ! सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आभार !
देवेन्द्र जी ,
हटाएंये तो आतिश साहब की कविता का प्रभाव है जो आप 'भूलों' में अटक गये , शुभकामनाओं से भटक गये !
याद भी आया तो ये कह कर मुकर गये कि शुभकामनायें देना थीं...पर दीं अब भी नहीं :)
प्रभावित होना था ...लेकिन स्वीकारोक्ति अब भी नहीं कि प्रभावित हो चुका हूं / हुआ हूं :)
स्वप्निल जी के ब्लॉग का पता दे रहा हूँ... छोटी उम्र के बेहतरीन कवि/लेखक हैं.. फिलहाल मायानगरी मुम्बई में पैर जमाने की तलाश में हैं.. ब्लॉग लेखन बंद है, लेखन जारी!!
हटाएंhttp://swapnil-merikalamse.blogspot.in/
व्यवधान के क्षमा अली सा!!
भावनाओं को समझिये शब्दों के जाल में मत उलझाइये सर जी।
हटाएंप्रेम तो शाश्वत है..... अंतहीन सिलसिला. मगर कभी कबीलों और रिवायतों में पड़ कर प्यार के पहलु को तार तार किये जाने का प्रयास तो होता ही रहता है. बहरहाल बेहतरीन आलेख.... दाद क़ुबूल फरमाएं !
जवाब देंहटाएंसिंह साहब ,
हटाएंआपका स्वागत है !
बेशक प्रेम अंतहीन और शास्वत है ! पर वह हम सबके हिस्से छोटे बड़े टुकड़ों में आता है जिसकी वज़ह भी हम ही हैं ! आलेख दो भिन्न समाजों के संपर्क जनित प्रभावों की रपट है !
इन्सान की फ़ितरत भी अजीब है, पहले ख़ुद क़ायदे कानून बनाए फिर ख़ुद ही मकड़ी के जाले की मानिंद उन्हीं में फँस बैठा...
जवाब देंहटाएंहां ! उसकी अपनी आचार संहिता उसके अपने इमोशंस को डिक्टेट कर रही है !
हटाएंप्रेम करना सुखद होता होगा लेकिन परिणाम प्राय: दुखदायी होते हैं।
जवाब देंहटाएंप्राय: दुखदाई परिणामों की लकीर पीटने ( को लिखने ) का मकसद भी यही है कि इंसान को वक़्त रहते त्रुटि सुधार की तरफ ध्यान देना चाहिये ! चलो सुखद प्रेम की ओर !
हटाएंतुम न आते जान न पाते जिंदगी क्या चीज है..! ओह प्रेम!
जवाब देंहटाएंतुम्हारा आना 'जान' जाना !
हटाएंप्रेम के मामले में मैं अक्सर अटपटा जाता हूँ ,कोई स्पष्ट विचार निर्मिति हो नहीं पाती ....बस पढ़ लिया है !
जवाब देंहटाएंहाँ ऐसे प्यार मानवता के हित में नहीं जो खुद मानव की जन ले लें उआ प्रेमियों की जान पर बन जाए ...
प्रेम से कहीं बहुत अधिक मूल्यवान मनुष्य का जीवन है ...ऐसी घटनाएं सुन कर मेरा मन एक गहरे अवसाद में डूब जाता है ....
भगवन ,
हटाएंजो प्रेम में अटपटाते नहीं और स्पष्ट विचार निर्मिति कर लेते हैं , निश्चय ही वे संबंधों के वणिक / सौदागर होते हैं ! दरअसल प्रेम वहां होता ही नहीं ! वो तो इस तरह के जीवों से थरथर कांपता है...और खिसक लेता है !
हां यह समझना मुश्किल है कि प्रेम , उसके लिए मृत्यु का वरण करने वालों के पास क्यों मौजूद रहा करता है ?
वह सुख और अवसाद दोनों का ही कारण और दोनों ही हालात में मौजूद कैसे रह पाता है !
@ सरल समाजों पर जटिल समाजों के दुर्दांत वर्चस्व आरोपण का इससे बड़ा कोई दृष्टान्त शायद ही मिले ...
जवाब देंहटाएंबड़ा अनूठा विषय उठाया आपने ...
सरल व साधारण आदिम नियमों पर हम चतुर मानवों की धूर्तता और चालाकी के प्रभाव स्पष्ट हैं !
हो सकता है धीरे धीरे वे भी हमसे धूर्तता सीख लें मगर यकीनन इससे सरल प्राक्रतिक नियमों की अवहेलना ही होगी !
जब तक कुछ और मासूम कुर्बान होंगे ..
इस व्यवस्था को विवशता के साथ झेलना ही हमारी नियति है !
और हम कर ही क्या सकते हैं ?
सादर !
कर क्यों नहीं सकते ? अभी अभी तो एक सकारात्मक प्रतिक्रिया दी आपने !
हटाएंdear ali,after a long ,i acros yr view.i appriciate by heart.\vo subah kabhi to aayegi......\
जवाब देंहटाएंप्रिय जय , उम्मीद कर रहा हूं आप ब्लॉग अपडेट करेंगे ! नेपा नगर को उज्जैन के हवाले किया जाये !
हटाएंआप जिंदगी में सबसे ज्यादा प्यार किस से करते हैं ?
जवाब देंहटाएंएब बार किसी के द्वारा पूछे गए इस सवाल का ज़वाब मैं आज तक पचा नहीं पाया हूँ । लेकिन यही सच है , हज्म हो या न हो ।
प्रेम को समझना वास्तव में ही बड़ा मुश्किल है , लगभग नामुमकिन । अब इस सदी में तो कोई सम्भावना भी नहीं ।
लेकिन आपका प्रयास अच्छा है ।
डाक्टर साहब ,
हटाएंप्रेम पर आपका स्टेटमेंट ही सही है !
मेरा प्रयास कुछ भी नहीं , प्रेम के कुछ शेड्स हैं जिन पर ध्यान दिया है !
prem ka to pata nahi lekin apke 'darshnik shaili' se khichaw hi nahi prem bhi ho gaya hai.........
जवाब देंहटाएंpranam.
सञ्जय भाई ,
हटाएंआभार !