गुरुवार, 19 जुलाई 2018

किन्नर-35-11

गतांक से आगे...

हमने पाया कि रोमन, ग्रीक, मिस्री, मेसोपोटामियाई, भारतीय, चीनी मूल की महा-सभ्यताओं में तृतीय लिंग के जन्मना और कृत्रिम प्रारूपों में धार्मिकता / आध्यात्मिकता के नक्श किस तरह से मुखरित हुए हैं । सम्राटों, सुल्तानों और प्रजाजनों की द्वि-वर्गीय व्यवस्था में निहित शोषण को छुपाने के लिये अथवा उसके न्यायोचित होने के तर्कों को आध्यात्मिक्ताओं के मुलम्मे चढ़ा कर पेश करना बेहद शातिराना और चालाकी भरा कृत्य है । सो विश्व के तमाम राजतान्त्रिक / धार्मिक समाजों में किन्नरों को ईश्वरीयता के पवित्र पुरोधा की शक्ल में प्रस्तुत किया जाना भी आर्थिक दैहिक शोषण पे परदे-दारी का रणनीतिक कदम माना जाना चाहिए ।  ये जानना दिलचस्प है कि, ईश्वर की लैंगिक परिवर्तनशीलता और उसकी काम क्रीडाओं / लीलाओं के कथित विवरण मनुष्य की दैहिक अभिलाषाओं / विषम / समलैंगिक सहवासों की लालसाओं के समदर्शी-उद्धरणों की तरह से प्रस्तुत किये गये । यही नहीं इस तरह के खांटी तर्क लैंगिक समानता / स्त्री पुरुष के मध्य विभेद / निषेध के कथ्यो /  दस्तावेजों की तरह से प्रस्तुत किये गये ।

दुनिया में, धार्मिकता के इतर शायद ही ऐसा कोई अन्य दृष्टान्त हो, जहां मनुष्य, द्वारा सृजित पात्र, घटना क्रम, कथ्य ही मनुष्य के स्वामी बन बैठे हों, स्वयं के द्वारा रची गई नितांत काल्पनिक व्यवस्था के दासत्व को, मनुष्य ने सम्मोहन की हदों या फिर भयाक्रांत होने की हदों तक जाकर, स्वीकार किया और कालान्तर में उसके अनेकों दुरूपयोग भी किये, मिसाल के तौर पर तृतीय प्रकृति / तृतीय लिंग के मामले में भी ऐसा ही हुआ जहां जननिक विरूपताओं या शरारतन स्थापित किये गये जननिक प्रारूपों को, पौरोहित्य विशेषज्ञता के झांसे में रखकर समलैंगिक यौन कामनाओं की पूर्ति की व्यवस्था कर ली गई या फिर एकाधिक विषम-लिंगीय संबंधों के निर्विवादित प्रबंधन हेतु पहरेदार बतौर दायित्व सौंपे गये अथवा स्वामित्व की निरंतरता के लिये सुनियोजित देह प्रारूप थोपे गये / आरोपित किये गये । भारतीय सन्दर्भों में इसे, उपासना गृहों में, देवदासियों की  विषम लिंगीय उपस्थिति के रूप में देखा जायेगा और ऐन इसी तरह से ग्रीक-ओ-रोमन-मिस्री मंदिरों में,  इसे किन्नर पुरोहितों / गल्ली की समलैंगिक उपस्थिति के रूप में देखा जाए । यदि हम जननिक कारणों के अपौरुष को नज़र अंदाज़ कर भी दें तो कृत्रिम रूप से सृजित अपौरुष को मनुष्य की समलैंगिक यौन लालसाओं से जोड़ कर क्यों नहीं देखा जाना चाहिए ?
...क्रमशः