गतांक से आगे...
युद्ध और सौंदर्य के देव कार्तिकेय के जन्म की कथा में
उल्लेख है कि आदि देव शंकर और माता पार्वती के अभिसार के उपरान्त, अग्नि देव ने
अपने हाथों में वीर्य को ग्रहण कर उसका पान कर लिया था किन्तु असहनीय ज्वलनशीलता
से बचने के लिये उसे ऋषि पत्नियों के समूह में वितरित कर दिया था जिसका एक अंश,
ऋषि पत्नियों ने गंगा को दे दिया था, फलस्वरूप कार्तिकेय जन्मे । ये कथाएं सीधे सीधे यौनाचार की कथाएं नहीं हैं
बल्कि इन्हें प्रतीकात्मक रूप से बांचा जाना चाहिए । यानि कि देवताओं के मध्य समलैंगिक / विषमलैंगिक यौनाचार के
संकेत खोजने के बजाये हमें यह समझना होगा कि देवता धरती के निवासियों को क्या
सन्देश देना चाहते हैं ।
हमें लगता है कि हिंदू मिथक स्त्री पुरुष की समान
प्रतिष्ठा की कामना के अंतर्गत गढे और कहे गये हैं । ये आश्चर्यजनक होगा जो हम इन
कथाओं में सकारात्मक संकेत खोजने के बजाये यौनिकताओं के दस्तावेज गढ़ने लग जायें ।
हमारा यह मानना है कि संभवतः हिंदू मिथकों, में देवताओं द्वारा दिये गये सन्देश,
स्त्री बनाम पुरुष बनाम तृतीय लिंगीयता के विभेदकारी सन्देश नहीं हैं बल्कि इन्हें
लिंगीय तरलता / परिवर्तनशीलता के आलोक में देखा जाना चाहिए कि ईश्वर जो चाहे, जैसा
चाहे, कोई एक लिंग श्रेष्ठ नहीं कोई दूसरा या तीसरा लिंग हेय भी नहीं, सब सहजता से
घटित हो सकता है क्योंकि ईश्वर ने यह कर के दिखाया है, उद्धरण स्वयं प्रस्तुत किया है
। यहां कोई व्यभिचार नहीं, कोई भी तुलनात्मक रूप से दीन अथवा बलशाली लिंग नहीं है, सो
धरती पर जो भी है वो ईश्वरीय प्रावधान है । अर्थात किन्नर भी ।
हमें, किन्नरों की वैश्विक उपस्थिति के धार्मिक संकेत /
चिन्ह सहज सुलभ है, चूंकि धार्मिकता, आदिम मनुष्य की, प्रकृति से प्राथमिक मुठभेड़ की, प्राथमिक
कृति है अस्तु मनुष्य के, प्रारम्भिक समाजों से लेकर, अधुनातन समाजों तक के विकास
काल में धार्मिकता के विलोपन की कल्पना भी दुरूह मानी जायेगी । ऐसी स्थिति में
मानुष जीवन के समस्त आयामों, समस्त
कालखंडों धर्म की मौजूदगी किसी आश्चर्य का विषय नहीं है सो हमें यह भी स्वीकार
करना होगा कि मनुष्य की दैहिकता भले ही आनुवंशिकता निर्धारित मानी जा रही हो पर
उसमें धार्मिकता की ठोकरें / थपकियां / ताल चिन्ह दिखाई ना दें, ऐसा कैसे संभव
होगा ? नि:संदेह दैहिकता के प्रथमतः पुरुष, स्त्री लिंगी अथवा अन्यान्य लिंगी का
सुसंगत और परम वैज्ञानिक निर्धारक तत्व आनुवंशिकता है किन्तु धर्म जैसे देहेत्तर /
बाह्य किन्तु प्रभावशील निर्धारक तत्व, दैहिकता को प्रभावित ना करें ऐसा कैसे हो
सकता है ? हमारा मानना है कि ईश्वरीयता की कल्पनायें एवं आस्थागत विश्वास, दैहिकता
की वास्तविकता से कमतर शक्ति तत्व नहीं है ।
...क्रमशः