मंगलवार, 24 जुलाई 2018

किन्नर -36-4

गतांक से आगे...

ओट्टोमन साम्राज्य में किन्नर, विजित क्षेत्रों से लाये जाते थे यहां पुरुष वर्गीय दासों में अधिकाँश लोग किन्नर हुआ करते थे । सामान्यतः उन लोगों को शाही दरबार में अधिकारी तथा शाही हरम की पहरेदारी के कार्य के लिये नियुक्त किया जाता था । सामान्य काल 1465-1853 तथा 1853-1909 में  ओट्टोमन साम्राज्य के शाही महल किन्नरों के प्रशासनाधीन थे । इन किन्नरों में, अफ्रीकी मूल के कृष्ण वर्णी किन्नर तथा अन्य देशों से लाये गये श्वेत वर्णी किन्नर बराबर से सम्मिलित थे । जहां कृष्ण वर्णी किन्नर शाही हरम की निम्न श्रेणी, (जहां शाहों की रखैलें / वेश्यायें / अन्य दोयम दर्जा मानी गई स्त्रियाँ रहती थीं) की देखभाल / सेवा करते जबकि श्वेत वर्णी किन्नरों को शाही शिक्षण संस्थाओं / स्कूलों में तैनात किया जाता था । श्वेतवर्णी किन्नर प्रमुख रूप से यूरोप के बाल्कन या कास्कस क्षेत्रों से लाये गये ईसाई हुआ करते जोकि, जिजिया कर / नजराने के तौर पर स्वीकार किये गये लोग होते थे, यानि कि वे लोग जो नकद नजराना नहीं दे पाते, बंध्याकृत होकर कीमत चुकाते  । ओट्टोमन साम्राज्य के शाही हरम प्रशासन और गुप्तचर तंत्र का मुखिया एक कृष्ण वर्णी किन्नर था । जिसका नाम किजलर अगासी था ।  इतना ही नहीं किजलर अगासी, सल्तनत की हरेक गतिविधि, शाही दरबार की कार्य प्रणाली, मंत्रियों और अधिकारियों से सम्बंधित मुद्दों में सम्मिलित हुआ करता था । सामान्य काल 1730 में बशीर आगा नामित किन्नर बहुत मशहूर हुआ था जिसे हनफी इस्लाम के ओट्टोमन संस्करण तथा शाही पुस्तकालय / स्कूलों की स्थापना / संरक्षण, संवर्धन का श्रेय प्राप्त है । 

किन्नरों की वैश्विक उपस्थिति को स्थानीयताओं / आंचलिक विशिष्टताओं के मद्देनजर देखने के बावजूद, हम पाते हैं कि वे सभी विविध देशज संबोधन के दायरे से बाहर लगभग एक जैसे कारणों से किन्नर बनाए गये थे या बने थे । जैसा कि हमने पिछली चर्चा में यह स्पष्ट किया है कि शारीरिकता की जन्मजात परिस्थितियों से निर्धारित हो चुके किन्नरों के अतिरिक्त बलपूर्वक बनाए गये किन्नरों की अंतर्धारा भी समानांतर रूप से बहती रही है । यानि कि जो लोग जन्मना पौरुष हीन नहीं थे, उन्हें किन्नर बनाये जाने के कारणों का समावलोकन भी हमें करना होगा । हमें यह समझ लेना चाहिए कि अतीत कालीन राजनैतिक व्यवस्थाएं विशुद्ध रूप से राजतान्त्रिक / सामंत वादी व्यवस्थाएं थीं, जहां कुलीनों को अपनी सत्तागत कुलीनता को यथावत बनाए रखने के लिये निर्विवाद संख्याबल वांछित था सो वे धार्मिक जातिगत स्रोतों से इस संख्याबल को जुटाने के अतिरिक्त बंध्याकरण के रास्ते से थोपे गये दासत्व को भी इसका माध्यम बनाते थे । उन दिनों मानव व्यापार आम था । यानि कि मनुष्य विक्रय योग्य वस्तु थे जहां भी जितने भी जिस हाल में मिलते उनकी मंडियां सजा दी जातीं और धनपति क्रेता अपने लिये क्रीत दासों का जुगाड़ कर लेता । इतना ही नहीं अनेकों प्रकरण में क्रीत दासों के पुनर्विक्रय, बारम्बार विक्रय से धनार्जन / अतिरिक्त लाभ कमाने के अवसर भी क्रीत दासों के स्वामियों द्वारा अक्सर भुना लिये जाते । वे छोटी मंडियों में दास खरीदते फिर बड़ी मंडियों में उन दासों को अधिक मुनाफे के साथ बेच दिया जाता और यह सिलसिला तब तक चलता जब तक कि सर्वाधिक समृद्ध राज शाही / सामंत शाही उन्हें अंतिम रूप से क्रय ना कर लेती । 
...क्रमशः