गतांक से आगे...
सामान्य काल 1499 में वियतनामियों द्वारा
चीन के एक जहाज को नष्ट किये जाने का उल्लेख मिलता है जोकि हैनान से गुआंगडोंग जा
रहा था और जिसके 12 यात्रियों को खेतिहर मजदूर बना दिया गया था और 1 व्यक्ति
को बंध्याकृत कर दिया गया था । यह व्यक्ति
बंदी बनाये गये लोगों में सबसे छोटा था और इसका नाम वू रुई था बाद में इसे थेंग
लोंग के शाही महल में किन्नर सहायक के तौर पर नियुक्त कर दिया गया था । कुछ समय
बाद वू रुई बच कर चीन भाग निकला जिसे लोंग
झोउ के स्थानीय मुखिया ने दुबारा वियतनामियों को बेचने की कोशिश की थी जोकि
पिंगजियांग के न्यायाधीश के हस्तक्षेप के कारण बीजिंग जाने का अवसर मिला गया था । न्गुयेन
साम्राज्य के दौर में वियतनामी सामान्य नागरिकों के बंध्याकरण पर प्रतिबन्ध लगा
दिया गया था । उस समय केवल बालिग़ लोग ही बंध्याकृत हो सकते थे इसीलिए इस समय को हम
वियतनाम के जन्मना किन्नरों का समय मान सकते हैं। तब वियतनामी अधिकारियों ने यह
आदेश जारी कर दिया था की यदि किसी घर में देह विकृत / विकृत जननांग वाला बच्चा
पैदा हो तो प्रशासन को अनिवार्य रूप से सूचित किया जाए । ऐसे बच्चे के बदले में
उसके गांव / शहर के एक बंधुआ खेतिहर मजदूर को स्वतंत्र कर दिया जाता था । इसके बाद
जब बच्चा दस साल का हो जाता तो उसे यह विकल्प दिया जाता कि वो किन्नर अधिकारी
कर्मचारी बतौर काम करना चाहेगा या फिर राज महल की स्त्रियों की सेवा करना चाहेगा ।
यह गौर तलब है कि फ़्रांसीसी उपनिवेश काल में वियतनामियों को नीचा दिखाने के लिये,
उनका बंध्याकरण करना ज़ारी रखा गया था । वियतनाम की तरह से थाईलैंड में भी भारतीय
मुसलमानों को किन्नर बतौर शाही महल की सेवा में रखा गया था और बर्मा में भी ऐसे ही
उदाहरण सुनने को मिलते हैं।
भारतीय मिथकों में, दैवीयता के लिंगीय तरलता
वाले उद्धरणों में, किन्नरों के हवाले, मिलने की चर्चा हम आगे चलकर करेंगे, जिनके
हम उन सूत्रों का उल्लेख करेंगे जहां पर ईश्वर लिंगीयता के भेद से मुक्त होकर,
जागतिक लैंगिक समानता के संकेत देता हो अथवा यह उदघोष करता हो कि, चूंकि सवर्त्र
वो ही व्यापित है, कण कण में विराजता है, हर शय, हरेक जीव में वो ही मौजूद है सो
पृथक पृथक लैंगिकता, किसी लीला / माया के अतिरिक्त कुछ और नहीं है। यदि हम भारतीय
वांग्मय में निहित प्रतीकात्मकता / संकेतों को ग्रहण करें तो स्त्री पुरुष, किन्नर
या अन्य किसी लिंग का होना, अंततः ईश्वर का होना है । ये ईश्वर ही है जो हर देह
में अभिव्यक्त है । बहरहाल धार्मिक आध्यात्मिक विवरणों की चर्चा आगत काल-खंड/
क्षणों के लिये स्थगित । संस्कृत सहित भारत की ज्यादातर भाषाओं में तृतीय लिंग को
संबोधित शब्द मिलते हैं । स्त्री, पुरुष सह नपुंसक लिंग । चूंकि भाषायें सामाजिकता
को अभिव्यक्ति करती हैं सो हमें यह मान लेना चाहिए कि भारतीय सामाजिकता में नपुंसक
अथवा तृतीय लिंग यानि कि किन्नर लिंग अस्तित्वमान है । यही कारण है कि हमें
कामुकता / काम कलाओं / यौनिकता संबंधी विषय पर सशक्त हस्तक्षेप करने वाले आचार्य
वात्स्यायन के ग्रन्थ कामसूत्र में तृतीय प्रकृति का उल्लेख मिलता है । तृतीय
प्रकृति अर्थात वह पुरुष जो कि स्त्रैण है अथवा स्त्रियोचित व्यवहार करने वाला है
और स्त्रियों के उपयुक्त परिधानों, साज सज्जा में रूचि रखता है। मिथकीय भारत में
किन्नरों और उनके आराध्य देवी देवताओं का स्तुतिगान संभव है, एतिहासिक दस्तावेजों
में दर्ज नहीं किया गया हो, किन्तु उससे एक बात निश्चित रूप से सिद्ध होती है कि
तत्कालीन जन मानस, तृतीय देह के सम्बन्ध में चिंतन अवश्य करता था ।
...क्रमशः