सोमवार, 17 जून 2013

पहले आंसू ...!

बहुत पहले की बात है, जबकि इन्युइट कबीले का एक व्यक्ति, समुद्र के किनारे सील के शिकार के लिए गया था ! वहां, पानी से बाहर बड़ी तादाद में मौजूद सीलों को देख कर वह बहुत आनंदित हो रहा था ! उसने सोचा कि आज वह निश्चित रूप से अपनी पत्नि और पुत्र के लिए अच्छे भोजन का प्रबंध कर सकेगा सो वह सीलों  की ओर सतर्कतापूर्वक धीरे धीरे रेंगने लगा ! किन्तु सीलों को किसी बहिरागत / आगंतुक की उपस्थिति की अनुभूति हो चली थी अतः वे बेचैन होने लगीं, यह देख कर उस आखेटक ने अपनी गति और भी कम कर दी ! अचानक सारी की सारी सीलें पानी में कूदने लग गईं ! वह व्यक्ति यह देखकर बावला सा होने लगा क्योंकि अपने परिजनों के लिए सम्यक भोजन प्रबंध की उसकी कल्पना चूर चूर होने लगी थी !

तभी उसने देखा कि समुद्र में कूद चुके सील समूह से पृथक एक सील और भी है जो सील समूह की तुलना में मंथर गति से समुद्र की ओर बढ़ रही थी ! आह यह पुरस्कार , उसकी उम्मीद अभी शेष थी ! उसके सामने उसकी पत्नि का गर्वीला चेहरा और पुत्र की आनन्द आपूरित आँखें कौंध गईं ! इस एक सील से अगले कई दिनों तक उन सब की उदरापूर्ति संभव है ! आखेटक चाहता था कि वह सील उसे देख ना पाये, सो अतिरिक्त सावधानी पूर्वक रेंगते हुए वह , उस सील की ओर बढ़ा, तभी सील उछलकर गहरे समुद्र में समां गई ! स्तब्ध आखेटक अपने पैरों पे खड़ा हुआ तो वह एक अनजान सी संवेदनात्मक अनुभूति से थरथरा रहा था , उसके गले से पहले पहल घुटी घुटी, फंसी फंसी सी , फिर एक तीव्र असहज सी ध्वनि निकलने लगी थी !

आखेटक को लगा कि उसकी आँखों से पानी जैसी बूँदें झर रही हैं ! उसने अपनी अँगुलियों से उन बूंदों को छुआ और चख कर देखा,वे खारी थीं ! उसके आर्तनाद को सुनकर उसकी पत्नि और पुत्र किसी अनहोनी की आशंका में समुद्र के किनारे की ओर भागे ! उसकी आँखों से बहते तरल को देख कर वे चिंतित हुए ! आखेटक ने उन्हें सारे घटनाक्रम से अवगत कराया और यह भी कि उसका भाला और चाकू किस तरह से निष्फल सिद्ध हुए ! आखेटक की व्यथा उसके पत्नि और पुत्र के लिए भी व्यथा थी सो वे भी आखेटक के साथ क्रंदन करने लगे और  इस प्रकार से मनुष्य जाति ने पहले पहल रोना सीखा ! अगले दिन उन सब ने मिलकर एक सील का शिकार किया और अगले शिकार की सुगमता के लिए उसकी खाल से फंदे बनाये !

यह आख्यान सामाजिक दायित्वबोध के आलोक में संवेदनाओं के प्रथम प्रकटीकरण की बात करता है !  कथा में उद्धृत आखेटक को दुनिया के पहले पहले रुदन का उदाहरण बनाया गया है , जिसका कारण , अपने परिजनों के भरण पोषण के लिए उसकी समूहगत चिंतायें हैं ! अगर आख्यान के अंतर्गत चोट लगने जैसी किसी घटना के फलस्वरूप निकले आंसुओं की बात की जाती तो नि:संदेह उसका आशय दैहिकता मात्र ही होता , एक नितांत व्यक्तिगत जैविक कारण , किन्तु यह आख्यान , एक आखेटक के समक्ष पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध शिकार के आह्लाद में आखेटक के परिजनों को भी समाविष्ट करता है और शिकार के हाथों से फिसल जाने की असहायता के समय में भी ! यह आख्यान अपनी सम्पूर्ण कहन के दौरान  आखेटक के निज कौशल से इतर उसकी पत्नि और पुत्र को बारम्बार आखेट का मूल कारण इंगित करता है !

शिकार के समय आखेटक अपने व्यक्तिगत सामर्थ्य का उपयोग, अपने परिवार के हित में करता है ! वह हर क्षण अपने स्वजनों को स्मरण करते हुए , सतर्क अथवा अति-सतर्क , आनंदित अथवा दुखी होता है !  कहने का आशय यह है कि उस समय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भले ही एक भौतिक / तरल और द्रव्य रूप में हुई हो , किन्तु उसका मौलिक कारण उसकी पृष्ठभूमि में अन्तर्निहित सामाजिकता ही है ! इस आख्यान के तईं , आदिम जातीय समाजों की अपनी समझ , उनके बोध के अनुसार सामाजिकता के अधीन संचालित / सामूहिकता निर्दिष्ट / स्वजनता प्रेरित , दैहिक जैविक घटनाक्रम से यह संकेत मिलता है कि वे , वैयक्तिकता बनाम सामाजिकता में से तुलनात्मक रूप से सामाजिकता को ही प्रधानता देते हैं !

( दो माह से ज्यादा समय गुज़रा, कार्याधिक्य के चलते, कोई पोस्ट नहीं डाली, सोचा ब्लॉग मृतप्राय दिखे इससे बेहतर है कि मैं लोक आख्यान के नाम से ही उसे आक्सीजन दे दूं  )

19 टिप्‍पणियां:

  1. लम्बे समय बाद ही सही मगर इस पोस्ट की आवश्यकता थी !
    आपका स्वागत है..

    आंसू आज भी असफलता के प्रतीक ही हैं ..

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  2. आप ओक्सिजन तो दे लिए सील के शिकार की तरह पोस्ट डाल कर परन्तु केस स्टडी थमाकर दूसरों को नाइट्रोजन पिला देते हो :-)

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    1. आदरणीय सुब्रमनियन सर ,
      आपका हार्दिक आभारी हूं :)

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  3. मुझे तो लगा था फूल बिखर जाने पर गिर होगा पहला आंसू !
    सुबह की खिलती मुस्कुराती धूप में
    फूलों के बिखरे पत्तों पर शबनम
    गोया कि
    चांदनी ने रात भर आंसू बहाए हों !

    ब्लॉग को ऑक्सिजन जरुरी थी !

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    1. वाणी जी,
      वाह / सुंदर / शानदार :)
      कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं !

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  4. अली भाई,
    आप बहुत ज्यादा संस्कृतनिष्ठ लिखते हैं। यह लोकभाषा नहीं लगती।
    सप्रेम,

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    1. आफ्लातून भाई ,
      लोक आख्यान को किसी पूर्ववर्ती (अन्य) भाषाई संग्राहक से लेकर अपनी भाषा में रूपांतरित करते वक्त कथा की मूल भावना को बनाये रखने का ख्याल ही जेहन में हावी रहता है! मेरी कहन,लोक भाषा नहीं है यह सच है! मेरी कहन,आपको ज़्यादा संस्कृतनिष्ठ लगी सो कोशिश करूँगा कि उसमें उर्दू या हिन्दी के सरल सहज शब्द डाले जा सकें ! सुझाव के लिए आभारी हूं ! देखता हूं कि पड़ गई आदत कब तक सुधर पायेगी :)

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    2. देखिये आपके नाम की टाइपिंग में मुझसे गलती हो गई है ! अग्रिम खेद प्रकाश !

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  5. सील मछलियाँ नहीं हैं इसे सुधारिए -बस केवल सील से ही काम चल जाएगा!

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    1. आपने शायद गौर नहीं किया कि दूसरे पैरे से सिर्फ सील लिख कर काम चलाया गया है ! चूंकि पहले पैरे में त्रुटि शेष रह गई थी जिसे आपके सुझावानुसार संपादित कर रहा हूं ! आभार !

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  6. .
    .
    .
    @ इस आख्यान के तईं , आदिम जातीय समाजों की अपनी समझ , उनके बोध के अनुसार सामाजिकता के अधीन संचालित / सामूहिकता निर्दिष्ट / स्वजनता प्रेरित , दैहिक जैविक घटनाक्रम से यह संकेत मिलता है कि वे , वैयक्तिकता बनाम सामाजिकता में से तुलनात्मक रूप से सामाजिकता को ही प्रधानता देते हैं !

    यह तो हुई आदिम जातीय समाजों की बात... और आज के हम ?... रोते तो हम भी चीख-पुकार धारों-धार हैं... पर वैयक्तिकता बनाम सामाजिकता में तुलनात्मक रूप से वैयक्तिकता को प्रधानता देते हैं... हमारे आज के अधिकाँश रूदनों के पीछे वैयक्तिकता ही तो है... आदम की कौम अपने आदिम मूल से कट सुखी नहीं रह सकती... हमें सामाजिकता की ओर लौटना होगा/चाहिये...


    ...

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    1. आपसे सहमति ! नि:संदेह, सामाजिकता की प्रधानता में ही समाज का अधिकतम कल्याण निहित है !

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  7. आपके ब्लॉग को भी उचित खुराक मिल गयी है; अब इसे नियमित डोज़ देते रहें :)

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  8. पहले तो मुझे लगा था कि‍ शायद घोड़े की घास से दोस्‍ती हो गई थी ...

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