शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

कस्तूरी कुण्डल बसै...!

वो लड़की जिस गांव में रहती थी , वहां उन दिनों , दुर्भिक्ष जैसे हालात थे ! गांव के लोग अपनी ज़िन्दगी बचाने के लिए परिंदों , कुत्तों , चूहों , छिपकलियों को पकड़ने / फांसने और खाने को मजबूर थे ! एक दिन उस लड़की को परिंदों को पकड़ने के लिए बिछाये गये फंदों / जाल की जांच के लिए भेजा गया तो उसने देखा कि उनमें केवल एक टूटू फंसा है ...बेहद मीठा गाने वाला एक परिंदा , सो लड़की ने उसे जाल से मुक्त करके उड़ जाने दिया ! लड़की की इस हरकत पर गांव वाले बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने उसे घसीट कर कंटीली झाड़ी वाली एक झोपड़ी बना कर क़ैद कर दिया , गौर तलब ये कि इस झोपड़ी में कोई खिड़की तक नहीं थी !

भयभीत लड़की रोने लगी और जब रोते हुए उसके आंसू सूखने लगे तो उसने वो शोकगीत गाना शुरू कर दिया जोकि उसके द्वारा बचाये गये टूटू पक्षी का प्रिय गीत था ! गीत के खत्म होने पर उसने अपनी कटीली झोपड़ी के ऊपर आर्तनाद करते टूटू पक्षी की आवाजें सुनी , उसने पाया कि झोपड़ी के ऊपर छोटा सा सुराख बन गया है और टूटू पक्षी उसके ऊपर मंडरा रहा है , पक्षी ने एक मधुर गीत गाया और फिर लड़की के पैरों पर एक रसीला मीठा फल आ गिरा जोकि टूटू उसके लिए लाया था ! ...इसके बाद हर दिन वो पक्षी उस लड़की के लिए फल लाया करता , उसे मधुर गीत सुनाता और झोपड़ी के सुराख को बड़ा करता जाता ! 

अंततः वो सुराख इतना बड़ा हो गया कि लड़की उसके ज़रिये बाहर निकल कर क़ैद से आज़ाद हो गयी ! लड़की की आज़ादी का ज़श्न मनाने के लिए जंगल में सभी परिंदों ने फलों और गिरियों का भोज आयोजित किया , उन्होंने सारे फल और गिरियां , उस लड़की और गांव वालों को भेंट कर दीं ! गांव वालों को लगा कि आने वाले दिनों में , लड़की उनके सौभाग्य का कारण बनेगी , सो उन्होंने आभार सहित उसे गांव में वापस लाने का निश्चय किया , किन्तु लड़की ने गांव वापस आने से इंकार कर दिया ... वह परिंदों के साथ चली गई और फिर उसे किसी ने नहीं देखा ! 

डाक्टर अनिता जानसन का ख्याल है कि लड़की का गीत उसका अपना सत्य था जोकि उसके अंतरतम विचारों और ज़ज्बातों को अभिव्यक्त करता था, वो इस मधुर गीत को गा सकती थी, अतः उसे कभी मौन / निशब्द नहीं होना चाहिए ! उनके अभिमत में अनेकों स्त्रियां अव्यवस्थित भोजन प्रणाली के तहत संघर्षरत होकर , स्वयं के गीत / सत्य के माधुर्य का आस्वादन करने में असफल रहती हैं , क्योंकि वे अतिव्यस्तता के इस समय में दूसरों के गीत / सत्य सुनती रहती हैं ! वे स्वयं के अस्तित्व / निज वैचारिक सारतत्व को अपनी ही आवाज़ में अभिव्यक्त करने के स्थान पर दूसरों को ये मौका दे बैठती हैं कि दूसरे लोग स्त्रियों के हालात और स्त्रियों को परिभाषित करें !

वास्तव में स्त्रियां स्वयं को स्वयं से अलग थलग / कटा हुआ अनुभव करती हैं , क्योंकि , वे निराशा की हद तक अपनी पोषण अनिवार्यताओं के लिए दूसरों से अपने रिश्तों पर निर्भर हो जाती हैं ! यही नहीं , रिश्तों के बाधित हो जाने के भय के प्रति सचेत होकर वे स्वयं के विचारों , मूल्यों और गीतों / सत्यों को त्यागने लगती हैं , क्योंकि वे उन्हें रिश्तों के विरुद्ध धमकी बतौर चीन्हने लगती हैं ! अपनी ही अनिवार्यताओं को सुनने / समझने और प्रतिक्रिया देने में असमर्थ होकर वे , अपने रिश्तों के पोषण में ज़ाया ( क्षय / खत्म ) होती जाती हैं !

पोषणापेक्षी होकर वे ज्यादातर समय इस सत्य से अनजान बनी रहती हैं कि , उनकी अपनी आवाज़ है , जो मधुर गीत गा सकती है , जो कि उनके हृदय को आनंद से भर देगी...और इसीलिये ( अनभिज्ञता के कारण ) वे खाने और वज़न घटाने के आनंद में लीन बनी रहती हैं ! सच्ची आज़ादी और सच्चे पोषण के लिए उन्हें अपनी स्वयं की आवाज़ बुलंद करनी (पानी) होगी , तथा जो रिश्ते , उनके गीतों / सत्यों के मोल को नहीं पहचानते , उन्हें छोड़ने / परित्याग करने के लिए सदैव तत्पर रहना होगा !

मेरा निज अभिमत ये है कि स्त्रियों के प्रति समुदाय / समाज आरोपित तिलिस्म ने स्त्रियों में एक सम्मोहन जैसा बना रखा है , कमोबेश एक नियतिवाद जैसा , जहां वे स्वयं को संबंधों से बांध कर रख लेती है , गोया संबंधों को सुदीर्घ / टिकाऊ बनाये रखने की जिम्मेदारी केवल उनकी ही हो , समुदाय द्वारा थोपी गयी जीवनचर्या में प्रशिक्षित होने की शताब्दियों के कालखंड में उनकी , अपने आत्म / अस्मिता की लड़ाई को , वे हाशिये पर रखकर परमुखापेक्षी हो गई हैं ! उन्हें स्वयं को पहचानना होगा ! उनकी अस्मिता , उनकी पहचान दूसरों के कांधे चढ़कर नहीं बनने वाली ! उन्हें अपनी अन्तर्निहित ऊर्जा को चीन्हना और उसे अपनी ही आज़ादी के लिए न्योछावर करना होगा !


(१) ये अफ्रीकी आख्यान मेरी प्रिय कथाओं में से एक है चूंकि इसकी व्याख्या डाक्टर अनिता जानसन ने की है , अतः मैंने इस पर अपनी ओर से ज्यादा कुछ कहने की चेष्टा नहीं की है , बल्कि ये कहने में मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा है कि उनकी व्याख्या मुझे नया , कुछ सोचने ही नहीं दे रही है , इसलिए मेरा योगदान केवल कथा के भावानुवाद तक ही सीमित माना जाये ! 
(२) प्रस्तुत व्याख्या  में परिंदों की प्रतीकात्मकता पर कथन अब भी शेष है या फिर कोई दूसरा आयाम जो आपको सूझता हो , ज़रूर कहियेगा !

19 टिप्‍पणियां:

  1. अली सा.
    जिस आख्यान पर डॉ. अनीता जॉनसन की व्याख्या के बाद आप ने अपनी बात कहना मुनासिब न समझा हो, उसपर मेरा कुछ भी कहना "fools rush in, where angels fear to tread" की तरह होगा.. वैसे भी जितना खूबसूरत आख्यान है उतनी ही खूबसूरत व्याख्या है..
    मुझे तो फिल्मों के ही उदाहरण सूझते हैं (आपकी तरह पढ़ा-लिखा नहीं):).. तो मुझे एक फिल्म बहुत पसंद है "गृह-प्रवेश" जो मुझे भी उतनी ही प्यारी है जितना आपको ये आख्यान.. और लगभग वही बात कहती है जो यह किस्सा बयान कर रहा है.. फर्क इतना है कि इसमें चिड़िया का रोल खुद उस औरत के अंदर की औरत ने निभाया है.. और चूँकि हिन्दुस्तानी फिल्म है, इसलिए अंत इस किस्से से मुख्तलिफ..
    उसका एक गाना है गुलज़ार साहब का जो शायद इस चिड़िया के रोल की व्याख्या करता है:
    पहचान तो थी पहचाना नहीं
    मैंने अपने आप को जाना नहीं
    पहचान तो थी

    जब धूप बरसती है सर पे
    तो पानी में छाँव खिलती है
    मैं भूल गई थी छाँव अगर
    मिलती है तो धूप में मिलती है
    इस धूप और छाँव की खेल में क्यों
    दिन का इशारा समझा नहीं
    पहचान तो थी...
    /
    मुझे लगता है कि वह चिड़िया वास्तव में उस स्त्री के अंतर्मन को दर्शाता है.. उसकी छिपी शख्सियत, उसके मन में दबा संगीत, उसका अपना आप.. उस स्त्री ने खुद को पहचाना, खुद से उसकी पहचान हुई, तभी उसने खुद को मुसीबत में डालकर जाल से उस परिंदे को आज़ाद किया, न करती तो एक आम स्त्री बनी रहती, उसे ख़ास बनाया उस परिंदे ने, खुद उसी स्त्री ने..
    और कैद में रहकर जैसे-जैसे वह स्त्री गुलामी के बंधन को भूलती जाती है, उसे अपनी आज़ादी का फल मिलता है.. और आखिरकार आज़ादी और उसका जश्न..
    यही वज़ह भी रही होगी कि वे गायब हो गए, फिर कभी नहीं दिखे.. एक नए पड़ाव की ओर!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सलिल जी ,
      विनम्रता कोई आपसे सीखे ! बेहद खूबसूरत प्रतिक्रिया , अस्तु साधुवाद !

      हटाएं
  2. कथा की व्याख्या का सार तो आपने शीर्षक में ही लिख दिया! यही सत्य है, यही शिव है, यही सुंदर है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. देवेन्द्र जी ,
      शीर्षक मैंने अंतिम क्षणों में बदला वर्ना पहले ख्याल था 'स्त्रियां' ! शायद वो भी दुरुस्त होता !

      हटाएं
  3. दुख तो ये है कि ये एक लोक आख्यान है...अब तक स्थितियाँ बदल जानी चाहिए थीं...पर ऐसा हुआ नहीं...आज भी स्त्रियाँ अपने मन से कोई निर्णय ले लें तो उन्हें उसकी सजा भुगतनी पड़ती है.

    पर अनीता जॉन्सन का ये कथन कुछ सही प्रतीत नहीं हुआ,," और इसीलिये ( अनभिज्ञता के कारण ) वे खाने और वज़न घटाने के आनंद में लीन बनी रहती हैं ! "
    अगर उन्हें इसमें ही सुख मिलता है और अपनी मर्जी से ऐसा करती हैं...तो इसकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए .

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. रश्मि जी ,
      वो वाक्य मुझे भी खटका था , क्योंकि आदिम समाजों में वज़न घटाने का शौक प्रायः देखा नहीं गया अब तक ! मेरा ख्याल है कि , आदिम समाज की कथा की व्याख्या करते हुए , अनजाने में ही डाक्टर अनिता पर उनके स्वयं के समाज का प्रभाव परिलक्षित हो गया है ! अतः इसे व्याख्या करने वाले की चूक अथवा किसी अन्य आरोपण मान लेने के बजाये व्याख्याकार के स्वयं के समाज के आलोक में पढ़ा जाना उचित होगा !

      हटाएं
  4. शब्‍द वही सच्‍चे, जिनसे भाव की नजाकत बनी रह सके.

    जवाब देंहटाएं
  5. रिश्तों की मजबूती उनके पोषण में ही तो अन्तर्निहित है . यह दबाव/जबरदस्ती/सोशल कंडिशनिंग के कारण नहीं बल्कि प्रेम के कारण हो तो क्या हर्ज़ है !!!
    लोक आख्यानो में ही स्त्रियों की आज़ादी के अनेक प्रतीक , बिम्ब अथवा सुझाव दिख जाते हैं , जो वास्तव में कथाओं जितने ही सुहाने हो भी सकते हैं और नहीं भी !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. वाणी जी,
      मेरा ख्याल है कि 'पोषण' को 'निर्भरता' के आशय में कहा गया है ! आत्मनिर्भरता बनाम पर-आश्रितता ,स्वतंत्र अस्तित्व बनाम छाया अस्तित्व , आज़ादी बनाम गुलामी के न्यूक्लियस पर घूमती हुई कथा है ये !

      निर्भरता उर्फ पोषण के पार्श्व में प्रेम की संभावनायें भी हों तो कोई हर्ज़ नहीं बशर्ते ये प्रेम , सुदीर्घ पुरुषोन्मुखी सोशल कंडीशनिंग का उत्पाद ना होकर नैसर्गिक हो ! ज्ञात रहे कि सोशल कंडीशनिंग की जबरदस्ती / दबाब , अंतर्निहित / अप्रत्यक्ष हुआ करती / करते हैं !

      बहरहाल सामाजिक परिदृश्यों और हालातों की पृष्ठभूमि में संभावनायें एकाधिक हो सकती है ,इस अर्थ में आपसे पूर्ण सहमति !

      हटाएं
  6. उड़ने की चाहत सबसे अधिक उसमे हो सकती है जो कैद में हो। लड़की कैद में है, होती भी है फिर चाहे जेल छोटा सा कमरा हो या पूरा समाज। ईश्वर ने परिंदों की उड़ने की शक्ति दी है। वे उड़ते हैं। अतः यह स्वभाविक लगता है कि उड़ना चाहने वाला, उड़ते जीव को देखकर मुग्ध हो जाय। परिंदों को प्रतीक बनाकर कथा कहने के पीछे यही कारण लगता है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. देवेन्द्र भाई! मुझे तो वो लडकी उड़ने वाली लगती है.. एक परी जिसके पर क़तर दिए गए हों पर उड़ान का हौसला बाक़ी हो.. नहीं तो दुर्भिक्ष के हालात में, गाँव में खाना जुटाने के एकमात्र साधन को ठुकराते हुए उसने परिंदे को आज़ाद कर दिया.. उसे उस परिंदे में कोई पहले का नाता दिखा होगा (आत्मा की आवाज़) और तभी तो अंत में वो उड़ गयी!!
      आज की नारी के सन्दर्भ में भी सही है... वो सिर्फ उड़ना चाहती ही नहीं, उड़ने का हौसला भी रखती है.. और जिसने अपने अंदर के परिंदे को आज़ाद किया वो आज़ाद हुई खुले आसमां में उड़ने को!!

      हटाएं
    2. उड़ान मतलब मुक्ति , असहज और निरुद्ध जीवन के विरुद्ध सहजता ! सुन्दर प्रतिक्रिया !

      हटाएं
  7. @ वे निराशा की हद तक अपनी पोषण अनिवार्यताओं के लिए दूसरों से अपने रिश्तों पर निर्भर हो जाती हैं ! यही नहीं , रिश्तों के बाधित हो जाने के भय के प्रति सचेत होकर वे स्वयं के विचारों , मूल्यों और गीतों / सत्यों को त्यागने लगती हैं ...

    ये आज भी सच है ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सतीश भाई ,
      भिन्न कालखंडों के समाज की निहित विशिष्टताओं में यदि कोई साम्य , इस कथा के माध्यम से अभिव्यक्त हो पाया हो तो यह कथा का सबसे मजबूत पक्ष कहलायेगा ! आपका ह्रदय से आभार !

      हटाएं
  8. हे भगवान, ये समीक्षक लोग भी सीधी सादी बातों के कि‍तने मतलब गढ़ देते हैं :)

    आपका यह लेख पढ़ कर मैं उन कला समीक्षकों की सोचता हूँ जो कला-दीर्घाओं के मालि‍कों को, मेरे जैसे मूढ़ लोगों द्वारा लगाई गई आड़ी-ति‍रछी रेखाओं के इतने मतलब बता डालते हैं कि‍ खरीदने वाले उन चि‍त्रों के लि‍ए अंटी से करोंड़ों रूपये ढीले कर बैठते हैं.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. समीक्षकों पर आपकी प्रतिक्रिया से अभिभूत हूं :)

      हटाएं
  9. स्वयं को पहचानने , अपनी पहचान बनाने और स्वतंत्र होने के लिए नारियों को पहले स्वयं से लड़ना होगा , फिर पुरुष प्रधान समाज से .

    जवाब देंहटाएं