शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

जिस क़दर अफ़साना-ए-हस्ती को दोहराता हूं मैं...

अब तक कोई तर्क नहीं ! जो भी कहा, महज़ ख्वाब थे, कुछ स्वयं सिद्ध...तो कुछ असिद्ध जैसे गुज़र गये ! बचपन से एक शौक़, चारा लगाया और किसी एक तालाब में कांटा डाल कर बैठ गये, कभी घंटों खाली और कभी लगातार ढ़ेर सारी मछलियां हाथ लगतीं ! रात को ख्वाब देखता, किसी पक्की तारकोल सड़क पर चला जा रहा हूं और अचानक हाशिये की कच्ची सड़क पर एक बड़ा सा छेद हो जाता... नीचे झांकूं तो, छै सात फुट की गहराई में नम रेत की नदी जैसी, जिसका पानी खत्मशुद और एक बेहद चमकीली चांदी जैसी सफेद मछली रेत पर ! कह नहीं सकता कि इस ख्वाब की पुनरावृत्ति कितनी बार हुई ! वज़ह शायद वो अनगिनत मछलियां रही हों, जिन्होंने मेरे कांटे में फंस कर जान दी...या फिर हज़रते ईसा अलैस्सलाम की कोई कृपा होनी थी मुझ गैर इसाई / विधर्मी / सुधर्मी पर !

कभी देखता आकाश में ढ़ेर सारे फाइटर प्लेन, उनमें से कोई एक चोट खाकर मेरे घर से कुछ ही दूरी पर मलबे के ढ़ेर में तब्दील होकर गिरता हुआ कुछ घरों को तबाह करते हुए, कारण...पता नहीं, युद्ध...कोई लड़ा नहीं, फिल्म...कोई देखी नहीं, इस ख्वाब को देखने से पहले ! बहरहाल यह ख्वाब भी अपनी नींदों में बार बार शामिल हुआ ! अक्सर खुद की कच्ची पक्की नींदों में हाथी देखता ! हरे भरे खेत देखता ! जागने पर सोचता, पास के गांव के हाथियों के बारे में, जो शादियों में बुलाये जाते, जिनकी पीठ पर बारहा बैठे ! अपने पुश्तैनी खेत...रात के ख्वाब को सुबह होने तक ख्याल में बदल डालते ! एक फ़र्क ये कि जो अपने पास था वो ख्वाब होकर भी ख्याल ही रहा और फिर इस तरह के तमाम ख्यालों को लेकर कोई ख्वाब नहीं पाले हमने !

एक छोटी सी रेल लाइन पर छुक छुक दौड़ती एक ट्रेन अक्सर अपने ख्वाबों में भी दौड़ती रही ! पूरब से उगते सूरज की ओर भागती इस ट्रेन के दाहिनी ओर / दक्षिणी दिशा में, पटरियों से थोड़ी ही दूर काले काले पत्थरों वाले छोटे छोटे पहाड़ ! पहाड़ों पर बौने बौने से छुटपुट दरख्त और उनके साथ ही सफेद रंग के चंद मठ / समाधियां / मज़ार ! पहाड़ों का सिलसिला खत्म होते ही मंगलूर टाइल्स वाला एक बड़ा सा घर जिसके पीछे से ट्रेन को गुज़र जाना है ! इससे आगे शायद कोई स्टेशन भी हो...पर अनुभूति ये कि ट्रेन थोड़ी दूर पर रुक जायेगी और उसे यहीं से वापस लौट जाना है, लेकिन हम ट्रेन से कब उतरे और इस घर तक कैसे पहुंचे...कोई खबर नहीं ! 

दक्षिणी दिशा में खुलने वाले इस घर के मुख्य दरवाजे से कुछ एकड़ की दूरी पर अथाह जलराशि...संभवतः कोई बड़ी सी झील और झील के एन उस पार पहाड़ियों की लंबी श्रृंखला ! झील की लम्बाई चौड़ाई इतनी ज्यादा कि उस पार की पहाडियां छाया जैसी दिखाई देती हैं ! हैरत अंगेज बात ये कि इस घर से जुड़ा हुआ कोई दूसरा घर दिखाई ही नहीं दिया, यहां तक कि आस पास भी नहीं ! घर के सामने अलबत्ता एक घना विशालकाय छायादार दरख्त, शायद बरगद हो ?  ख्वाब में दरख़्त की कोई पहचान नहीं ! एक अहसास ये कि इस दरख्त के नीचे खेलते हैं हम...पर किसके साथ पता नहीं ! वो घर अब शायद, वीरान हो गया है जो, हमारी ख्वाब ख्वाब आमद पर वहां बेहिसाब सन्नाटा पसरा हुआ है !

 जिस क़दर अफ़साना-ए-हस्ती को दोहराता हूं मैं 
 और भी बेगाना-ए-हस्ती हुआ जाता हूं मैं

28 टिप्‍पणियां:

  1. यह सब रहस्यमय सा लगता है ...

    जब भी कभी स्वप्न चर्चा होती है, एक जवाब अक्सर मिलता है कि दमित इच्छाएं ही स्वप्न रूप में सामने आती हैं ! जैसे बचपन से ही माँ न होने के कारण मुझे, दुलारती माँ का सपना आना, साधारण हो सकता है मगर भविष्य वाणी जैसे सपने के बारे में क्या कहेंगे जो सच साबित भी होती हैं !

    अफ़सोस है कि ब्लॉग जगत को पढने और मनन करने की आदत नहीं है अन्यथा यहाँ विद्वानों की कोई कमी नहीं है ...

    मैं दुआ करूंगा कि आपके इस लेख को विद्वान साथी, ध्यान से पढ़कर जवाब दें तो शायद आपकी यह लेख श्रंखला सार्थक हो और साथ ही हम जैसे अज्ञानियों को भी कुछ समझ आये !

    हिम्मत के साथ डटे रहने के लिए बधाई प्रोफ़ेसर साहब !

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    1. सतीश भाई ,
      ब्लाग जगत के बारे में फिलहाल कोई कमेन्ट नहीं करूँगा !

      स्वप्न देखना और उसके कारणों का विश्लेषण कर पाना दोनों अलग अलग विशेषज्ञता की विषय वासनायें हैं :)

      मेरा काम मैं कर रहा हूं ! दूसरे अपना करें याकि नहीं ये उनकी अपनी मर्जी :)

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  2. हूँ ,रोचक सपन चर्चा ..इनमें से कुछ मैंने भी देखे हैं -घर के बगल के खेत में एक विमान आ गिरा है -कई बार . फिर घर के सामने से ही एक नयी रेलवे लाईन और उस पर नईं रेलों का आवागमन ...
    यह सब खुराफातें दरअसल दिमाग की हैं जो तरह तरह की संभाव्नाओं ,फंतासियों पर काम करता रहता है और सोने पर अपना इंद्रजाल बुनने लगता है ....कभी कभी यह हमसे अप्रत्यक्ष भी कई तार्किक संभावनाओं पर कार्य करता है और उसके चलते घटनाओं का पूर्वाभास कर जाता है -तथ्यों और तर्कों पर ऐसी ही संभावनाएं दिवास्वप्नी विज्ञान कथाकार कर डालते हैं और उनमें कुछ सच हो जाती हैं कुछ नहीं ..यह हमारा मस्तिष्क बड़ा मायावी है भाई ..आपका मस्तिष्क बहुत कल्पनाशील है मुझसे बढ़कर भला किसे पता है यह बात ...कुछ तरंग दैर्ध्य कैसे मिल जाती है न कभी कभी .....
    आपके अप्रतिम मस्तिष्क को सलाम -साले को आप संभाल के रखिये नहीं तो जान की आफत बनेगा आपके ...यह कैसे संभालता है वह नुस्खा मुझसे अलग से बतिया लीजियेगा :)

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    1. अरविन्द जी ,
      तरंगों के मसले में आपका कथन सही है !
      नुस्खे पर आपसे विधिवत चर्चा की जायेगी :)
      मस्तिष्क का संसार बेहद जटिल है आपने इसे मायावी कहा , यह भी सही है !

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  3. अली सा..
    पता नहीं.. खाब था जो कुछ कि देखा, जो सुना अफ़साना था.. लेकिन तमाम वाकयात जो आपने बयान किये अपने ख़्वाबों के मुतल्लिक, खासकर वे ख्वाब जिनसे ताल्लुक रखने वाला कोई वाकया आपके साथ नहीं हुआ, को देखकर ख़्वाबों की जो ताबीर ज़ेहन में आ रही है वो कुछ यूँ है..
    यकीन मानिए ये बात मैं पूरी संजीदगी के साथ कह रहा हूँ..
    आपकी किस्स्गोई, अफ़सानानिगारी या लफ़्ज़ों को जो इज्ज़त आप बख्शते हैं वो सिफत, इं ख़्वाबों से वाबस्ता है.. तखय्युल का जो बेहतरीन इस्तेमाल आप करते हैं वो बड़ा रेअर है.. अगर आपकी पोस्टों को पढ़ें और आपकी खूबसूरत बयानी पर गौर फरमाएं तो एक जुमला काफी होगा - आपका अफ़साना मानिन्देख्वाब है!!
    वे सारे वाकयात जो ख़्वाबों में आपने देखे, ज़ेहन में समेटे, उन्होंने कहीं न कहीं आपके इस फन को संवारा तो है ही!! और मेरे ख्याल से इन ख़्वाबों की ताबीर साइंसी तफसील में नहीं, अदबी फलसफे में मिलेगी!!

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    1. सलिल जी ,
      इस तरह तारीफ सुनकर मेरा दिमाग ना फिर जाये बस यही दुआ कीजिये :)

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    2. अली सा....अभी कुछ कसर है क्या ??

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    3. माने त्रिवेदी जी मानकर चल रहे हैं कि अली साहब का दिमाग फिरा हुआ है :)

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    4. वे सारे वाकयात जो ख़्वाबों में आपने देखे, ज़ेहन में समेटे, उन्होंने कहीं न कहीं आपके इस फन को संवारा तो है ही!! और मेरे ख्याल से इन ख़्वाबों की ताबीर साइंसी तफसील में नहीं, अदबी फलसफे में मिलेगी!!

      ...आमीन।

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    5. अगली पोस्ट लिखने से पहले इतनी तारीफ :)

      टेंशन हो रहा है :)

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  4. बहुत देखे हैं ख्वाब हमने
    सलीके से संवारा है,
    अब तो लगता है यही
    हकीकत है,सहारा है !!

    ....भाई ,अब इस दुनिया में लौट भी आओ !

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    1. संतोष जी ,
      हकीकतें जो सुख नहीं दे पातीं वे अक्सर ख्वाब दे डालते हैं ! कभी कभार एकाध कतरा सुख के वास्ते इस दुनिया में भटक जाना भी बुरा नहीं है !

      बहरहाल जो है वहां देर सबेर लौटना ही है !

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  5. @ आपकी किस्स्गोई, अफ़सानानिगारी या लफ़्ज़ों को जो इज्ज़त आप बख्शते हैं वो सिफत, इं ख़्वाबों से वाबस्ता है.. तखय्युल का जो बेहतरीन इस्तेमाल आप करते हैं वो बड़ा रेअर है.. अगर आपकी पोस्टों को पढ़ें और आपकी खूबसूरत बयानी पर गौर फरमाएं तो एक जुमला काफी होगा - आपका अफ़साना मानिन्देख्वाब है!!

    ali sa, original salil bhaijee ka hamar photo copy maniyega ........

    'garibi is kadar hai ke shabd/wakya bhi chahnewalon ka udhar le leta hoon.....


    pranam.

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    1. सञ्जय भाई ,
      सलिल जी , अपने हैं सो उनसे , क्या तेरा क्या मेरा के बजाये सब अपना ही मानिये ! शब्द भारी पड़ जायें याकि हल्के , कोई दिक्कत नहीं बस शुभेच्छायें बनाये रखियेगा !

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    2. संजय भाई!
      एक तरफ भाई बोलते हैं और दूसरी ओर गरीबी की बात करते हैं.. लानत है ऐसी अमीरी पर जो एक भाई को अपनी गरीबी की याद दिलाए.. अरे हम तो खाली शब्द से अमीर "दिखाई देते" हैं, मगर जो एहसास की दौलत आपके पास है उसको हम सलाम करते हैं.. बाक़ी तो अली सा. ने खुद ही कह दिया..!!अली सा. प्रणाम!!

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  6. आपके सपने तो पटरी पर दौड़ने लगे, लेकिन ऐसा सिरा पकड़ा दिया है आपने कि कइयों की ''उधेड़-बुन'' याुरू हो गई है.

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    1. राहुल सिंह जी ,
      सपनों को कौन सी टिकट खरीद कर ट्रेन पर चढ़ना था :)
      कोई बंदिश / कोई दायरे सपनों पर अपनी मर्जी थोप सके हैं भला !
      चाह कर सपने देख पाता तो बात कुछ और होती :)

      वैसे उधेड़बुन के बाद आपने क्या टाइप किया है समझ नहीं सका !

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    2. ''उधेड़-बुन'' शुरू हो गई है.

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    3. धन्यवाद ! मुझे 'या' से कन्फ्यूजन हुआ था वर्ना 'शुरू' पे शक तो था :)

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  7. किसी पक्की तारकोल सड़क पर चला जा रहा हूं और अचानक हाशिये की कच्ची सड़क पर एक बड़ा सा छेद हो जाता ... नीचे झांकूं तो , छै सात फुट की गहराई में नम रेत की नदी जैसी , जिसका पानी खत्मशुद और एक बेहद चमकीली चांदी जैसी सफेद मछली रेत पर ! .......
    hmmm!! soch ka samandar kitna gahra hota hai....:)
    par iske liye man ki lahron ko uchhalna bhi hota hai...
    mere bas me aisa kuchh kyon nahi..!
    bahut behtareen likhte ho sir!
    pahlee baar aaya, barabar kaise aaun, follow kaise karun?

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  8. सिन्हा जी ,
    आपका स्वागत है ! ये तो सभी के वश में होता है फिर आपके वश में कैसे नहीं होगा :)

    आपके 'डैशबोर्ड' में 'पठन सूची' होगी और उसके आस पास 'जोड़ें' बटन , उसे क्लिक करके ये एड्रेस डाल दीजिए http://ummaten.blogspot.in

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  9. डिअर अली ,तुम जिस तरह से लिख रहे हो उससे तुमसे बहुत उम्मीदें है.ये सुंदर लेख ललित निबंध की श्रेणी में आते हैं.इनमे अपनी एक ताकत है.

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    1. डाक्टर साहब ,
      मैं क्या लिख रहा हूं ये तो मुझे भी नहीं पता ! अच्छा हुआ जो आपने इसे ललित निबंध का नाम दिया !

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  10. शुभानअल्लाह ! ख्वाब सुने अनगिनत हमने मगर इतने हसीन न थे अंदाज-ए-बयां कि अपने लगते !!

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  11. देवेन्द्र जी , इतनी शक्कर घुली तारीफ :) सुभानल्लाह कहते तो मिठास थोड़ी कम हो जाती :)

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  12. बचपन में कुछ तिलस्मी किताबें पढ़ा करते थे. लौटना पड़ रहा है.

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