दुनिया का सबसे ज्यादा हिंसाग्रस्त और खतरनाक इलाका , इंसानियत की सबसे बड़ी कब्रगाह अगर कहीं है तो वो है ईशदूत नूह, पैगम्बर मूसा , खुदा के बेटे ईसा और उसके रसूल हज़रत मुहम्मद की मातृभूमि ! वे सब के सब , दुनिया में भेजे गये शान्ति,मानवता और मुहब्बत का पाठ पढाने पर उनके अनुयाइयों ने क़त्ल-ओ-गारत की नई मिसालें गढी ! अमूमन मध्यपूर्व कहे जाने वाले एशिया के इस ज़मीनी टुकड़े पर अब तक कितनी इंसानी जाने गईं हैं, गिनना मुश्किल है ! लहूलुहान शताब्दियों में मौत से मुतवातिर शिकस्त खाती जिंदगी ! सच कहूं तो हम इन्सानों ने खुदा की बंदगी के दावे भले ही किये हों, पर हम कभी भी उस बेबस के बस में नहीं रहे वर्ना क्या वजहें थीं, जो हमारे दिलों से मुहब्बतें यूं खुश्क हुईं जैसे सहराओं से पानी ! वो अनादि अनंत होता होगा और जिंदगियां भी बख्शता होगा पर हमारा यकीन मृत्यु पर है,नफरतों पर है ! हमारे एजेंडे में मौत के लिए उम्र का कोई बंधन नहीं क्या स्त्री , पुरुष , बूढ़े , बच्चे और जवान !
पता नहीं कैसे पर अभी कुछ ही रोज पहले मुहब्बतों ने एक बार फिर से नफरतों से आज़ाद होने की कोशिशे शुरू की हैं ! कारवां पहले भी चलते थे कभी व्यापार के लिए और कभी दीगर मकासिद के लिए...पर अब ये कारवां मुहब्बत के नाम है, इंसानियत के लिए हैं,अमन और जिंदगियों की खातिर अपनी एकजुटता बताने के लिए है ! ख्याल ये कि बदहाल इंसानों के लिए अपनी फ़िक्र का अहसास कराया जाए ! व्यवस्था में इंसानियत की आवाज़ बुलंद की जाए ! पिछले कारवां पर इजराइली हमले के बाद ये उम्मीद ना थी कि भारत से एक नयी पहल भी हो पायेगी,एक अचरज सा हुआ जब ये जाना कि बहु-धर्मी, बहु-सांस्कृतिक ,बहु-भाषाई, और भिन्न राजनैतिक आकांक्षाओं वाले इंसानों ने फिलीस्तीन के हक में एकजुट होने का फैसला किया है और फिर उसमें दैनिक छत्तीसगढ़ के संपादक सुनील कुमार भी शामिल हैं! पहले पहल मुझे भी यह लगा कि फिलिस्तीनियों के लिए एशियाई जनमत की सालिडेरिटी के नाम की यह पहल कोई स्टंट तो नहीं ! पर कारवां जैसे जैसे आगे बढ़ता गया उसकी नेकनीयत पर मेरा भरोसा भी बढ़ता चला गया !
हालांकि इस कारवां को लेकर देश के बुद्धिजीवियों की सर्द प्रतिक्रिया और संभवतः व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता के कारण मीडिया समूहों का सन्नाटा, अप्रत्याशित नहीं था पर हमारी विदेश नीति और पाकिस्तान की इस्लाम परस्ती दांव पर लगी दिखाई दी !खुदरा बुद्धिजीवियों के चिल्हर सरोकार तो समझ में आते ही हैं पर संगठित सरकारों के सरोकार बदलते देखे तो ऐसा लगा कि अपने ही देश की नीतिगत संप्रभुता के सवाल पर भी कुछ अदद कारवां की ज़रूरत पड़ने वाली है ! वैसे कारवां पर एक सवाल जो प्रत्याशित ही था कि कारवां काश्मीरी पंडितों, बस्तर के आदिवासियों और अपने ही देश के दूसरे हिस्सों के हिंसा पीड़ित नागरिकों के हक़ में क्यों नहीं निकाला गया ! सोचा ये कि गाजा पट्टी के फिलिस्तीनियों की तरह अपने मुल्क के परेशानहाल बन्दों के लिए भी कारवां ज़रूर निकाले जाने चाहिए पर ये दोनों सवाल बुनियादी तौर पर एक ही स्केल पर नहीं नापे जाने चाहिए ! जहां फिलिस्तीनियों की आजादी के विरूद्ध सबसे बड़ी बाधा अमेरिकन उपनिवेशवाद है ! वहीं तानाशाह अरब देशों की भूमिका भी इंसान दुश्मन जैसी है ! जहां तक इजराइल के पक्ष में विचारण का प्रश्न है तो एक बात जो साधारण से तर्क से समझी जा सकती है कि अगर यहूदियों के व्यापक संहार के लिए हिटलर की निंदा की जानी चाहिए तो फिलिस्तीनियों के प्रति अमानवीय व्यवहार के लिए इजराइल की प्रतिक्रिया को न्यायोचित कैसे ठहराया जा सकता है !
ख्याल ये है कि गाजा के नागरिक शत्रु देश के संगठित अतिवाद का शिकार हैं जबकि बेचारे काश्मीरी पंडित , बस्तर के आदिवासी और अन्य पीड़ित पक्ष अपने ही देशवासियों के राजनैतिक, धार्मिक अतिवाद के भुक्तभोगी हैं और विडंबना ये कि उनका अपना ही लोकतंत्र, अपनी ही सरकारें और अपने ही रक्षाबल उनके बुनियादी हकों की रक्षा करने में असमर्थ हैं ! मंतव्य ये है कि एक ओर अपने ही देश की सामर्थ्यशाली सरकार की नाक के नीचे असुरक्षित नागरिकों और दूसरी ओर विदेशी अमेरिकन साम्राज्यवादी ताकत और उसके गिरोह की दोगली नीतियों से पीड़ित नागरिकों को एक ही जैसे न्याय वंचितों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ! देश के भीतर के हालात के लिए, देशव्यापी जनमत और देश के बाहर के हालात के लिए विश्वव्यापी जनमत के औचित्य को स्वीकार करना ही पडेगा !हालांकि अपनी सरकारों को बदलने और विश्व जनमत के रुख को मोडने की कोशिशों के दरम्यान एक बहुत बड़ा फर्क होने के बावजूद इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि काश्मीरी पंडितों और अन्य पीड़ितों को भी अमन के कारवां जैसी सदाशयता और मुहिम का हक़ तो बनता ही है !
दैनिक छतीसगढ में संस्मरणात्मक रूप से छपे यात्रा अनुभवों ने,राजघाट से गाजा तक चले इस कारवां के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्षों को उजागर किया है ! सकारात्मक ये कि उद्देश्य अगर मानवता के पक्ष में हो तो वैचारिक भिन्नताओं के सहअस्तित्व पर आंच नहीं आती ! कारवां में सम्मिलित लोगों ने इसे बखूबी साबित भी किया ! यह विश्वास किया जा सकता है कि कारवां प्रतीकात्मक रूप से ही सही पर फिलिस्तीनियों के लिए एशियाई जनमत की एकजुटता को जताने में सफल रहा है , जबकि नकारात्मक यह कि भारत सरकार एवं पाकिस्तानी सरकार और कारवां के रास्ते पड़ने वाले दूसरे देशों की सरकारों की अडंगेबाजियों से तंग आकर इस कारवां को कभी दिल्ली वापस आना पड़ा तो कभी हवाई, समुद्री यात्राओं का सहारा लेना पड़ा ! शायद यात्रा पूर्व सम्यक नियोजन के अभाव में हुई इस अनावश्यक हर्डल रेस से हुई पैसे और समय की बर्बादी बेहद अखरती है ! ईरान की सरकारी आवभगत और तुर्की के विवादित संगठन की मेहमान नवाजी को स्वीकार किया जाना औचित्यपूर्ण था कि नहीं यह तो कारवां में सम्मिलित लोग ही बेहतर जानेंगे पर एक सवाल तो है ही ! ईरान के राष्ट्रपति अहमदीनेजाद साधारण वेशभूषा में मिले और वे एक साधारण से फ्लेट में रहते हैं ,यह जानना सुखद रहा,फौरी तौर पर अपने नेताओं का ख्याल आया जिन्हें पद के साथ विलासिता की आदत वैसे ही महसूस होती है जैसे कि जीवन को सांसों की !
ईरान में मानवाधिकार का सवाल भी कमोबेश वैसा ही लगा जैसा काश्मीरी पंडितों का , इसे गाजा के साथ हो रहे अमेरिकी छल और अंतर्राष्ट्रीय भेदभाव के समतुल्य आंकना संभवतः सही नहीं होगा ! भारत की जनता या फिर ईरान की जनता अपने देशों की सरकारों के सर से ताज छीन लेना चाहे तो इसमें अमेरिकन दखलंदाजी की गुंजायश नहीं बनती पर गाजा का सवाल ही विदेशी हस्तक्षेप की बिना पर खडा हुआ है सो इन दोनों सवालों को अलग अलग से हल किये जाने की ज़रूरत है ! इस्लामिक देशों से गुज़रते हुए कारवां के सदस्यों के अनुभव बड़े दिलचस्प लगे ! खानपान और बातचीत के स्तर पर बराबरी के विश्वास,फिलिस्तीनियों के लिए निशर्त समर्थन के बावजूद कारवां के सदस्यों को सरकारी वीजा देते वक्त कांपते हाथों और कलुषित मन का विरोधाभाष उजागर हो ही गया ! कहवाखानों ,शराबखानों और हुक्के, सिगार के धुओं के समानांतर हिजाब से लिपटी नाज़नीनों और सड़कों पर खुले आम बिकते अन्तः वस्त्रों के प्रसंग रुचिकर हैं, किन्तु खाने से पहले हस्त प्रक्षालन नहीं करने वाली बात अगर सच हो तो ये बेहद बुरी लगने वाली है !
कारवां के इर्द गिर्द बिना यूनिफार्म पहने हुए सुरक्षा दस्तों जैसे इंतजामात शायद सुरक्षा कारणों से किये गये हों और गाजा में कारवां को जिस तरह से बंधक जैसा बना कर रखा गया उसके बस दो ही मायने हो सकते हैं एक तो यह कि हमास के अधिकारी कुछ छुपा रहे थे या फिर दूसरा ये कि कारवां में भी शत्रु के जासूस हो सकने की अतिरिक्त सम्भावनागत सतर्कता ! इजराइल के इतिहास को देखते हुए मेरा अपना अभिमत दूसरी सम्भावना के साथ है ! बहरहाल सत्य पर संशय शेष ही है ! कारवां एक सांकेतिक पहल पर निकला था और उसने यह कार्य सफलतापूर्वक अंजाम दिया ! जो लोग इस पहल के भागीदार हुये उनकी जान हमेशा जोखिम पर थी पर वे धैर्य और साहस की कसौटी पर खरे उतरने वाले सृजनधर्मी लोग माने जायेंगे और शेष हम जैसे सब , बाद में लकीर पीटते , आलोचना करते , तारीफ़ करते , शब्दों की शल्यक्रिया करते हुए वाग्विलासी जन ! संवेदनाओं को जताने के विशिष्ट अवसरों पर भी पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान से !
जबरदस्त, ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंAdhiktar baaten patahee nahee theen!
जवाब देंहटाएंफिलहाल बस उपस्थिति, सदर्भों से वाकिफ हो कर ही कुछ कहना वाजिब होगा.
जवाब देंहटाएंaieena hame dekh ke hairan sa kyun hai.........
जवाब देंहटाएंpranam.
भला हो अखबारों का , जिन्होंने यासर अराफात की भारत यात्राओं के दौरान फिलिस्तीन को महत्व दिया था अन्यथा शायद ही कभी कोई सामान्यजन चेतना में इन बदनसीबों के लिए काम हुआ हो !
जवाब देंहटाएंइंदिरा गाँधी के समय में ही फिलिस्तीनी हकों की लड़ाई में भारत अक्सर संयुक्त राष्ट्र में अपनी आवाज बुलंद करता रहता था ! अब यह भी बीते समय की बात हो गयी है !
ये भी इंसान हैं ! हमें अपनी आँखें खोलनी ही चाहिए ! दुआ है कि दुबारा कहीं ऐसी बदकिस्मती दिखे !
@ देवेन्द्र भाई ,
जवाब देंहटाएंआभार !
@ क्षमा जी ,
आलेख पढ़ने के लिये शुक्रिया !
@ राहुल सिंह साहब ,
संस्मरण श्रंखला पढ़ने का समय हो तो संजीव जी का लिंक मैंने दे दिया है !
@ संजय झा साहब ,
आभार !
@ सतीश भाई ,
आपकी प्रतिक्रिया पसंद आई !
जबरदस्त आलेख।
जवाब देंहटाएंअली साहब इस मुद्दे पर मुझे जानकारी सुरेश चिपलूनकर जी के ब्लॉग से मिली थी. अपनी एक पोस्ट में चिपलूनकर जी ने इस कारवां के खिलाफ बहुत सी बातें कहीं थी पर मेरे दिमाग में जो बात अटकी थी वो यही थी ये लोग अपने ही देश के हिंसा पीड़ितों के लिए क्या कर रहे हैं.
जवाब देंहटाएंआप इस बारे में लिखते हैं कि "एक ओर अपने ही देश की सामर्थ्यशाली सरकार की नाक के नीचे असुरक्षित नागरिकों और दूसरी ओर विदेशी अमेरिकन साम्राज्यवादी ताकत और उसके गिरोह की दोगली नीतियों से पीड़ित नागरिकों को एक ही जैसे न्याय वंचितों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता !"
ये बात साहब मुझे समझ नहीं आयी. अपनो से सताए और विदेशियों से सताए लोगों में क्या अंतर है. क्या दोनों कि पीड़ा अलग अलग होती है. इस नजरिये से अगर हम देखे तो क्या जो लोग विनायक सेन कि रिहाई कि मांग कर रहे हैं उन्हें कहा जाया की आप पाकिस्तान में कैद सरबजीत सिंह कि रिहाई के लिए प्रयास करो क्योंकि विनायक सेन को तो अपनों ने कैद किया है पर सरबजीत सिंह को विदेशी सरकार ने कैद किया है.
मुझे तो ये कारवां निकालने का प्रयास वैसा ही राजनेतिक स्टंट लगा जैसा कि भाजपा का लाल चौक पर तिरंगा फहराने वाला स्टंट था.
मेरे हिसाब से तो जो लोग इस कारवां में शामिल थे वो सर्वप्रथम अपने आस पास के पीड़ितों के लिए कुछ ठोस कार्य करें उसके बाद फिर बाहर जाने कि बात सोचें .
और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
जवाब देंहटाएंफिर भी...
मेरा पैगाम मोहब्बत है, जहां तक पहुंचे
@ अमित चन्द्र जी ,
जवाब देंहटाएंप्रतिक्रिया के लिए आभार !
@ विचार शून्य साहब ,
सामर्थ्यशाली सरकार के मुद्दे पर केवल इतना ही कहूँगा कि कृपया कटाक्ष को कटाक्ष की तरह से ही लें ! इस मामले में मेरा स्पष्ट अभिमत यही है कि कारवां हर दिशा में / चहुँ ओर निकाले जायें !
मेरे लिए दोनों ही पीड़ितों के कष्ट में लेशमात्र भी अंतर नहीं है किन्तु 'अपनी सरकार' से पीड़ित जनसमूह को ज्यादा हक़ है कि जब चाहे अपनी सरकार बदल ले ! इस मायने में वो पीड़ित होकर भी पीड़ा देने वाले को 'निपटाने का अधिकार' रखते हैं ! क्या पीड़ितों की हैसियत / औकात का यह अंतर न्याय वंचितता की अलग अलग श्रेणी स्वीकार करने के लिए पर्याप्त नहीं है !
उम्मीद करता हूं कि आप मेरे मंतव्य से असहमत नहीं होंगे !
@ काजल भाई ,
जी और भी गम ज़रूर हैं ! फिर भी इस 'नाले' की आवाज़ दूर तक गूंजनी चाहिए !
अली सा! कारवाँ और इंसानी ज़ंजीर की बातें जो आपने बताई वो वाक़ई एक फिक्र को जन्म देती हैं..फिलिस्तीनियों की बदहाली को क़रीब से समझने कामौक़ा तब मिला जब मैंने चार साल दुबई में गुज़ारे और तब खलीज टाइम्स की ख़बरें मेरे लिये रोशनदान का काम करती थीं.. कितना समझ पाया ये नहीं कह पाउँगा, लेकिन हिंदुस्तान के अंदर का जो दर्द आपने बयान किया है वो वाक़ई एक संजीदा सोच है.. मुझे तो फिलिस्तीन का क़ौमी तराना भी उदासी में लिपटा महसूस हुआ!!
जवाब देंहटाएंअच्छी और ज्ञानवर्धक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंचलो कारवां निकला तो। कहते हैं न कि 'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल को, लोग जुडते गए कारवां बनता गया।
अब जब शुरूआत हो गई है तो इसके अच्छे परिणाम भी आएंगे।
इस पहल के लिए शुभकामनाएं।
अच्छी और ज्ञानवर्धक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंबहुत व्यापक विषय है, सुनील जी के संस्मरण भी पढ़ने होंगे और विद्वान लोगों के विचार भी। बार बार आना होगा इस पोस्ट पर कमेंट्स पढ़ने।
जवाब देंहटाएंवैसे गंभीरता से किसी की भी दुख, तकलीफ़ को देखें तो दिल को बहाना तो मिल ही जाता है।
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जवाब देंहटाएं.
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अली सैयद साहब,
पोस्ट विचारणीय है... पर इस कारवाँ को ले जाने वाले जमीनी हकीकत से बहुत दूर सपनों की, आदर्शवादी व रोमाँटिक दुनिया में जीते ज्यादा नजर आये... और इसी लिये अपने को इस्तेमाल भी करवा लिया कारवाँ ने, लेगिटिमेसी चाहते अलग-अलग व्यक्तियों व समूहों द्वारा... आज की ठोस हकीकत यही है कि फिलस्तीन का इतने बरसों साथ देने पर भी अधिकतर पेट्रो-इस्लामी विश्व ने हर मौके पर भारत की खिलाफत ही की... अपना वजूद बनाये-बचाये रखने का हक इजरायल का भी है यह एक हकीकत है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है... इजरायल को कभी भी चैन से न रहने देने को उसके इस्लामी पड़ोसी कटिबद्ध हैं वह भी धर्म के नाम पर... मैं समझता हूँ कि यही कारवाँ यदि इजरायल भी जाये तो वहाँ भी बहुत मानवीय़ त्रासदियाँ उनको मिल जायेंगी... लेख लिखने व आंसू बहाने के लिये...
हमारी सरकार का जो रूख है... राष्ट्र हित में वही सही है!
...
bahut soochnatmak,gyanvardhak post...
जवाब देंहटाएंbahut steek jaankari, wa pate ki bat kahi aapne
जवाब देंहटाएंटिप्पणी लिखने से पहले मन हो रहा था...वो संस्मरण पहले पढ़ लूँ....
जवाब देंहटाएंशान्ति प्रयास....जहाँ के लिए भी हों..जिस तरह के हों...जो भी उनमे शामिल हैं...उनकी सराहना करनी चाहिए.
जो लोग इस कारवां में शामिल थे...अवसर मिलने पर निश्चय ही...देश के भीतर भी इस तरह के शान्ति का सन्देश देनेवाले कारवां का हिस्सा जरूर बनना चाहेंगे.
शीर्षक पढकर कुछ हल्के फुल्के मैटर की उम्मीद बढी थी, पर आपने इतनी गम्भीर बातें शुरू कर दीं। अभी भोपाल की थकान नहीं उतरी है, इसलिए मुद्दे पर न बोलने के लिए क्षमा चाहता हूँ।
जवाब देंहटाएं---------
अंतरिक्ष में वैलेंटाइन डे।
अंधविश्वास:महिलाएं बदनाम क्यों हैं?
@ सलिल जी,
जवाब देंहटाएंतब तो फिलिस्तीनियों के बारे में आप मुझसे बेहतर जानते हैं ! और यहां आप और मैं ,यानि कि हम दोनों ही हैं तो यहां के बारे में कोई संशय ही नहीं !
@ अतुल श्रीवास्तव जी ,
कारवां को एक प्रतीकात्मक पहल ही मानियेगा !
@ संजय भास्कर जी ,
शुक्रिया !
@ मो सम कौन ? जी,
सुनील जी के संस्मरण ,संजीव तिवारी साहब के ब्लॉग में उपलब्ध हैं ! मैंने लिंक दी है आपके पास यदि समय हो तो !
@ प्रवीण शाह जी ,
मुझे नहीं लगता कि कारवां के लोग सपनों की दुनिया में जी रहे थे ! सांकेतिक पहल के तौर पर उन्होंने वो किया जो उन्हें सही लगा ! भारत सरकार का रुख , अपनी घोषित नीति के अनुरूप नहीं है , वर्ना शिकवा ही कैसा ? अगर राष्ट्रहित किसी पक्ष विशेष के साथ रहने में है तो उसे सार्वजनिक रूप से घोषित भी किया जाना चाहिए !
इजराइल के वजूद से हमें कोई इन्कार नहीं किन्तु वह फिलहाल पीड़ित पक्ष नहीं है ! जिन्होंने फिलिस्तीन को पीड़ित पक्ष मान कर कारवां निकाला यह उनकी अपनी सोच है!यदि कोई इजराइल को पीड़ित पक्ष माने तो उसे,उसके लिए कारवां निकालने और उसका पक्षधर होने का अधिकार है! निश्चय ही ऐसे लोगों को भी कोई एक पहल ज़रूर करनी चाहिए !
फिलिस्तीन का मुद्दा अरब राष्ट्रों के समर्थन के चलते , संभव है कि इस्लामिक राष्ट्र जैसा मुद्दा लगता हो पर हमारे लिए वे जितने मुस्लिम हैं उतने ही ईसाई भी और सबसे पहले आदमजाद ! ...इससे आगे अपनी यही सोच इजराइल के यहूदियों के लिए भी है !
आपकी टिप्पणी से आपके विचार जान पाये ! उसके लिए आपका आभार !
@ शालिनी कौशिक जी ,
प्रतिक्रिया के लिए आभार !
@ आलोक खरे जी ,
शुक्रिया !
@ रश्मि जी ,
समय हो तो , लिंक दिया हुआ है ,संस्मरण पढ़ सकेंगी !
शांति कारवां का हिस्सा बनने बाबत आपकी पहल पर गर्व हुआ !
@ ज़ाकिर अली साहब ,
थकान का उतारा सबसे ज़रुरी है ,मुद्दों पर बात उसके बाद भी की जा सकती है !
बहुत अच्छा आलेख है...
जवाब देंहटाएंमननीय . . .
kya khoob andaze byan hai bhai!!!!! dil choo liya..dimagh ki nasen. yakbayak parwan huin...
जवाब देंहटाएं@इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि काश्मीरी पंडितों और अन्य पीड़ितों को भी अमन के कारवां जैसी सदाशयता और मुहिम का हक़ तो बनता ही है !...
जवाब देंहटाएंबहुत तसल्ली है की कोई इनके बारे में भी सोचता तो है !
@ दानिश साहब,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
@ शहरोज़ भाई ,
शुक्रिया !
@ वाणी जी ,
ज़रूर ! हर पीड़ित के बारे में सोचना हमारा फ़र्ज़ बनता है !
विचारणीय आलेख. हो सकता है आपने भेज दिया हो, अगर नहीं तो कृपया इसे सुनील कुमार जी को भी उनके अखबार के ई -मेल पर ज़रूर भेजें.
जवाब देंहटाएंआलेख पढकर अच्छा लगा। मगर अपने देश या आस-पडोस, तालिबान, तिब्बत आदि पर कभी मुँह न खोलने वालों का जुलूस के साथ गज़ा पहुंचना एक ड्रामे से ज़्यादा नहीं लगता है।
जवाब देंहटाएं@ स्वराज्य करुण जी ,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! उन्होंने १६ फरवरी के अंक में प्रकशित किया है इस आलेख को !
@ स्मार्ट इन्डियन जी ,
आपकी इस बात पे राज़ी कि तिब्बत ,तालिबान और देश के अंदरूनी हालात पर भी ऐसी ही प्रतिक्रियायें आनी चाहिए !
कारवां में सम्मिलित सभी लोगों को मैं जानता नहीं इसलिए उनकी नियत क्या थी,कहना मुश्किल है पर मैंने जिन सुनील कुमार जी के संस्मरण पर केंद्रित आलेख लिखा है! मुझे उनकी नियत पर कोई शक नहीं है!वे उन सभी मुद्दों पर जुबान खोलते हैं जिनका उल्लेख आपने किया ! अभी बस्तर में नक्सलवादियों द्वारा अपहृत पुलिस वालों को छुडवाने की मुहिम में उनका समाचारपत्र और उनके प्रतिनिधि मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे !
विचारणीय लेख !
जवाब देंहटाएं..गोया हुजूर विदेशनीति के भी एक्सपर्ट हैं !
जवाब देंहटाएं@ मर्मज्ञ जी ,
जवाब देंहटाएंआभार !
@ अरविन्द जी ,
कहीं आपकी सोहबत का असर तो नहीं :)
सही बात लिखी आपने...अच्छी पोस्ट.
जवाब देंहटाएं______________________________
'पाखी की दुनिया' : इण्डिया के पहले 'सी-प्लेन' से पाखी की यात्रा !
कष्ट तो कष्ट है .. किसी का भी हो ... पर ये भी सच है की पहल अपने आस पास के कष्ट दूर करने की होनी चाहिए ... फिर कष्ट सच में कष्ट है या नहीं इस बात पर भी बहस होनी चाहिए ... काश्मीर और भारत के अन्य प्रदेशों में होने वाले अत्याचार गलत हैं ... पर अलगाव के विचार भी ठीक नहीं कहे जा सकते ....
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख है ... नए दृष्टिकोण खोलता है ..
@ जनाब क्या आप हिंदी ब्लागर्स फोरम इंटरनेशनल के सदस्य बनना पसंद फ़रमाएंगे ?
जवाब देंहटाएंअगर हॉ तो अपनी email ID भेज दीजिए ।
eshvani@gmail.com
धन्यवाद !
ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है |
rashmi ravija ji k sath sehmat hu.
जवाब देंहटाएंik kadam to barhao poora safar tumhare sath tai karenge.
pehal karne ki der hai kafila apke sath ho lega.
shukriya
आदरणीय अली भाईजान
जवाब देंहटाएंसादर सस्नेहाभिवादन !
"दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढें !" अच्छा आलेख है , बधाई !
22 फरवरी को आपका जन्मदिवस था…
दावत लेने पूरा ब्लॉगजगत न उमड़ पड़े इसलिए आपने पोस्ट भी नहीं लगाई
… लेकिन हम पार्टी बिना कब मानने वाले हैं ?
आपकी प्रोफाइल पर लगी तस्वीर के सामने बैठे आपका जन्मदिन मना रहे हैं :)
घर पर ही आपके नाम से मंगवा कर मिठाई समोसे खा रहे हैं …
चिंता न करें, चुकाने के लिए बिल आपके घर शीघ्र भिजवा रहे हैं … :)
~*~ बधाई बधाई बधाई ! ~*~
♥~*~जन्मदिवस की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !~*~
♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
@ पाखी ,
जवाब देंहटाएंओ मेरी सुन्दर सी बेटू :)
@ दिगंबर जी ,
आपसे सहमत हूं कि अत्याचार और अलगाव वाद दोनों ही निंदनीय हैं !
ये आलेख क्या है , बस एक दृष्टिकोण का ही मसला है !
@ डाक्टर अनवर जमाल साहब,
जी ज़रूर ! शुक्रिया !
@ मीनाक्षी पंत जी ,
प्रतिक्रिया के लिए आपका आभारी हूं !
@ विजय मौदगिल साहब ,
आपका स्वागत है !
@ राजेन्द्र भाई ,
मंसूर अली साहब के चक्कर में फंस गया वर्ना सब कुछ गुपचुप था :)
अब आप जो भी आदेश करें मान्य है :)
सोचने का विषय है। विषय कठिन है। हाँ, कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को नजर अन्दाज करने वाले इस देश व इसके नागरिकों को किसी के भी दुख में आँसू बहाने का नैतिक अधिकार तो नहीं है। समाचार पत्र चाहें तो भारतीय चेतना में इस मुद्दे कि जीवित रख सकते हैं किन्तु कश्मीरी पंडितों से किसी को कोई लाभ नहीं। हमारे ही उत्तर पूर्व व आदिवासी समस्याओं की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता।
जवाब देंहटाएंसुनने में अशिष्ट तो लगता है किन्तु यह भी सच है कि भारत कितना भी साथ दे ले किन्तु यदि पलड़े में एक तरफ कोई मुस्लिम राष्ट्र होगा और दूसरी तरफ भारत तो कम ही सम्भावना है कि यदि भारत सही हो तो भी अरब राष्ट्र भारत का साथ देंगे। हाँ, हम यह कह सकते हें कि फल की आशा के बिना कर्म कर, गीता में कहा है इसलिए।
आपके लेख ने कुछ अरब यादें ताजा कर दीं।
जन्मदिन की देरी से बधाई।
घुघूती बासूती
सबसे पहले क्षमा प्रार्थी हूँ कि इतनी देर से जनम दिवस की बधाई दे रहा हूँ, मुझे पता ही नहीं चला , आपको जन्म दिवस की बहुत-बहुत बधाई . बहुत ही जबदस्त लिखा है आपने . एक साँस में पूरा लेख पढ़ डाला . इस पोस्ट का बहाने बहुत कुछ जानने को भी मिला .
जवाब देंहटाएंइस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि काश्मीरी पंडितों और अन्य पीड़ितों को भी अमन के कारवां जैसी सदाशयता और मुहिम का हक़ तो बनता ही है !इस लाइन ने मेरा ध्यान आकर्षित किया .
ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है |
आपने तो सारी गीत को गाजा के माहौल में देख लिया...
जवाब देंहटाएं@ घुघूती जी ,
जवाब देंहटाएंअपनी चिंतायें सभी पीड़ितों के लिए है चाहे वो देश के अंदर हों या बाहर और फिर उनका धर्म जो भी हो !
अरब देशों की संभावित प्रतिक्रिया अगर गलत हो तो क्या मानवता के लिए हमारा नज़रिया भी उनकी तरह से गलत हो जाना चाहिए ?
वैसे जो मुद्दा आपने छेडा है वो विस्तार चाहता है कभी संभव हुआ तो अरब जगत बनाम ईरान और तुर्की तथा पाकिस्तान बनाम अफगानिस्तान की तंग गली से अपने देश के बारे में चर्चा ज़रूर करेंगे पर ये पोस्ट फिलहाल 'वालंटियर्स' को समर्पित है !
अरब यादों को ताजा करने का फायदा क्या ? अगर उन्हें ब्लॉग में डाल कर मित्रों से शेयर ना किया जाये :)
पर आप मेरा जन्म दिन कैसे भूल गईं :)
@ प्रिय मिथिलेश जी ,
जन्म दिन की बधाई के लिए शुक्रिया ! आलेख ने आपका ध्यान आकर्षित किया यह जान कर प्रसन्नता हुई !
@ शिव शंकर जी ,
आपका स्वागत है !
@ राजेय शा साहब ( शर्मा जी ),
पूरी गज़ल कहां केवल दो पंक्तियां ही उपयोग में ली गई हैं ! आलेख एक तरह से मानवीय संवेदनाओं के भोथरे होते जाने के विरुद्ध है सो ये दोनों पंक्तियां मुझे मुनासिब लगीं !
मित्रवर आप पहले टिप्पणीकार हैं जिसने इस बिंदु पर ध्यान दिया है ! सो आपकी टिप्पणी मेरे लिए विशिष्ट है ! प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार !
अली साहेब,
जवाब देंहटाएंज़ाहिर है ये पोस्ट मेरे बस के बाहर है. कमेन्ट तो क्या करूं.... आप जो भी कह रहे हैं, सही कह रहे हैं, इस बात का विश्वास है.
(कई बार फूहड़ता कितना लज्जित कराती है, इसका अहसास हो रहा है मुझे)
आशीष
"अली जी! उम्मतों का जवाब नहीं!"
जवाब देंहटाएंअल्लाह इसकी उम्र दराज़ करे!!!"
लोरी
बहुत दिन से कुछ नहीं लिखा है ...इंतज़ार है !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !!