शायद 1975 से 1977 के दरम्यान कोई वक़्त रहा होगा जबकि कैरियर की फ़िक्र से ज्यादा रूमानियत तारी हुआ करती थी मुझ पर , हर दिन बिला नागा फिल्म देखना , दोस्तों की पसंदीदा गलियों में से बस यूंहीं गुज़र जाया करना , फूलों को खुश देखने की तमन्ना लिये दिन तमाम कर देना, वगैरह वगैरह के साथ नावेल्स पढ़ने का शौक भी जबरदस्त ! याद है आज भी उनमें से एक नावेल, ए. हमीद की 'फूल उदास हैं', उसे पढ़ा तो एक रूटीन जैसा, तब कुछ खास सोचा नहीं, हां एक कसक ज़रूर अंदर बनी रही, बस बेख्याल सी ! ख्याल ये कि नावेल कुछ खास नहीं थी सिवा इसके कि उसका नायक मेरा हमनाम हुआ करता और उसे भी सफेद शर्ट और काली पैंट से जबरदस्त लगाव था जोकि अब मुझे नहीं है, हुआ ये कि जबसे बीई फर्स्टईयर के लड़कों को इस ड्रेस कोड का पालन करते और पिटते देखा अपना शौक काफूर हुआ ! यानि दुःख ये कि शौक तर्क करना पड़ा और खुशी ये कि अनुज संजीव आज भी ये शौक शिद्दत से पाले हुए हैं !
पढ़े गये नावेल का नायक एक साधारण सा विद्यार्थी है, जिसके सौम्य और खुशदिल व्यवहार से प्रभावित होकर कुल जमा दो अदद लड़कियां उससे, बारी बारी से प्रेम कर बैठती है और वो कमबख्त उन दोनों को धोखा देकर...उदास छोड़ कर चल देता है ! एक साधारण सी कथा...नायक की बेवफाई और नायिकाओं की उदासी पर समाप्त हुई...पर मन में बनी रही, क्योंकि सुख की अनेकों में से दुखांत वो पहली थी ! फलसफों की उम्र भी नहीं थी इसलिए उस वक़्त पता ही नहीं चला कि ज़ज्बाती तौर पर रौशनी का डूब जाना कितना अहम होता है, जीवन में ! कई सालों बाद ...जाय मुखर्जी और आशा पारीख अभिनीत किसी फिल्म में, गोधूलि बेला में, नायक सूरज के डूबने और नायिका से बिछड़नें का अहसास लिये हुए कह रहा है...ऐसे ही कभी जब शाम ढ़ले ...उनके विछोह की कल्पना मात्र से दिल धक् से रह जाता है ! तब पहली बार अहसास होता है कि फूलों की उदासी किस कदर यातनादायी रही होगी !
हम धोखा देते हैं...धोखे खाते हैं ! खुश होते हैं... अवसाद में घिर घिर जाते हैं ! दुखी होते हैं...दुखी करते हैं ! चोटिल होते हैं...चोट पहुंचाते हैं ! टूटते हैं...तोड़ देते हैं ! जीते हैं...मरते हैं, भला क्यों ?...ये सारे का सारा विरोधाभाष हमारा अपना है...अपने अंदर ही कहीं बसता है ये ! ख्याल करता हूं कि खुशियां, रौशनी सी हैं ...सितारों सी हैं...ज़ेहन के अंदर ज़ज्बातों की शक्ल में रंग रंग !...और फिर इंसानों की देह भाषा उसे अभिव्यक्त भी खूब करती है ! सोचता हूं 'उन्स'...भी ब्रम्हांडीय घटना है जो जिस्मों पर प्रकटती और दिल-ओ-दिमाग के अंदर आलोक सा बिखेरती है , फिर तो यकीनन फूटते उजालों को निगलते अंधेले दैत्य भी होंगे वहां ! फूल उदास हैं तो अंदर कहीं ब्लैक होल्स ज़रुर होंगे !
अली साहब,
जवाब देंहटाएंवैसे तो सारी पोस्ट ही शानदार है, लेकिन आखिरी पैरा तो बस गज़ब ही है।
फ़ूल हैं तो ब्लैक होल्स तो होंगे ही, बेशक फ़ूल खुश दिखें या उदास।
Bahut tanmayta se aapki yah post padh lee. Wo zamana bhi yaad aya jab novels padhna bahut bhata tha..khaskar purane classics. Shayad ab bhi bhata hai...bade din ho gaye padhe hue...ab khoj leti hun..
जवाब देंहटाएंला 'होल' [फूल] , वला 'कुव्वत' [खुश्बू]!!!
जवाब देंहटाएंदुखांत पर आप सोचने लगे .. इसे क्या कहूँ .. ब्लैक होल , क्या ऐसा प्रेमिल जीवन में ही है या अन्यत्र भी ! .. सही से देखा जाय तो अन्यत्र का असर इस जगह भी है ! .. पोस्ट सुन्दर है , मजेदार , ख़याल-दार भी !
जवाब देंहटाएंBeautiफूल....
जवाब देंहटाएंफूल उदास हैं तो अंदर कहीं ब्लैक होल्स ज़रुर होंगे !
अच्छी पोस्ट !
सुन्दर,प्यारी ,उदास फ़ूल सरीखी पोस्ट!
जवाब देंहटाएं@ बेनामी जी , भावना जी , नमिरा जी , जनदुनिया ,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
@ मो सम कौन ? जी ,
सच है !
@ क्षमा जी ,
नावेल्स के मुरीदों से मिलकर अच्छा लगता है :)
@ मंसूर अली हाशमी साहब ,
:)
@ अमरेन्द्र जी ,
हहा... सही ,ब्लैक होल्स कहीं भी हो सकते हैं पर ज्यादातर ब्रम्हांड में या सोच में,ऐसा मेरा ख्याल है ! ये पोस्ट ब्लैक होल्स के प्रभाव से उबरने के बाद लिखी गई मानी जाये :)
@ डाक्टर हरदीप संधू जी ,
सबसे पहले टिप्पणी के लिए शुक्रिया , उसके बाद ये कि आपका प्रोफाइल देख कर बेहद खुशी हुई ,खासकर शब्दों के लिए आपके ज़ज्बात जानकर ! वहां बस एक छोटी सी चीज़ खटकती है अगर उसे दुरुस्त कर सकें तो ? पी.एच.डी.की जगह पीएच.डी.बेहतर होगा !
कभी ये भी बताइयेगा कि 'उत्ती' दूर कैसे जा बसे ?
@ अनूप शुक्ल जी ,
शुक्रिया !
शीर्षक बहुत ही अच्छा लगा .
जवाब देंहटाएंब्लैक होल सिर्फ अन्तरिक्ष में नहीं ...दिल और दिमाग में भी होता है .....
एक ब्लैक होल होता है अन्तरिक्ष में .....जिसमे सब गुम हो जाते हैं ...फूटते उजालों को निगलते अँधेरे दैत्य ...
एक होल जो कलेजे में बनता है..कलेजा ..मतलब लीवर, ह्रदय, गुर्दा..जो जितना गहराता है उतना ही उजाला बिखेरता है..जैसे दिया खुद जलकर जग को रोशन करता है ....
हमनाम लोग अक्सर ज़ेहन में अटक से जाते हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही है। चाहे उपराष्ट्रपति जी हों चाहे तबला वादक, अक्सर ज़ेहन में कौंध जाते हैं। सोचता हूँ, क्या मैं भी कभी किसी को इसी तरह परेशान कर पाऊंगा क्या?
जवाब देंहटाएं…………..
पाँच मुँह वाला नाग?
साइंस ब्लॉगिंग पर 5 दिवसीय कार्यशाला।
सदा की तरह घुमावदार मुस्काती खेलती सी भाषा वाली सुन्दर पोस्ट। एक दो शब्दों पर अटक गई। उर्दु के होंगे क्योंकि शब्दकोष में नहीं मिले।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
साहब जी मेरे कम्प्यूटर पर आपके ब्लॉग में आपके लेख और भाई लोगों कि टिप्पणियों के अतिरिक्त कुछ और दिख नहीं रहा ये मेरे कम्प्यूटर कि कमजोरी है या आपके व्यक्तित्व कि मजबूती. अभी तक जिस किसी का भी ब्लॉग देखा उनमे लेखक कि फोटो, अनुसरण करने वालों कि फोटो और भी जाने क्या क्या दीखता है पर आपकी दुकान में खालिस माल ही है. कोई सजावट कोई तामझाम नहीं. पर जनाब आपका माल ओरिजिनल है. कसम से.
जवाब देंहटाएंगनीमत है फूल उदास भर है मुरझा उरझा नही गए -ब्लैक होल का यह गुण धर्म ही होता है की वह सारी दिव्यता को शोषित कर लेता है -बेचारी फूल !अरे फूल को स्त्रीलिंग होना चाहिए !ब्लैक होल का नाम बता दूंगा तो ब्लॉग जगत में कुहराम मच जाएगा !
जवाब देंहटाएं@ वाणी गीत जी ,
जवाब देंहटाएंआपने होल का एक और आयाम सुझाया ! आभार !
@ ज़ाकिर अली रजनीश जी ,
हमारी दुआ है कि आप लोगों को परेशान कर पायें :)
@ घुघूती बासूती जी
आपने कहा नहीं पर लगता है कि उन्स ही होगा !
लगाव / प्रेम /स्नेह पर कौन नहीं अटक जाता :)
@ विचार शून्य जी ,
भाई , हौसला बढाने वाली प्रतिक्रिया के लिये आभारी हूं !
@ अरविन्द जी ,
हहा...धन्यवाद,आपके होते कोई फूल मुरझा सकता है भला ? उदासी तो यूं कि आजकल आप उसपर लिख नहीं रहे हैं :)
सुंदर पोस्ट.
जवाब देंहटाएंबहुत साल पहले, बचपन में पढ़ा एक उपन्यास "विक्रम और मदालसा" मुझे भी याद हो आया. अफ़सोस है कि मुझे आजतक इसके लेखक का नाम नहीं मालूम. सच्चाई तो ये है कि उस उम्र में लेखक के नाम मैं कभी पढ़ता ही नहीं था :-(
पी.एच.डी.
जवाब देंहटाएंहा हा हा... ये ग़लती तो मैं भी करता आया हूं, कभी सोचा ही नहीं था. धन्यवाद.
हम धोखा देते हैं...धोखे खाते हैं ! खुश होते हैं ... अवसाद में घिर घिर जाते हैं ! दुखी होते हैं...दुखी करते हैं ! चोटिल होते हैं ...चोट पहुंचाते हैं ! टूटते हैं ...तोड़ देते हैं ! जीते हैं ...मरते हैं , भला क्यों ? ...ये सारे का सारा विरोधाभाष हमारा अपना है...अपने अंदर ही कहीं बसता है ये ! ख्याल करता हूं कि खुशियां , रौशनी सी हैं ...सितारों सी हैं... जेहन के अंदर ज़ज्बातों की शक्ल में रंग रंग ! ...और फिर इंसानों की देह भाषा उसे अभिव्यक्त भी खूब करती है ! सोचता हूं 'उन्स' ...भी ब्रम्हांडीय घटना है जो जिस्मों पर प्रकटती और दिल-ओ-दिमाग के अंदर आलोक सा बिखेरती है , फिर तो यकीनन फूटते उजालों को निगलते अंधेले दैत्य भी होंगे वहां ! फूल उदास हैं तो अंदर कहीं ब्लैक होल्स ज़रुर होंगे !
जवाब देंहटाएं...इस आखिरी पैरा ने तो हिला के रख दिया. इसे सहेजना पड़ेगा कहीं अपनी नीजी डायरी में. भूमिका अच्छे से तैयार कर अंत में आपने एक दर्शन से रूबरू करा दिया. ब्लैक होल्स है मगर इन्हें बंद करने लायक तप नहीं किया जीवन में.
..आभार.
nice
जवाब देंहटाएंuff...........kyaa baat kah di hai ........seedhe dil mein utar gayi hai.
जवाब देंहटाएंअली भाई आपकी पोस्ट पढकर कम से कम दो घंटे तक तो दिमाग कुछ ओर करने लायक ही नहीं रहता....दार्शनिकता यूँ जकड लेती हैं कि क्या बताऊँ..बडी मुश्किल से निकल पाता हूँ :)
जवाब देंहटाएं@ काजल भाई ,
जवाब देंहटाएंपढते थे ये क्या कम है :)
@ देवेन्द्र भाई ,
आपका शुक्रिया !
@ 1st choice ,
देखी :)
@ वन्दना जी ,
हार्दिक आभार !
@ पंडित दिनेश शर्मा वत्स जी ,
पोस्ट पढकर दार्शनिकता के बजाये प्रेम में पड़ें तो बताईयेगा :)
... bhaavpoorn abhivyakti !!!
जवाब देंहटाएं'कुछ तो मजबूरियां रही होगी ......' बेवफाई पर यह शेर आद आ रहा है। फूलों की उदासी और ब्लेक होल्स की नजदीकियां दोनो दुखकारी है। हॉं ब्लेक ट्राउजर और सफेद कमीज शून्य व्यक्तित्व में भी रंग भरने का काम करता है ऐसा मेरा मानना है :)
जवाब देंहटाएंबेहतरीन खुशबूदार पोस्ट.
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