सोमवार, 9 जुलाई 2018

किन्नर -35-1

किन्नर मूलतः ऐसे मनुष्य हैं, जो उभयलिंगी अथवा स्त्री या पुरुष लिंगीय दैहिक प्रारूप में  पैदा हो सकते हैं । वे मानसिक तौर पर उतने ही सुदृढ़ हो सकते हैं, जितना कि कोई अन्य स्त्री अथवा पुरुष । हालांकि वे शारीरिक रूप से अनूठे / निराले / समलैंगिक हो सकते हैं । शारीरिक संरचना के इतर उनमें सत्य असत्य, पुण्य पाप का निर्धारण करने की उतनी ही क्षमता होती है जितनी कि किसी सामान्य स्त्री अथवा पुरुष में । कई बार ये तय करना मुश्किल होता है कि वे स्त्री गुणाधिक्य वाले हैं अथवा पुरुष । सामान्यतः किन्नर संबोधन उन लोगों के लिये प्रयुक्त होता है जोकि स्त्रियों की लालसा खो चुके हों, कदाचित पौरुषहीन, बूढ़े, सेवकवत लोग, जिन्हें पर्दा मुक्त स्त्रियों के अलंकरण देखने की सामाजिक अनुज्ञा प्राप्त हो । अस्तु यह कहना उचित होगा कि वे स्खलन और आनंद की श्रेणी से पृथक मनुष्य हैं ।

यदि कोई धर्म, धार्मिक अविश्वासियों के विरुद्ध जंग छेड़ना चाहे तो उसे संख्या बल की आवश्यकता होगी, जिसके लिये उक्त धर्म अनिवार्यतः बंध्याकरण  का विरोध करेगा । बंध्याकरण, जोकि स्व-घात, विरूपता या क्षति अथवा मृत्यु का कारण भी बन सकता है या फिर ईश्वर रचित पुरुष गुणों को नष्ट कर सकता है, या जिसे ईश्वर की कृपाओं के प्रति एक प्रकार की कृतघ्नता माना जा सकता है । अक्सर धार्मिक लोग यह मानते हैं कि किन्नर होना या तो स्त्रियों की अनुकृति होने जैसा है अथवा दैहिकता का ऐसा चयन जो पूर्णता की तुलना में अपूर्ण होता है ।

महा-देवी सायबेले को रिया, डायना आदि नामों से जाना जाता है, हालांकि रोम में उसे खास तौर पर मैग्ना मेटर कहते हैं, जिसके रहस्मय पुरोहित, गल्ली नाम से जाने जाते हैं, गल्ली यानि कि देवी सायबेले के मंदिर के निकट से बहने वाली गल्लुस नदी के तट पर निवास करने वाले लोग । बिथीनिया की छोटी सी नदी गल्लुस का स्रोत, फ्रीजिया के उत्तर में, स्थित मोद्रा में है । यहां यह तथ्य गौरतलब होगा कि सायबेले, उर्वरता और उत्पादन की तथा धरती की मातृ देवी है जबकि उसके पुरोहित मूलतः किन्नर हैं । किन्नर यानि कि अनुर्वर पुरुष जोकि दैहिक लालसाओं से मुक्त होकर देवी की पूजा कर सकें । इतना ही नहीं इफेसियस की डायना और देवी आइसिस और देवता गुरु के पुरोहित भी अनेकों बार लिंग उन्मूलित और सामान्यतः अंडकोष उन्मूलित पुरुष हैं । कोई आश्चर्य नहीं कि वे आध्यात्मिकता और धार्मिकता की दृष्टि से देह वासना मुक्त, शिश्न-हीन / लिंग-च्युत पुरोहित देवी और देवताओं से जुड़े कर्मकांडों के सञ्चालन के उपयुक्त माने गये । उन दिनों रोमन ग्रीक तथा मिस्र के लोगों में यह प्रचलन आम था ।

गल्ली पुरोहितों के मुखिया आर्चीस-गल्लीस कहे जाते थे, तब गल्ली बनाये जाने की प्रक्रिया के अंतर्गत धार्मिक उत्सवों के अवसरों को खास तौर पर चुना जाता था, यथा 11 दिवसीय उपवास के अवसर पर वे सांसारिक दायित्वों से इतर, सम्भोग, सहवास इत्यादि से दूर, पवित्र देवी देवताओं के अनुष्ठानों में लिप्त होकर, अपनी पवित्रता को बनाए रखने का कार्य करते थे, इसके बाद उनके बंध्याकरण की प्रक्रिया सम्पादित की जाती थी हालांकि उनके बंध्याकरण के लिये प्रयुक्त उपकरण प्राचीन / परम्परागत होते थे, जिनसे सामान्यतः उनके अंडकोष कुचल / निकाल दिये जाते थे, शिश्न उन्मूलन का कार्य असाधारण हालात में ही किया जाता था । उल्लेखनीय है कि रोमन समाज में किन्नर बनाया जाना सर्वथा निषिद्ध था अतः गल्ली बनाए गये पुरुष निश्चित रूप से रोमन साम्राज्य की सीमाओं के निकटवर्ती भूभाग, पवित्र क्रेटे द्वीप, मध्य एशिया याकि पर्शिया अथवा अफ्रीका से लाये गये होंगे । संभवतः हम उन्हें अटलांटिस के पुरोहितों के वंशज भी कह सकते हैं, बहरहाल रोमन साम्राज्य के नागरिकों को स्वयं ही, देवताओं के गल्ली होने का अवसर कालांतर में मिला ।

 ...क्रमशः