वे सभी किन्नर पुरोहित अपने मुखिया हीबानी के साथ, स्वर्ग
की रानी, देवी इन्नाना के पिरामिड मंदिर परिसर में रहते थे । सुमेरियन कहते हैं कि देवता ने किन्नरों को
पिरामिड युग में अस्तित्वमान किया । वे ना
तो नर हैं और ना ही नारी । देवी इन्नाना
के पुजारी बतौर हीबानी बहुत ख्यातनाम था, गर्भवती महिलाए उससे मंदिर में, पूजा
करवाती ताकि उनका गर्भ फूले फले । यही
नहीं उरुक का राजा नाराम-सिन् भी हीबानी से प्रार्थनाएं करवाता ताकि उसका राज्य
दैवीय कृपा से समृद्ध रहे । हीबानी के
संरक्षण में दो बालक थे, जिन्हें वो, किन्नर पुरोहित बनाने के लिये प्रशिक्षण दे
रहा था । दस वर्ष की आयु में उन दोनों का बंध्याकरण
कर दिया गया, जिससे कि वे ‘ना स्त्री और ना ही पुरुष की’ जाति में सम्मिलित हो गये
। वे अन्य किन्नरों की तरह से देवी के
पुजारी बन गये, अब उनमें अन्य सामान्य युवाओं सी अभिलाषाएं शेष नहीं रहीं । हीबानी उन्हें अन्य सभी की तुलना में अधिक प्रेम
करता था, बिलकुल अभिभावक की तरह से, हालांकि यही प्रेम, उसकी गलती साबित हुआ ।
राजा नाराम-सिन् देवी का भक्त होने के कारण से मंदिर परिसर
में ही निजी कक्ष बनाये हुआ था । वो जब भी
राज काज से थक जाता इन्हीं कक्षों में आराम करता । उन कमरों में दो बड़े ढ़ोल रखे थे, जिन्हें वो
बहुत शौक से बजाया करता था । उसके
कारीगरों ने इन ढोलों पर स्थानीय मूल निवासियों के राजा की खाल मढ़ दी थी । राजा नाराम-सिन् ने मूल निवासियों को दक्षिण के
दलदली क्षेत्र में धकेल दिया था और फिर पराजित राजा की खाल से ढ़ोल की निर्मिति हुई
। कहते हैं कि मूल निवासियों का राजा एक
शक्तिशाली जादूगर था इसलिए मृत्यु के बाद भी ढोलों में लगी हुई उसकी खाल जादुई कृत्यों
के उपयुक्त बनी रही । नाराम-सिन ढ़ोल बजाने में इतना दक्ष था कि उसके ढ़ोल की थाप /
ध्वनि से पहाड़ी में मौजूद भेड़ और गडरिये मुग्ध हो जाते , खेतों में किसान, नहरों
की मछलियां भी, उसे सुनतीं, लेकिन ढ़ोल वादन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह था कि उससे
वो सन्देश ध्वनित होते जो नाराम-सिन् पुजारियों से कहना चाहता था सो पुजारी भी उसके
ढ़ोल वादन का इंतज़ार करते रहते ।
एक दिन नाराम-सिन् राजकाज निपटाने के लिये उरुक स्थित महल में
चला गया तो किन्नर हीबानी के पालित किन्नर किशोरों ने राजा नाराम-सिन् के कक्ष में
घुस कर ढ़ोल बजाने का निर्णय ले लिया । वे
राजा की तरह से उन ढोलों को बजाना चाहते थे । वैसे तो हीबानी उन्हें कभी दण्डित नहीं करता था
फिर भी उन्होंने तय किया कि वे ढ़ोल बजाने तब जायेंगे जबकि हीबानी भी उरुक चला गया
हो । एक दिन जब हीबानी, वजीर की बड़ी लड़की
की शादी में सम्मिलित होने के लिये उरुक गया तो उन्होंने ढ़ोल बजाने के लिये राजा
नाराम-सिन् के कक्ष में घुसने का निर्णय
लिया । यह स्वभाविक था कि किन्नर
किशोर, राजा की तरह से ढ़ोल नहीं बजा पाते, क्योंकि ढ़ोल की धुन की विलक्षणता मूल
निवासियों के दिवंगत राजा की खाल से सम्बन्ध रखती थी । इसके बावजूद किशोर किन्नर ढ़ोल पीटने लगे । उनके पीटने से ढ़ोल से कोई सार्थक आवाज नहीं
निकली सो उन्हें और जोर से कोशिश की, जिसका नतीजा यह हुआ कि ढ़ोल फट गया । बहरहाल कार्य योजना में असफल और हतोत्साहित
किशोर किन्नर चुपचाप अपने कमरों में लौट गये ... ... क्रमशः