रविवार, 31 दिसंबर 2017

ललमुंहे बंदर

जब ईश्वर ने धरती को बनाया तो उसने महाकाय सांप को आदेश दिया कि वो निर्माण सामग्री को अपनी विशाल कुंडली में संभाल कर रखे ! इस तरह से धरती को आकार मिला ताकि सभी तरह के लोग, परिंदे और जानवर, उस पर, अपनी ज़िन्दगी गुज़ार सकें ! उस समय प्राचीन सांप ने चार खम्बे, उत्तर, दक्षिण, पूरब,पश्चिम बनाए, जिन्हें अपनी कुंडली में जकड़ कर सीधा खड़ा रखा और  स्वर्ग इन्हीं खम्बों पर टिका हुआ है ! प्राचीन सांप की त्वचा काली, सुफैद और लाल रंग की थी जिसकी वज़ह से रात, दिन और सांझ बनी ! शुरू में धरती पर पानी ठहरा हुआ था इसलिए महाकाय सांप ने झरने और नदियाँ बनाईं, इसके कारण से जीवन चक्र प्रारम्भ हुआ ! इसके बाद जैसे जैसे महाकाय सांप, ईश्वर को नई दुनिया दिखाने लगा, उन सभी जगहों पर पर्वत बन गये, जहां पर ईश्वर ठहरा / चलते चलते रुक गया था !

सृजन का कार्य संपन्न होने पर ईश्वर ने देखा कि बहुसंख्य पर्वत, असंख्य वृक्ष, अनगिनत जीव, अकेली धरती पर बोझ बनने वाले हैं, तो उसने महाकाय सांप को आदेश दिया कि वो धरती की सहायता करे, सो महाकाय सांप ने खुद की पूंछ को अपने मुंह में दबा कर एक घेरा बना लिया ! इसके बाद ईश्वर ने लाल मुंह के बंदरों को निर्देश दिया कि जब भी अर्वाचीन सांप को भूख लगे, वे उसे खाना खिलाएं ! तब से लेकर आज तक अर्वाचीन सांप ने धरती को संभाल रखा है, हालांकि जब जब सांप करवट बदलता है या फिर खुजलाने अथवा दर्द से मुक्ति, के लिये अपने शरीर को हिलाता है, तब तब धरती पर भूकंप आते हैं ! अगर लाल मुंह के बंदर किसी दिन, सांप को खाना खिलाना भूल जायें और सांप, भूख से परेशान होकर अपनी ही पूँछ निगलने लग जाए, तो यह निश्चित है कि, उस दिन धरती का जीवन समाप्त हो जाएगा !

मध्य अफ्रीका के डाहोमी क्षेत्र के फ़ॅान जनजातीय समुदाय की ये कथा, उस ईश्वर को समर्पित है, जिसने अर्वाचीन सांप के माध्यम से धरती की निर्मिति की थी ! सांप महाकाय है, जिसकी कुंडलियों में धरती के निर्माण में प्रयुक्त सारी सामग्री, एकत्रित / संयोजित और सुरक्षित है ! चारों दिशायें उसके द्वारा खड़े किये गये सतूनों / स्तम्भों से निर्धारित हैं और तो और स्वर्ग भी इन्हीं खम्भों पर अवलंबित है ! कहने का आशय ये कि, स्वर्ग चारों दिशाओं में विस्तारित है ! सांप की चमड़ी के रंग, दिन की धूप, सांझ की लालिमा सह श्यामलता और रात्रि की कृष्णता को सुनिश्चित करते हैं ! उसने ठहरे हुए पानी को सचल किया, झीलों, तालों,  एवं समंदरों से नदियाँ और झरने बनाये, जिससे जीवन का प्रादुर्भाव हुआ ! सांप की कुंडली में बंधी हुई धरती को टिकाऊपन और सधी हुई / सुनिश्चित गति मिली ! ईश्वर के मनवांछित आकार की धरती, जैसा भी उसने चाहा था सांप ने वैसा ही कार्य किया !

जनश्रुति कहती है कि सांप की कुंडलियों में बंधी, सधी हुई धरती में मनुष्यों, परिंदों और जानवरों के रहने लायक परिस्थितियाँ मौजूद हैं ! ईश्वर, निर्दिष्ट सृजन कार्य के समापन के उपरान्त अर्वाचीन सांप ने, ईश्वर को निर्माण कार्य के अवलोकन करने का आमंत्रण दिया, ईश्वर जो धरती को, निरखता हुआ घूमा फिरा ! आदिम समुदाय की कल्पनाशीलता में, दिलचस्प बात ये कि ईश्वर जहां ठहरा, वहीं पर्वत बन गये ! धरती पर भ्रमण के दौरान, ईश्वर को ये अनुभूति हुई कि, नवजात धरती, असंख्य पर्वतों, वृक्षों और जीव जंतुओं का भार वहन करने में सक्षम नहीं हो पायेगी, इसलिए उसने महाकाय सांप को आदेश दिया कि वो अपनी पूंछ को मुंह में दबाकर धरती को बिखरने से बचाये, गौरतलब बात ये कि धरती, एकजुट और गोलाकार बनी रहे ! बहरहाल ईश्वर के आदेशानुसार, धरती रक्षण में सहायक अर्वाचीन सांप, अपने आप में बंध कर रह गया !

सांप द्वारा, दर्द से मुक्ति के लिये, करवट बदलने और उसकी, खुजलाहट जन्य दैहिक अस्थिरता की प्रतीकात्मकता से, धरती पर आने वाले भूकंपों की कल्पना मजेदार है ! ईश्वर जिसे, जीव जंतुओं, मनुष्यों, परिंदों, वृक्षों के जीवन की चिंता थी, जो धरती को टिकाऊपन और निर्धारित लय युक्त जीवन देना चाहता था, जो धरती के सृजन, विन्यास और निर्मिति में प्रयुक्त अभियांत्रिकी के लिये पर्याप्त सचेत था, जिसे दिन, रात, और सांझ का ख्याल था, जो स्वर्ग को हर दिशा में विस्तारित और स्थिर देखना चाहता था, वो भला अपने परम सेवक, सभी निर्देशों का अनुपालन करने वाले अर्वाचीन सांप को भूखा मरने के लिये कैसे छोड़ देता ? अब ये ललमुंहे बंदरों पर निर्भर है कि, सांप सलामत रहे और...धरती भी !