गुरुवार, 27 जुलाई 2017

तिनकन से कछु होत है...

उस वृहत्काय स्त्री का नाम दस्किया था, जो नन्हें बच्चों की चोरी करती और उन्हें क्यील्यूट नदी की सहायक नदिका याकिलीस ले जाया करती, जहां वो चुराये हुए बच्चों को इकट्ठा करती और पका कर खा डालती ! इसके अलावा वो बड़े से अलाव में पत्थरों को गर्म करटी और बच्चों को दाग कर तकलीफ पहुंचाया करती, बच्चों को दागने से पहले दस्किया, उनकी पलकों में गोंद लगा देती ताकि बच्चे बंद आंखों से कुछ भी देख नहीं पायें ! 

एक दिन उसने कई बच्चों को पकड़ा और अलाव में पत्थरों को गर्म किया ताकि बच्चों को दुःख दिया जा सके, बच्चे अलाव के पास खड़े थे लेकिन गोंद के कारण बंद आंखों से उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था ! नन्हें बच्चों में, एक नन्ही लड़की भी थी जोकि दूसरे बच्चों से एक दो साल बड़ी रही होगी ! उस लड़की ने अपनी हथेलियों को रगड़ कर गर्म किया और पलकों में लगी हुई गोंद को पिघलाने का यत्न किया ताकि अपनी बंद आंखों को खोल सके और वो अपनी कोशिश में सफल भी हुई ! इस दौरान दस्किया, नाचते गाते हुए आग को तेजतर कर रही थी, जिससे कि पत्थर जल्द से जल्द तपने लगें !

नन्हीं लड़की ने आंख खुलते ही देखा कि दस्किया नाचने और गाने में व्यस्त है / मस्त है तो वो, दस्किया के ठीक सामने पहुंची और उसने धक्का देकर दस्किया को अग्निकुंड / अलाव में धकेल दिया, दस्किया तेजी से जलने लगी ! जल्द ही दस्किया पूरी तरह से जल गई ! इसके बाद लड़की ने अपनी हथेलियों को बार बार गर्म किया और एक एक करके सभी बच्चों की पलकों में लगी हुई गोंद पिघला दी ! सारे बच्चों ने अपनी आंखें खोलीं और सही सलामत अपने घरों में जा पहुंचे !

आदमखोर स्त्री और नन्हें नन्हें बच्चों की नन्ही सी ये गाथा, उन बच्चों में से एक, ज़रा सी बड़ी लड़की के विवेकवान निर्णयों का कथन करती है ! लड़की अपनी बंद पलकों को खोलने के बाद सबसे पहले अति-आत्मविश्वास का शिकार दस्किया को अग्नि कुंड में धकेल कर मार डालती है और उसके बाद शेष बच्चों की पलकों को खोलने का निर्णय लेती है ! उसके सारे निर्णय आत्म विश्वास से भरे हुए हैं, सब समय पर, बिना हड़बड़ाये, बिना घबराए हुए !

अगर इस आख्यान को सपाट बयानी के हिसाब से देखा जाए तो लगता है कि जैसे गांव वालों ने, बच्चों डराने के लिये यह कथा गढ़ी होगी ताकि बच्चे किसी अपरिचित पर विश्वास ना करें और घर वालों की निगाहों से कहीं दूर ना जायें ! बहरहाल लड़की अपेक्षाकृत अधिक उम्र की है सो सन्देश यह कि उम्र का बड़प्पन, अनुभव / ज्ञान देता है तथा प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ने का सामर्थ्य भी ! कुल मिलाकर बच्चों को बढ़ती आयु के प्रति सम्मानित दृष्टिकोण अपनाने जैसा सन्देश !

चूंकि इस कथा की खलनायिका एक महाकाय स्त्री है अतः उसका अंत एक नन्ही लड़की के हाथों करवाए जाने से प्रतीत होता है कि उक्त समाज में स्त्रियों प्रति विशेष दुराग्रह नहीं थे अन्यथा उस दुष्ट स्त्री के वध का आयोजन किसी बालक के हाथों भी करवाया जा सकता था ! यदि आख्यान में निहित प्रतीकात्मकता के अन्यान्य अर्थ खोजने का यत्न करें तो लगता है कि जैसे समाज के समक्ष मौजूद बड़ी से बड़ी समस्या / आपदा का निदान अथवा हल, किसी छोटे से उपाय के माध्यम से भी किया जा सकता है !

या फिर, कथा कहना चाहती है कि बंद आंखें, सांकेतिक अज्ञान हैं, जो संकट का कारण बन सकता है, जबकि खुली आंखें ज्ञान का प्रतीक हैं, जिनके सामने हर संकट छू मन्तर ! बहरहाल इस गाथा ने गहन आपदा के सामने एक तिनके को ला खड़ा किया है ! ध्यातव्य यह कि अंधेरों / अत्याचार के विरुद्ध लामबंदी / संगठित होने के अवसर ना हों तो भी, एक नन्हा सा प्रतिरोध भी कारगर हो सकता है ! कदाचित, तिनकन से कछु होत है, साहिब से सब नाहिं...के जैसा !