शनिवार, 26 अप्रैल 2014

चांद के कांधों टंगा सूरज का श्राप...!

उस दिन चंद्रमा, जोकि एक युवती थी और जिसका नाम काबेगात था, तांबे का बर्तन बनाने के लिये अपने आँगन में उकडूं बैठी हुई थी और अपने घुटनों के सामने मौजूद, मिट्टी की तरह से नर्म तथा लचीले, तांबे को थपकते हुए बड़े बर्तन जैसा आकार देने की कोशिश कर रही थी ! जब काबेगात अपने शिल्प का सृजन करने में तल्लीन थी, तभी सूर्य का पुत्र, छल छल वहां आया और ठहर कर उसके घड़वा कर्म को देखने लगा ! अनगढ़े बर्तन के अंदरूनी हिस्से में एक पत्थर को रख कर, वो उसके बाहरी हिस्से को लकड़ी के एक छोटे चप्पू से आहिस्ता आहिस्ता पीट रही थी ! अक्सर थोड़ा पानी डालते हुए बर्तन की बाहरी सतह को चिकना करती हुई, वो धीरे धीरे बर्तन की शक्ल बदलती जा रही थी !

युवती की हर थाप के साथ चिकने, बड़े और सुंदर होते जा रहे बर्तन की निर्मिति को छल छल बहुत ध्यान से देख रहा था ! वो बहुत देर तक यूंही खड़ा रहा ! अचानक काबेगात ने उस लड़के को वहां पर खड़े देखा, तो उसे लड़के की मौजूदगी बहुत बुरी लगी और उसने फ़ौरन ही लकड़ी के उस चप्पू से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ! सूर्य उस समय वहां से बहुत दूर था,लेकिन जैसे ही उसे घटनाक्रम का पता चला, वह ज़ल्दी से ज़ल्दी मौक़ा-ए-वारदात पर पहुंचा और उसने लड़के का कटा हुआ सिर उसके धड़ से दोबारा जोड़ दिया, जिससे कि वह लड़का पुनः जीवित हो गया ! इसके बाद सूर्य ने चंद्रमा से कहा, तुमने मेरे पुत्र का सिर काट दिया, चूंकि तुमने ऐसा किया है, इसलिए आज के बाद से धरती में, मनुष्य एक दूसरे का सिर काट दिया करेंगे!

प्रथम दृष्टया यह कथा एक दम सपाट बयानी करती हुई लगती है, जैसेकि वो युवती किसी लड़के द्वारा अयाचित तरीके से उसे देखे जाने से क्रुद्ध हो गई हो और उसने लड़के को भावावेश में आकर तत्काल दंडित कर दिया हो ! बहरहाल कथा को अगर गौर से बांचा जाये तो पता चलता है कि युवती एक दक्ष शिल्पी है, उसके पास धातु के सुंदर बर्तनों को गढ़ने का हुनर है, नि:संदेह यह ज्ञान उसका अपना है / ये दक्षता उसकी अपनी है, अतः एक अभिजात्य परिवार के लड़के (सूर्य पुत्र) के द्वारा इस ज्ञान को बिना अनुमति हथिया लेने का संकट भी उसके सामने रहा होगा ! एक कुशल शिल्पी के रूप में उस युवती के अपने व्यावसायिक हित, बाजार, अपनी पूंजी अर्जन व्यवस्था रही होगी, ऐसे में कोई अनचाहा बाहरी हस्तक्षेप उसे स्वीकार्य भी नहीं होना चाहिये था !

संभव है कि सूर्य परिवार ,चंद्रमा के परिवार की तुलना में अधिक संपन्न रहा हो, जैसा कि प्रतीकात्मकता भी इस बात के संकेत देती है कि चंद्रमा के पास खुद की रौशनी भी नहीं है, इसलिए चन्द्रमा परिवार को सूर्य परिवार की पूंजी (?) का इस्तेमाल करते हुए भी, अपनी बौद्धिक संपदा / अपनी दक्षता पर अपना एकाधिकार बनाये रखना अत्यावश्यक लगता होगा ! इस स्थिति के बरक्स अगर चंद्रमा, सूर्य परिवार की पूंजी के बगैर ही व्यवसाय कर रही थी तो यह भी संभव है कि उसकी बौद्धिक संपदा / शिल्प दक्षता के छिन जाने / अगोपन हो जाने की स्थिति में उसके व्यावसायिक हितों को ज्यादा क्षति पहुँचती ! उसका पारिवारिक व्यवसाय संकट में पड़ जाता, उसके समक्ष आजीविका का संकट खड़ा हो जाता !

सूर्य पुत्र की मौजूदगी का समय, उसके निर्माण कार्य का समय है जबकि वह अपना कौशल खुल कर प्रकट कर रही है, कार्य के प्रति उसकी तल्लीनता के चलते उसे इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि कोई बाहरी व्यक्ति उसकी शिल्प निर्मिति की सारी प्रक्रिया को इतना गौर से देख रहा है ! प्रतीत होता है कि वह अपने ज्ञान के चोरी हो जाने जैसे अहसास से ही अत्यधिक क्षुब्ध हुई होगी और उसने लकड़ी का चप्पू, लड़के के सिर पर इतना जोर से मारा होगा कि वो बेसुध (मृतवत) गिर पड़ा होगा ! सामान्यतः लकड़ी के चप्पू से लड़के के सिर को धड़ से अलग कर देने और फिर सूर्य के द्वारा कटा हुआ सिर फिर से जोड़ देने की बात अत्यधिक अविश्वसनीय लगती है पर...भारतीय मिथकीय सन्दर्भ, तुलनात्मक रूप से इस कथन को रोचक बनाते हैं !

यह कथा शास्त्रीय नज़रिये से भले ही व्यवसायिक और बौद्धिक संपदा / शिल्पगत दक्षता से सम्बंधित लगती हो पर सपाट बयानी के हिसाब से इसे स्त्री विरोधी कथा माना जायेगा, जहां एक स्त्री, ज्ञान प्राप्त करने को आतुर / इच्छुक एक कमसिन युवक (पुरुष) को उक्त घटना क्रम में अपना पक्ष रखने का कोई मौका दिए बगैर मृत्यु दंड देती है ! वह क्रोधी प्रकृति की है, हिंसक है और हत्यारी भी ! उसके ही कारण से एक सामर्थ्यवान पुरुष (पिता सूर्य) को सम्पूर्ण मानव जाति को एक दूसरे का हत्यारा होने का श्राप देना पड़ा ! कहने का आशय यह है कि दुनिया में हिंसा जनित मृत्यु, जैसे अपराध यदि प्रचलन में आये तो केवल इसलिये कि एक स्त्री चंद्रमा ने सबसे पहले ये अपराध किया था !

ये आख्यान पिता सूर्य की भूमिका के साथ पर्याप्त न्याय करता दिखता है, किन्तु उसे, सारी धरती को एक अपराध कर्म के लिये अभिशप्त करने का कोई अधिकार नहीं था, उसका यह कृत्य उतना ही विवेकहीन माना जायेगा, जितना कि चंद्रमा द्वारा छल छल की हत्या करना ! यदि वह एक सामर्थ्यवान व्यक्ति या देवता है, जिसके कारण वह अपने मृत पुत्र को पुनः जीवित कर सका तो उसे, चंद्रमा को लांछित करने के लिये, चंद्रमा के कांधे पर एक आरोप स्थायी तौर पर रखते हुए,  पूरी धरती के मनुष्यों को किसी अपकर्म का दोषी / अभ्यासी नहीं बना देना चाहिये था ! पुत्र के जीवित होने के बाद उसकी निज क्षति का आंकड़ा शून्य शेष रह जाता है, अतः चन्द्रमा से, उसके स्त्री विद्वेषी और हीन व्यवहार में मनुष्यों का सम्मिलन कदापि उचित नहीं है !