उन
दिनों जबकि यह जग उपजा ही नहीं था तब , एक पाषाणवत अंडा मौजूद था ! परिपक्वता की
अवधि के उपरान्त एक दिन उस अंडे में से पान गु बाहर आया जो कि पर्वतों से अधिक
ऊंचा और समुद्रों से अधिक महाकाय था ! गौर तलब है कि , तब स्वर्ग और धरती एक दूसरे
में गुत्थमगुत्था / समाहित थे ! पान गु ने
धरती और स्वर्ग को अपनी पूरी शक्ति के साथ एक दूसरे से अलग कर दिया , जिसके कारण
से जोर की ध्वनि हुई ! उसे लगा कि धरती और स्वर्ग फिर से ना मिल जायें , सो वो
लंबे समय तक इन दोनों को अलग थलग किये हुए खड़ा रहा ! इसके बाद अपनी सम्पूर्ण / प्रचंड शक्ति का
प्रयोग कर चुकने के कारण मृत होकर गिर पड़ा !
उसके
मृदु रक्त से नदियां बनीं तथा लंबे केशों से लकड़ियां और उसकी देह से धरती का सारे
का सारा भूदृश्य (लैंड स्केप) ऊंचे पहाड़ , समतल मैदान , घाटियाँ वगैरह वगैरह
अस्तित्वमान हुए ! उसकी साँसों ने हवाओं और बादलों की शक्ल ले ली और इस तरह से यह
जग सृजित हुआ , फिर एक परी जिसका नाम नू वो था , जब धरती पर विचरण करने आई तो उसने
कहा , यह जग कितना नीरस है ! धरती की नीरसता दूर करने के ख्याल से नू वो , ने नदी
तट की गीली मिट्टी से एक मानव पुतले का निर्माण किया और उसमें खोखले नरकुल /
सरकंडे के माध्यम से प्राण फूंके !
अब
वो पुतला चल फिर सकता था और बातचीत भी कर सकता था , लेकिन वो नितांत अकेला था , अस्तु
परी ने उसकी सहचरी स्त्री के रूप में एक और मानव पुतले का निर्माण किया और उसमें भी
प्राण प्रतिष्ठित किये ! सृजन की इस प्रक्रिया के दौरान नू वो को लगा कि निज हाथों
से मानव सृजन एक थकाऊ प्रक्रिया है , अतः उसने चहुँ दिश कीचड़ बिखेर दिया , जिसके
फलस्वरूप अनेकों स्त्री और पुरुषों की निर्मिति हुई ! कालान्तर में ये सब लोग चतुर सुजान अथवा सरल
स्वभाव के प्राणियों की तरह सारी धरती पर व्याप्त हो गये !
चीनी
पृष्ठभूमि के इस लोक आख्यान के कई और विस्तारित संस्करण भी मौजूद हैं , किन्तु
आदिम जागतिक मन, सृष्टि के सृजन के विषय
में, क्या सोचता है ? को समझने के लिए कथा
का यह लघु संस्करण ही पर्याप्त है ! उस
समय, जबकि इस आख्यान को पहले पहल कहा गया होगा तब के , लोक जीवन में , नि:संदेह
नितांत अनक्षरता की परिस्थितियां व्यापित
रही होंगी ! इसके बावजूद धरती से आकाश की ओर मनुष्य के अपने प्राथमिक पर्यवेक्षण उसे
सुदूरस्थ ग्रहों के वर्तुलाकार होने का संज्ञान / अनुभूति दे गये होंगे !
जग
के जन्म से पूर्व , अंडाकार प्रारूप में अन्तर्निहित बीज / तत्वों ने समय पूरा होने
के बाद ना केवल स्वयं आकार लिया बल्कि धरती और स्वर्ग को पृथक करने वाली शक्ति का
कार्य भी किया ! इतना ही नहीं एक निश्चित समय सीमा के उपरान्त इन शक्तियों का क्षय
और उसके बाद इन तत्वों के रूपान्तरण / ट्रांसफार्मेशन बतौर ही जग की भू-दृश्यावलियां
गढ़ी गईं ! एक अदभुत परिकल्पना यह है कि अंडा यानि कि वर्तुलाकार प्रारूप , उसमें
अन्तर्निहित महाकाय जीवन , यानि कि शक्तियां / एलिमेंट्स / तत्व अथवा ऊर्जा जो
निरंतर रूपांतरण कर नव-स्वरुप / नव-आकार लेती रहीं !
अब
अगर गौर करें तो अंडें में निहित सारे एलिमेंट्स अपनी आरंभिक अवस्था में वैसे ही
गुत्थमगुत्था थे / उतने ही अनिश्चित थे
जैसे कि अपनी आरंभिक अवस्था में ब्रह्माण्ड में निहित ब्रह्माण्ड के निर्मायक तत्व ! एक निश्चित समय की पूर्णता और पारिस्थितिकीय कारणों से दोनों की टूटन / विस्फोट और
उसके बाद नव सृजन की कल्पना और रूपांतरण का साम्य चकित करता है ! नि:संदेह आदिम
जीवन की इस गाथा से इस तरह के संकेत मिलते हैं कि जैसे मनुष्य उस समय भी अपने
ब्रह्माण्ड के निर्माण की प्रक्रिया से परिचित ही रहा होगा या फिर उसके अनुभवों ने
घट रहे घटनाक्रम की सही सही दिशा / सही सूत्र पकड़ लिए थे !
मनुष्यों
को गीली मिट्टी से गढ़ने का उल्लेख अर्ध- धार्मिक और अर्ध- वैज्ञानिक प्रकृति का है
, एक परी के द्वारा मिट्टी से आदम का गढा जाना
अगर धार्मिकता के सन्दर्भ में स्वीकार किया जाए तो जल तत्व की मौजूदगी में मनुष्य
के जन्म के वैज्ञानिक पहलू / समझ को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता !
Antme waqayi ye samajh me nahi aata ki manav ka nirmaan kaise hua...bandarse hua? Kya eeshwar sachme hai?Duniya ek pahe-si lagne lagti hai...
जवाब देंहटाएंक्षमा जी,
हटाएंपहेली सी लगना , अच्छा कहा आपने !
विज्ञान,मनुष्य के विकास की एक कोषीय से बहुत कोषीय वाली,समझ /बोध देता है जिसमें जल का महत्वपूर्ण स्थान है इसके बरक्स धार्मिकता,ईश्वर द्वारा इंसान को मिट्टी से बनाये जाने की बात कहती है! महत्वपूर्ण बात ये है कि कथा के पात्र भले ही अनक्षर कालीन हों पर मनुष्य की उत्पत्ति को लेकर वे एक साथ दोनों बातें कहते हैं / संकेत देते हैं !
लोककथाओं की व्याख्या डार्विन के विकासवाद और श्रृष्टि के निर्माण की धार्मिक मान्यताओं को भी समझती हैं , कभी -कभी एक बिंदु पर धर्म और विज्ञानं एकमत हो जाते हैं , बस राहें अलग दिखती हैं .
जवाब देंहटाएंयदि लोककथाओं के जरिये इतना ज्ञान सुरक्षित रखा गया है तो वाकई पूर्वज अधिक प्रतिभाशाली थे :)
पूर्वजों को अधिक प्रतिभाशाली कहना तो शायद उचित नहीं होगा पर उनके बोध / उनकी समझ की फाउन्डेशन पर ही आज हमारा ज्ञान समृद्ध हुआ है ! उन्होंने मौखिक परम्पराओं में ज्ञान को समृद्ध किया / संचित रखा और हम लिखित परम्पराओं में ऐसा कर रहे है ! उनकी तुलना में हमारी संचयन क्षमता कहीं अधिक है ! कल को / आगत पीढियां ज्ञान समृद्धि के मामले में हमसे आगे होंगी तब हमारी चर्चा भी लोक कथाओं की तर्ज़ पर ही हुआ करेगी :) है ना :)
हटाएंसुन्दर.काश, प्रस्तुति इतनी संस्कृतनिष्ट न होती .
जवाब देंहटाएंभाई ,
हटाएंसोचा था/अक्सर सोचता हूं कि कुछ शब्दों का सरलीकरण करूं पर ऐसा हो नहीं पाता ,कुछ आदतें छुटाए नहीं छूटतीं ! बहरहाल आपकी सलाह हमेशा जेहन में रहती है जब भी अमल कर पाऊं !