अपना आंगन परिंदों का डेरा ! बेफिक्र चहकती , दाने चुनती चुगती , डालियों पर फुदकती चिड़ियां ! वो सब रात कहां गुज़ारती होंगी , कभी गौर नहीं किया ! शायद बागीचे के दरख्तों पर या फिर कहीं और ... बस एक गौरैया जो पिछले साल से लगातार घर के अंदर , सीढ़ियों के ऊपरी हिस्से की सबसे ऊंची खिड़की के पेलमेट की स्टील राड पर शब गुज़ारती है ! घर के दरवाज़े शाम को बंद होने से एन पहले वो अपने ठिये पर हाज़िर हो जाती है और हर सुबह , जब भी मैं दरवाज़े खोलता हूं , वो बाहर परवाज़ कर जाती है , फिर उसे दिन तमाम बाहर के परिंदों में से अलग से चीन्हना मुमकिन नहीं ! कभी दरवाजे खोलने में देरी हो तो वो हाल में तेज तेज पंख फड़फड़ाती हुई उड़ती और चीख-ओ- पुकार मचाती है और दरवाजा खोलते ही खुले आसमान में ये जा वो जा... !
आज सुबह लगा कि चाय पीने के बाद दरवाजे खोलने में कोई हर्ज़ नहीं सो अपने बेडरूम में ही बे-दूध , काली कड़क चाय हलक से नीचे उतार रहा था कि वो बेडरूम के अंदर दाखिल हुई और उसने कमरे के अंदर दो बार उड़ान भरी और बाहर हाल में चली गई ! कुछ सेकण्ड के बाद शायद उसे लगा कि मैंने उसे कोई तवज्जो नहीं दी है सो वो एक बार फिर से मेरे कमरे में दाखिल हुई और उसने अपने पंख तेज तेज फड़फड़ाये और फिर से कमरे के बाहर चली गई ! अब मुझे अहसास हुआ कि मुझसे गलती हुई है , मैं उठा और घर का दरवाजा खोलने के लिए चल पड़ा ! उसे इसी बात का इंतज़ार था ! दरवाज़ा खुलते ही उसने आकाश साध लिया और मैं सोच में पड़ गया कि हम ‘बे-जात’ लोग , एक दूसरे से बिल्कुल अलग , कद काठी , शक्ल-ओ-सूरत , रंग बू ...बस एक ‘भरोसे’ के सहारे कितनी आसानी से एक साथ ज़िन्दगी गुज़ार पा रहे हैं !
इधर एक छुटकू इंसान अपने घर मेहमान हुआ है , रिश्ते में देखूं तो मेरी अहलिया उसकी फूफी हुईं और इस नाते मैं उसका फूफा , उम्र , यही कोई डेढ़ बरस ! दो तकियों की ऊंचाई पर सिर रख , चित लेटे हुए अखबार पढ़ने का हुनर उसने मुझसे सीखा है , फर्क सिर्फ इतना कि जहां मैं खामोश रहकर अखबार बांचता हूं , वहीं वो हर्फों पर अपनी नन्ही अंगुलियों के इशारे के साथ , यूं बुदबुदाता है कि जैसे अखबार पढ़ना , कोई बच्चों का खेल हो और जिसे स्कूल जाए बिना भी खेला जा सकता है ! दूसरे आम बच्चों की तरह से खिलौने तोड़ना , चीजों को बेदर्दी से पटकना , उसकी खास काबिलियत में शुमार किये जाते हैं , सो उसे , उसकी खास फरमायश के मद्दे नज़र एक ढ़लती उम्र का अति शांत स्वभाव मोबाइल फोन मुहैय्या कराया गया है ताकि वक़्त बेवक्त वो जिससे चाहे बात कर सके ...
आज सुबह देखा कि उसका फोन , मेरे फोन के ठीक बाजू में , बिल्कुल मेरे ही फोन की तरह से एक फोन केस में सुरक्षित रखा हुआ है ! शायद उसे , मेरी अनुकृति होने , मुझसे सामाजिक दीक्षा ग्रहण करने , जैसे प्रभाव दिखलाने में मज़ा आ रहा हो ! वो शक्ल-ओ-सूरत और रंग रूप और स्वभाव में फिलहाल मुझसा नज़र आ रहा है , उस गौरैया की तुलना में वो ‘हम-जात’ है , मुझ जैसा आदम जाद ... पर बड़े होकर , वो मेरा हम ख्याल , हमदम , दोस्त बना रहे , ये ज़रुरी भी नहीं है ! एक परिंदे के मुकाबिले में उस ‘इंसान जात’ के मुझसे जीवन भर पटरी बैठाए रहने की संभावना , शायद हां हो या शायद नहीं भी ! कोई एक मुकम्मल तस्वीर नहीं , बस फिफ्टी फिफ्टी ! दोस्ती या दुश्मनी , सहमति या रंजिशों की हद से बाहर जाकर , असहमतियां !
ख्याल ये कि अगर हम , थोड़ा सा भरोसा , ज़रा सा स्पेस , एक दूसरे के हिस्से में डाल पायें तो , जात क्या... बे-जात क्या ? रंग क्या ... बे-रंग क्या ? अपनी ज़िन्दगी , कितनी सहल , कितनी स्मूथ , कितनी आसान कर लें ! ...या फिर तैयार हो जायें , दुश्वारियों , दुश्चिंताओं के दरम्यान , कभी भी आपस में मर कट कर खत्म हो जाने के लिए ... इतिहास के कूड़ेदान में फेंके जाने के लिए !
12 जनवरी 2013 10:17 pm
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अली सैयद साहब,
आपकी नई पोस्ट 'रंग क्या...बे-रंग क्या ?' से यहाँ आया हूँ... वहाँ तो टिप्पणी बक्सा बंद कर दिये आप... :(
कहना यह है कि "ख्याल ये कि अगर हम , थोड़ा सा भरोसा , ज़रा सा स्पेस , एक दूसरे के हिस्से में डाल पायें तो , जात क्या... बे-जात क्या ? रंग क्या ... बे-रंग क्या ? अपनी ज़िन्दगी , कितनी सहल , कितनी स्मूथ , कितनी आसान कर लें ! ...या फिर तैयार हो जायें , दुश्वारियों , दुश्चिंताओं के दरम्यान , कभी भी आपस में मर कट कर खत्म हो जाने के लिए ... इतिहास के कूड़ेदान में फेंके जाने के लिए ! "... बहुत अच्छा खयाल है, पर यह थोड़ा सा स्पेस ब्लॉग में भी रहना/होना चाहिये... एक खुले टीप-बक्से के रूप में... या नहीं... :)
प्रवीण शाह साहब ,
हटाएंखेद सहित !
दरअसल इन दिनों,समय की किल्लत बनी हुई है,सो लगा कि शायद मौके पर किसी टिप्पणी को प्रतिक्रिया ना दे पाऊं और फिर मित्रगण...बस इसी ख्याल से टिप्पणी बक्सा बंद किया था ! आपकी टिप्पणी पिछली पोस्ट से लाकर जस की तस चिपका दी है !
प्रवीण शाह जी को मान गये। उनकी टिप्पणी ने बंद बक्से का ढक्कन खोल दिया।
जवाब देंहटाएंमासूम एहसासों के साथ स्पेस जैसे गंभीर मुद्दे पर सोचने के लिए विवश करती पोस्ट है। इससे दिमाग के ढक्कन भी खुल जांय तो क्या बात हो! आज हर जगह इसी स्पेस की जरूरत है। यही गुम होता दिख रहा है। कमेंट बॉक्स खोलने के लिए धन्यवाद। यह ऐसी पोस्ट है जिसको जो भी पढ़ेगा कुछ लिखना चाहेगा। उत्तर देने के लिए परेशान न हों। निश्चिंत होकर व्यस्त रहें...
ज़रा सा स्पेस ...
जवाब देंहटाएंबस इसी में है सबसे बड़ी बात.
...अपने हिस्से की जगह सबके लिए हो और वह भी बगैर किसी मेहरबानी के !
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.सच ,जिस दिन ऐसा हो जायेगा,दुनिया कितनी खूबसूरत हो जाएगी !
अली सा.
जवाब देंहटाएंगौरैया की कहानी सुनते हुए ऐसा लगा जैसे डिस्कवरी चैनल पर आपकी कमेंटरी चल रही हो और परिंदा आपकी जुबान में अपनी बात कहने की कोशिश कर रहा हो.
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उस मासूम बच्चे की बात से ख़याल आया मेरे एक दोस्त का, जो एक पैर से लंगडाकर चलता था. उसका बड़ा बेटा बिलकुल तंदरुस्त था. मगर जब उसने चलना सीखा तो अपने बाप के नक्शेकदम पर चलते हुए लंगडाकर चलने लगा. बड़ी मुश्किल से उसकी आदत छुडाई गयी.
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और आखिर में आपका मेसेज... एक ज़रा सा स्पेस की दुहाई.. जहाँ पाँच गाँव और सुई की नोंक भर स्पेस के लिए पूरा खानदान मिट गया, वहाँ आज भी कुछ नहीं बदला. काश ऐसा हो, मगर आज भी वही कश-म-कश जारी है कि कोई मसीहा आये बताए कि पहल किसे करनी है..
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बुराई को पहला पत्थर मारने का सबक सिखाने से ज़्यादा आज इत्तेहाद का पहला कदम और मोहब्बत की खुली बाहें पसारने का सबक सिखाने की ज़रूरत है. और इस पहल का भी इमकान फिफ्टी-फिफ्टी ही दिखाई देते हैं!!
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सियासत नफरतों के ज़ख्म भरने ही नहीं देती,
जहाँ भरने पे आता है कि मक्खी बैठ जाती है!!
चिड़ियों का डेरा ! यहाँ तो एक भी देखने को नहीं मिलती । शायद स्पेस ज्यादा हो गई है। :)
जवाब देंहटाएंलेकिन सही कहा -- पारस्परिक विश्वास ही मानव जाति में सदभावना बनाये रख सकता है।
ये तो ललित निबन्ध सा लगा
जवाब देंहटाएंस्पेस और स्पेसिंग दोनों की अहमियत है.
जवाब देंहटाएंकाफी लंबा समय हो गया कोई पोस्ट डाले....?????
जवाब देंहटाएंजी,कामकाज भी ज़रुरी है! हालांकि अभी पिछले हफ्ते में नई पोस्ट डालीं थीं देखियेगा !
हटाएंभरोसे की गाड़ी स्पेस के साथ बेहतरीन सफर तय करती है।
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