बुधवार, 18 जुलाई 2012

कहन की माप...!

पिछली पोस्ट पर संतोष जी ने प्रतिक्रिया दी कि ‘आपकी हर कथा गौण ही हो जाती है , मीमांसा के आगे...’ उनकी प्रतिक्रिया पढ़कर किंचित आश्चर्य हुआ और उत्तर में उनसे कहा कि कथा में जिस बात की संभावना निहित ही ना हो तो मैं उसे कैसे कह पाऊँगा ? आशय यह कि कथा के दम पे ही अपना भी दमखम है ! फिर सोचा कि उन्हें यह गलतफहमी क्यों हुई कि सूचना स्रोत कभी भी गौण हो सकता है ? भले ही उसकी व्याख्या करते हुए कोई कुछ भी कह डाले ! क्या यह संभव है कि कोई बंदा मूल स्रोत में निहित संभावनाओं से इतर भी व्याख्या कर सकता है ? या फिर व्याख्या मूल स्रोत की अहमियत कम करने का कारण हो सकती है ? शायद सामाजिकता की विषय वस्तु के विश्लेषण को लेकर उनकी अनभिज्ञता के कारण उन्होंने ऐसा वक्तव्य दिया हो , मानकर ये पोस्ट लिखने का ख्याल आया है , जिसमें एक छोटे से सूचना स्रोत की पैमाइश / नाप जोख किये जाने की मिसाल दिये जाने का ख्याल ज़ोर मार रहा है ! हालांकि वे केवल व्याख्या पर आश्चर्य कर रहे थे , पर इरादा उन्हें यह बतलाने का है कि वक्तव्यों की पैमाइश भी की जा सकती है !

वर्षों पहले मैंने अपने छात्रों से पूछा कि क्या वे स्नातकोत्तर उपाधि के पंचम प्रश्न पत्र बतौर यह आंशिक शोध करना चाहेंगे कि वर के चयन में लड़कियों की भूमिका / हैसियत फिलहाल क्या मायने रखती है , क्योंकि पिछले जमाने में ब्याह किये जाते वक़्त लड़की की हैसियत / उसकी सुंदरता / उसकी गुण सम्पन्नता को ध्यान में रखे बगैर उसे किसी भी अंधे / काने / लंगड़े / लूले वर से ब्याह दिया जाता था , यानि कि लड़के की हैसियत के सामने लड़की की कोई बिसात ना थी , उसे घर पर बोझ / कुछ दिन की मेहमान मानकर ससुराल विदा करना अभिभावकों का परम कर्तव्य हुआ करता था ! मेरा ख्याल था कि समय के साथ इस प्रवृत्ति में बदलाव ज़रूर आया होगा और लड़कियों के गुण , वर बतौर लड़कों के चुने जाने को तय करने का आधार बनने लगे होंगे !  मैंने छात्रों को इसी बदलाव को मापने की कवायद सौंपने का निश्चय किया तो उन्हें यह भय हुआ कि वे लड़कियों के अभिभावकों से संपर्क करने और सूचनायें एकत्रित करने के लिए कहां भटकते फिरेंगे ? मैंने कहा पूरे देश की विवाह योग्य लड़कियों के अभिभावक हमारे घर आते हैं ,  हम उनसे अपने घर पर ही सूचनायें प्राप्त करेंगे !

छात्र हैरान हुए ? तो मैंने कहा कि , हम वैवाहिक विज्ञापनों के माध्यम से अभिभावकों से सूचनायें प्राप्त करेंगे और बदलाव को नापेंगे ! अब छात्रों को आशंका हुई कि , वैवाहिक विज्ञापन तो वक्तव्य की शक्ल में होते हैं , तो फिर उन्हें कैसे मापा जाएगा ?...खैर डरते सहमते छात्रों ने वैवाहिक विज्ञापनों को मेरे कहे अनुसार सैम्पल बतौर छांटा और अपने अपने काम में जुट गये ! मैंने उनसे कहा कि अखबार वर्गीकृत विज्ञापन छापते हैं , तो इसका मतलब ये हुआ कि ब्राह्मणों / कायस्थों / वणिकों की तर्ज़ पर सभी जातियों और धर्मों के अभिभावक अपनी पुत्रियों के लिए वर का चुनाव करने के लिए , अखबार के कुछ वर्ग सेंटीमीटर के एक कालम में अपनी भावनायें , अपनी शर्तें, अपनी आकांक्षायें उड़ेल कर रख देते हैं ,  इसलिये सबसे पहले हम यह मानकर चलेंगे कि ब्राह्मण के वर्गीकृत विज्ञापन के अंतर्गत जो भी विज्ञापन छपे होंगे उन्हें ब्राह्मण वर ही चाहिये होगा , यह एक सामान्य दशा होगी और हमें इन विज्ञापन कथनों में से वे गुण पहचानने हैं , जो लड़की / भावी वधु के हैं और वे जो लड़के / भावी वर में चाहे गये हैं !

मसलन लड़की अगर कान्यकुब्ज / सरयूपारी ब्राह्मण है अथवा मैथिल या तमिल ब्राह्मण तो फिर उससे दो बातें स्पष्ट होंगी , एक वर्ण / जाति और दूसरा स्थानीयता ! इसी तरह से लड़की की आयु , उसकी आय , उसके परिवार की आय , उसका व्यवसाय , उसके परिवार का व्यवसाय , उसकी शिक्षा , उसकी पारिवारिक संस्थिति , उसका कद , उसका रंग , सौंदर्य और गृह कार्य में दक्ष होने संबंधी विवरण और उसका राशिगत विवरण भी मौजूद होना चाहिये , यहां तक कि लड़की अगर अविवाहित / विधवा / परित्यक्ता है तो वो भी ! लड़की के पिता शीघ्र और उत्तम विवाह करना चाहे तो , जाति / उपजाति / उच्च जाति बंधन में छूट देना चाहे तो , यह सारी सूचनायें , इस छोटे से विज्ञापन में मौजूद होंगी !  अब हम भावी वधु की हैसियत और गुणों को ध्यान में रखकर , विज्ञापन को फिर से देखें तो उसमें साफ तौर पर दर्ज होगा कि इंजीनियर / डाक्टर / राजपत्रित अधिकारी बतौर अथवा मल्टीनेशनल कम्पनी में कार्यरत लड़की के लिए इसी स्तर का वर चाहिये होगा !  लड़की का कद , उसकी आयु , उसका गौर वर्ण , उसका परिवार , उसके भावी वर के इन्हीं गुणों को सुनिश्चित करेगा ! 

अगर वधु का पिता शीघ्र और उत्तम विवाह का संकेत दे तो इसे भरपूर दहेज देने का संकेत माना जाये ! शिक्षा बनाम शिक्षा , मंगली बनाम मंगली , जाति बनाम जाति ! अगर हम ऐसे सौ या अधिक विज्ञापनों को लें जो पूरे देश के ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व करते हों तो हमें इन विज्ञापनों में भावी वधु के गुणों के आधार पर वांछित भावी वर के गुणों को गिनने में आसानी हो जायेगी और हम भावी वर के चयन को प्रभावित करने में भावी वधु के गुणों के महत्त्व को बाकायदा सांख्यकीय विधियों से नाप पायेंगे और जान पायेंगे कि भावी वधु की हैसियत क्या है ? यानि कि वर के चयन में लड़की की हैसियत में बदलाव का पक्का माप हम कर सकते हैं ! कोई आश्चर्य नहीं कि , कुछ ही दिनों में जब छात्रों ने अपनी रिपोर्ट्स पूरी कीं , तो उनमें एक गौरव की अनुभूति थी कि वे कहन को भी माप सकते हैं ! गुण को गिनती में बदल सकते हैं और छोटे से स्रोत से बड़ी सी यथार्थपरक रिपोर्ट तैयार कर सकते हैं ! जिसके स्रोत विज्ञापनों के तौर पर मौजूद हैं , अतः उनकी विश्वसनीयता को कोई चुनौती भी नहीं दे सकता !

35 टिप्‍पणियां:

  1. mai to aapke bhasha saundary ke liye adhiktar aapka lekhan padhti hun!Shayad kuchh seekh hun!

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  2. अली साब ,आपकी कहन की माप कम से कम मेरे सामर्थ्य में नहीं है.वह टिप्पणी भी सकारात्मक रूप में इसलिए थी कि आपकी मीमांसा छोटी-सी कथा से कितना विस्तार ले लेती है.बहुत संभव है उसके इस फैलाव की कल्पना कथा-सर्जकों ने भी न की होगी.यह विशद-विवेचन विद्वानों के वश का ही है कि वे एक छोटे-से सूत्र को पाकर उलझी ग्रंथि को सुलझा सकें.आप निश्चित ही इस कला में निष्णात हैं.

    ...कहन की माप का भी आइडिया ज़बरदस्त है.

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    1. आपकी टिप्पणी की सकारात्मकता के आधार पर ही यह पोस्ट लिखने की हिम्मत हुई वर्ना काफी दिनों से जेहन में थी पर लिखी नहीं :)

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  3. @अगर हम ऐसे सौ या अधिक विज्ञापनों को लें जो पूरे देश के ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व करते हों तो हमें इन विज्ञापनों में भावी वधु के गुणों के आधार पर वांछित भावी वर के गुणों को गिनने में आसानी हो जायेगी और हम भावी वर के चयन को प्रभावित करने में भावी वधु के गुणों के महत्त्व को बाकायदा सांख्यकीय विधियों से नाप पायेंगे और जान पायेंगे कि भावी वधु की हैसियत क्या है ?

    जी हाँ, लेकिन केवल विज्ञापनदाता वर्ग में। ऐसे मार्ग से मापन करते समय यह भी ध्यान में रखना और बताना पड़ेगा कि देश का एक बड़ा वर्ग अखबारी विज्ञापन द्वारा विवाह नहीं करता और एक बड़ा वर्ग ..., और एक बड़ा वर्ग ...

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    1. प्रतिक्रिया के लिए आभार,

      नि:संदेह, आपका ये कहना सही है कि किये गये काम का सम्बंध उसी वर्ग से होगा, जिसमें वह किया गया है ! यानि कि सैम्पल्स जिस जनसँख्या समूह से लिए गये हैं, निष्कर्ष भी उसी के बारे में होंगे, यहां उल्लेख वर्गीकृत विज्ञापनों का है सो निष्कर्ष भी उसी के हुए !

      प्रविष्टि मूलतः 'कहन की माप' के विषय में है सो पूरी जनसँख्या के सभी संस्तरित हिस्सों / उपवर्गों का हवाला देना और उनमें काम के अलग अलग तरीके बताना उचित नहीं लगा !

      वैसे किसी ज़माने में बड़े से बड़ा क्या, पूरे का पूरा समाज ही विज्ञापनों के माध्यम से संबंध नहीं बनाता था सो विज्ञापनों को भी बदलाव माना जायेगा :)

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    2. @ 'कहन की माप' के विषय में:

      आपके आश्चर्य पर आश्चर्य तो नहीं हुआ लेकिन यूँ ही ध्यान आया कि
      1. इन्द्रधनुष के रंगों में से सामान्य दृष्टि वाले को सभी, कलर-ब्लाइंड को कुछ, जन्मान्ध और बाद में दृष्टि खोने वाले को कुछ और ही दिखेगा।
      - जो है उसे न देख पाना

      2. शॉर्टवेव रेडियो सुना हो तो याद होगा कि उसमें हम वे आवाज़ें भी सुनते थे जो मूल प्रसारण में होती ही नहीं थीं।
      - जो नहीं है वह सुनना

      3. डॉ ज़ाकिर नायक गीता-वेद में बुतशिकनी ढूंढ पाते हैं, बल्कि सच कहूँ तो उन ग्रंथों की आत्मा नकारकर केवल बुतशिकनी ही देख पाते हैं।
      - जो है उसका विलोम देखना
      और दिखाना

      कथा भले ही रचनाकार की हो, मीमांसा तो हमारी ही होती है, अर्थ हम ही गढते हैं, अपने-अपने तरीके से। और शायद आम लोग यह सब अक्सर करते हैं, कुछ जानकर, कुछ अनजाने में।

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    3. (१)
      जब बात मैंने अपनी की तो उसे अपने तक ही सीमित रखना चाहूँगा ! मैंने वो कहा जो मुझे दिखता है ! बेशक कोई तथ्य मेरी दृष्टि से बाहर भी हो सकता है !

      मुझे किसी अन्य व्यक्ति के दृष्टिकोण और उसके देख पाने या ना देख पाने अथवा कम और ज्यादा देख पाने की क्षमता पर टीप उचित नहीं लगती !

      (२)
      हां, सीमेन्टिक या मैकेनिकल नोइज द्वारा मूल सन्देश को विकृत करने के खतरे से मैं परिचित हूं !

      (३)
      मैं डा. ज़ाकिर नायक के प्रवचनों को नहीं सुनता , इसलिए कोई कमेन्ट नहीं करूंगा ! उन्हें जो सुनते हों वे ही उन्हें बेहतर जाने !

      कुछ रचनायें किसी एक रचनाकार की नहीं भी होती हैं ! गुज़री शताब्दियों में उनमें , रचनाकार के नाम से , जोड़ा घटाया जाता रहता है ऐसे में किसी भी रचना की व्याख्यायें भिन्न हो सकती हैं ! मसलन कुछ लोग सीमेन्टिक नोइज / मेकेनिकल नोइज जोड़कर व्याख्या कर लेते होंगे तो कुछ लोग उन्हें हटा कर भी !

      बहरहाल इस बात से सहमत कि दृष्टिकोण अपना अपना अर्थ अपने अपने ! मेरे लिए सिर्फ इतना कि मैं अपने वैषयिक अनुशासन का ख्याल रखता हूं ! हो सकता है कि वह दूसरों को मुफीद ना भी लगे !

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    4. जी, सहमत हूँ। रचनाकार से मेरा अभिप्राय भी सम्मिलित रूप से सभी योगदानकर्ताओं/वक्ताओं से था। सीमायें हम सभी की हैं। इसीलिये टिप्पणियों का यह खूबसूरत वैविध्य दिखता है। विमर्श का अवसर देने का आभार!

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  4. इन विज्ञापनो से एक वर्ग(जो विज्ञापन देते हैं)के कहन की माप तो की ही जा सकती है। शेष के बारे में भी अनुमान लगाया जा सकता है। लेकिन यह गलत भी हो सकता है। सामाजिक विचारों के शोध का सुंदर तरीका। अब तो अंतर्जाल से विज्ञापनों को ढूँढना और भी आसान होगा।

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  5. लोक कथाओं का अंदाजे-बयां सहज सा होता है और उनकी व्‍याख्‍या अक्‍सर बौद्धिक(intellectual), ऐसा शायद इसी वजह से है.

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    1. संभव है ऐसा ही हो या शायद नहीं भी,पक्का कहना मुश्किल है !

      हालांकि लघु कथाओं की व्याख्या अब तक विवरणात्मक / वर्णनात्मक ही है लेकिन कभी उनमें भी ये तरीका अख्तियार करके देखेंगे !

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  6. देवेन्द्र जी,
    सामान्यतः अध्ययन में शामिल किये गये वर्ग के अलावा शेष के बारे में निष्कर्ष नहीं निकाले जाते! उनके बारे में तभी निष्कर्ष निकाले जायेंगे जब उन्हें अध्ययन में शामिल किया जाये!

    अनुमानों का सम्बंध अध्ययन के पूर्व की स्थिति से है अध्ययन के बाद या तो वे स्वीकृत हो जाते हैं या अस्वीकृत !

    अब मुद्दे की एक बात, केवल विज्ञापन ही नहीं बल्कि आपकी कहन माने आपकी टिप्पणी या आपकी पोस्ट, इसी तर्ज़ पर मेरी कहन, दूसरों की कहन की भी नाप जोख मुमकिन है :)

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  7. कैसे कैसे अध्ययन कैसी कैसी तकनीकें -क्या कहने!

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    1. अरविन्द जी आपको धन्यवाद कहूं तो औपचारिकता मान लिया जाएगा :)

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  8. इतंजार करते हैं कि लोक आख्यान , कहन की माप के साथ टिप्पणियों की माप भी पढने को मिलेगी :)
    रोचक!

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    1. वाणी जी,
      ये सब एजेंडा में है तो सही पर समय साधने वाला काम है देखें कब हत्थे चढ़ेगा :)

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  9. mat-sahab ka abhar ke unki pratikriya se ye post 'kahan ki map' hamare madhya hai...

    nisandeh aap mimansha karne me nishant hain....


    pranam.

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    1. सञ्जय जी ,
      मास्साब के लिए हमारा भी धन्यवाद :)

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  10. वधु/वरों की अपेक्षाओं को नापने के लिए विज्ञापनों को तवज्जो देना एक अभिनव प्रयोग ही मानूंगा. एक समय था जब वैवाहिक विज्ञापनों के प्रति लोग शंकालु हुआ करते थे.

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    1. आदरणीय सुब्रमनियन जी,
      शुक्रिया !
      दुनिया नाई के पहुंच से बाहर हो चली है सो इन विज्ञापनों के सिवा विकल्प ही क्या है :)

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  11. अख़बारों के विज्ञापन कई बार सच्चाई को नहीं दर्शाते . ऐसे में इस अध्ययन से कहन की माप त्रुटिपूर्ण हो सकती है . लेकिन बेशक , अध्ययन तो किया ही जा सकता है .
    छोटी सी बात को इतना विस्तार देने की आपकी कला लाज़वाब है . :)

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    1. डाक्टर साहब,
      अगर सूचना स्रोत ही गड़बड़ है तो फिर माप की टेक्नीक क्या कर सकती है :)

      वैसे स्टेंडर्ड इरर तो हर अध्ययन में अलाउड होती है :)

      इस बार बात, विस्तार से कहीं ज्यादा, क्वालिटी को क्वांटिटी में बदलने से ताल्लुक रखती है :)

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  12. jo pahle tha vah ab bhi hai bas thodi soch hi aadhunik hui hai aur koi ullekhniy parivartan nahi aaya hai.sarthak post.

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    1. शालिनी जी ,
      धन्यवाद,
      बदलाव 'कम' ही सही पर हुआ तो है, आपको नहीं लगता कि उपजाति/जाति बंधन की छूट और पुनर्विवाह की गुंजायश, बदलाव है ? और सबसे बड़ा बदलाव तो ये है कि लड़की के गुण, लड़के के चयन को प्रभावित करने लगे हैं जबकि पहले हालात इसके उलट थे !

      आपके हिसाब वाले 'उल्लेखनीय' परिवर्तन में समय लगेगा क्योंकि सामाजिक बदलाव सुदीर्घ अवधि में ही हो सकते हैं तब तक बदलाव के ट्रेंड / प्रवृत्ति को देख कर सकारात्मकता की अनुभूति कीजिये !

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  13. बहुत रोचक आकलन रहा...और सचमुच पता चल गया...कि कहन की भी माप की जा सकती है और छोटे से स्रोत से बड़ी सी यथार्थपरक रिपोर्ट तैयार की जा सकती है.

    आपके इन वाक्यों "क्योंकि पिछले जमाने में ब्याह किये जाते वक़्त लड़की की हैसियत / उसकी सुंदरता / उसकी गुण सम्पन्नता को ध्यान में रखे बगैर उसे किसी भी अंधे / काने / लंगड़े / लूले वर से ब्याह दिया जाता था "
    को पढ़कर विनीत कुमार की पोस्ट याद आ गयी...हालाँकि प्रसंग अलग है पर छत्तीसगढ़ और बिहार के एक गाँव की स्थिति एक सी ही थी..."अरेंज मैरिज का चलन ऐसा जिसमें फूल जैसी दीदी, मासूम,निर्दोष लेकिन पढ़ी-लिखी तेजतर्रार दीदी का पल्लू उमरदराज, आगे के उड़े हुए बाल, एक पैर से भटक कर चलनेवाला, एक आंख से तिरछी देखनेवाला, थुलथुल मोटे और इन सबसे कहीं ज्यादा हैवान के साथ बांध दिया जाता. "

    उस पोस्ट का लिंक
    http://www.jankipul.com/2012/07/blog-post_1082.html

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  14. इसमे कोई शक नहीं है की कहने को माप सकते है | आप ने अपनी सोच और नजरिये से ये मापन किया है किन्तु मेरी राय में ऐसे मापन में ये भी देखा जाना चाहिए की आप नमूना कहा से और कैसा ले रहे है , जिस समाज में हम रहते है वहा पर तो अखबारों में विज्ञापन देना भी आधुनिक होना है, तो ये आधुनिकता ( थोड़ी ही सही ) उनके अपने लड़की के लिए वर भी खोजने में दिखाई देंगे , इस कारण हम समाज में जमीनी रूप में कितने बदलाव और किस मात्र में हो रहे है पता नहीं कर पाएंगे क्योकि इन नमूनों में वो बड़ा वर्ग छुट जायेगा जो आज भी परम्परागत तरीके से वर खोजते है , क्योकि वो तरीका थका देने वाला होता है और अच्छे वर की तलाश में निकाल पिता अंत में परेशान हो कर, रिश्तेदारों के दबाव और बेटी की निकलती उम्र के दबाव में वही बेमेल विवाह कर देता है | यानी शुरुआत तो अच्छी ही होती है किन्तु उसका परिणाम अंत में अच्छा हो ये जरुरी नहीं है , ये बात अखबारी विज्ञापनों पर भी लागु होती है |

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    1. अंशुमाला जी ,
      सबसे पहले एक बात फिर से कह दूं कि कम ही सही पर विज्ञापन अपने आप में बदलाव के संकेत हैं!

      इसके आगे कहना ये है कि ये तो एक नमूना है कि काम किस तरह से किया जा सकता है ! अगर किसी बड़े लेबल पे काम किया जाना हो तो समाज के हर तबके को शामिल करके भी काम किया जा सकता है पर याद रहे कि हर तबके पर एक ही टेक्नीक से काम करना संभव नहीं हुआ करता ! मसलन आप इंटरव्यू करके ये काम करना चाहें तो असम से गुजरात और कन्याकुमारी से काश्मीर के अभिभावकों से मिलने जुलने में लगने वाला समय / श्रम ? तब तक कितना पानी बह जाएगा गंगा में :) इसीलिए निवेदन ये है कि हम समाज के हर तबके के साथ काम कर सकते हैं अगर टीम बड़ी हो तो !

      पूरे समाज के अध्ययनों में हम विविधता वाले जनसंख्या समूहों को संस्तरित समूह कहते हैं और फिर सभी समूहों से प्रतिनिधि / सैम्पल /नमूने लेते हैं ! यहां 'उस' संस्तर के बारे में कहा गया है जो नाई को छोड़ कर विज्ञापनों पर भरोसा कर रहा है इसलिये अपना दावा केवल इसी समूह के लिए है ! अगर पूरे समाज के लिए काम करेंगे तो अलग अलग टेक्नीक और बड़ी टीम के बिना काम संभव नहीं होगा ! जैसा कि मैंने पहले ही कहा है कि आलेख का उद्देश्य यह बताना है कि कहन को मापा जा सकता है तो फिर आलेख में लिए गये समूह /नमूने के बाहर की जनसँख्या के बारे में ये निष्कर्ष नहीं देखे जाने चाहिये!

      मेरे कहने का आशय ये है कि परम्परागत तरीके से विवाह करने वालों पर भी अध्ययन किये जा सकते हैं पर हमने फिलहाल ऐसा नहीं किया है क्योंकि अकेले हमारी सामर्थ्य / औकात भी नहीं है :)

      हमने बदलाव के प्रतीक समूह / सहजता से उपलब्ध समूह को टारगेट करके, केवल यह बतलाया है कि कहन को मापा जा सकता है ! आपकी तसल्ली के लिए सिर्फ इतना कहना है कि अगर संसाधन हों तो समाज के हर तबके का विस्तृत अध्ययन किया जा सकता है , बस टेक्नीक बदलना पड़ेंगी काम कोई भी असंभव नहीं है !

      और अंतिम बात ये कि हमारा समाज इतना जटिल / इतना विषम / इतना विविधतापूर्ण होता है कि हम खुद भी एक टुकड़े के सत्य को सारे समाज पर आरोपित नहीं करते हैं ! विज्ञानों की तर्ज़ पर हमारा सत्य सार्वभौमिक सत्य नहीं हुआ करता ! हमारा सत्य स्थानीय और संबंधित समूह तक सीमित हुआ करता है ! और हम ऐसे कई टुकड़ों पर एक साथ काम करके अपेक्षाकृत बड़ा सत्य पा सकते हैं बेशक ! उम्मीद करता हूं कि आप मेरा आशय समझ गई होंगी !

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    2. अली जी
      मैंने पहले ही लिखा दिया था |
      @ आप ने अपनी सोच और नजरिये से ये मापन किया है |
      निश्चित रूप से आप ने मापन करने से पहले अपने उद्देश्य निर्धारित किये थे और उसी हिसाब से काम किया था मैंने उस पर कोई सवाल नहीं उठाया है | मैंने तो मात्र एक बात कही थी ऐसे अन्य रिसर्च के सिलसिले में ( जो बड़े रूप में होने के और समाज के बदलावों के बारे में दावे करते है ) चुकि आप ने उदाहरन दिया था तो मैंने उसे ही ले लिया अपनी बात कहने के लिए | शायद अब मुझे अपनी टिप्पणिया और ध्यान से देनी चाहिए :)

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    3. नहीं , आपने कुछ गलत नहीं कहा :)

      मैं ही डरने लगा कि मैं तो कहन की माप के बारे में कहना चाह रहा हूं और मित्र लोग मुझे ब्याह की सम्पूर्ण माप की ओर धकेल दे रहे हैं :)

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