गुरुवार, 12 जनवरी 2012

पहले उसने कहा फिर मैंने !

इंसानों के दरम्यान अपनी भाषा के सौंदर्य / माधुर्य और दीगर समूहों की भाषा के कथित असौंदर्य / खुरदरेपन को लेकर होने वाले बहस-ओ-मुबाहिसे के अवसरों के समानांतर अक्सर ये ख्याल आता कि अगर भाषा ना होती तो ?   सभ्यता और संस्कृति के विकास में भाषा की लगातार अपरिहार्य मौजूदगी के चलते अक्सर एक धारणा बनती और बिगड़ती है कि , अखिल ब्रह्मांड में किसी ईश्वर के होने या ना होने से इंसानों को क्या फर्क पड़ता ? ...और फिर ये कि इंसान क्या होता जो उसके साथ कोई भाषा ना होती तो  ? 

अब ये कल्पना करने में क्या हर्ज़ है कि , यदि डाक्टर अरविन्द मिश्र यू.पी. के बजाये तेलंगाना में अवतरित होकर तेलगु को अपनी मातृभाषा कहते और मैं खुद इसी तर्ज़ पर तमिल , डाक्टर दराल असमिया होते , फिर संतोष त्रिवेदी मणिपुरी और देवेन्द्र पाण्डेय काश्मीरी या डोगरी वापरते ,सुब्रमनियन जी बलोचिस्तान में पैदा होते तो ?  राहुल सिंह कुरुख बोलते तो कौन सी कयामत टूट पड़ती  !  संजीव तिवारी पश्तो और घुघूती बासूती स्पेनिश , रश्मि रविजा पंजाबी और वाणी गीत सिंधी बोलतीं तो कौन से पहाड़ ढह जाने वाले थे ! सरदार बी.एस.पाबला कन्नड़ होते और सलिल वर्मा जेस्मिन क्रांति के सूत्रधार होते ,सतीश सक्सेना रास गरबा खेल रहे होते तो ? यकीनन दुनिया तब भी वैसी ही चलती जैसी आज है और अगर कुछ बदलता तो वो है एक विशिष्ट संपर्क सूत्र के प्रति हमारा मोह / हमारा अपनत्व !

और भी कई ब्लागर मित्र हैं जिन्हें अलग अलग भाषाओँ में फिट करके देखने की ख्वाहिश तो है पर ऐसा करने से इस पोस्ट की उम्र अयाचित ही लंबी करने का खतरा मैं मोल नहीं लेना चाहता...खैर भाषावाद के खास खांचे में ढले बगैर और किन्ही खास लिपियों की पैरोकारी के बिना सिर्फ एक तर्क को आगे बढ़ाना चाहूंगा कि भाषा भली वो जो मनुष्यों को आपस में संवाद करने की सलाहियत दे , चाहे ध्वनियों में या फिर निःशब्द ही !  अपने इसी कथन के समर्थन में दो अलग अलग लिपि वाली भाषाओँ में संवाद /अभिव्यक्ति के उद्धरण पेश कर रहा हूं ...                                        

उसने कहा 
यहां उनके चित्र को देखते हुए सोच रहा हूं कि पार्श्व में हरियाली और पाषाण भित्ति ,नीचे एक खाली पात्र और नहाने योग्य स्थान के ठीक सामने कुर्सी पर ठाठदार अंदाज में फोटो खिंचवाने में उनके व्यक्तित्व के कितने ही रंग उजागर हो जाते हैं ! शर्ट का गहरा चटख नीला रंग , ब्ल्यू प्लेनेट के 'मूल पर आधिक्य' लिए हुए फिर उसपर श्वेत वर्ण पैंट का काम्बीनेशन थोड़ा सा 'शांति के सहअस्तित्व जैसा' और इसके साथ ही फाइबर कुर्सी का सिंहासननुमा इस्तेमाल जैसे साधारणपन की स्वीकार्यता के साथ एक ठाठपन ! चित्र में शारीरिक दुबलेपन को हाबी नहीं होने देने की झलक स्वयमेव स्पष्ट है ! आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए जो उन्होंने सबसे आगे लगभग रक्तवर्णी पादुकाओं को प्रस्तुत किया हुआ है ! उनके स्याह केश और चश्में की मौजूदगी पर कोई वक्तव्य ना भी दूं तो पढ़े गये बाकी सारे रंग उन्हें उद्घाटित तो करते ही हैं !  कहने का आशय यह है कि उनके बारे में आपका अंदाज-ए बयां जो भी हो पर वे स्वयं भी अपने व्यक्तित्व को विविध रंगों और पाश्चर में उजागर करते हैं !
उसने कहा 
गहरी कृष्णवर्ण पृष्ठभूमि में निहित प्राइवेसी / गोपनीयता / अमुक्त अनिश्चित सत्य की तुलना में काव्य संकलन शीर्षक और कवि के नाम का धवलवर्णी प्राकट्य और रक्तवर्णी दो बिंदुओं का छोटा सा संयोजन कहता है कि कवि सायास ही ज्यादातर अव्यक्त (श्यामवर्ण) रहते हुए केवल दो रंगों की शब्द / रेखीय लघुता में नियोजित ढंग से प्रकट / अभिव्यक्त होता है ! अब ज़रा इसकी तुलना दूसरे पृष्ठ से करें जहां रंगों में अधिक वैविध्य नहीं है किन्तु पार्श्व के रंग के अनुपात में कवि स्वयं के रंगों को अधिक चटख / शोख तरीके से पेश करता है !  यदि आप दोनों पृष्ठों में तुलना करते हुए , शब्द और पार्श्व अनुपात तथा कवि स्वयं और उसके पार्श्व के अनुपात को देखें तो मेरे कथन की कदाचित पुष्टि ही होगी !

अब सवाल ये है कि क्या हममें से कोई भी बन्दा यह तय कर सकता है कि अभिव्यक्ति / संवाद के लिहाज़ से दोनों में से कौन सी लिपि श्रेष्ठ है और कौन सी भाषा ?

68 टिप्‍पणियां:

  1. Bahut badhiya! Aapkee bhaasha mujhe hamesha gazab impress kartee hai!

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  2. हमारी दुख्तरेनेक, सिन तेरह, स्पैनिश जुबान पर फ़िदा हैं (तालीमी लिहाज से नहीं, शौकिया)और अंगरेजी गानों की दीवानी हैं... मैं तो बस उस भाषा को पसंद करता हूँ जिसमें वैज्ञानिक बुद्धि की तरह जिस फ्रीक्वेंसी पर बात कही जाए, उसी फ्रीक्वेंसी पर रिसीवर तक पहुंचे... गोया कहने वाले ने जिससे कहा वही मुरारीलाल (बतर्ज हृषिकेश मुकर्जी-फिल्म आनंद)हो गया...
    आपने जो दोनों स्टेटमेंट दिए हैं उनकी लिपि तो देवनागरी है, लिहाजा श्रेष्ठ होने की बात ही नहीं.. और भाषा दिल तक पहुँचती है!!
    पुनश्च:: वैसे उस भाषा के बारे में क्या राय है.. जिसमें खामोशी को खामोशी से बात करने की बात कही गयी है..

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  3. भाषा की फ्रीक्वेंसी / ट्रांसमिशन से रिसीविंग एंड तक हूबहू हो , सहमत ! आपने शायद गौर नहीं किया , मेरे दोनों स्टेटमेन्ट्स की लिपि देवनागरी है पर 'उसने कहा' वाले दोनों स्टेटमेंट चित्रलिपि में हैं ! सो तुलना इन दोनों ( अक्षरलिपि बनाम चित्रलिपि ) के दरम्यान करने की फरमाइश है !
    खामोशी से ख़ामोशी वाली भाषा की भी अपनी लिपि होती है जो देह के कैनवास पर अभिव्यक्त होती है :)

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  4. मुझे तो दिल की भाषा से अच्छी भाषा और कोई नहीं लगती ...
    गरबा सिखाने के लिए आभार मगर....

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  5. यूँ ही याद आ गया कि गिरिजेश राव की किसी ताज़ा पोस्ट में ध्यान दिलाया गया था कि अक्षरलिपि के एक ही साधन स्याही और रोशनाई दोनों ही कहा जाता है। श्रेष्ठता की कसौटी देश, काल, उपयोगिता, सहजता आदि असंख्य अवयवों के आधार पर अपने आप ही निर्धारित होती है। जहाँ संस्कृत जैसी सर्व-सुसंस्कृत भाषा अपनी श्रेष्ठता के कारण औसत लोगों के हाथ से फिसल जाती है वहीं अमेरिकी आदिवासियों की अनेक भाषायें लिपि के अभाव में नष्ट हो जाती हैं। करम की गति न्यारी ...

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    1. भाषायें तभी लुप्त हो सकती हैं जब इंसान उनका प्रयोग करना त्याग दें ,यानि कि भाषाओँ का जीवन और उनकी सार्थकता मनुष्यता के उपयोग पर निर्भर है !
      असल में , मैं भाषाओं के संप्रेषणीयता साफल्य वाले मुद्दे को आधार बना कर उनकी पारस्परिक तुलनात्मक श्रेष्ठता और हीनता की बहस को निरर्थक कहने के पक्ष में खड़ा होना चाहता हूं !

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    2. और हां , स्याही और रौशनाई भी एक तरह से रंग ही हैं ! रंग जो अक्षर लिपि और चित्र लिपि दोनों को ही अभिव्यक्त करने का माध्यम हैं ! आप गौर करें तो देह भाषा की अभिव्यक्ति को भी अक्सर रंगकर्म कहा जाता है :)

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    3. उस विषय में मैं शायद आपकी ओर ही खड़ा हूँ। अंग्रेज़ी लिखते/पढते समय मुझे जैसी भाषा का विश्व-प्रतिनिधि बन जाना अक्सर आश्चर्य में डालता है। कौन जाने कभी अंग्रेज़ी में लिपि-सुधार आन्दोलन शुरू हो और व भाषा भी परिष्कृत होकर ग्रंथीय रह जाये। एक मित्र द्वारा विशिष्ट विषय पर भाषाई क्लिष्टता की बात चलने के बाद उस विषय के दो सामान्य प्राकृतिक घटनाओं के हिन्दी/उर्दू/... (मैथिली/भोजपुरी/संस्कृत/भारतीय ... जो मिलें) समानार्थी ढूंढ रहा था। गिरिजेश ने दो शब्द बताये हैं। प्रयोग करते पे डर रहा हूँ कि इस बार क्लिष्टता नहीं बल्कि अति-क्लिष्टता की स्थिति पैदा होने वाली है। इस बार अंग्रेज़ी शब्द भी प्रयोग नहीं कर सकता क्योंकि वे भी अप्रचलित ही हैं।

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    4. आभार !

      ( भाषाओँ का दुर्भाग्य है कि उनके चाहने वाले उनके परिष्कार के नाम पर अक्सर उनका गला घोंट देते हैं )

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  6. पहली बार जब मैंने पढ़ा कि संवाद संप्रेषण में भाषा का योगदान केवल 40 प्रतिशत होता है जबकि भाव-भंगिमाओं का 60 प्रतिशत तो मुझे आश्चर्य हुआ था पर आज आपकी पोस्ट पढ़ कर यह उक्ति पुन: सिद्ध होती पायी. चित्र स्वयं ही बहुत कुछ कहते हैं :)

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    1. यही तो मैं कह रहा हूं कि भाव भंगिमायें स्वयं एक भाषा हैं सो चित्र भी ! बतौर कार्टूनिस्ट इनका आपसे बेहतर इस्तेमाल कौन जानता है :)

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  7. इस दुनिया में संवाद की अनेकों भाषाएँ या कहिये माध्यम हैं.आँखों और प्यार की भाषा छोटे बच्चे यहाँ तक कि दूसरे गृह के प्राणी भी समझ लेते हैं,लेकिन इनकी अपनी सीमाएं हैं.
    अली साब ,आपने यहाँ मुख्यत चित्रलिपि और अक्षरलिपि की तुलना की है तो एक बात ज़रूर स्पष्ट लगती है कि अक्षर लिपि की भी अपनी सीमा है पर चित्र लिपि असीमित और व्यापकता लिए हुए होती है.चित्रलिपि को पढ़ने और पढ़वाने वाले की योग्यता पर बहुत कुछ निर्भर करता है.

    जो बात अक्षरलिपि नहीं समझा सकती,उसे चित्रलिपि बता सकती है और इसकी व्यापकता इस मायने में है कि इसे देश-देशांतर के लोग पढ़ लेते हैं.

    आपको चित्रलिपि को पढ़ने में इतनी कुशलता है तभी अक्षर लिपि भी गज़ब की बनती है. अब इसी से अर्थ लगा लिया जाये ...अक्षर लिपि और चित्र लिपि में क्या सम्बन्ध है !

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  8. किसी ने कहा है कि चिकित्‍सा विज्ञान मानव का अध्‍ययन शरीर मानकर, नृतत्‍वशास्‍त्र जीव की तरह और समाजशास्‍त्र उसके शरीरजीवी को ध्‍यान न देते हुए मानव को मनुष्‍य मानकर उसका अध्‍ययन करता है)
    मानव शास्‍त्री, आदमी को आदमी ही मानता है और बस आदमी का आदमी बनाए रखने को तुला रहता है...
    हे जीव!, हे मानव! आशय तो आपका ऐसा ही कुछ दिखता है...
    ...लेकिन अली सा'ब की पोस्‍ट है, परतें खुलते-खुलते खुलती हैं और कभी परतों पर परत जमा करती जाती है.

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    1. समानता / समता / एक होने / एक जैसा होने के तर्क खड़े करना मेरा प्रिय शगल / धुन या शायद सनक है :)


      ( सिंह साहब टिप्पणियों की नई व्यवस्था मुझे आक्रांत कर रही है इसमें टिप्पणियों की संख्या जनसंख्या वृद्धि की तरह बढ़ती है )

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    2. Spam check karne ke aapke sujhav ke liye bahut,bahut shukriya! Mujhe soojhta hee nahee!

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    3. शायद ब्लागर/गूगल की अपनी कुछ समस्यायें है ! दिन में एक बार स्पैम चेक करने की आदत डाल लीजिए !

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  9. पारखी दृष्टि.....कहते हैं अनुभूति की उच्चता में भाषा गौण हो रहती है ....मगर जिसे जहाँ पैदा होना है वह वहीं तो होगा ..अब मनुष्य अफ्रीका में क्यों जन्मा ...भारत में क्यों नहीं?कहीं कोई नियतिवाद कार्यरत है और वही सारे पचड़ों की ,लीलाओं की जड़ है .......भाषा तो भावना की चेरी है मित्र!

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    1. अनुभूति की उच्चता में भी एक परिष्कृत भाषा मौजूद हुआ करती है ! बहरहाल ये भावना कौन है :)

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  10. मेरे लिए चुनी भी तो सिन्धी भाषा , जिसका का ख ग भी नहीं आता मुझे!
    राजस्थानी भाषा भी इतनी प्रकार से बोली जाती है कि कई बार परिवार में ही खींच तान चलती है , हमारी नागौरी मीठी , तुम्हारी जयपुरी लट्ठमार!:)

    यहाँ जिक्र चित्रलिपि और अक्षरलिपि का है , कभी चित्र भाषा का असीमित विस्तार है तो कभी शब्द चित्र से परे भी बहुत कुछ समझाते हैं , जैसा आपने दोनों चित्रों को समझाया ! चित्रों को पढना भी हर किसी के लिए संभव नहीं है !

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    1. अब कोई मौक़ा आया तो आपके लिए मीठी वाली नागौरी चुन दूंगा :)

      चित्र लिपि को हर कोई नहीं पढ़ पाता ये बात सही है पर ये बात तो अक्षर लिपि वाली भाषा पर भी लागू होती है जैसे कि आपने सिंधी के लिए कहा :)

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    2. चित्रों को पढना भी ...भी पर गौर फ़रमाया जाए !

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    3. गौर तो फर्मा लिया था पर जबाब देने में कंजूसी हो गई :)

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  11. "दुबलेपन को हाबी नहीं होने देने की झलक स्वयमेव स्पष्ट है" यह तो ईर्षा है. वैसे मुझे तो इस्फाहान में पैदा होना था.

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  12. भाषा चाहे जो हो ....मुद्दा है सम्प्रेषण का!!
    भाषा एक माध्यम है ...वह ना सही ना सही ...कुछ और ही सही !!
    सब जानते हैं कि माध्यम से थोड़ी आसानी रहती है ...कई बार संचलन माध्यम के बगैर असंभव तो कई बार दूभर भी हो जाया करता है! अपनी समझ की भी सीमाएं हुआ करती हैं!!

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  13. भाषा के लिए सम्प्रेषण की सफलता ही अहम है बाकी अक्षर / लिपि / संकेत वगैरह वगैरह गौण माने जाएँ !

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  14. पोस्ट दुबारा पढ़ी...ये देखने के लिए कि क्या चीनी भाषा का भी जिक्र है....कहीं पढ़ा था....'चीनी ' लिपि में चित्रात्मकता की ही प्रधानता है...जैसे घर लिखना हो तो कुछ घर जैसा बनाते हैं...
    अक्षर लिपि से पहले निश्चय ही चित्रलिपि का ही प्रादुर्भाव हुआ होगा...और चीज़ों को आसान बनाने की मंशा ने अक्षरों को ईजाद किया होगा...लिपि कोई भी हो...सम्प्रेषण का ही महत्त्व है.

    यह तो व्यक्ति-विशेष पर निर्भर करता है कि वह किसी चित्र में या फिर लिखे हुए शब्दों के भीतर क्या क्या देख ले...वैसे एक आग्रह है...एक बार किसी abstract painting का भी विश्लेषण करें .

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    1. किसी नाम के सामने मंदरिन का जिक्र था तो सही पर कुछ सोच कर हटा दिया :)

      आपकी टीप से सहमत हूं सिवा इसके कि किसी abstract painting का भी विश्लेषण करूं :)

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  15. इसमें कोई शक नहीं कि हाव भाव / भाव भंगिमा का अपना महत्त्व होता है । इसी तरह रंगों की पसंद भी व्यक्ति विशेष की पहचान बताती है ।
    बस आप की तरह समझना ही सब के बस का नहीं होता । :)
    अभी तो हम भी समझने की ही कोशिश कर रहे हैं

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    1. डाक्टर दराल साहब ,
      अपने ब्लाग में सबसे ज्यादा इस जुबान ( चित्रलिपि आधारित भाषा ) का इस्तेमाल आप ही करते हैं :)

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    2. अली सा बात तो आपकी सही है ।
      लेकिन बात फिर वही है --कि समझना सब के बस की बात नहीं ।

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    3. कोशिश करें तो क्या नहीं हो सकता :)

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  16. अरे अली भाई , मोडरेशन क्यों लगा दिया । यह तो चीटिंग हुई । :)

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    1. माडरेशन तो बहुत पहले से लगा हुआ है , कहिये तो हटा दूं :)

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    2. बिलकुल हटा दो,अब काहे का परदा ?

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    3. ये लो जब हटा चुके तो कह रहे हैं कि बिलकुल हटा दो :)

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    4. परदे में रहने का अपना ही मज़ा है,
      सूरत जो दिख जाए तो,काहे की बेकरारी !!

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    5. अभी कहाँ हटा । नई नवेली दुल्हन की तरह और कस कर लगा दिया है ।

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    6. गड़बड़ ये हुई कि मैंने समझा अगर पुरानी पोस्ट में टिप्पणियाँ आई तो पता कैसे चलेगा , इस लिहाज़ से दो दिन बाद का माडरेशन चालू रखा अब मुझे क्या पता था कि आप इस पोस्ट पे दो दिन पूरा होने के बाद आइयेगा ! अब दो दिन की लिमिट को बढाकर पांच दिन कर देता हूं :)

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  17. पश्तो ... अहा, वही ना कि दुनियॉं में कहीं स्‍वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है वाली... :) :)


    पोस्‍ट और उस पर टीपे गए टिप्‍पणियों को पढ़ते हुए, किसी फिल्‍म का एक दृश्‍य कौंध रहा है एक बीमार मृत्‍यु शैया में है और दूसरे दृश्‍य पर एक दीया टिमटिमा रहा है.. बुझ गया.. और भी कई भले ही यह भाषा ना हो पर संदेश का प्रवाह तो था ही.. यह चाहे कोई भी चोला धरे पर भाषा ना होती तो जीवन ना होता..

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    1. आप तो ज्ञान के सागर आव संजीव भइया , जतके आपके टिप्पणी ल खोधियाथवं वोतके गहरा जथे , ये जानकारी बर घन्‍यवाद !

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    अब सवाल ये है कि क्या हममें से कोई भी बन्दा यह तय कर सकता है कि अभिव्यक्ति / संवाद के लिहाज़ से दोनों में से कौन सी लिपि श्रेष्ठ है और कौन सी भाषा ?

    मेरा जवाब होगा नहीं...

    और हम में से कोई बन्दा क्या सप्रयास अपने इच्छित तरीके से अभिव्यक्त हो सकता है अपने लिखे में या अपने खिंचाये चित्र में ही... छिपा सकता है खुद को, दिख-बन सकता है वह, जो वह नहीं है...

    यहाँ भी जवाब होगा नहीं...



    ...

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    1. आपकी टीप के पहले हिस्से से सहमत हूं ! दूसरे हिस्से से सहमत होकर भी , रंगकर्मियों के हवाले से एक छोटा सा स्पेस छोड़ने का इच्छुक हूं !

      हटाएं
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      हाँ श्रेष्ठ रंगकर्मी ऐसा कर सकता है... पर, कहलायेगा तो वह अभिनय ही... :)



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    3. सही , पर कितने दर्शक / पाठक उसे अभिनय मानते हैं :)

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      क्या किया जाये... क्वालिटि (गुणवत्ता) का अभाव हर जगह है... पाठको/दर्शकों के मामले में तो कुछ ज्यादा ही... इसिलिये अभिनय को असलियत मानने वाले ज्यादा हैं... और हम बड़े बड़े कार्डबोर्ड-कटआउट नायकों/महानों का देश बनते जा रहे हैं... :(



      ...

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    5. बात गलत है यह जानकर भी कहीं ना कहीं समझौता करने की नौबत है क्योंकि यह उनका अपना पाठ / अपना अध्ययन / अपना सत्य है !

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    "सभ्यता और संस्कृति के विकास में भाषा की लगातार अपरिहार्य मौजूदगी के चलते अक्सर एक धारणा बनती और बिगड़ती है कि , अखिल ब्रह्मांड में किसी ईश्वर के होने या ना होने से इंसानों को क्या फर्क पड़ता ?..."

    बहुत फर्क पड़ता इंसानों को, वह ठीक उसी तरह से जीते जिस तरह >>>मछलियाँ बिना साइकिलों के जीती हैं... :(




    ...

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    1. असल में इस वाक्य को काट कर पढ़ने से आपकी प्रतिक्रिया उचित लगती है ! हालांकि मैं आपसे निवेदन करूँगा कि इसे भाषा के हवाले से पूरा पढ़ा जाये क्योंकि मैं भाषा बनाम ईश्वर की तुलनात्मक औकात / हैसियत का संकेत देना चाहता हूं ! यानि कि मनुष्य के लिए ज़रुरी कौन है भाषा या फिर ईश्वर ?

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      क्योंकि मैं भाषा बनाम ईश्वर की तुलनात्मक औकात / हैसियत का संकेत देना चाहता हूं ! यानि कि मनुष्य के लिए ज़रुरी कौन है भाषा या फिर ईश्वर ?

      मैं तो यही कहूँगा कि भाषा है/हुई तभी तो ईश्वर बना/उतरा... ईश्वर का वजूद ही भाषा पर टिका है... जो प्राणी भाषा विकसित नहीं कर पाये अभी तक उनके लिये ईश्वर भी नहीं है... क्या अब यह भी बताना जरूरी है कि मनुष्य के लिये क्या जरूरी है... :)



      ...

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  20. सुबह पोस्ट पढ़ा तो लगा था कि एक्को कमेंट नहीं आयेगा। कौन मगजमारी करेगा! अभी इतने कमेंट देख कर हैरान हूँ। कमेंट पढ़ते-पढ़ते मूल पोस्ट भूल गया। अब पोस्ट की उन्हीं धुंधली स्मृतियों के सहारे लिख रहा हूँ कि भाषा कोई भी हो उसे पढ़ने वाली नज़र और समझ सकने लायक बुद्धि चाहिए। छोटा बच्चा रोता है तो माँ समझ जाती है कि उसे क्या चाहिए! युवती की पुतलियों के हिलने भर से उसका प्रेमी जान जाता है कि वह कहना क्या चाह रही है! बिहारी ने लिखा भी है कि भरी सभा में चार आँखें आपस में खूब बातें करते हैं और कोई बूझ ही नहीं पाता! दो बूढ़ी पड़ोसी औरतें जब मिलती हैं तो उनको देखने वाले सिर्फ लबों को हिलते ही देख पाते हैं। वे क्या कह रहे हैं? इसे समझना मु्श्किल है। वैसे ही जब पिकासो के तश्वीरों की भाषा, लोग उनके मरने के बाद ही समझ सके।

    लिपि से श्रेष्ठ रंगों की भाषाएं होती हैं। रंग ही क्यों अस्तित्व के हरेक जर्रे की अपनी भाषा होती है। हर शय में एक अभिव्यक्ति छुपी होती है। बड़ी बात यह कि हम समझ कितना पाते हैं! पढ़ कितना पाते हैं! वस्त्रों के रंगों से..लिखने की राइटिंग स्टाइल से..कमरे के समानो के रखरखाव से..चलने फिरने बोलने के तरीकों से..कहने का मतलब यह कि व्यक्ति हर वक्त अभिव्यक्त हो रहा होता है। लिखने से पहले बहुत कुछ लिख चुका होता है। बोलने से पहले बहुत कुछ बोल चुका होता है। जिम्मेदारी तो पढ़ने वाले को ही निभानी पड़ती है। समझना तो पढ़ने वाले को ही है। इसके विपरीत कुछ शातिर भी होते हैं जो जानते हैं कि हम कैसा अभिव्यक्त हो रहे हैं। हमें कैसा अभिव्यक्त होना चाहिए। शायद यही कारण है कि हमारे नेता धवल वस्त्रों में खुद को उज्ज्वल पेश कर रहे होते हैं।...लगता है अधिक लिख गया..शेष प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद।

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    1. शेष भी कह ही देना था :)

      आपकी प्रतिक्रिया सारगर्भित और नेताओं के हवाले से , नीति वचन युक्त है ! एक शानदार टिप्पणी के लिये आपका आभार ! इस प्रविष्टि का उद्देश्य भी यही था कि भाषा के किसी विशिष्ट खांचे और ब्रांड की सराहना अथवा भर्त्सना के बजाये ,भाषा के मूल ऊद्देश्य और उपयोग को समझा जाये ! यह भी समझा जाये कि भाषा हर उस संकेत,अक्षर,ध्वनि,अध्वनि,में प्रकटित / मुखर होती है जो भी मनुष्य को अभिव्यक्त होने क्षमता दे ! इसलिए अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण की सफलता भाषा की सफलता है चाहे वह किसी भी संकेत / अक्षर / लिपि पे निर्भर हो ! इसलिए दोपाये को मनुष्य के रूप में स्थापित करने वाले हातिमताई के रूप में हर उस भाषा का सम्मान जो अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण की शर्ते पूरी कर पाती हो ! भाषाओँ में पारस्परिक कोई ऊंच नीच नहीं !

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  21. उसने चित्रों से कहा, आपने शब्दों से। उसने पोस्ट करने या प्रकाशित करने से पूर्व अपने चित्रों को पढ़ने की जहमत नहीं उठायी सिर्फ लिखे को महत्व दिया आपने लिखे को दरकिनार किया और बड़ी कुशलता से वह पढ़ लिया जो उसके जेहन में नहीं था। फर्क यहीं है..इसे ही समझने की जरूरत है।

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    1. अगर आप धुंधली स्मृतियों के सहारे इतनी बढ़िया टिप्पणी लिख सकते हैं तो यह सब पढ़ने के लिए हमें भी आप जैसे (सु)मित्रों का सहारा है :)

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    2. जय हो !गुरु चेले नहीं हैं कम एक-दूसरे से !

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  22. बहुत संदर प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट " डॉ.ध्रमवीर भारती" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  23. भावनाओं को किसी भाषा की दरकार नहीं होती। बस दिल मिलना चाहिए... हर भाषा समझ आ जाती है.. वरना....
    बहुत बढिया पोस्‍ट।

    गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं....
    जय हिंद... वंदे मातरम्।

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    1. आभार ! आपको भी गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं !

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  24. बिना भाषा की बात कौशलेन्द्र जी की पोस्ट में बड़ी अच्छी आई |
    " क्यों चुराई पत्थरों ने धूप " - उसमे वे पत्थर बिना ही शब्दों के कितना कुछ कह गए ....

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  25. बिना भाषा की बात नहीं है शिल्पा जी , पत्थर जो कह गए हैं वह भी भाषा ही है ! कौशलेन्द्र जी ने जिन पत्थरों से संवाद किया है उन्हीं ( बिलकुल वही शिलाखंड ) के बारे में कभी हमने भी लिखा था ! तब पोस्ट का मंतव्य कुछ और था अगर आपके पास समय हो तो लिंक देखियेगा !

    http://ummaten.blogspot.com/2010/09/blog-post_12.html

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