रविवार, 8 जनवरी 2012

मैं उसे चूम ही लेता पर ...


बेशक उसका ख्याल मेरे वज़ूद से अलग नहीं रहा कभी ! मौसम-ए-गर्मतरीन में बर्फ की सुफैद चादर सा बिछ जाता वो मेरे अहसासात के खुले जिस्म पर और फिर मौसम-ए-सर्माए तल्ख़ में अलाव की मद्धम गर्म आंच सा आगोश में भर लेता मेरी ठिठुरती धड़कनों को ! कभी शिद्दत की बारिश के दरम्यान मेरे इश्क आलूदा अल्फ़ाजों पे छतरी सा तन जाता...गोया उसे, इन्हें भीगने से बचाकर, बदख्याल...बदनीयत निगाहों  से  दूर  रखना  हो  ! 

होता ये कि उसकी अमान में जिंदगी गुज़ारते हुए भी, उसकी कमी  की सोच, यक़ीनन कस्तूरी वास्ते मृगतृष्णा सी ! वो हर लम्हा मेरे इर्द गिर्द होकर भी बतौर गायबाना तिलस्म...मेरे नाले, मेरी मुस्कराहटें, मेरे कहकहे, मेरा सोग, मेरी खुशियां, गर उससे शुरू तो उसपे ही खत्मशुद ! मेरी निस्बत कुदरत का सबसे हसीन तोहफा, मगर जितना करीब उससे कहीं ज्यादा दूर !

उसके ख्याल में डूबते, उबरते, तैरते, नाखुदा सा मैं, बरहमेश उसकी हकीकी आमद की राह ताकता...पर लम्हें, मेरी तेज उबलती सांसों के दामन से फिसल...फिसल कर मुझसे दूर...यहां तक कि मेरी पुरउम्मीद, पूरी की पूरी लम्बाई में खुली हुई बांहों के दायरे से बाहर  होते रहे ! मैं हर क्षण उसे  अपनी आगोश में भर लेने से एन पहले वाली हरारत से थरथराते अपने जिस्म को उसकी हकीकी आमद के ख्याल पे झोंक झोंक देता पर इंतज़ार, साल दर साल बस...एक अदद नाकामयाब सा इंतज़ार !

सुना है तकदीर के उस पार वाले आसमान में परवाज़ करते हुए उसने, कई मर्तबा मुझ पर मेहरबान होने की कोशिश में अपने डैने समेटे भी पर वो बीच में ही घात लगाये हुए बाजों की बस्ती से गुज़रने का हौसला ना जुटा सकी ! सदियों जैसे लंबे सालों के बाद, उसे वाक़ई में छू पाने से पहले के लम्हों की गिरफ्त से आज़ाद होकर भी...आज जब वो मेरे, ठीक सामने खड़ी है तब...मेरा ख्याल ये है कि, मैं उसे चूम ही लेता पर ... 




(  पर के बाद वाले ... रिक्त स्थान पर अनेक संभावनाओं की गुंजायश बनती है इसलिए पाठक अपनी मर्जी से इस जगह की भरपाई कर सकते हैं , सुझाव दे सकते हैं  !  आलेख में टिप्पणियां मिल चुकने के बाद इस हिस्से को मुकम्मल कर दिया जाएगा  ) 

23 टिप्‍पणियां:

  1. हमें तो बात यहीं पूरी होती लगती है.

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  2. शुरू में लगता है कि आप का प्यार सांसारिक या शारीरिक नहीं है.पहले पैरा में पुल्लिंग का बोध कराकर आखिरी पैरा में स्त्रीलिंग डाल कर आपने क्या जताने की कोशिश की है.यही कि कोई भी चाहत किसी भी आकर्षण से शुरू हो मगर उसका खात्मा सहज स्त्री-प्रेम से ही होगा.

    आप उसे चूम तो लेते ...मगर आपको अपने से ज़्यादा उसकी फ़िक्र है !

    या फिर कल्पना है जो आपके रूबरू है,पर छू नहीं सकते !

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  3. दुबारा गौर से ख़याल किया तो पाया कि पहले पैरे में आपने ख्याल को ही संबोधित किया है.इसलिए वह पुल्लिंग में आ गया.

    बाद वाले पैरे में आखीर में जब वो बड़ी जहमत से सामने आ पति है,इस ज़ालिम दुनिया से बच-बचाकर तो आपका उसे छूने में फिर 'ख्याल' आड़े आता है.

    अगर इस तरह का बेइन्तहा इंतज़ार होता है तो कोई उस वक़्त ख्याल में नहीं रहता,अपने-आप उसी के आगोश में समा जाता है,बशर्ते यह दुतरफा मामला हो !

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  4. ..मेरे ख्याल से जुदा, अधजले सिगरेट के राख की मानिंद उसके थरथराते लब मेरे बोशे की मार को सहन कर पाने की स्थिति में नहीं थे। मैने अपनी दोनो बाहें फैलाकर अपनी उंगलियों से जैसे ही हौले-हौले उसके आरिजों को छूना चाहा, फिसल कर बन गयी वो फिर एक माजी। आह! जिंदगी का वह एक बेनूर कतरा, मेरे बाहों की पनाह पाता तो आँसू होता।

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  5. अरे ये तो किसी हिन्दी उपन्यास का हिस्सा सा लगता है...

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  6. आज जब वो मेरे , ठीक सामने खड़ी है तब ...मेरा ख्याल ये है कि , मैं उसे चूम ही लेता पर ... क्या करूँ , बीच में ज़ंजीर गडी है ।
    क्या ऑटो एक्सपो हो कर आए हैं भाई जी !

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  7. यह स्त्रीलिंग / पुल्लिंग का मामला इरादतन है या लिखते समय दिमाग का कंप्यूटर एक पल के लिए हैंग हो गया था --यही ख्याल बैरी खाए जात है ।

    वैसे अच्छा टेस्ट लिया है । इस पोस्ट को पढने और समझने की कोशिश करने वाले को कभी Alzheimer disease nahi ho sakti .

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  8. @ राहुल सिंह जी ,
    आज फिर से... :)

    @ संतोष जी ,
    (१)
    पहला पैरा उसके ख्याल को संबोधित है इसलिए मामला आपके इशारे वाले पुल्लिंग का नहीं है :)
    आपके आकर्षण के खात्मे वाली बात से सहमत !
    कल्पना में आदमी क्या क्या नहीं कर गुज़रता :)
    (२)
    मामला दोतरफा मानकर बाद वाली सिचुएशन सुझाइये :)

    @ देवेन्द्र जी ,
    सिगरेट की राख की मानिंद उसके थरथराते लब मेरे
    ...की मार सह ना पाते :)
    अंगुलियों से आरिजों को छूने भी ना दिया और माजी बना दिया आपने उसे :)
    जिंदगी का बेनूर कतरा कहके किसी का दिल दुख रहे हैं आप :)

    @ काजल भाई ,
    हिस्से के आगे की उम्मीद थी :)

    @ सलिल जी ,
    जी जरुर हाज़िर होउंगा ! शुक्रिया !

    @ डाक्टर दराल साहब ,
    (१)
    ऑटो एक्सपो से लौट कर बीच वाली जंजीर ,हा हा हा , अरे नहीं :)
    (२)
    खालिस स्त्री का मामला है पर उसके ख्याल को पुल्लिंग की तरह से संबोधित किया जाना संतोष जी को भी नहीं भाया था :)
    किसी मर्ज़ की दवा हम भी हुए :)

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  9. आगाज यह है अंजाम खुदा जाने ...

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  10. जब आपने इस पोस्ट की महबूबा को पाठकों के हवाले कर दिया है तो यह उनकी मर्जी हो जाती है न कि वे क्या कयास लगाते हैं..! दिल दुखने की बात लिख कर आप हमें भी संजिदा कर रहे हैं जनाब। यह तो आपको पहले ही सोचना था। पाठक के तसव्वुर में तो कुछ भी ख्याल आ सकते हैं। अब आप ही बताइये कि वाकई हुआ क्या था.... :(

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  11. सुना है तकदीर के उस पार वाले आसमान में परवाज़ करते हुए उसने , कई मर्तबा मुझ पर मेहरबान होने की कोशिश में अपने डैने समेटे भी पर वो बीच में ही घात लगाये हुए बाजों की बस्ती से गुज़रने का हौसला ना जुटा सकी !
    (बहुत गहरी और अर्थपूर्ण बात )

    मैं उसे चूम ही लेता पर ... ( आँख खुल गई ) और क्या ? :) :)
    अब बता भी दीजिये .

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  12. सुबह से कई बार पढ़ा.. कई बार कोशिश की कि उस खाली जगह को मुकम्मल करूँ.. लेकिन रुक गया.. जानते हैं क्यों?? जैसे ही मैंने लिखने की कोशिश की मुझे ऐसा लगा मानो मेरे माज़ी के सदियों जैसे लंबे सालों के बाद , उसे वाक़ई में छू पाने से पहले के लम्हों की गिरफ्त से आज़ाद होकर भी...आज जब वो मेरे , ठीक सामने खड़ी है और मुझसे कह रही है... प्लीज़! उस खाली जगह को खाली ही रहने दो न!!

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  13. आज भले ही वह किसी और ग्रह की प्राणी है लेकिन यादें क्या किसी सीमा में बन्धी हैं कभी?

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  14. ?????.......

    prem gali ati sankari......so kabhi
    jahmat nahi li....

    lekin pichle 10 salon se ek chat ke andar ek saath rahte aisa kuch ho jane ki sambhavna banti ja rahi hai.....

    pranam.

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  15. "पर" के आगे वही कस्तूरी वाली मृगतृष्णा सी.

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  16. @ अरविन्द जी,
    :)

    @ देवेन्द्र जी ,
    जब हमने उसे आपकी मर्जी पर छोड़ दिया तो हमारा दिल तो दुखने से रहा :)
    इशारा तो किसी और की तरफ है भाई :)

    @ राजपूत जी ,
    आंख खुलने वाली संभावना तो है ही पर सोने के बाद वाली या जागते हुए... :)

    @ सलिल जी ,
    आपने अदभुत विकल्प दिया है बेहद शाइस्ता /निहायत सलीकेमंद / सौजन्यता से भरपूर !

    @ स्मार्ट इन्डियन जी ,
    नहीं , बिलकुल भी नहीं !

    @ संजय झा साहब ,
    इस काम के लिए दस साल बहुत लंबा वक़्त होता है भाई :)

    @ आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
    आपने मेरी पोस्ट की इज्जत रख ली :)

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  17. अच्‍छे अच्‍छों को चकरा देती हैं आपकी बातें।

    आपकी पोस्‍ट को पढने के लिए सचमुच दिमाग को कंसंट्रेट करना पडता है।
    लेकिन इसी के साथ यह भी सवाल उठता है कि जब पाठक को इतनी एकाग्रता लानी पडती है, तो आप कितना एकाग्र होकर लिखते होंगे।

    ------
    मुई दिल्‍ली की सर्दी..
    ... बुशरा अलवेरा की जुबानी।

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  18. बढ़ के उसको मैं चूम लेता, पर....
    देख कर हाथ में रूमाल वो 'लाल',
    फिर अचानक से रुक गया हूँ मैं,
    बीती यादों में खो गया हूँ मै,
    कुछ भी उसकी रविश नहीं बदली,
    वो ही तारीखों-माहो-दिन* का हिसाब, [*मासिक अवधि]
    कभी रूमाल, बैग, लाल किताब,
    बात समझाने के अजब अंदाज़,
    आज भी वो 'समय पे आजाना',
    पास हो कर भी दूर रह जाना,

    aur....

    मैं , कि पतझड़ का एक पत्ता सा,
    टूटने से क़ब्ल लरज़ता सा,
    ख्वाहिशो की लपेट कर गठरी,
    अपनी औकात में चला आया !

    http://aatm-manthan.com

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  19. छोडो जाने दो...
    सिर्फ इसलिए ही शहीद होना कौन सा अच्छा है

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  20. 'साहिर' की नज्म का एक टुकड़ा याद आ गया 'तू बहुत दूर किसी अंजुमन -ए -नाज में थी
    फिर भी महसूस हुआ कि तू आयी है
    और नगमों में छुपा कर मेरे खोये हुए ख्बाब
    मेरी रूठी हुई नींदों को मना लायी है'
    इस घोर प्रतिस्पर्धात्मक युग के सांसारिक जीवन चक्र में संवेदनाओं की रूमानियत को बनाये रखना काबिल -ए- दाद है।

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  21. .... पर क्‍या करें, कौन चाहता है अपने मुहब्‍बत को बदनाम होते देखना।
    बहुत खूब लिखा है आपने। उर्दु अल्‍फाजों के इस्‍तेमाल का आपका अंदाज हमेशा ही नया सीखने का अवसर देता है।

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  22. पर

    डर है कि अहसास का वो तिलस्म ना टूट जाए कहीं...जो वजूद का एक हिस्सा...जीने का सबब बन बैठा है.

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  23. मेरा ख्याल ये है कि मैं उसे चूम ही लेता पर ...
    खुद के समेटे डैने... खुल ना सके

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