आज फिर से सुना , उन्हें पूरे अट्ठाईस बरस छै माह बाद , हूबहू कहना मुश्किल है ! रिकार्डिंग पुरानी है सो फर्क ज़रूर होना था पर नशा उतना ही...तब किसी पहाड़ के नीचे वाले मजदूर भवन की खिड़कियों से बाहर घिर आये बादलों में अटके बेहिसाब पानी के उस पार देखने की कोशिश में हासिल शून्य रहा , जबकि ना दिखाई देने के बावजूद , सच यह था कि बादलों के ऊपर पहाड़ और भी बाकी था ! उन दिनों से आज तक के फासले बेख्याल ही तय किये...ना देखे और ना ही कोई नाप तौल की , हालांकि इस दरम्यान जो भी गुज़रा वो महज़ ख्याल ना था ! दुआओं और अजाब में लिपटी हुई खालिस हकीकत ! जिंदगी में अफ़सोस और खुशहालियों के दौरे-दौरां वाकई मौजूद थे भले ही चाह कर , उन्हें पकड़ने की एक अदद कोशिश भी नहीं की !
कितना फर्क है , तब के रोमान और अब के सच में...कभी सोचा ही नहीं कि , तब के रोमान के गहन अंतस में भी वही सच मौजूद होगा जोकि आज एन सामने खड़ा है ! सच कहूं तो दिखने या ना दिखाई देने की बिना पर सच को क़ुबूल करने या ख़ारिज करने का बर्ताव भी इंसान की अजब ज़ेहनियत का नमूना है ! मसलन खुश्बू की हकीक़त का वास्ता दिखाई देने की बनिस्बत सूंघने के पैमाने पर कहीं ज़्यादा निर्भर है ! इसी तर्ज़ पर बेरौशन / बेनूर आंख वाले इंसान का सारे का सारा संसार उसके स्पर्श और उसकी सुनने की सलाहियत के भरोसे पर टिका रहता है ! गरज ये कि आंखें सच का आख़िरी पैमाना नहीं है और ना ही इनके दम पे किसी अन्तर्निहित सत्य की संभावना को खारिज किये जाने की गुंजायश बनती है !
हमारे अपने , प्रियजन और उनका अपनापा / उनकी मुहब्बतें , हरदम आंखों देखे सच की तर्ज़ पर टटोलना जायज़ नहीं है...लगभग ऐसे ही , अपेक्षाओं की गर्त में दबे , ईर्ष्या / द्वेष / रंज-ओ-गम / गुस्से / बेचैनी / मलाल का हिसाब भी रखा जा सकता है ! ख्याल ये कि हमें हकीकत को नंगी आंखों से देख पाने के भ्रम में जीना छोड़ कर उसके बहुआयामी अक्स को परखने के और भी कई पैमाने साथ रखने होंगे वर्ना हमारा हर फैसला नामुकम्मल और गहरी चोट देने वाला भी साबित हो सकता है या फिर शायद नहीं भी !
हुआ ये कि नये पुराने साल के कुछ ठहर गये लम्हे कैमरे में कैद किये और फिर उन्हें अंतरजाल के हवाले किया ही था कि एक मित्र की प्रतिक्रिया ने चौंका दिया ! उन्होंने कहा कि एक से ही दिखते हैं सुबह- शाम ...दिखने और होने में अंतर होता है ! यूं तो उनकी प्रतिक्रिया , देखने में एक जैसा होने और देखे गये की तुलना में मौजूद अंतर को लेकर थी पर मुझे लगा कि यह प्रतिक्रिया असाधारण है , इसे केवल फूलों / दरख्तों और कुदरत तक ही महदूद नहीं किया जा सकता ! यह तो हम इंसानों के दैनिन्दिन जीवन में शामिल एक ज़ेहनियत भी है ! ... बस इसीलिये सोचता हूं कि अपनापे और मलाल के फैसले आखिर को यूंहीं तो नहीं किये जा सकते...
मैं समझा नहीं कि बात गीत की है या गायिका की...यदि गायिका है तब तो बात समझ आती है :)
जवाब देंहटाएंआज सुबह से पुराने गीत सुन रहे हैं :-)
जवाब देंहटाएंआभार आपका !
एक आप हैं जिन्होने उन्हें सुना और पूरे 28 वर्ष 6 माह के बाद पोस्ट लिखी। एक हम हैं जो इस पोस्ट को पढ़ते ही कमेंट करने लगे:)
जवाब देंहटाएंशुरू शुरू में ओशो को पढ़ते वक्त मेरे जेहन में ये ख्याल आता था कि ये क्या उल्टा-पुल्टा लिखा है! अभी जिस बात को गलत कह रहे थे, अभी सही कह रहे हैं! बहुत समय बाद यह बात समझ में आई कि दरअसल होता यह था कि मैं उनके कहे को समझता ही नहीं था। दार्शनिकों का काम है सिक्के के दोने पहलू को दिखा देना। वे यह भी संकेत कर देते हैं कि सही मार्ग यही है। अब चलना तो अपन को ही न पड़ेगा। इस पोस्ट को पढ़ते वक्त ये बातें अनायास याद हो आईं।
सच का आखिरी पैमाना नहीं होता। जो दिखता नहीं उस पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। जो देखा उसी को सच मान बैठते हैं। अपनापे और मलाल के फैसले जो सामने है उसी को देख कर कर लिये जाते हैं। लेकिन मन है कि फिर भी सशंकित रहता है। यही अधूरे अहसास हमें बेचैन करते रहते हैं।
हकीकत से परे ब्लॉग जगत में सच को देखने का दूसरा तरीका भी है। वह यह कि हम उनके विचार भी पढ़ते हैं । विचार भी हमे प्रभावित करते हैं। फिर भी सच जानना अधूरा ही रहता है। मुझे तो लगता है कि जिसने आखिरी सच जान लिया वह तो बुद्ध हो गया। जब कि हमें सारा जीवन बुद्धू बनकर ही गुजारना है।
आँखें सच का पैमाना नहीं है ...खुशबू दिखती नहीं मगर होती है !
जवाब देंहटाएंअनगिनत बार महसूसा होगा हम सबने!
ब्लॉग जगत में अक्सर इस बात पर जंग छिड़ी है कि लेखक की छाप उसके लेखन पर होती है वही कही यह भी पढ़ा कि लेखक सबसे ज्यादा पाखंडी होता है , वह किस्से गढ़ता है , कभी- कभी हमारी आँखें भी ऐसा ही करती हैं ...
जैसा कि देवेन्द्र जी ने कहा दार्शनिक सिक्के के दोनों पहलू देखता है !
साधारण में असाधारण ढूंढ लेने वाले आपके जीवन- दर्शन को नमन !
@ काजल भाई,
जवाब देंहटाएंजो समझा वही बेहतर है :)
@ सतीश भाई ,
टिप्पणियों के रिकार्ड आप बना रहे हैं तो हमें पुराने गाने ही सुनने दीजिए कम से कम :)
@ देवेन्द्र जी ,
कल इस आलेख को लिखने के दरम्यान दो मित्र व्यक्तिगत भेंट के लिए आये और कम से कम तीन फोन काल्स भी ,ऐसे में लेखन की लय भंग हुई है ! विचार खंडित हुए हैं ! इसका ख्याल मुझे बेशक हुआ पर आपकी टिप्पणी मुझे इस अपराध बोध से मुक्त कर रही है ! सो आपका हार्दिक धन्यवाद !
@ वाणी जी ,
आंख सच का एकमेव पैमाना नहीं है हमें दूसरे पैमाने भी ध्यान में रखने चाहिए ! मेरी पिछली पोस्ट पर आपकी टिप्पणी मुझे बहुत महत्वपूर्ण और असाधारण लगी सो उसे ही समझने की कोशिश में यह आलेख लिख बैठा ! इस हेतु आप साधुवाद स्वीकारिये !
किस्से गढ़ाऊ और लेखन के पाखण्ड पर पैनी नज़र रखने वाले महानुभावों का मुझे संज्ञान नहीं है :)
आपने जो मसला उठाया है,उसमें देखने और होने में अलग-अलग कारणों से फर्क होता है.सुबह और शाम का देखना ,बचपन और बुढ़ापे या अल्पज्ञानी व ज्ञानी के नज़रिए से देखना बिलकुल अलग है.साधारण अर्थ में कहें तो कोई चीज़ दिन के उजाले या अँधेरे में देखने से उसके बुनियादी अस्तित्व में फर्क नहीं पड़ता ,हम भले ही काले को सफ़ेद या सफ़ेद को काला देख लें !
जवाब देंहटाएंरही बात सांसारिक रिश्तों ,उसूलों को देखने की तो निश्चित ही समय बदलने के साथ रिश्ते,सोच और उसूल कई बार उलट-पुलट हो लेते हैं.हालाँकि यहाँ भी जो वास्तविक सत्य है वह अपनी जगह पर यथावत रहता है !
जिस चीज़ का आपको अट्ठाईस साल पहले मलाल रहा हो,रंज-ओ-गम रहा हो,हो सकता है वह आज सब कुछ धुल गया हो,मीठी याद बनकर रह गया हो !
कई बार 'चश्मा' लगाने पर भी चीज़े हमें बदलती हुई दिखती हैं,पर क्या चीज़ें या तथ्य बदलते हैं ?
good...philosophical .........
जवाब देंहटाएंpranam.
@ किस्से गढ़ाऊ और लेखन के पाखण्ड पर पैनी नज़र रखने वाले महानुभावों का मुझे संज्ञान नहीं है :)
जवाब देंहटाएंनहीं..यहाँ शिकायत नहीं है..सिर्फ विचार हैं !
सचमुच लेखक अपनी मर्जी से तथ्यों को तोड़ता मरोड़ता है ही ,कहानी को अपने मन मुताबिक लिख पाने के लिए !
एक पहलू यह है कि हममे से कई वो लिखते है , जो वो स्वयं हैं नहीं ...इसलिए तर्क होता है कि यह कत्तई आवश्यक नहीं कि लेखक के आचरण का असर उसके लेखन पर भी हो ...
दूसरा पहलू देखे तो कहीं न कही लेखक उस जैसा ही हो जाना चाहता है , जो वह लिखता है ! जैसा वह नहीं है ,वैसा नहीं हो पाने की पीड़ा में वह वही रचता है जो वह हो जाना चाहता है ...
यही हमारी आँख भी करती है..कई बार वही दिखाती है जो हम देखना चाह्ते हैं !
अली सा.
जवाब देंहटाएंवो साधु जिसने भागते हिरन को देखा था और शिकारी से उसका पता पूछने पर कह गया कि जिन आँखों ने देखा वो कह नहीं सकतीं और जो ज़ुबान कह सकती है उसने देखा ही नहीं..
पश्चिम में जिसे चिन्तक (थिंकर) कहते हैं, हमारे यहाँ उसे दर्शन कहा जाता है और सही शब्द है भी यही.. ओशो कहते हैं कि खिलते हुए गुलाब की बाबत आप जो भी कहेंगे वो सिर्फ दूसरों के विचार होंगे जो आपने उनसे सुन रखे हैं.. क्योंकि खिलते हुए गुलाब का "दर्शन" करना और उसके दर्शन का आनंद अभिव्यक्ति से बाहर की चीज़ है..
सचाई तो वैसे भी धुंद की तरह है, भावनाएं, अनुभव, संवेदनाएं.. सब कोहरे की मानिंद हैं.. दूर से काला सा और अंदर जाते ही उजास!!कुछ छिपाता सा कुछ नुमायाँ..
अब इस नगमे को ही देखिये.. सुधा मल्होत्रा की आवाज़ और हकीकत में एक त्रिकोण का तीसरा कोण.. रिश्तों का कोहरा, संबंधों की धुंध!!
अपना अपना नजरिया है देखने का। अब मिलते हैं 10 को रायगढ से लौट कर।:)
जवाब देंहटाएंबढ़िया चिंतन...
जवाब देंहटाएं@ संतोष जी ,
जवाब देंहटाएंये तो सही है कि अलग अलग कारणों से देखे जाने की प्रक्रिया और उसके परिणाम प्रभावित होते रहते हैं और ये भी सही है सांसारिक रिश्ते और सोच जैसी बातें सतत परिवर्तनशील हैं इसलिए सच को स्टेटिक मान लेना त्रुटिपूर्ण ही कहा जाएगा ! नि:संदेह उसे भी परिवर्तनीय होना होगा !
आलेख में सुझाव केवल इतना है कि सत्य तक पहुंचने के उपकरण बतौर आंखें हमेशा परफेक्ट नहीं होती हैं ,इसलिए सत्य के निर्धारण में आंखों पर आंख मूंदकर विश्वास नहीं किया जा सकता :)
हमें दूसरी इन्द्रियां / दूसरे टूल्स भी इस्तेमाल करने होंगे !
@ संजय झा साहब ,
बहुत बहुत शुक्रिया !
@ वाणी जी ,
कहानी , लेखक का अपना उत्पाद है , उसे वह कैसा ट्रीट करे , क्यों करे , यह दिशा निर्देश देने वाले हम कौन होते हैं ? हां...यह प्रायः देखा गया है कि कहानीकार , कहानी को अपने अनुकूल गढ़ता है या फिर स्वयं ही उसके करेक्टर्स जैसा होने की कोशिश करता है ! अपने सच के मद्धम / धूमिल होने का जोखिम अगर वह ले रहा है तो यह उसका अधिकार है कि वह किस तरह के सत्य के साथ जीना चाहता है !
यदि कोई व्यक्ति , दूसरी घटनाओं की तरह से , अपने अनुकूल सत्य भी गढ़ना चाहे तो हमें क्या आपत्ति होनी चाहिए ?
हमारे सारे सवाल किसी और से नहीं ,पहले पहल खुद से संबोधित होने चाहिए !
@ सलिल जी ,
हर बार शानदार ! मैंने पहले ही कहा कि आप पोस्ट को कुछ ना कुछ दे ही जाते हैं !
@ ब्ला.ललित शर्मा जी,
जी ज़रूर मुलाकात होगी !
@ रश्मि जी ,
धन्यवाद !
इस समय किसी भी दार्शनिकता के लिए मस्तिष्क तैयार नहीं है वर्ना मैं भी कोई दारशनिक टिप्पणी ठेलता जरुर....वैसे इसमें कौन सी दार्शनिकता कि होने और दिखने में फर्क होता है ..वह तो होता ही है ..मायावाद या सापेक्षवाद तो यही है ....
जवाब देंहटाएंमुझे पहले तो डर लगा कि किसी अंधे ने तो ब्रेल लिपि में पढ़ या सुनकर आपकी पोस्ट का आनन्द तो नहीं लिया और उसकी टिप्पणी पर आप भावुक हो उठे ...मगर यह तो अपनी चिर परिचिता वाणी जी ही निकली ....बिलकुल एक एंटी क्लायिमक्स मगर आश्चर्यजनक सुखद!
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
जवाब देंहटाएंससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह।।
भई वाह ! एक छोटी सी टिप्पणी में कितना गूढ़ रहस्य छिपा नज़र आया ।
जवाब देंहटाएंवैसे यह देखने वाले की नज़रों पर निर्भर करता है कि वह क्या देखता है ।
गिलास , आधा खाली भी हो सकता है और आधा भरा भी ।