मंगलवार, 8 नवंबर 2011

कहां आके रुकने थे रास्ते ...


लगता ही नहीं कि सर्दियाँ शुरू भी हुई हैं , तवील अरसे से नाचीज़ के दुश्मनों की तबियत नासाज थी, कोई दो चार दिन कब्ल से हालात  बेहतर जान के भाई बन्दों के ब्लाग्स पर टिप्पणियों की शक्ल में हाज़िरी दर्ज करानी शुरू ही की है, इधर धूप,खिड़की के कांच पर बेहद सख्त हुई जा रही है, कम्प्यूटर के सामने बैठते ही परदेदारी की नौबत, वज़ह साफ़ कि खुदा की दी हुई आँखों तक मामला महदूद होता तो शायद सर्दियाँ कुछ बेहतर जान पड़तीं पर उधर धूप का जलवा और  इधर खिड़कियों  के कांच  के एन बाद  कम्प्यूटर  स्क्रीन और फिर अपनी नई आँखों बतौर एक और कांच ! तपिश के अहसास के लिए एकदम माकूल माहौल लिहाजा  खिड़की को पर्दा  डाले बगैर अपने  ख्यालात को बेपर्दा करना मुमकिन नहीं होगा !

अभी परसों ही केश कर्तनालय से लौटा तो नई आँखें धो पोंछ कर सहेज दीं  कि गुसलखाने से लौट कर फिर चढ़ा लेंगे, इधर अपना मोबाइल लगातार बजे जा रहा था  कोई अनजान नम्बर जानके उठाया नहीं कि एस एम एस अलर्ट ...बिटिया से कहता हूं पढके बताओ क्या लिखा है ...उसने कहा सतीश सक्सेना अंकल बात करना चाहेंगे ! ये पहला मौक़ा जो उनसे बात होनी है, खुश खुश उनका नंबर डायल करता हूं! बातचीत अपनेपन की हरारत लिए , अहसास  ये कि हम एक  मुद्दत से दोस्त हैं ! 

इन दिनों ब्लाग जगत में आहार पे वाचिक हिंसा सिक्त, घृणा आपूरित, विद्वेष जन्य,पूर्वाग्रहयुक्त, उपदेशात्मक और दूसरों के गिरेहबान में बलात झाँकू प्रविष्टियों की भरमार है ! इस मसले पर अपने ख्याल पहले भी नेक रहे हैं और आज  भी उछल कूद मचाने  का कोई औचित्य नहीं लगता, पिछले बरस एक जैन  युवा  ने कर्ज ना चुका पाने के चलते अपने एक मित्र को पहले तो अगवा किया और फिर जंगल में ले जाकर अपनी चौपहिया वाहन से कुचल कर मार डाला ! इसके एक माह के अंतराल में ही प्रापर्टी डीलिंग में लगे  ब्रोकर बन्दों ने अपने ही  सहव्यवसायी  का सर पत्थरों से  कुचल डाला !  एक काम्प्लेक्स में दुकाने चलाने वाले मित्रों ने नौकर से चोरी की रकम क़ुबूल करवाने के चक्कर में इतनी मारपीट की और उसके जिस्म पर इस कदर जलती हुई सिगरेट्स दागीं  कि बेचारा अकाल ब्रह्म लीन हुआ ! मेरे लिए बहुत मुश्किल है कि इन सारी घटनाओं की पृष्ठभूमि में निहित हिंसा के लिए संबंधितों के आहार को दोषी ठहरा दूं  !

अरविन्द जी मित्र तो हैं ही पर प्राणिकी , दैहिकी , प्रेम और सौंदर्य विशेषज्ञ भी हैं  ! उन्हें छेड़ता  हूं ...पंडित जी  प्रेम तरल होता है कि ठोस  ? ...और दैहिक प्रेम के समय , प्रति संसर्ग कितने शुक्राणुओं की अकाल मृत्यु हो जाती है  ? मनुष्य जीवन में कितनी बार संसर्ग करता है ! उसके पिता बनने की संभावनाओं की संख्या के साथ कुल कितने संभावित पुत्र पुत्रियों / शुक्राणुओं को अपने प्राण गवाना पड़ते हैं ? क्या यह संभव है कि एक संसर्ग में एक ही सामर्थ्यशील  शुक्राणु बाहर आये और शेष लाखों  शुक्राणु प्रेमनिहित /  प्रेमजन्य हिंसा का शिकार ना होने पायें ? अरविन्द जी मेरे सवालों पे बड़ी ही सधी हुई प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि प्रेम तो तरल ही होना चाहिए किन्तु समागम में मृत होने वाले शुक्राणुओं  की निश्चित संख्या बता पाना कठिन है  ! आप इन आंकड़ों को लाखों में ही मानिए  !  दैहिक प्रेम की परिणति बतौर हुई लाखों शुक्राणुओं ( जन्म से वंचित संततियों ) की मृत्यु के लिए वे संसर्ग लीन जोड़े को उत्तरदाई नहीं मानते  ! उनका ख्याल ये  है  कि प्रेम जन्य  हिंसा प्रकृति अनुमोदित है  जो सृजन और विध्वंस को साथ लेकर चलती है ! किसी एक सामर्थ्य शील शुक्राणु मात्र के निष्क्रमण और शेष लाखों शुक्राणुओं के जीवित रह  जाने के मसले को वे मात्र संकल्पनाओं के स्तर  तक ही सीमित मानते है ! मैं फिर से दोहराता हूं...प्रेमी युगल के अपकृत्य के लिए बेचारी प्रकृति पर दोषारोपण किया जाना क्या कहां तक उचित है,कितना तर्क संगत है ! वे ठठाकर हँसते हैं !  

मैं जानता हूं कि अगर पूर्वाग्रह ना हों तो कई प्रश्न  बिना उत्तरों के ही शोभा देते हैं  !  सो प्रश्न मेरे , अपने शौक , अपनी पसंद और निज रूचि के आहार का भी है  !  दुनिया की सात अरब आबादी को अपनी पसंद के साथ जीने का उतना ही अधिकार है जितना कि मुझे   !  शुक्राणुओं की मृत्यु  के तर्क  का इस्तेमाल , अपनी मनमर्जी दूसरों पर आरोपित करने के लिए  करना, मुझे जायज़ नहीं लगता  ! मेरे लिए यह बहस भी कोई मायने नहीं रखती कि कोई मुझसे जाने कि उसे क्या करना है और फिर हूबहू वैसा ही , जैसा मैं करूँ ,जो मैं चाहूं ,जैसा मैं कहूं  , निश्चय ही कोई अंत नहीं , मेरी जिद , मेरे पूर्वाग्रहों का , अगर मैं ना चाहूँ तो...और  इन हालात में इंसानी रिश्तों की कांच पर चटख...चुभती हुई धूप का फिर कोई हल भी नहीं ...

20 टिप्‍पणियां:


  1. इस आभासी जगत का सबसे बड़ा आनंद यही है कि एक दूसरे को पढ़ते पढ़ते, उस व्यक्तित्व के बारे में इतना कुछ जान लेते हैं कि पहली बार बात होते हुए लगता है कि जैसे बरसों से जानते हों !

    मेरा यह विश्वास रहा है कि लेखन जगत में लिखते हुए व्यक्तित्व, अनचाहे ही अपने बारे में इतना कुछ कह जाते हैं कि छिपाने को कुछ शेष ही नहीं रहता !

    जहाँ यहाँ आप जैसे गुरुजन और पारखी मौजूद हैं जो लिफाफा देखकर उसमें लिखी इबारत बिना खोले ही बताने की सामर्थ्य रखते हैं ....

    आपसे बातचीत का अहसास तक आनंद दायक रहा है !

    सादर !!

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  2. @ अरविन्द जी मित्र तो हैं ही पर प्राणिकी , दैहिकी , प्रेम और सौंदर्य विशेषज्ञ भी हैं ! उन्हें छेड़ता हूं ...

    संभल कर छेडिएगा ....मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं :-)

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  3. ..तो आज दोस्तों पर नज़ारे ईनायत हैं ,दुश्मनों की कमी हो गयी क्या अली सा?
    आप खुद अपने मुंह से यह कह रहे हैं कि आपके दुश्मनों की तबीयत नासाज हो गयी थी -यह तो नफासत के/से जुदा बात हो गयी ...:)
    आपने सब बातें मुझे कोट कर की उनसे सहमत हूँ मगर एक बात ख़ास तौर पर फिर कि कुदरत ही सब बातों के लिए
    जिम्मेदार हैं -दोषी मनुष्य नहीं है .....आप भी कुदरत के वश में ही यह पोस्ट लिख पाए हैं -मगर इंसानों ने अपने लिए -सुख सुविधा के लिए क़ानून वगैरह बना लिए हैं
    मगर वे देश काल परिस्थिति के अनुसार अलग अलग हैं ....हिंसा अहिंसा का मामला बहुत उलझाव लिए हैं इसलिए मैं इन सबसे दीगर इन दिनों जुल्फों के खमों बल पर निगाह लगाये हुए हैं -आप का भी इंतज़ार है जहां एक बेहद खूबसूरत गजल और नाजनीने आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रही हैं ....और आपका ध्यान किधर है ..असली माल तो उधर ही है :)

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  4. सोशल बायोलाजी या बायो सोशियालाजी.

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  5. 'समाधी'* तक जो ले जाए उसी का ज़िक्र कर बैठे,
    मज़े को भूल 'हिंसा और अहिंसा' फ़िक्र कर बैठे.
    'तरलता' प्यार की कितनी सरलता से बयाँ करदी,
    ख़याली पुलाऊं से ही पेट 'अरविन्द मिश्र भर बैठे.

    *"संभोग से समाधि की और..."

    http://aatm-manthan.com

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  6. कैलकुलेटर लेके हिसाब किताब करने के बजाय मैं भी अरविन्‍द मिश्र जी से सहमत हूं, जुल्फों के खमों बल पर निगाह लगाना ही सहीं है। :)

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  7. @ सतीश भाई,अरविन्द जी,मंसूर अली साहब,संजीव भाई,
    आपकी टिप्पणियों के लिए आभार , जुबान के सुख के लिए हिंसा और देह सुख जनित हिंसा को संकेत कर यह प्रविष्टि सकारण लिखी गई है ! विस्तृत प्रतिक्रिया ठहर कर ही देना चाहूँगा उम्मीद है कि शिष्टाचारगत इस हिंसा बर्दाश्त आप कर लेंगे :)

    @ राहुल सिंह जी ,
    नामकरण करना ही है तो फिर सोशियोलोजी आफ वायलेंस कहना ज्यादा बेहतर रहेगा :)

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  8. सकारण लिखी गई प्रविष्टि पर आपकी विस्तृत टिप्पणी भी दर्शनीय होगी, इसी इंतजार में बैठे हैं।
    स्वास्थ्य-लाभ के लिये शुभकामनायें। नई आँखों से कुछ नया दिखे तो उसे भी साझा कीजियेगा।

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  9. @ मो सम कौन जी ?
    शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद !

    शायद सकारण प्रविष्टि से पहले विस्तृत टीप ही लिखना बेहतर होता :)

    मूल सामने पर सूद का इंतज़ार ! खांटी बैंक वाले है भाई आप भी :)

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  10. agar samjhadar hoke bhi in safhon ko
    koi na samjhe to o samjhdar kaisa...

    bakiya humnam ke gujarish ko hamara
    bhi man liya jai.....adha unka adha aapka.....

    pranam.

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  11. बहाना ढूँढने की बजाय बीमार होने की बात कह देनी थी !

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  12. @ संजय जी ,
    बहुत बहुत शुक्रिया !

    आधा आधा क्यों ? आप हम दोनों ही के पूरे पूरे हुए :)

    @ वाणी जी,
    बहाना ?

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  13. आपसे कह भी सकता हूँ, और विश्वास है कि आप सुनेंगे भी, यह जानते-समझते हुए भी लगता है कि आज कुछ भी न कहा जाये।

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  14. @ स्मार्ट इन्डियन ,
    हां ये दिन भी अजीब था ! ऐसा क्यों अभिव्यक्त हुआ सोचूंगा ज़रूर !
    ( कहना आप जब भी मुनासिब जाने )

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  15. खिड़की पर पर्दा डाल...ख्यालात को बेपर्दा करना जारी रखें...

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  16. अली साब ,सतीश जी से तो आपकी जान-पहचान को अरसा हो चूका होगा,उन्होंने आपसे बात करने में थोड़ी देर करी.
    अभी कल ही आपसे पहली मर्तबा इतनी लंबी बात हुई जैसे लग रहा था कि हम बरसों से बिछुडे रहे हों.

    आपका स्वास्थ्य तभी ठीक रहेगा जब आपके डफर-दुश्मन भी ताज़ा-दम हों !

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  17. प्रेम ठोस/तरल के अलावा गैस की संभावना पर क्यों विचार नही किया गया? :)

    अब तबियत ठीक हो गयी होगी! शुभकामनायें।

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  18. सोच रही हूँ, बिटिया लकी है, इतने लर्नेड पापा से कितना कुछ पाती होगी, और
    सतीश जी भी लकी हैं , आपसे गुफ्तगू का मौक़ा जो मिला.

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    1. शुक्रिया जी !
      पर ये फरमाइये कि इन दिनों आप हैं कहां ? ब्लॉग पर खास हलचल नहीं क्या बात है ?

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