शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

आहार...यौनाचार और बहुसंतति : लोक आख्यान...2

मेहनती चींटी टिड्डे से कहती है कि 'जो गर्मियों में गायेगा उसे सर्दियों में खाना नहीं मिलेगा'... कहने के लिये यह, उन देशों के लिए एक उपदेशात्मक सूत्रवाक्य है , जहां महीनों बर्फ पड़ती हो और गर्मियां, रसद एकत्रित करने के लिए एकमात्र उचित समय हो...पर अमेरिकन शुसवाप इंडियंस इसी सूत्र वाक्य से अपनी आहार वृत्ति के अनुकूल एक कथा गढ़ते हैं कि एक व्यक्ति, गर्मियों के मौसम में अपने कबीले को मछलियां पकड़ने में मदद देने से इन्कार कर देता है ! उसे नृत्य पसंद है और वो शाकाहारी भी है...सर्दियां आने पर जब सारी धरती बर्फ से ढंक जाती है और घास भी ! तब वह इन विषम परिस्थितियों में सब जगह खाना मांगने जाता है किन्तु कबीले के लोग उससे कहते हैं कि जाओ घास खाओ ! भूख से अधमरा होकर वह अपने आपको उस जीव में बदल लेता है, जिसे घास खाने वाला यानि कि ग्रास हापर कहा जाता है ! आख्यान आगे कहता है कि उसके लिए यह विधान कर दिया गया कि,चूंकि वो आलसी है अतः केवल घास खाकर... इधर उधर फुदकते और शोर मचाते हुए अपना सारा जीवन व्यतीत करेगा !

अब ज़रा इस आख्यान के पात्रों को देखिये, उनमें से अधिकांश , मूलतः मांसाहारी हैं और अपने लिए गर्मियों के मौसम में मछलियां बतौर रसद एकत्रित करते हैं, उन्हें इस कार्य के लिए किसी शाकाहारी व्यक्ति की सहायता क्यों चाहिए ? वे उसे आलसी और कुछ हद तक स्वयं के भविष्य के प्रति लापरवाह एवं मूर्ख साबित करने योग्य एक कथा का सृजन करते हैं !  यही नहीं वे उसे घास खाने और शोर मचाने वाले टिड्डे के समतुल्य मानते हुए उसकी इस दुर्दशा के लिए उसकी शाकाहारी वृत्ति को उत्तरदाई मानते हैं ! फुदकने और शोर मचाने वाली प्रतीकात्मकता का सम्बन्ध स्पष्टतः उस व्यक्ति की नृत्य अभिरूचि से है! तो क्या शाकाहारी व्यक्ति अपने लिए सर्दियों लायक रसद जमा नहीं करते होंगे ?

मध्य भारत के किसी लोहार की सुन्दर कन्या पर श्रीमान सूर्य देव अनुरक्त हो उठते हैं , एक दिन लोहार पिताश्री प्रेमी द्वय को रंगे हाथों पकड़ लेते हैं और फिर सूर्य को बारह व्यक्तियों की सहायता से गहरे गड्ढे में दबा देते हैं !  सब ओर अन्धकार छा जाता है , ना पानी...ना हवा और ना ही दूसरा कुछ और...!  एक व्यक्ति सहायता के लिए लोहार के पास आता है !  वहां घर के पास ही एक क्रीपर है जिसे दोनों पीटते हैं ताकि उसमें से हवा निकाली जा सके , चूंकि हवा क्रीपर के अंदर थी और पिटाई से उसकी हड्डियां तक दुखने लगती हैं तो वह जल्द ही उमड़ घुमड़ कर क्रीपर से बाहर निकल जाती है , यहीं पर हवा से दो देवियों का जन्म होता है और उसकी तीव्रता के कारण उस गड्ढे का लौह ढक्कन खुल जाता है , जिसमे सूर्य देव कैद थे वे बचकर भाग निकलते हैं किन्तु उनकी प्रथम पत्नी चन्द्रमा क्रोधित होकर अपने घर में दूसरी पत्नी यानि कि लोहार कन्या का प्रवेश निषेध कर देती हैं !  लेकिन लोहार कहता है कि हर पत्नी को अपने पति की सात गलतियां माफ कर देनी चाहिए !  बस इसीलिए सूर्य और चंद्रमा फिर से एक साथ रहने लगे !

इस आख्यान में प्रतीकात्मक तौर पर प्रकृति / देवताओं को मनुष्यों से सम्बन्ध बनाते हुए दर्शाया गया है जहां पुरुष देवता प्रथम पत्नी के होते हुए भी दूसरी प्रेयसी / पत्नी के साथ रमण करते हैं ! यही नहीं वे अपने ही अविधिक स्वसुर से अपनी सात गलतियों के लिए अभयदान और बहुस्त्रीगामिता के लाइसेंस के लिए पैरवी भी करवा लेते हैं !  चंद्रमा एक स्त्री / पत्नी की हैसियत से अपने एकाधिकार की रक्षा करने में असफल है और उसे पुरुष सत्ता के सुझाव को स्वीकार करने पर विवश होना पड़ता है !  मुझे तो कथा सामाजिक संस्वीकृति और देवत्व के प्रतीकात्मक घालमेल से समाज में पुरुषों की अधिसत्ता को मजबूत करती हुई दिखाई देती है , जहां देवतुल्य स्त्री भी समर्पण के साथ सहअस्तित्व को अभिव्यक्ति करती है !  यूं समझिए कि पत्नी के प्रतीक के रूप में चंद्रमा अपनी रौशनी के लिए सूर्य पर आश्रित है  ही  ! 

जूनी इन्डियंस की एक कथा के मुताबिक़ पश्चिम की एक लड़की हर समय अपने घर के अंदर ही रहती थी वह जहां अंदर सूर्य पहुंचता वहां बैठ जाया करती थी !  सूर्य की प्रणय लीला से वो गर्भवती हो गई !  उसके घर से बाहर उसकी रक्षा के लिए नियुक्त सैनिक उसे इस तरह से गर्भवती पाकर अत्यंत नाराज हुए और मार डालने की सोचने लगे किन्तु सूर्य ने अपने ज्ञान से सुबह सवेरे ही उसे घर की खिड़की से बाहर निकाल लिया और कहा 'अब जाओ जहां तुम्हें रहना है' वो चलते हुए एक बगीचे में पहुंची और माली से पूछा तुम क्या कर रहे हो उसने कहा गोल पत्थर बो रहा हूं गलत जबाब से असंतुष्ट लड़की ने बीजों में कुछ कर दिया तो उनसे जन्मे पौधों में फल नहीं लगे ! वो आगे बढ़ी जहां एक किसान अपने खेत में कुछ बो रहा था उसने पूछा तुम क्या कर रहे हो ?  किसान ने कहा मक्का और गेहूं  लगा रहा हूं ! किसान ने सही जबाब दिया तो सारे पौधे उग गए लड़की और आगे बढ़ गई उधर लड़की को घर में ना पाकर सैनिक उसे खोजने निकले उन्होंने पहले आदमी से पूछा तुमने किसी लड़की को देखा ?उसने कहा हां वो अभी अभी टीले की ओर गई है , परन्तु सैनिकों को लड़की दिखाई नहीं दी क्योंकि वो नदी पार कर चुकी थी , अतः सैनिक वापस लौट गए ! लड़की तब तक चलती रही जब तक वो क्लूवेला नहीं पहुंच गई , वहां पहुंच कर वो लेट गई और उसने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया !जिन्हें सुअरों और कुत्तों ने चूमा पर...खच्चरों ने नहीं चूमा , बस इसी लिए सुअरों  और कुत्तों के अधिक संतानें होती हैं किन्तु खच्चरों की कम ! 

यह कथा जीसस के जन्म से सातत्य रखती है किन्तु यहां ईसा जुड़वा संतति हो जाते हैं  !   कथा में उल्लिखित सैनिक मूलतः स्वयंसेवक हो सकते हैं !  इस आख्यान में 'मेरी'  जूनी इंडियंस की युवती 'मैक्सिकी' के रूप में परिवर्तित दिखाई देती है !  इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जूनी इंडियंस बहुसंतानोत्पत्ति के पैरोकार हैं !  जिसके चलते आख्यान के सुअर और कुत्ता पात्रों को मैक्सिकी के दो बच्चों से दुलार दिखाने के एवज में अधिक बच्चे पैदा करने का आशीष प्राप्त हुआ !  जबकि वे सूर्य और अविवाहित युवती के समागम से उत्पन्न जुड़वा संताने हैं !  जहां सूर्य ने गर्भवती युवती को यह कह कर त्याग दिया /  निराश्रित छोड़ दिया 'कि कहीं भी जाओ जहां तुम्हें रहना है'  पर अघोषित तौर पर सूर्य  का आशीर्वाद उस युवती से बीजों / सुअरों / कुत्तों / खच्चरों को आशीषित या शापित करवा रहा है !  कहने का अर्थ ये है कि समाज को एकाधिक / अधिकाधिक संतान चाहिए !यहां तक कि अविवाहित /  गर्भवती स्त्री भी आशीष या शाप देने का सामर्थ्य रखती है !  सूर्य के देवत्व / अविवाहित स्त्री के मातृत्व और आशीष सामर्थ्य तथा अधिक या न्यून  संतानोत्पत्ति के द्वन्द को सुअर / कुत्ता बनाम खच्चर के प्रतीकों से उकेरती यह कथा बहुसंतति के पक्ष में खड़ी है !  यह कथा उस समाज की अधिकाधिक संतानोत्पत्ति की धारणा के अनुकूल है !  तो क्या यह मान लिया जाए कि कम बच्चे पैदा करने वाले लोग खच्चर होते है ?  लेकिन... तब तो यह भी मानना पडेगा कि ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले ... 



18 टिप्‍पणियां:

  1. लोक आख्‍यानों का जो असर सुन कर होता है, आमतौर पर वह पढने पर बदलने लगता है और चूंकि ये सजग सचेत साहित्यिक रचनाएं नहीं होतीं तो उसकी समीक्षा और बौद्धिक-अकादमिक विश्‍लेषण कई बार उसे अलग अर्थ देता है.
    पहले आख्‍यान में ऐसा भी आशय बन रहा है कि नाचने-गाने में लगे रहने के बजाय खाने-पीने के जुगाड़ के लिए भी सोचना चाहिए.
    बहरहाल ऐसे आख्‍यान पढ़ते हुए, सीधे कहने वाले से सुनने की इच्‍छा तीव्र होने लगती है. यूं कहें कि कुछ हद तक मैं वाचिक परम्‍परा का हिमायती हूं.
    आख्‍यानों का मूल स्रोत-संदर्भ, जहां से आपने लिया, का उल्‍लेख हो, तो यह अधिक उपयोगी हो जाएगा.

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  2. आखिरी लाइन ही पढ़ी है
    और हम तो खच्चर ही सही :-)

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  3. @ राहुल सिंह जी ,
    सन्दर्भ देने का ख्याल मन में तो था पर बाद में ये लगा कि लोक आख्यानों के मूल स्रोत तो जनश्रुतियां /सम्बंधित समुदाय की वाचिक परम्परायें ही हैं जिनका प्रकाशन एकाधिक अध्येताओं द्वारा किया जा सकता है इसलिए किसी एक अध्येता /प्रकाशन को सन्दर्भ बतौर इंगित करना दूसरे अध्येता / प्रकाशन के साथ और इससे बढ़कर उक्त समुदाय के साथ नाइंसाफी होगी ! बस इसी ख्याल से केवल समुदाय का उल्लेख करके छोड़ दिया है !
    संभवतः इस आशय की एक पोस्ट आपके ही ब्लॉग में पढ़ी थी
    इन्हें 'लिखने' की तुलना में 'कहने' का लोभ मुझे भी था इस हिसाब से मैं भी वाचिक परम्परा का पक्षधर हुआ ! मौक़ा मिलता तो मैं भी इन्हें पढ़ने के बजाये सुनना ही पसंद करता !

    @ सतीश सक्सेना जी ,
    मैं जानता था कि आप लपक कर... :)

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  4. दिलचस्प आख्यान हैं ये सूर्य और एक कन्या के अवैध सम्बन्ध के.. साथ ही कुन्ती और मरियम भी याद आईं..

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  5. पढ़ा !
    कई आख्यान सुने हुए हैं मगर इस तरह समझने की कोशिश कभी नहीं की ...
    क्या इस तरह मान लिया जाए ...सवाल करने का हमारा एकाधिकार समाप्त हो गया लगता है :)

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  6. सूर्य से संस्पर्षित यही कथा तो कुंती की भी है लगता है यह कथा बहुत प्राचीन है और मनुष्य के प्रवास के साथ ही साथ युगानुकूल बदलती रही मगर अन्तस्थ भाव एक ही रहा है!

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  7. एल अलग दृष्टि से विश्लेषित किया गया है इन आख्यान को...इसी बहाने इन आख्यान से भी परिचय हुआ.

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  8. @ अभय तिवारी जी ,
    मनुष्य और प्रकृति के आरंभिक संपर्कों में से सूर्य और चंद्रमा भी एक हैं अतः बाद में विकसित हुए सामाजिक जीवन और आख्यानों में उनके अनेकों दिलचस्प और विविधता भरे विवरण मिलते हैं !

    @ वाणी जी ,
    ये समय अभी नहीं आया है :)

    @ अरविन्द जी ,
    सूर्य के बारे में यौन जीवन से इतर कथायें भी मिलती हैं !

    @ रश्मि जी ,
    शुक्रिया !

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  9. लोक आख्‍यानों के मूल श्रोत समाज के वयोवृद्ध रहे हैं और इनसे वाचिक परम्‍परा में आख्‍यानों को सुनना मजेदार तो रहता है पर इनसे एक कथा/मिथक/आख्‍यान को दूसरे फिर तीसरे और फिर कईयों से जोड़ते धालमेल करते सुनना उबाउ लगता है, कभी-कभी यही कथा/मिथक/आख्‍यान अलग-अलग लोगों से अलग-अलग रूप में सुनने को मिलता है, किन्‍तु लोक के इन आख्‍यानों को उनके रीतिरिवाजों, जीवन पद्धतियों से आपस में जब जोड़ा जाता है तब आश्‍चर्यमिश्रित खुशी होती है कि 'इही बात ला तो बबा हा बताए रहिसे'। इन्‍हीं आख्‍यानों का उचित अर्थान्‍वयन कर कथाओं के साथ जब लिखा जाता है तो पढ़ना सुगम व रूचिकर लगता है।
    तीनों आख्‍यानों के द्वारा समाज को समझना अच्‍छा लगा।

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  10. राहुल जी की टिप्पणी से पूरी तरह सहमत।
    ऐसे आख्यान स्थान विशेष, काल विशेष व व्यक्ति विशेष से संबंध रखते हैं, इनका सर्वकालिक और सार्वभौमिक महत्व नहीं हो सकता। हर समुदाय या हर पीढ़ी अपने परिवेश और संस्कार के अनुसार ही इनका अर्थ निकालती है जिसके बहुधा अनर्थ होने की संभावना रहती है।
    किस्सागोई तक या प्रतीकात्मक रूप से ये आख्यान सही हैं, बाकी तो....।

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  11. @ मो सम कौन ? जी ,
    यह सही है कि विशिष्ट आख्यान किसी विशिष्ट काल खंड किसी विशिष्ट स्थान और किसी विशिष्ट समुदाय से उदभूत होते हैं किन्तु इन तीनो सन्दर्भों में इनका स्टार्टिंग पॉइंट निर्धारित करना कठिन होता है क्योंकि वाचिक परम्परा के रूप में विकसित होने के लिए इन्हें एकाधिक लोग,सुदीर्घ समय और एक घर से ज्यादा बड़े स्थान की आवश्यकता होती है ! अतः कोई व्यक्ति विशेष इनका मौलिक स्रोत नहीं हो सकता ! आपने संभवतः उद्धृत कथाएं गौर से नहीं पढ़ी ? इन तीन कथाओं में से दो हमारे सबसे बड़े 'प्राकृतिक संबंधी' सूर्य का उल्लेख कर गढी गई हैं ! अब अगर स्थान के हिसाब से देखें तो एक कथा अमेरिकन और दूसरी भारतीय धरती पर उपजी!इन दोनों ही कथाओं में सूर्य की प्रणय लीला का उल्लेख है ! किन्तु इन दोनों विशिष्ट कथाओं का स्पष्ट काल खंड कौन तय कर सकता है और आज अलग अलग स्थानों में प्रचलित ये दोनों कथाएं मूलतः किस स्थान से उदभूत हुईं ?
    थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि ये दोनों ही कथाएं समानांतर अपने अपने समय और अपने अपने स्थान में ही विकसित हुईं तो फिर इसे स्वीकार करने में बुराई क्या है कि इन दोनों कथाओं में 'स्वजन सूर्य' साम्य है ! सूर्य का नायकत्व साम्य है ! अविवाहित प्रेमिकायें साम्य हैं ! प्रणय साम्य है ! इंसानों से सूर्य का सम्बन्ध साम्य है ! अभिभावक /सैनिकों और सूर्य द्वारा प्रदत्त सुरक्षा साम्य है ! अब आप ही कहें कि इन दो छोटी छोटी कथाओं में सूर्य,इंसान,सम्बन्ध,यौन सम्बन्ध,सामाजिक सुरक्षा, नायकत्व ,प्रणय, जैसे कंटेंट सर्वकालिक और सार्वभौमिक महत्त्व के हैं कि नहीं ?

    इसी तरह से कुछ अन्य महान भारतीय वाचिक परम्पराओं(जो अब लिखित हुईं)की सर्वकालिकता और सार्वभौमिकता / महत्त्व पर कौन सवाल खड़े कर सकेगा ?

    वाचिक परम्पराओं के रूप में हर समुदाय इन्हें सोद्देश्य विकसित करता है /होने देता है ! अपने आख्यानों को लेकर हर समुदाय के विशिष्ट उद्देश्य /निहितार्थ /और अन्य स्थानिक विशिष्टताएं होती ही हैं किन्तु जहां 'इंसान' और उसके 'सम्बन्ध' बतौर कंटेंट इस्तेमाल किये जायें वहां सर्वकालिकता और सार्वभौमिकता भी अवश्य मौजूद होगी !

    यदि समाज में शब्दों के साथ अपशब्द भी मौजूद हैं तो अर्थ के साथ अनर्थ का साहचर्य भी होगा पर ...उम्मीद है कि आप हमें केवल शब्दों और अर्थ के साथ ही जोड़ कर देखते होंगे :)


    @ संजीव भाई ,
    वाचिक परम्पराओं में ये संकट तो होता ही है इसीलिये गांव से गांव में कथाओं का आंशिक विचलन देखने को मिलता है !
    अतः संकलनकर्ता की महती जिम्मेदारी है कि पर्याप्त सतर्कता बरतते हुए ही इन्हें लिपिबद्ध करे !

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  12. .
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    .
    मतलब साफ है कि लोकाचार में जो हो रहा है या किया जा रहा है उसी को जस्टीफाई करते व एक वैद्मता सी भी देते हैं यह लोक आख्यान... पर एक बड़े रूप, बड़े प्रभाव क्षेत्र व बेहतर संगठन के साथ धर्म व धर्मग्रंथ भी यही सब करते दिखते हैं मुझे तो...


    ...

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  13. दोनो पोस्ट पढ़ी। अपने मन की बात सही-सही कहूँ तो ऐसी कहानियों का बस इतना ही महत्व है कि जिस समय ये आयीं, उस समय के सामाजिक और राजनैतिक सोच के बारे में हमें अंदाज लगाने का अवसर देती हैं।
    धर्म गुरू, शेष निरक्षर समाज से बुद्धिमान होते थे। ऐसी कहानियों का अस्तित्व में आना उस समय की परिस्थिति पर निर्भर करता था। भोजन, मैथुन ही मुख्य आवश्यकतायें हुआ करती थीं। समाज सुधार भी एक लक्ष्य था। वे अपने तरीके से समाज सुधार में लगे थे। ज्यों-ज्यों समाज विकसित होता गया, आवश्यकतायें बढ़ती गईं, ज्ञान बढ़ता गया सोच बदलती गई।
    इन काहानियों का इसी अर्थ में महत्व है कि हम
    इसके माध्यम से तत्कालीन सोच पर दृष्टिपात कर सकें।

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  14. @ प्रवीण शाह जी ,
    मेरे लिए आपकी दोनों बातें सही हैं !

    @ देवेन्द्र भाई ,
    सहमत हूं !

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  15. एक बात तो तय है कि पहले की कथा—कहानियां महज कपोल—कल्पनाएं नहीं होती थीं, बड़े जतन से बुनी जाती थीं ये...जैसे आजकल हम लोग कानून बगैहरा बना लेते हैं, सर्कुलर इश्यू करते रहते हैं या कान उमेठ देते हैं ठीक वैसे ही, पहले की ये पढ़ी—लिखी महाचालू आत्माएं वे कहानियां गढ़—गढ़ कर चलाती रहती थीं जिससे उनका अपना उल्लू सीधा होता हो...

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  16. विचित्र किन्तु रोचक!!!

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  17. दिलचस्प लोक-कथा के बहाने आखिर में एक बड़ा सवाल उठाया है आपने !

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  18. रोचक कहानियाँ हैं किन्तु उससे भी अधिक रोचक उन्हें देखने का तरीका है.
    घुघूती बासूती

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