वर्षों बीते आकाशवाणी की देहरी लांघे हुए ! एक फोन ...एक और फोन...फिर एक और ...अब आना ही होगा ! जनजातीय संस्कृति और सामाजिक जीवन पर आपके नज़रिये को शामिल करना तय पाया गया है ! अपना ख्याल ये कि दोस्ती में समय...आलस्य...अरुचि...समस्याओं और देहरियों जैसी ...बाधायें नहीं हुआ करतीं सो पहुंच गए और विमर्श में अपने ख्यालात चस्पा करके लौट भी आये पर... कार्यक्रम अगर सरकारी हो तो उसकी अपनी सीमायें होती हैं ! शब्दों के बंधन और समय के भी ...! विषय पर चर्चा कुछ और मित्र भी कर रहे थे तो ज़रा सा दान पुण्य हमारे हिस्से भी आया !
बहुत पहले लोक आख्यानों के हवाले से कुल जमा दो आलेख अपने ब्लॉग पर डाले थे मगर उनपर नुक्ताचीनी / तन्कीद हुई ही नहीं और तारीफों की हमें आदत ना थी ! यूं समझिये कि सिलसिला टूट गया , लोक आख्यानों पर कलम... आगे, नहीं चलाई , कीबोर्ड राह भटक गया ! पता नहीं क्यों ? आज फिर से ये ख्याल आया कि अपने इर्द गिर्द बसे मानुष अमानुषों की उस प्रवृत्ति पे चर्चा की जाये , जिसके तहत वे अपने समुदाय को किसी लोक आख्यान के साथ जोड़ कर खुद को देव स्वजन बतौर स्थापित करने के यत्न करते हैं ! किसी शिखर / किसी शीर्ष से अपने सूत्र जोड़ते हुए अनायास ही महानता के पथिक बन जाते हैं ! श्रेष्ठता के वंशज , कुलीन परम्पराओं के ध्वजवाहक हमारे पड़ोसी...हमारे देशज ,बंधु बांधव और हम ! अच्छे / बुरे , सज्जन / दुर्जन... मानुष अमानुष गंध बसे देव स्वजन...!
आशय यह है कि किसी भी समुदाय में नेक और अनेक किस्म के इंसानों के बसेरे होते होंगे किन्तु वे दूसरे समुदायों की तुलना में निज समुदाय को किसी गौरव गाथा से जोड़ कर अपनी श्री श्री वृद्धि का अवसर शायद ही खोते हों ? फिर इसके बदले में दूसरे बंदे भले ही कह डालें...खोते कहीं के ? एक ख्याल ये भी कि अगर कोई इंसान आज की तगड़ी प्रतिस्पर्धा में पिछड़ रहा हो तो वो अपने अतीत के बलबूते बढ़त हासिल करने की कोशिश करेगा ! श्रेष्ठि बोध से पीड़ित हम ? अपने मतलब का इतिहास गढ़ेंगे, भले ही इससे हमारे वर्तमान जीवन पर एक लेशमात्र असर भी नहीं होने वाला हो, पर अपनी लकीर उसकी लकीर से बड़ी कैसे हो का भाव हमसे छूटे भी तो कैसे ?
देवत्व / राजनैतिक प्रभुता / आर्थिक सबलता / यशमय जीवन / सामर्थ्य / ग्लेमर वगैरह वगैरह से बंधुत्व स्थापित करने में हमें ज्यादा वक्त नहीं लगता ! सच तो ये है कि हम अपने दंभ के तोष के लिए आख्यान रचते हैं और अपने सामुदायिक बडप्पन के साक्ष्य बतौर उनका इस्तेमाल करते हैं जबकि हम ये भली भांति जानते हैं कि आख्यान केवल आख्यान है उन्हें तथ्य / यथार्थ के तौर पर प्रस्तुत करना , कल्पनालोक / आभासी दुनिया में जीने के समान है ! व्यक्तिगत रूप से हम सभी आज तक इन आख्यानों का एक ही इस्तेमाल करते आये हैं और वो है , अपने समुदाय की महानता के ज़रिये , अपनी महानता का बोध ! क्या ये उचित नहीं होगा कि इन लोक आख्यानों की पड़ताल किसी दूसरे नज़रिये से भी की जाए ? ...तो यूं समझिए कि आलेख की अगली कड़ी में किसी एक आख्यान पर अपना नज़रिया हम पेश करेंगे और आपसे उम्मीद ये कि हमारे नज़रिये की खाल खींच कर भुस भर दिया जाए वर्ना हम साथ साथ ...?
ये अच्छा किया आपने कि पहले से चेता दिया, इंतज़ार है अगली पोस्ट का।
जवाब देंहटाएंतमाशाई बनकर ही सही, आयेंगे जरूर:))
आख्यानों और उस पर आपके नजरिये की प्रतीक्षा रहेगी.
जवाब देंहटाएंयही तो आपकी ज्यादती है जैसे मामला परवान चढ़ता है झट से आप यवनिका गिरा देते हैं -एक आख्यान लगा ही देना था न यहाँ !
जवाब देंहटाएंबहरहाल देर आयें है दुरुस्त आये हैं बस टिप्पणी विनिमय चालू रखियेगा -बाउ बंद कर दिए हैं -अब उन्हें कौन समझाए कि अब लड़कपन के दिन गए .......
अगला शो कब है ?? डॉ अरविन्द मिश्र के पीछे खड़ा हूँ !
जवाब देंहटाएंनुक्ताचीनी? ज़रूरी तो नहीं. speech is silver, silence is gold.
जवाब देंहटाएं@ मो सम कौन ? जी ,
जवाब देंहटाएंसावधान : भरी / भारी जेब के साथ खिंचवाई गई फोटो के अपने रिस्क हो सकते हैं :)
अब अंदर के बारे में अनुमान लगाने वालों की कमीं थोड़े ही है ना :)
@ राहुल सिंह जी ,
आख्यानों और उस पर हमारे नज़रिये का इंतज़ार कीजियेगा ? बेचारी भूमिका को भी तो कुछ मुंह दिखाई दे जाते :)
@ अरविन्द जी ,
उम्र का तकाज़ा है सो टायपिंग करते हुए सांस फूलने लगती बस यूं समझिये कि टुकड़ों में गुज़र बसर अपनी भी मजबूरी है :)
बाऊ के लड़कपन में उत्तम और रोचक की सुविधा मौजूद है पिछली दो पोस्ट से हमने फायदा उठाया आप भी उठाइयेगा :)
@ सतीश भाई ,
पंडिज्जी की ओट में रह कर शो देखियेगा ? :)
@ स्मार्ट इन्डियन जी ,
नहीं नुक्ताचीनी हमेशा ज़रुरी नहीं और तारीफ़ भी !
आभार !
बहुत ही गंभीर बातों की ओर इशारा किया है,इस पोस्ट में...पर उन पुरानी दो पोस्ट्स का लिंक भी देना था,ना...(अब भी लगा दीजिये)
जवाब देंहटाएंप्रतीक्षा है ,अगले पोस्ट में आपके नज़रिए से साक्षात्कार की...अभी तो कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा.
सोचने का ये ड्रस्टीकोण भी कमाल है ... इंसान अपनी महानता सिद्ध करने के लिए ... अपने समुदाय की महानता का बखान करता है ... वैसे इस दिशा में सोचो तो लगता है आपने सही ही कहा है ... हर कोई अपने अपने तारएके से इतिहास का उपयोग करता है ... नज़रिये का इंतज़ार ....
जवाब देंहटाएंvery nice post good blog
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Music Bol
Lyrics Mantra
देखें हम भी परदे की ओट में क्या है !
जवाब देंहटाएंयह भूमिका है तो आख्यान की प्रतीक्षा अभी से शुरू!! विषयांतर के लिये क्षमा चाहूँगा.. रविवार को आजकल ब्लॉग जगत की बहुचर्चित फिल्म देखने गया और दिखा ट्रेलर फिल्म सात ख़ून माफ का.. ट्रेलर में इतना थ्रिल है कि फ़िल्म का इंतज़ार अभी से शुरू कर दिया है!
जवाब देंहटाएंप्रतीक्षा रहेगी.. अलीआख्यान की!!
@ रश्मि जी ,
जवाब देंहटाएंइरादा ये है कि उन आख्यानों को प्रचलित अर्थों से अलग देखा जाए ! लिंक पुराने हैं कोशिश करूँगा कि आपको भेज पाऊं !
@ दिगंबर नासवा साहब ,
इरादे अपने भी नेक ही हैं ! कथा के विवेचन की अपनी कोशिश मित्रों से शेयर करने की इच्छा है शायद उन्हें पसंद आये !
@ हरमन साहब ,
Thanks.
@ वाणी जी ,
बस एक ख्याल है जिसे बांटता चलूं !
@ संवेदना के स्वर बंधुओ ,
शुक्रिया !
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जवाब देंहटाएं.
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श्रेष्ठि बोध से पीड़ित हम ? अपने मतलब का इतिहास गढ़ेंगे, भले ही इससे हमारे वर्तमान जीवन पर एक लेशमात्र असर भी नहीं होने वाला हो...
अली सैयद साहब,
जो भी समूह ताकतवर होता है वह अपने मतलब का व सुविधाजनक इतिहास गढ़ता है... यह एक ऐसा सत्य है जिसे नकारा नहीं जा सकता... यही हाल लोक आख्यानों के साथ होता है... न जाने कितने अय्याश-नाकारा-निकम्मे-डरपोक-चरित्रहीन आज इन्हीं मजबूरियों के चलते देवत्व पा आपने स्वजन-समूहों द्वारा पूजित हैं... कुछ नहीं किया जा सकता इस बारे में... :(
...
अभी तो लिफाफा देखा | मजमूँ पढने को मिले तो कुछ कहा जाए |
जवाब देंहटाएंआप भी कमाल करते हैं अली भाई कि लेख के अंत में सवाल उठाते हैं –“क्या ये उचित नहीं होगा कि इन लोक आख्यानों की पड़ताल किसी दूसरे नज़रिये से भी की जाए ?”
जवाब देंहटाएंलेकिन अपने सवाल का जवाब भी ठीक पहले वहीं दिए बैठे हो –“...खोते कहीं के”
:)
छत्तीसगढ़ के जनजातीय विकास पर आपकी गहरी पकड़ है, और पिछले पोस्टों में आपने अपने विचारों को संदर्भों से सिद्ध भी किया था इस कारण हमने आपके पिछले आख्यानों से संबंधित पोस्टों पर नुक्ताचीनी / तन्कीद नहीं की थी और अब भी नहीं करेंगें, सिर्फ अगली पोस्ट का इंतजार करेंगें.
जवाब देंहटाएंजनजातीय कबीलों के विकास का इतिहास क्षेत्र/सत्ता के लिए, आपसी झड़प व लड़ाईयों का रहा है इस कारण शौर्य कथाओं से जनजातियों का झुकाव स्वाभाविक है।
सच तो ये है कि हम अपने दंभ के तोष के लिए आख्यान रचते हैं और अपने सामुदायिक बडप्पन के साक्ष्य बतौर उनका इस्तेमाल करते हैं जबकि हम ये भली भांति जानते हैं कि आख्यान केवल आख्यान है उन्हें तथ्य / यथार्थ के तौर पर प्रस्तुत करना , कल्पनालोक / आभासी दुनिया में जीने के समान है !सही कह रहे हैं आप अगली कड़ी का इन्तजार हमें भी ।
जवाब देंहटाएं@ प्रवीण शाह जी ,
जवाब देंहटाएंसमय शायद सब कुछ बदल भी दे...पर ताकतवर समूह समय के साथ नई नई शक्लें बदल कर हाज़िर हो जाते हैं !
@ हेम पांडेय जी ,
जल्द ही मजमून भी देखियेगा :)
@ काजल भाई ,
आपने पकड़ ही लिया :)
@ संजीव भाई ,
आप कुछ ज्यादा ही हौसला बढ़ा दे रहे हैं :)
@ प्रिय मिथिलेश जी ,
आभार !
चाहे आख्यान हो अथवा जीवन का कोई पहलू, हर कोई अपने नजरिए से ही देखता है। हॉं, आप किस नजरिए से देखते हैं, यह देखने वाली बात रहेगी।
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ज्योतिष,अंकविद्या,हस्तरेख,टोना-टोटका।
सांपों को दूध पिलाना पुण्य का काम है ?