सोचता हूं कि जिंदगी अपनी , इश्क मुश्क और बीबी बच्चों तक ही तो महदूद नहीं , उसे इन हदों से बाहर भी होना होता है ! जहां अपने छोटे से कुनबे की सीमायें एक बड़े से समाज की सरहदों तक विस्तार पाती हैं और तब , जो सरोकार एक कुनबे की बेहतरी से ताल्लुक रखते हों , उन्हें अपनी लघुता को छोड़े बगैर इंसानियत की गुज़र मुमकिन नहीं रह जाती होगी ! ख्याल ये कि अगर छोटेपन के दायरे , बडप्पन की काट करने पर उतारू हो जायें तो फिर इन हालात में इंसान होना बेहद मुश्किल हो जाएगा और जानवर बने रह जाना बेहद आसान !
सोचता हूं कि मेरे मन के किसी भी कोने में कोई वहशियाना ख्याल बाकी न रहे और मैं दुनिया के तमाम इन्सानों से मुहब्बत करना सीख लूं जोकि नफ़रत करने की तुलना में बेहद कठिन सा काम लगता है , एक मुतवातिर शिकस्त के अहसास सा ! बस यही एक लम्हा साबित करता है कि किसी न किसी जानवर का वजूद मेरे अंदर मौजूद है जोकि मुझे , मुझ जैसे इंसानों और इंसानी सरोकारों से मुहब्बत करने की मेरी तमाम कोशिशों को नाकाम कर देता है !
सोचता हूं कि मैं मुहब्बत कर पाऊं , उन सब से जो मुझ जैसे हैं ! सोचता तो ये भी हूं कि मैं उनसे इस बारे में खुल कर बात करूं , उनसे कहूं वो सब जो मैं उनके हक में सोचता हूं और करना भी चाहता हूं ! आखिर को वे भी तो मेरे हक में सोचते ही होंगे और मेरी बेहतरी के लिए कुछ करना भी चाहते होंगे पर...बात शुरू हो तो कैसे ? और कहां से ? अभी तो ये भी तय नहीं हुआ कि हम अपनी नफरतों को खत्म करने के बारे में पहल करें या कि मुहब्बतों के फ़रोग के लिए ? मैं उनके कुंवे में और वे मेरे कुंवें में एक दूसरे का स्वागत क्यों करना चाहते हैं ? अपने अपने कुंवों से बाहर के समंदर में तैरने का ख्याल / इरादा / हौसला हम लोगों में क्योंकर नहीं है ?
सोचता हूं कि नफरत आलूदा लफ़्ज़ों से निजात पाऊं और उससे पहले अपने जहर बुझे ख्यालों से , पर...क्या यह सब केवल मुझे ही करना है ? ...तो मैं , सबके ऐसा करने का इंतज़ार करूं या फिर पहला कदम खुद ही रख दूं मुहब्बत की दुनिया में , इंसानों में आपसी उन्सियत की बहाली की उम्मीद के साथ ! फलसफा ये कि एक बूंद या अनेक बूंदें ? पहल किस शक्ल में और कैसे हो ? सोचता तो बहुत कुछ हूं ...बस ...सोचता ही हूं और फिर एक ख्याल की मौत के सदमें से गुज़रता हूं मैं ...
सोचता हूं कि नफरत आलूदा लफ़्ज़ों से निजात पाऊं और उससे पहले अपने जहर बुझे ख्यालों से , पर...क्या यह सब केवल मुझे ही करना है ?
जवाब देंहटाएं.
यह हम सब को मिल के करना है
आपके इतना सोचने पर मैं भी सोचने लगी...{एक ये काम, अमूमन मैं करती नहीं :)}
जवाब देंहटाएंये आशंकाएं ..ये हिचकिचाहट क्यूँ होती है...हम अपने युज़ुअल सेल्फ में क्यूँ नहीं रह सकते...सामने वाले की प्रतिक्रिया सोचकर ही कदम क्यूँ बढाते हैं...हमें खुद पर इतना विश्वास तो होना चाहिए...और जब हम ही अपनी भावनाओं और विचार को लेकर डरे होंगे तो सधे हुए कदम कैसे रख पाएंगे.
आप से हम, हम से वो, मिलने लगे
जवाब देंहटाएंसंभावना के फूल भी खिलने लगे।
देखिए आपके लेख को पढ़कर एक शेर लिख दिया ! शेर ही है न..! फिर आप क्यूँ चिंता करते हैं ? दुनियाँ में अभी बहुत सी अच्छी बातें होनी शेष हैं।
जवाब देंहटाएंयह सोच बनी रहे तो वह होने लगता है जो आप सोच रहे हैं, कन्फेशन वाले इस फलसफाना अंदाज की मुबारकबाद.
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएं.
.
सोचता हूं कि मेरे मन के किसी भी कोने में कोई वहशियाना ख्याल बाकी न रहे और मैं दुनिया के तमाम इन्सानों से मुहब्बत करना सीख लूं जो कि नफ़रत करने की तुलना में बेहद कठिन सा काम लगता है , एक मुतवातिर शिकस्त के अहसास सा ! बस यही एक लम्हा साबित करता है कि किसी न किसी जानवर का वजूद मेरे अंदर मौजूद है
अली सैयद साहब,
मेरे हिसाब से दुनिया के तमाम इंसान मोहब्बत के काबिल नहीं हैं... कुछ केवल नफरत के ही काबिल हैं... इसलिये अंदर के जानवर का वजूद भी बने रहना जरूरी हो जाता है... :(
...
@ मेरे हिसाब से दुनिया के तमाम इंसान मोहब्बत के काबिल नहीं हैं... :(
जवाब देंहटाएंप्रवीण शाह की बात से पूरी तौर पर सहमत हूँ मगर चाहते हुए भी नफरत कर नहीं पाता हूँ अक्सर वे कारण भी याद नहीं रहते :-(
@ मासूम साहब ,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
@ रश्मि जी ,
जब यूजुअल सेल्फ ही ऐसा हो तो क्या किया जाए :)
@ देवेन्द्र भाई ,
पहली टिप्पणी : आपके शेर पर फ़िदा हुए हम !
दूसरी टिप्पणी : यकीनन अच्छी बातें होना शेष हैं !
@ राहुल सिंह साहब ,
कन्फेशन के बाद के सुखद अहसास में जी रहा हूं अभी !
@ प्रवीण शाह जी ,
मुहब्बत और नफरत के अनुपात की ही चिंता है वर्ना तो दोनों की अनिवार्य उपस्थिति का सत्य हमें भी स्वीकार्य है !
@ सतीश भाई ,
अच्छेपन के कारण याद रखने के आवश्यकता भी नहीं है !
कई बार पढ़ने आ चुका हूँ, और लौट चुका हूँ। सोचा तो मैंने भी बहुत है अली सा(मुफ़्त का काम है आखिर:)) लेकिन तय नही कर पाया कि मेरी वहशियत कैसे खत्म हो। मोहब्बत का जवाब मोहब्बत से देना तो खैर बहुत बड़ी बात नहीं लगती, बात तो तब है जब नफ़रत का जवाब भी मोहब्बत से दे सके कोई।
जवाब देंहटाएंख्याल की मौत का सदमा सहना कतई आसान नहीं।
मुहब्बत का ख़्याल बेशक बहुत अच्छा है पर पहले हम हिन्दुस्तानी-शहरों में अजनबी को देख मुस्कुराना भर तो सीख लें :)
जवाब देंहटाएंहमारी जिंदगी भी सोच में ही ज़ाया जाती दिखती है साहब ;)
जवाब देंहटाएंवैसे अगर अच्छे, बुरे दोनों ही ख़याल वाकिफ होने से पहले ही दफ्न हो जातें है, तो देखा जाए तो हिसाब तो बराबर ही हुआ ;)
भूल चूक लेनी देनी ;)
हमारी सोच हमारे भीतर की इंसानियत को कायम रखे, यही कामना है।
जवाब देंहटाएं---------
डा0 अरविंद मिश्र: एक व्यक्ति, एक आंदोलन।
एक फोन और सारी समस्याओं से मुक्ति।
अली सैयद साहब,
जवाब देंहटाएंमेरे हिसाब से दुनिया के तमाम इंसान मोहब्बत के काबिल नहीं हैं... कुछ केवल नफरत के ही काबिल हैं... इसलिये अंदर के जानवर का वजूद भी बने रहना जरूरी हो जाता है... :(
दोनों ख़याल नेक है -इसलिए ही द्वंद्व है की कहीं तो जरुर कुछ गड़बड़ है !
क्या हो गया है हमारे आप लोगों को कि जहाँ देखिए मौत की ही बात की जा रही है । ज्यादा सोचिए मत भईया जिससे जो बात करनी हो कर लीजिए । और हाँ ये बात बिल्कुल ही जेहन से निकाल फेकिए कि सबको आप प्यार करेंगे , ये वर्तमान का सबसे बड़ा पाप है । अगर ऐसा आप किसी के साथ करेंगे तो आपकी गिनती चेलों में होगी ।
जवाब देंहटाएंक्या खुब लिखे है/ मजा आ गया
जवाब देंहटाएंमौत एक सदमा नहीं हकिकत है / यह जीवन जी रहे है वह उधार का है/ जबतक जी रहे हैं तबतक ऐसे ख्याल नहीं आना चहिये
जवाब देंहटाएं@ मो सम कौन ? जी ,
जवाब देंहटाएंवहशतों / नफरतों को लेकर ग्राउंड ज़ीरो वाला ख्याल नहीं है , उनका वज़ूद भी ज़रुरी है , उम्मीद ये कि मुहब्बतें थोडी ज्यादा सी हो पायें !
@ काजल भाई ,
मुस्कराहट...उसपे भी गोया राशनिंग हो गई हो याकि महंगाई का असर है :)
@ मजाल साहब ,
काश भूल चूक लेनी देनी पे मामला खत्म हो पाये !
@ ज़ाकिर अली साहब ,
आमीन !
@ अरविन्द जी ,
अगर उन्हें इंसान मान लें तो वे मुहब्बत के हक़दार हैं ! ना मानें तो दूसरे विकल्प हो सकते हैं !
@ प्रिय मिथिलेश जी ,
प्रतिक्रिया के लिये आभार !
@ शेखर जी ,
आपको मजा आया ?
ज़िन्दगी / सदमा / ख्याल / उधार / चाहना भी तो हक़ीक़त ही हैं और हक़ीक़त खुद भी... :)
विचारणीय प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएं