गुरुवार, 11 अगस्त 2011

अखबार...सुर्खियाँ और पार्श्वनाद !


सुबह सुबह खबर बांचना गोया व्यसन, मशीनी रूटीन और अखबारों के पन्ने पलटते हुए, परोसी गयी ख़बरों के दायरे के भीतर बाहर की समझ के इतर कागज़ में मौजूद  सुनियोजित वणिक वृत्तियों का संज्ञान ही नहीं लिया कभी ! हॉकर आता कि टूट पड़ते ! कुल जमा पांच अखबार और उनकी सुर्ख़ियों से गुज़रते हुए ख़बरों की पुनरावृत्ति के सिवा बस एक ख्याल ,चलो आगे देखें...अगली खबर क्या ? ख़बरें बहतीं...उड़तीं, हम बहते...उड़ते, ख़बरें बजतीं...नृत्य करतीं,हम बजते...नृत्य करते, वे ठिठकतीं...फुदकतीं सो हम भी, उनके साथ सुख दुःख गम-ओ-गुस्से के अहसास से गुज़रते हुए ! लहर दर लहर हिचकोले दर हिचकोले बस ख़बरों के साथ ! कहना ये कि कागज़ पर छापे के शब्दों और चित्रों में केवल उतना ही दिखता जितना कि दिखाया गया हो ! अखबार एक मिशन...एक माध्यम जो दुनिया से खबरदार करे,उसे जानने बूझने का मौक़ा दे ! ज़मीन के एक टुकड़े पर सिमटी हुई ज़िन्दगी को ज़मीन के ज़र्रे ज़र्रे और हालात से रूबरू कराने वाले अखबार की हैसियत किसी दूधखोर बच्चे की धाई मां सी लगती, जो उसके जान लेने  की कुदरती ख्वाहिश को हर हाल में पूरा करने का दम रखती !

छुट्टियों के बाद वाले दिन अखबार नहीं आने से उपजा खालीपन हमारी ज़िन्दगी में उनकी अहमियत बयान करता ! अखबार यानि कि आदत ! कभी सोचा भी नहीं...कितने पन्ने ...कितने पैसे...कितनी ख़बरें और कितने विज्ञापन ! पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी और दीगर त्यौहार वाले दिनों के बधाई संदेशों वाले अतिरिक्त पन्ने भी कभी गिने नहीं हमने ! साल में ऐसे गिने चुने मौके भी आदत में शुमार हो गये होंगे तभी तो दिमाग में खटक कुछ भी नहीं बस पन्ना दर पन्ना हर्फ़ दर हर्फ़ आँखों की मुसाफिरत सी ! अब ये महज़ इत्तिफाक है या  कुछ और जो, पिछले दिनों में, एक नया ट्रेंड सा चलन में देखा कि, अखबार के मुख्य पृष्ठ के ऊपर विज्ञापन वाला पृष्ठ कुछ इस तरह से अवतरित हो़ता कि जैसे कोई इंसान रोज़मर्रा की ड्रेस के ऊपर डिजाईनर कोट पहन ले ! अब लगता कि अखबारों को भी बिजनेस की ज़रूरत होगी वर्ना पहले वाला  मासूम ख्याल ये कि अखबार हम पर कृपा करते हैं बिजनेस नहीं ! 

अब हुआ ये कि आज सुबह जैसे ही एक ख्यात नाम दैनिक समाचार पत्र को हाथ लगाया कि पहले पहल डिजाइनर कोट हाथ लगा, सोचा चलो देखते हैं कि इस कोट के पैसे भी अखबार की कीमत में शामिल हैं याकि नहीं ! पढ़ा कुल पृष्ठ 20 और कीमत एक रुपये पचास पैसे मात्र, पृष्ठ गिन भी डाले, पक्का हुआ कोट समेत कुल 20...अब सूझा ये कि इन बीस पन्नों में ख़बरें कितनी और विज्ञापन कितने ? सो पाया ये कि केवल सम्पादकीय पन्ने को छोड़ कर शेष सभी 19 पन्ने विज्ञापनों से लैस हैं और कमाल ये कि पांच पन्ने खालिस विज्ञापन वाले...यानि कि खबर शून्य पन्ने ! अपने लिए यह पहली अनुभूति, जो कि अखबार की धाई मां वाली छवि पर चोट कर गयी, लिहाजा हाथ में स्केल और अखबार के कागज की नाप शुरू ! नतीज़ा ये कि इस्तेमाल शुद कागज कुल 3.85 वर्ग मीटर और उसमें विज्ञापन का हिस्सा 2.0092 वर्ग मीटर निकला,यानि कि ख़बरों के मुक़ाबिल विज्ञापन 52.18 फीसदी कागज पर काबिज थे ! इसे यूं समझिए कि अखबार के 20 पन्नों में से 10.43 पन्नों पर विज्ञापनों का साम्राज्य विस्तारित था और एक उपभोक्ता कि हैसियत से हमारे एक रुपये पचास पैसे का भी यही हाल हुआ जानिये  ! 



 { नोट : दिन / माह और फिर कितने साल ? अखबार /  उपभोक्ता ...अरे नहीं ... मैं यह सब नहीं गिनने वाला }

34 टिप्‍पणियां:

  1. वाकई जिस दिन अखबार न आये, सुबह सूनी सी लगती है !

    आप अखबारों की कमाई पर निगाह क्यों रखते हैं भाई जी ? लगता है आपने इस विषय पर खोज शुरू कर दी है अगला हथियार आपका आर टी आई होना चाहिए :-)

    शुभकामनायें ख्यात को !

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  2. फिलहाल तो आदत सी बन गई है, विज्ञापनों पर से नजर फिसल जाती है, लेकिन अब शायद हमारी भी निगाह अटके विज्ञापनों पर.

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  3. मैं जानता था ख़बरें आपकी कमजोर नस है ..लगता है आज दब गयी :)

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  4. सही नब्ज़ पकडी है आपने। अखबार वाले शायद कहें कि विज्ञापन के बिना अखबार की कीमत 3.00 होती इसलिये हम आपको सबसिडी के रूप में खबर के साथ विज्ञापन परोस रहे हैं।

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  5. @ सतीश भाई ,
    अब क्या छुपायें आपसे , मजबूरी में ही सही , आर टी आई वाले मसले में जबाब देने वाले खूंटे से बंधे हुए हैं :)

    @ राहुल सिंह साहब ,
    ये अखबार वाले जिस जिस तरह के विज्ञापन छापते हैं उनसे निगाहें फिसल जाना भी भलेपन की निशानी माना जाएगा :)

    @ अरविन्द जी ,
    अभी ब्लॉग जगत की ख़बरों वाला हिस्सा बाकी है :)

    @ अनुराग जी ,
    गज़ब ये है कि वे विज्ञापन प्रदाता से जो रकम विज्ञापन छापने की एवज में वसूल रहे हैं या जो व्यवसाय कर रहे हैं उसके अलावा पाठक/उपभोक्ता से विज्ञापन को बांचने/देखने का पैसा भी वसूल रहे हैं !
    सबसिडी वाले तर्क की सम्भावना तो है ही :)

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  6. मेरी एक पोस्‍ट पर चंदन कुमार मिश्र जी की टिप्‍पणी थी-
    ''हिन्दी मीडिया ही क्यों इस अंग्रेजी मीडिया ने क्या किया है? चाहे जैसा भी हो दूरदर्शन ही देखने लायक है न कि सड़े हुए और सारे समाचार चैनल। दो मिनट की खबर आधा घंटा तक दिखा कर पगलाते रहते हैं सब। अखबार में आप पन्ने गिन लें तो आप देखेंगे अंग्रेजी अखबार में खेल के लिए 2-3, फिल्म-तमाशों के लिए 2-3, व्यापार के लिए 2-3 और कुल जमा 2 से 3 पन्ने खबरों के लिए। अगर ईमानदारी से पन्ने देखें यानि विज्ञापनों को छाँट कर तब एक दिन दो-तीन पन्नों का ही अखबार होता है और सब दुराचार होता है।

    अभी एक दिन मैंने एक अखबार में विज्ञाप्न गिनने शुरु किए तो 200 से 400 विज्ञापन हर दिन आ रहे होंगे।''

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  7. मैण तो कुछ दिनों पहले विज्ञापनों को गिन चुका हूँ। http://akaltara.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html पर तो कहा भी था। अखबार का नशा भी खूब होता है, मन होता है कि सबसे पहले हम ही पढ़ें। लेकिन अब वैसा नहीं रहा। अब हल्के ढंग से अखबार देखता हूँ। विज्ञापनों ने तो अखबारों को हकमार मना दिया है!

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  8. @ राहुल सिंह जी ,
    चन्दन कुमार मिश्र जी की टिप्पणी मैंने पढ़ी थी और उनके नज़रिये से खुशी भी हुई थी !

    मैंने 13 जुलाई से 17 जुलाई 2008 के बीच 'जनसंचार माध्यम और उनकी सामाजिक ग्राह्यता' विषय पर एक संक्षिप्त श्रंखला अपने ब्लॉग में प्रकाशित की थी पर उस वक़्त रिस्पोंस ज्यादा नहीं मिला ! बहुत संभव है कि प्रस्तुतीकरण कमजोर रहा हो :)
    आज का आलेख भी उस श्रंखला से प्रेरित किन्तु नए कलेवर में प्रस्तुत मानियेगा !

    समय हो तो ये लिंक देखियेगा :-


    http://ummaten.blogspot.com/2008/07/blog-post_13.html

    http://ummaten.blogspot.com/2008/07/1_13.html

    http://ummaten.blogspot.com/2008/07/2.html

    http://ummaten.blogspot.com/2008/07/3.html


    @ चन्दन कुमार मिश्र जी ,
    आपकी सोच / चिन्तनशीलता से बेहद खुश हूं !

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  9. is tarah ke bazarvad(prachar-prasar)
    se vitrishna paida ho jata hai.....

    pranam.

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  10. ’अखबारों में विज्ञापन (१९३६) : ले. महादेव देसाई ’ कुल १६ भागों में पत्रकारिता पर १९३६ की यह रपट है , देखने लायक ।

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  11. इतने ध्यान से तो हमने देखा ही नहीं....
    पर इतना जरूर है कि कभी दो दिन अखबार नहीं देख पायी {आप पुरुषों के साथ शायद कभी ऐसा ना हुआ हो...हम महिलाओं के साथ होता है :)}.....और जब दो दिन बाद....एक साथ छः अखबार लेकर बैठी..तो पता चला...हमने कुछ भी मिस नहीं किया था...पढ़ने लायक कुछ था ही नहीं...:(

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  12. इस डिजाइनर कोट से मैं बहुत परेशान रहती हूँ विशेषकर तब जब पहला पन्ना एक चौथाई, एक तिहाई या आधा ही हो। बहुत बार तो पहले कोट उतारकर रख देती हूँ फिर अखबार पढ़ती हूँ।
    विज्ञापन तो हम मुम्बई आकर देख रहे हैं। छोटे शहरों और कस्बों के हिस्से तो यह अलग से १२ सोलह पन्नों की विज्ञापन वाली(और सिनेमा वाली) रद्दी आती ही नहीं। कमी है तो मैं यह सोच सोच दुखी होती हूँ कि न जाने कितने पेड़ हमें यह विज्ञापन (और सिनेमा वाली खबरें) दिखाने पढ़ाने के लिए काटे जाते होंगे़।
    घुघूती बासूती

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  13. @ फोन पर प्राप्त टिप्पणी ,
    एक रुपया पचास पैसे में क्या पेपर वालों की जान ले लीजियेगा :)

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  14. अली सर,

    ख़बरों और विज्ञापन का रेशो अगर ४०:६० है तो ठीक है ........नहीं तो अखबार बंद हो जाते है.

    ये प्रिंट मीडिया की सच्चाई है.... आप कड़वी कह सकते है - पर वर्तमान पीडी के लिए यही सत्य है...
    वो मात्र विज्ञापन के लिए ही तो अखबार देखते हैं.:)

    ये नए लोकतंत्र की बयार है

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  15. @ संजय झा जी ,
    आभार !

    @ अफलातून साहब ,
    आज सुबह ही महादेव देसाई की रिपोर्ट के विषय में राहुल सिंह जी से चर्चा हो रहे थी ! आपका बहुत बहुत शुक्रिया !

    @ रश्मि जी ,
    हे ईश्वर , हम तो उस ना कुछ को कई कई बार पढते हैं :)

    @ घुघूती बासूती ,
    बाजारवाद से इतर पेड़ वाला मुद्दा भी चिंतनीय है !

    @ मित्र ,
    :)

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  16. @ दीपक बाबा ,
    अब आप की रिकमेंडेशन है तो विज्ञापन पढ़ने के लिए आठ फीसदी और सही :)

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  17. Jis din akhbaar na aaye soona,soona to lagta hai! Haan! Vigyapanon se to bhare rahte hain!
    Raksha bandhan aur 15 august kee anek shubhkamnayen!

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  18. दीपक बाबा की बात पर वह छोटी बच्ची याद आ गयी जो विज्ञापनों के लिये चित्रहार देखने बैठती थी और बीच-बीच में गाने आने पर उठकर दूसरे कमरे में चली जाती थी। इसी प्रकार दिल्ली में एक समय में पत्रिकाओं के साथ मुफ़्त प्रोडक्ट बाँटने का समय चला था। एक सहकर्मी पत्रिका की सामग्री के बजाय संलग्न उत्पाद का मूल्य देखकर पत्रिका खरीदते थे। पसन्द अपनी अपनी ... लोकतंत्र में सबको चुनाव की आज़ादी है। कम्युनिस्ट राज में रहे लोगों से पूछिये जहाँ हर अखबार और चैनल को वही दोहराना पडता है जो महाराजाधिराज ने फ़रमाया हो।

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  19. क्षमा जी,
    शुक्रिया , रक्षाबंधन और स्वतंत्रता दिवस के पुण्य अवसर पर हमारी ओर से अशेष शुभकामनायें स्वीकारिये !


    @ अनुराग जी ,
    दीपक बाबा के सामने तो मैं पहले ही सरेंडर कर चुका हूं अब पसंद अपनी अपनी पे और सही :)

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  20. विज्ञापन न मिले तो अखबार चले नहीं
    हम अपना सर क्यों दुखायें
    अच्छा न लगे तो पढ़ें नहीं
    ..अब कोई पेशा सेवा भाव वाला बचा नहीं। सभी पेशे को लोगों ने शुद्ध रूप से धंधा बना लिया है। धंधा है तो कंपटीशन है । अर्थ युग है जिसमें कंपटीशन अधिक कमाने का...अधिक पैर फैलाने का..लोभ जब अधिक हो तो धंधा गंदा हो ही जाता है। कलम बिकने लगी है..जो अधिक पैसा दे, उसकी तरफदारी में लिखने लगी है। डाक्टर वही दवा लिखते हैं जिसमे उन्हें कमीशन मिलता है..शिक्षक पैसा लेकर थिसिज लिख रहे हैं...नकल करा रहे हैं..पास कर रहे हैं..। सेवा भाव की कल्पना करना मुश्किल है। पहले कोई बेईमान मिलता था तो लोग अचरज करते थे अब कोई ईमानदार मिलता है तो दांतो तले उंगलियाँ दबाते हैं।
    मैने सुना है कि अखबार के दफ्तरों में पत्रकारों का भी खूब शोषण होता है। कम तनख्वाह मिलती है। अपना लेख संपादक के नाम से छापना पड़ता है। उस पर आश्चर्य यह कि कहीं इस शोषण की खबर नहीं छपती। दुनियाँ के शोषण के खिलाफ लिखने वाले पत्रकार अपने शोषण के खिलाफ नहीं लिख पाते।

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  21. .अखबार एक मिशन...एक माध्यम जो दुनिया से खबरदार करे , उसे जानने बूझने का मौक़ा दे ! ज़मीन के एक टुकड़े पर सिमटी हुई ज़िन्दगी को ज़मीन के ज़र्रे ज़र्रे और हालात से रूबरू कराने वाले अखबार की हैसियत किसी दूधखोर बच्चे की धाई मां सी लगती , जो उसके जान लेने की कुदरती ख्वाहिश को हर हाल में पूरा करने का दम रखती !
    बेहद सुन्दर लेखन की मिसाल हैं आप अली साहब -खबर वही जो अखबारी लाल बताएं .आपकी पोस्ट बहुत ही सुन्दर सार्थक और प्रतीकों का नया ओढना लिए है .रक्षा के सूत्र मुबारक भाई साहब .
    कृपया यहाँ भी दस्तक दें -
    http://www.blogger.com/post-edit.g?blogID=232721397822804248&postID=५९१०७८२०२६८३८३४०६२१
    HypnoBirthing: Relax while giving birth?
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
    व्हाई स्मोकिंग इज स्पेशियली बेड इफ यु हेव डायबिटीज़ ?
    रजोनिवृत्ती में बे -असर सिद्ध हुई है सोया प्रोटीन .(कबीरा खडा बाज़ार में ...........)
    Links to this post at Friday, August 12, 2011
    बृहस्पतिवार, ११ अगस्त २०११

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  22. अरे अली साहब अब बांचा है इस पोस्ट को पुर्सूकून ,तसल्ली से ,तब जाते जाते टिपण्णी कर गया था .अखबार के शव परीक्षा ,सीरम जांच ,लिपिड प्रोफाइल ,सेहत और सीरत का पूरा जायज़ा ,पैमाइश दे गए आप .हाँ अब अखबार एक किशन नहीं ,निगम हैं ,कोर्पोरेट हाउस हैं जहां मालिक ही सम्पादक है .आपकी भाषा शैली और लहजे पर सम्मोहित हूँ .छा गए भाईसाहब इतना सुन्दर विश्लेषण ,अन्वेषण अखबार औ अखबारी लालों का .दूसरे छोर पर पराभू चायवाला जी हैं ,सीधी बात नहीं अपनी बात कहतें हैं ,सामने वाले के मुख में अपने शब्द रखतें हैं .
    व्हाई स्मोकिंग इज स्पेशियली बेड इफ यु हेव डायबिटीज़ ?

    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
    रजोनिवृत्ती में बे -असर सिद्ध हुई है सोया प्रोटीन .

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  23. १० दिनों के लिए अखबार पढना, टीवी देखना बंद कर देखें.

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  24. @ देवेन्द्र पांडेय जी ,
    टिप्पणी का पहला पैरा :-
    इस दुनिया-ए- फानी में पढ़ने,सचेत और अद्यतन बने रहने की आदत से लाचार हैं ! रिएक्शन भी रोके रुक नहीं पाते ससुरे :)

    टिप्पणी का दूसरा तीसरा पैरा :-
    आपसे सहमत ! सारा खेल पैसे और उसकी वज़ह से इंसान से छल का है और छलने वाला भी इंसान ही तो है !

    @ वीरू भाई ,
    (१)
    आपका आभार !
    पर्व द्वय की अनंत शुभकामनायें !
    (२)
    इन प्रभु का प्रभु ही मालिक है :)

    @ आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
    माया महा ठगिनी हम जानी , कह तो दिया पर ... उसे छोड़ना इतना सहल है क्या :)

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  25. अब अख़बार वालों को पता है कि लोग ख़बरें टी.वी. देख लेते हैं इसलिए वे इनके लिए ज़्यादा स्थान बर्बाद नहीं करते :)

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  26. हम तो सम्पादकीय पृष्ठ से ज्यादा कुछ भी गंभीरता से नहीं पढ़ते , इसलिए हमारे भले से कुछ भी लिखे !

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  27. अच्छा लेख और नजरिया।जब अख़बार प्ढना शुरू किया
    था 1980 में तब कीमत 25 पैसे थे,आज 1.50 रु.।तुलना करें तो कीमत ज्यादा नहीं बड़ी,पर अब विज्ञापनों के बीच ख़बरें तलाशनी पड़ती हैं।

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  28. अच्‍छा विश्‍लेषण।

    बाल साहित्‍य संगोष्‍ठी की वजह से पन्‍द्रह दिन काफी व्‍यस्‍त रहे। इसीलिए इतनी लेट पहुंचा यहां तक।

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    कसौटी पर शिखा वार्ष्‍णेय..
    फेसबुक पर वक्‍त की बर्बादी से बचने का तरीका।

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  29. एक aadat si ho gai hai tu ,aur aadat kabhi nahin jaati......kal dushyant ji kaa janm din hai ,badhaai aapko bhi .
    सोमवार, २९ अगस्त २०११
    क्या यही है संसद की सर्वोच्चता ?
    http://veerubhai1947.blogspot.com/

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  30. eo kehte hain na, jab tv serial ke bad ye aata he ki "this progrma spomserd by so & so compnay", but hota to theek iske ulat hi hai!

    "add sponserd by so & so serial"

    to yahi haal akhbaar ka bhi he!

    baise aapki "Geomtery" kafi strong hai! bakaul naap-tol !

    sundar paricharcha!

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  31. वैसे इस मामले में लखनऊ से शुरू हुआ जनसंदेश टाइम्‍स फिलहाल नया अनुभव दे रहा है। उसे पढकर लगता है, जैसे सचमुच कुछ नया पढ रहे हों।

    ------
    क्‍यों डराती है पुलिस ?
    घर जाने को सूर्पनखा जी, माँग रहा हूँ भिक्षा।

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  32. अच्‍छी पोस्‍ट।
    मीडिया पर अब बाजारवाद हावी हो गया है।
    क्‍या करें.... दूसरी चीजों की तरह अखबार भी इससे अछूता नहीं रहा अब।
    वैसे अली साहब एक जानकारी जो मुझे है वो मैं साझा करना चाहता हूं कि 16 से 20 पन्‍ने का रंगीन अखबार जो हम तक पहूंचता है, उसके कागज, प्रिटिंग कास्‍ट लगभग चार से पांच रूपए होती है.... पर फिर भी यह हमें डेढ से दो रूपए में मिल रहा है... तो बाकी के पैसे क्‍या अखबार मालिक लगाते हैं.... वो इसे विज्ञापनों से हुई कमाई में एडजेस्‍ट करते हैं...... लेकिन इसके बाद भी अब खबरों से ज्‍यादा महत्‍व विज्ञापन पर दिख जाने लगा है(जैसा कि आपने बताया खबरों के मुकाबले विज्ञापन का प्रतिशत अधिक होता है)
    ...... वैसे अब तो 'हिडन विज्ञापनों' का दौर भी आ गया है, कुछ चीजें आप अखबार में पढते हैं, खबरों की शैली में लिखी हुई और खबरों की तरह ही लगी हुईं पर दरअसल में ये होते विज्ञापन हैं.... इन 'खबरों' का भुगतान सेंटीमीटर कालम के हिसाब से होता है।
    खासकर चुनावों के दौरान इस तरह के 'हिडन विज्ञापन' अखबारों की कमाई का बडा जरिया होते हैं।
    बहरहाल, दैनिक जीवन में हम सब का हिस्‍सा बन चुके अखबारों को लेकर इस सार्थक पोस्‍ट के लिए आपका आभार।
    और हां, आपके ब्‍लाग पर काफी दिनों बाद आया इसके लिए माफी चाहता हूं।

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