सुबह सुबह बाहरी दरवाजे की हर आहट पर ध्यान रहता है , उधर घंटी बजी इधर बेटा दौड़ा , न्यूज पेपर आया होगा ? हर रोज यही सिलसिला ! आम तौर पर हेड लाइन्स देख , मज़मून भांपने की शैली में पेपर पढ़ना एक आदत निबाहने जैसा लगता है...एक रूटीन सा ! पिछले कुछ महीनों से संजीव तिवारी की कृपा से 'छत्तीसगढ़' समाचार पत्र भी सुबह सवेरे की मुहब्बत का हिस्सा बन गया है पर खास बात ये कि खबरों से फिसलन के बावजूद सम्पादकीय पर अटकना ही पड़ता है ! बस ऐसे ही कल यानि कि बृहस्पतिवार को भी 'असहमति और राजद्रोह' के उनवान पर ठहर सा गया ! मुद्दा अरुंधति के बहाने 'विचार' पर सहमत और असहमत होने के ख्याल से वाबस्ता होने के कारण बेहद अपना सा लगा क्योंकि विचार के प्रति असहिष्णुता मुझे भी आहत करती आई है ! उक्त सम्पादकीय पर मेरी प्रतिक्रिया से पहले ही संजीव इसे अपने ब्लॉग मे प्रकाशित कर बौद्धिकों का अभिमत मांग चुके हैं !
विषय , अरुंधति , मार्क्सवाद , काश्मीर और राष्ट्रवाद से जुड़ा हो तो उस पर "श्रृगाल वत हुआ हुआ" ब्रांड टिप्पणी निज तौर पर मुझे पसंद नहीं क्योंकि इसमे विषय और विचार के प्रति तर्कपूर्ण प्रतिवाद कम और मित्रों के संवेदनशील / भावुक मिजाज माइंड सेट का जोर ज्यादा रहता है ! कहने का आशय ये कि प्रेम , श्रद्धा और भावुकता के साथ किन्हीं मुद्दों से हमारा जुड़ाव किसी 'विचार' विशेष की विवेक सम्मत , तर्कपूर्ण और निरपेक्ष शल्यक्रिया का अवसर छीन लेता है ! खतरे साफ़ तौर पर दो है , एक तो हम विचार के प्रति प्रेम मे अंधे की तर्ज पर सत्य से भटक सकते हैं और दूसरा , मौलिक विचार के प्रति असहिष्णुता , पूर्वाग्रह हमारे व्यक्तित्व का क्रूरतम पक्ष कहलायेगा ! मेरा ख्याल है कि अरुंधति के बारे में , मैं किसी भी निष्कर्ष पर तब पहुंचूंगा जबकि उनका वक्तव्य मैंने स्वयं पढ़ लिया हो और हर्फ़ दर हर्फ़ , उसकी विवेकाधारित विवेचना कर पाऊं वर्ना मुझे क्या अधिकार है कि सुनी सुनाई बातों के आधार पर कोई धारणा बनाऊं ? क्या ये संभव नहीं कि आज अरुंधति , कल मैं , परसों आप , इस भेडचाल , सुने सुनाये , धारणावाद का शिकार हो जायें ? ज़रा कल्पना कीजिये कि मुझे या आपको समझे या पढ़े बगैर कोई 'भीड़' रिजेक्ट कर दे , राजद्रोही ठहरा दे ? संभव है कि तमाम सन्दर्भों और शब्दों की तर्कसंगत पड़ताल के बाद अरुंधति के 'विचार' विशेष को खारिज ही होना पड़े , तब नि:संदेह उन्हें विधिक नतीजों को भुगतने के लिए तैयार रहना होगा किन्तु शब्दों को सुनवाई से पूर्व ज़ज्बाती तौर पर खारिज किया जाना अनुचित है ! लगभग ऐसा जैसे कि कोई न्यायालय आरोपी का पक्ष जाने बगैर सज़ा सुना दे! मेरा ख्याल है कि विचारों के प्रति ऐसी निर्ममता किसी भी स्तर की बौद्धिकता का हिस्सा नहीं मानी जा सकती !
कोई दो दिन पहले ही शिखा वार्ष्णेय के ब्लॉग पर ऐसी ही टिप्पणियों की भरमार देखकर मन काफी विचलित हुआ , विश्वास नहीं होता कि उनमें से किसी भी बुद्धिजीवी ने अरुंधति का मूल वक्तव्य पढ़ने का कष्ट किया होगा या कि पढ़कर रिजेक्शन का ख्याल किया होगा ! क्या मानूं इसे ? ना कोई वाद और ना ही कोई प्रतिवाद , बस सजा और केवल सजा की घोषणायें ! कैसा बौद्धिक विमर्श था ये ? दूसरे मित्रों की तो कह नहीं सकता पर अपने विचारों / शब्दों की सुनवाई ज़रूर चाहूँगा ! आखिर को मेरे विचारों और शब्दों को भी अपना पक्ष रखने का अधिकार है कि नहीं ? बस यही तर्क मैं सभी तरह के बौद्धिक विमर्शों और विचारों के स्वीकार अथवा अस्वीकार की कसौटी के साथ संबद्ध कर देखना चाहूँगा !
'छत्तीसगढ़' के इस चिंतनपरक सम्पादकीय में राजद्रोह के मसले पर गृहमंत्रालय और उच्चतम न्यायालय के अभिमत का ज़िक्र किया गया है और यह भी कि इन बिंदुओं को अनेकों राजनेता पहले भी स्पर्श कर चुके हैं तो अरुंधति ?... सच कहूं तो काश्मीर मेरे लिए भी जीवन मृत्यु का प्रश्न है ! मैं सपने में भी नहीं सोच सकता कि वह मेरे मुल्क का अटूट हिस्सा नहीं है ! उसके मुल्क से अलग होने का ख्याल भी मेरे लिए खुदकुशी करने जैसा है ! पर इसका मतलब ये नहीं कि मैं इसपर किसी दूसरे बंदे के तर्क भी ना सुनूं ? जब मैं कहता हूं कि काश्मीर मेरे मुल्क का मुकुट और अभिन्न अंग है तो इसे विधि सम्मत ठहराने के लिए मुझे महाराजा हरिसिंह का दस्तखत याद आता है जिसने विलय पर अंतिम मुहर लगा दी और अलगाव की सारी संभावनाएं समाप्त कर दी , लेकिन अगर कोई दूसरा कहे कि महाराजा हरिसिंह की बतौर शासक उपस्थिति के दिनों में काश्मीर मेरे मुल्क से अलग था तो ? ये तो सहज तर्क की प्रक्रिया है फिर मैं भला इससे खफा क्यों होऊं ? मेरे लिये ' था ' और ' है ' में से विकल्प चुनना कठिन कहाँ है ? अगर अरुंधति ' था ' का ज़िक्र करती हैं तो क्या ? मेरे पास तो ' है' ना ? ' है' जो वर्तमान और यथार्थ है क्या उसे अरुंधति ने अस्वीकार किया ? इसे जाने / पढ़े बगैर राजद्रोह के निर्णय तक कैसे पहुंचूं ?
काश्मीर मे पंडितों और मुसलमानों का सहअस्तित्व मेरा ख्वाब है इसे यथार्थ मे बदलना चाहिए पर अतिवाद और अलगाववाद की बुनियादी वज़हों से निपटे बगैर ख्वाब को यथार्थ में कैसे बदला जाये ? वार्ता भी ना करें ? जो हमारा हिस्सा है जो हमारे नागरिक हैं उनकी बात भी ना सुने ? बहुत दिनों से एक जुमला सुनते आया हूं कि "सारे मुसलमान आतंकी नहीं होते पर ज्यादातर आतंकी मुसलमान क्यों हैं ? " कितना सरलीकरण है , अपनी तर्ज पर बात को कहने के लिये ? अब इसी सरलीकरण को एक दूसरे रूप में देखिये...मुल्क के इतिहास में देश से धोखा करने वालों की गिनती करके क्या ये कहा जाये कि " सारे हिंदू गद्दार नहीं पर ज्यादातर गद्दार हिंदू क्यों हैं ? " क्या बकवास है ! इस कुतर्क को लिखते हुए भी लज्जित हूं क्योंकि सच मुझे पता है कि सैन्यबलों में आबादी का अनुपात इस कुतर्क को होने की वज़ह देता है वर्ना गद्दारी और देशप्रेम का सर्टिफिकेट धर्म आधारित हो ही नहीं सकता ! वास्तव में ऐसे कुतर्क उन लोगों का सहारा हैं जो विचारों के प्रति असहिष्णु और निर्मम हैं ! जिन्हें खुद के तर्कों पर भरोसा नहीं और जो राष्ट्रवाद तथा अंधराष्ट्रवाद में फर्क नहीं करते ! बुनियादी बात ये है कि हम इंसान हैं या कि जानवर ? और अगर इंसान हैं तो एक दूसरे को समझते क्यों नहीं ? भला वार्ता से बेहतर और कौन सा रास्ता हो सकता है एक दूसरे को समझने / समझाने और सहमत / असहमत होने का तथा औदार्यता के साथ जीवन जीने का ? मुमकिन है कि वार्ता के पक्ष में राम जेठमलानी का अभिमत , उनके ही कुनबे में उन्हें विजातीय घोषित करने के लिए पर्याप्त साबित हो जाये ? तो फिर इस प्रवृत्ति को क्या कहा जाये ? केवल अपनी मुर्गी की डेढ़ टांग ? केवल असहमत होने के लिए असहमत होना ?
सम्पादकीय में लोकतंत्र के गौरव और देशहित जैसे प्रश्न भी उठाये गये हैं , इसके साथ ही यह भी साफ़ तौर पर कहा गया है कि कई बिंदुओं पर अरुंधति से असहमति होने के बावजूद सहमति गुंजायश की अनदेखी करना उचित नहीं है ! मेरे हिसाब से बहुत ही संतुलित और सहज ढंग से लिखा गया सम्पादकीय है ये जो कि असहमत और सहमत होने के बुनियादी हक़ के साथ खडा है ! मैं खुद भी अरुंधति के सारे तर्क जानकर ही उनसे असहमत और सहमत होनें के बिंदु तय कर पाउँगा ! मित्रों का पता नहीं पर मैं गंभीर विमर्श के पक्ष में हूं क्योंकि मैं अपनी सुविधानुसार देश प्रेम की व्याख्या नहीं करना चाहता और ना ही विधिक सुनवाई से पहले किसी विचार की 'हत्या' का दोषी होना चाहूँगा ! मुझे इस देश का जिम्मेदार नागरिक मानते हुए...समझिए , स्वीकार कीजिये , ख़ारिज कीजिये और विश्वास कीजिये कि मैं भी आपके साथ ऐसा ही बर्ताव करने का इच्छुक हूं ! इस देश को वैचारिक औदार्यता तथा सहिष्णुता की दरकार है !
अभी पिछले ही दिनों सोच रहा था कि देश द्रोह , संविधान द्रोह, राष्ट्र्गान द्रोह , राष्ट्रध्वज द्रोह में क्या अंतर हैं ? वैचारिक अतिवाद और दैहिक अतिवाद के प्रश्नों के उत्तर कहां खोजूं ? राजनेता ... धार्मिक नेता ... व्यापारी और हम सब जो करते हैं , जो कहते हैं उनमें से कितना इन श्रेणियों से बाहर होगा ? लेकिन ये तो तय है कि इन सभी को अपने विचारों और कार्यों का पक्ष रखे बगैर , किसी सुनवाई के बगैर अपराधी घोषित नहीं किया जा सकेगा ! हम सलामत रहें ! देश सलामत रहे ! अतिवाद से परे विचार विमर्श जीवित रहे ! पूर्ण सहिष्णुता और उदारता , सम्पन्नता के साथ...सुख समृद्धि से सुसज्जित राष्ट्र , परस्पर सहमत और असहमत होते हुए सुसंस्कृत प्रेमिल नागरिकों के बलबूते शक्तिशाली राष्ट्र की उम्मीद के साथ !
Aliji appse sahmat hu.
जवाब देंहटाएंआज कुछ चरम पर दिख रहे हैं. . ज्यादा विचलन स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं होता. इस देश को ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में वैचारिक औदार्यता तथा सहिष्णुता की आवश्यकता है !
जवाब देंहटाएंJosh se bhara aalekh hai...lekin aapke vicharon se sahmat hun..hame apnee baat kahne ka poora adhikaar hai...aur kisee kee kahee baat pe,us baat ko bina padhe apni raay dena uchit nahi. Yebhee sach hai,ki,jab Arundhati ne Naxalwadiyon ke prati sahanubhuti poorn likha tha aur wo log kitne 'tension'me rahte honge is or dhyan kheenchana chaha tha,to mujhe qatayi nahi achha laga tha! Un maasoom logon kaa,unke pariwaron ka kya jo Naxalwadiyon ke haath maare jate hain?
जवाब देंहटाएंसुबह सवेरे की मुसीबत का हिस्सा बन गया है=एडिट :)
जवाब देंहटाएंआज तो की बोर्ड टूट ही गया होगा -
आपके विचार से कोई मूर्ख ही होगा जो असहमत होगा -
मेरी कटेगरी तो आप जानते ही हैं !
जबरदस्त लिखा है भाई ! अली सा जिंदाबाद !
सहिष्णुता समाज और देश दोनों की अखंडता के लिए आवश्यक तत्व है , लेकिन अगर सहिष्णुता , कायरता की हद तक पहुच जाए तो ? अरुंधती रॉय के क्या विचार है , ये आप नीचे दिये लिंक पार जाकर देख ले .
जवाब देंहटाएंhttp://nirmal-anand.blogspot.com/2010/10/blog-post_29.html
यह विषय बहुत दिनों से ब्लॉग जगत में छाया हुआ है...और मैं भी समय और सामग्री की तलाश में हूँ कि पूरी तरह हर पहलू से इस विवाद को समझ लूँ, तभी कोई राय बनाऊं. मैने NDTV का वह प्रोग्राम नहीं देखा, पर जानना चाहती थी कि आखिर विनोद दुआ ने 'अरुंधती' के पक्ष में क्या तर्क रखे? और वे कहाँ तक ग्राह्य हैं? कल एक मित्र से मैने यह,कह कर ही क्षमा मांग ली कि मैं टिप्पणी नहीं कर पाउंगी, क्यूंकि मेरा होमवर्क पूरा नहीं है. आपने लिंक उपलब्ध करवाए हैं..उस पर जाकर वह आलेख पढ़ती हूँ.
जवाब देंहटाएंशिखा की पोस्ट पर भी मैने इसीलिए कविता पर ही टिप्पणी की कि 'हाँ, आलीशान कमरे में बैठ सुलगते बहस करने का चलन है'....जो कि सब पर लागू होता है.(हम पर भी )
जनाब अली सैयद साहिब!
जवाब देंहटाएंआपने "शिखा वर्षानेये जी " के आर्टिकल को लेकर जो बबाल मचाया हे , यानि के आपने सभी को लिखें वाले और पढने वालों कि बुध्ही पर प्रश्चिन्न लगा दिया, बाई द वे आप पकिस्तान के किस शहर से ताल्लुक रखते हैं, कोई भी हिन्दुस्तानी ये कभी नही कहेगा कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नही हे, न ही कोई समर्थन करेगा इस बात का, "अरंधुती जी ने कहा" वो ख्याति प्राप्त राइटर हैं, हो सकता हे थोडा ये वक़्त पहले सठिया गयी हो, येहिंदुस्तान ही हे, जहाँ किसी को भी कुछ भी कहने कि आज़ादी हासिल हे, जिस थाली में खाओ उसी में छेद करो, और आपको तो अच्छा लगेगा ही, क्यूँ नही लगेगा मिया, मुझे लगता हे आप हिन्दुस्तानी नही हैं, जो अरंधुती जी कि बात का समर्थन कर रहे हैं, नही तो ये सब लिखने से पहले अपने दिमाग को ठीक से खोल कर उनके बयान को पढ़े, फिर अपनी टिप्पड़ी दे, !
पिछले सप्ताह दिल्ली में ‘कश्मीरः आजादी एकमात्र उपाय’ विषय पर आयोजित सेमिनार में अरुंधती ने कहा कि कश्मीर का भारत का हिस्सा न होना इतिहास में दर्ज एक तथ्य है. इस तथ्य को भारत सरकार स्वीकार भी कर चुकी है, इसलिए अब यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है.
जवाब देंहटाएंमुझे यह नहीं मालूम कि सरकार ने यह तथ्य कब स्वीकार किया ..यदि स्वीकार कर लिया तो वहाँ भारत कि फ़ौज क्यों है ? क्यों भारत के नेता वहाँ शासन कर रहे हैं ....
खैर ...सबको अपने विचार रखने कि आज़ादी है ...आपको भी और मुझे भी ...अरुंधती जी के विचार से मैं सहमत नहीं हूँ ..यदि उन्होंने ऐसा कहा है तो तीखी प्रतिक्रिया तो होगी ही ...आज़ादी से पहले कश्मीर किसका था बात यह नहीं है बात है कि आज़ादी के बाद वह भारत का हिस्सा था और है ..
मैं वैसे किसी भी तरह के वैचारिक मतभेद के वाद विवाद में नहीं पड़ती, मेरे ख्याल से सबकी अपनी सोच होती है.और अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपने देश को अपमानित करने के लिए की जा सकती है तो उस पर आपत्ति जताने का हक उस देश के नागरिको को तो होना ही चाहिए..परन्तु आपने मेरी पोस्ट का जिक्र किया है तो आना पड़ा.मैं कोई बुद्धिजिवी नहीं हूँ आप मुझसे बहुत ज्यादा ज्ञानी हैं.हो सकता है जितना आपने पढ़ा हो अरुंधती को मैंने नहीं. मैंने उनके बयान सुने हैं और एक भारतीय होने के नाते मुझे और मेरी पोस्ट पर कमेंट्स करने वालों को वो आपत्तिजनक लगे.शरीर के किसी अंग में कोई परेशानी हो तो उसे काट नहीं दिया जाता वरन हर संभव उसका इलाज़ किया जाता है.
जवाब देंहटाएंnote - जिन बुद्धिजीवियों को अब कमेन्ट करने का अफ़सोस हो रहा हो या जो फिर से सोचना चाहते हों वे अपना कमेन्ट डिलीट कर सकते हैं.
@ अनूप जी ,
जवाब देंहटाएंनज़रिये पर सहमति के लिए शुक्रिया !
@ आदरणीय सुब्रमनियन जी ,
मैं आपसे सहमत :)
@ क्षमा जी ,
शुक्रिया ! आपकी बात पर ध्यान दे रहा हूं मैं सभी हताहतों के परिजनों के आस पास ही रहता हूं !
@ अरविन्द जी ,
ये तो आप हैं जो मेरा इतना ख्याल रखते हैं :)
@ आशीष जी ,
लिंक के लिए शुक्रिया उसे ज़रूर देखूंगा !
@ रश्मि जी ,
ये पोस्ट मूलतः छत्तीसगढ़ के सम्पादकीय से प्रेरित है पर इसमें शिखा जी का हवाला इसलिए आ गया कि मैंने वहां पर भी अपना अभिमत रखा था ! इस आलेख के ज़रिये मै सिर्फ चिंतन की एक प्रवृत्ति पर चर्चा कर रहा हूं ! आप पढकर देख कर किसी के बारे में राय बनायें यही सही है !
@ आलोक खरे ,
आप काफी आवेश में लगे ! मुझे जानते भी नहीं पर देश निर्धारण करने लग गये :)
आपकी टिप्पणी से लगता तो नहीं कि आपने मेरी पोस्ट ध्यान से पढ़ी भी है ! वैसे इस आलेख में ढूंढ कर ज़रूर बताइयेगा कि मैंने अरुंधति की किस बात का समर्थन किया है :)
@ उस्ताद जी ,
मेरी पोस्ट मूलतः दैनिक छत्तीसगढ़ के सम्पादकीय के सन्दर्भ में है ! शिखा जी को दोष देने का सवाल ही नहीं !
क्या आपको नहीं लगता कि मेरी पोस्ट चिंतन के एक तरीके को संबोधित है ?
@ संगीता स्वरूप जी,
ज़रूर सबको अपनी बात कहने का हक़ है ! मेरा निवेदन केवल इतना है कि 'बात' को परखे बिना अभिमत नहीं देना चाहता हूं ! ऐसा मेरी सोच है ऐसी मेरी अपेक्षा है,आप असहमत हो सकती हैं !
@ शिखा जी,
सबसे पहले तो नि:शर्त खेद कि आप मेरी पोस्ट से आहत अनुभव कर रही हैं !
अनुरोध ये है कि पोस्ट मूलतः 'छत्तीसगढ़' के सम्पादकीय को लक्ष्य कर लिखी गयी है ! यह महज संयोग है कि दो दिन पहले आपसे जो कुछ कहा था उसकी वज़ह से आपका लिंक दे बैठा ! आप गौर कीजियेगा पोस्ट में मैंने अरुंधति का समर्थन कहाँ किया है ? मैंने केवल तथ्यपरक चिंतन के एक दृष्टिकोण की मांग ही तो रखी है वर्ना सभी स्वतंत्र हैं सहमत या असहमत होने के लिये !
पुनः निवेदन कि इसे केवल मेरे अध्ययनोत्सुक नज़रिये के तौर पर ही स्वीकारियेगा इसमें किसी भी मित्र की व्यक्तिगत आलोचना की मंशा निहित नहीं है ! कृपया अन्यथा मत लें ! सादर !
मुद्दे की तो कोई ख़ास जानकारी नहीं है, कुछ सुनी सुनाई खबरें ही पता है, पर ईमानदारी से कहें तो अपने को ज्यादातर पेचीदा मुद्दे बड़े ही मजाकिया लगते है.. शायद अपनी खोपड़ी का ही कोई एब है... क्या किसका है, कमबख्त आज तक समझ नहीं आया, हम खुदी के हो जाएं और खुदी को समझ लें किसी दिन , तो मिठाई बाटेंगे ....
जवाब देंहटाएंकहने को तो कुछ ख़ास है नहीं, हाजिरी ही लगा देतें है और क्या ....
औरों कि नसीहत और खुद को फ़जीहत, ये कौन से बात हुई अली साहिब जी,
जवाब देंहटाएंवाह अली साहब .आप औरों से तो कहते हैं कि मीडिया की बात सुन पढकर प्रतिक्रिया दी है ,और आप खुद एक छतीसगढ़ के सम्पादकीय पर अपनी पोस्ट आधारित करते हैं ..कमाल है मान गए आपको .
हमें तो लगा था कि आप अरुंधती जी से मिलकर बात आकरके आये हैं :)
खैर, हम यहाँ किसी कि भावनाओ को ठेस नही पहुचने आये हैं, बस अपना
पक्ष रख रहे थे!
@ मजाल साहब ,
जवाब देंहटाएंमिठाई का इंतज़ार रहेगा :)
@ आलोक खरे ,
आपने अरुंधति के समर्थन वाले सवाल का जबाब नहीं दिया :)
चूंकि आपने खुद ही तय कर ही लिया है कि यह पोस्ट अरुंधति को संबोधित है तो ज़रा उनकी आलोचना ही ढूंढ दीजियेगा इस पोस्ट में :)
वैसे आप हमारी ओर से आश्वस्त रहियेगा जिस दिन भी अरुंधति को संबोधित कर पोस्ट लिखेंगे तो उनसे मिलकर ही लिखेंगे ! सुनी सुनाई,मीडिया आधारित तो बिलकुल भी नहीं!निश्चिन्त रहिएगा ! बहरहाल आपकी तसल्ली के लिए इस पोस्ट का एक हिस्सा आपकी नज़र कर रहे हैं ...
"मेरा ख्याल है कि अरुंधति के बारे में , मैं किसी भी निष्कर्ष पर तब पहुंचूंगा जबकि उनका वक्तव्य मैंने स्वयं पढ़ लिया हो और हर्फ़ दर हर्फ़ , उसकी विवेकाधारित विवेचना कर पाऊं वर्ना मुझे क्या अधिकार है कि सुनी सुनाई बातों के आधार पर कोई धारणा बनाऊं ? क्या ये संभव नहीं कि आज अरुंधति,कल मैं,परसों आप,इस भेडचाल,सुने सुनाये,धारणावाद का शिकार हो जायें ?"
आप आये आवेशित हुए,असहमत भी हुए ! हमने यह पोस्ट चिंतन और निष्कर्ष तक पहुंचने के 'एक नज़रिये' पर लिखी और आप अरुंधति पर टूट पड़े :) तो फिर आपका आवेश और असहमति सहज स्वीकार हैं ! आते रहिएगा !
बेहतरीन लेख अली सर !
जवाब देंहटाएंबहुत दिन बाद कुछ अच्छा पढ़ा ! ब्लागजगत में तो मामला ही प्रेम श्रद्धा और भावुकता से ही जुड़ा रहता है ! जरा सी भूल हुई कि भावुक मित्र बेहद नाराज और मज़बूत ब्लागिया रिश्ते तार तार होते देर नहीं लगाते ! निस्संदेह कुछ अलग या स्वस्थ और ईमानदार विवेचना के लिए फौलाद सा सीना चाहिए ! आपके इस लेख पर आपको बधाई !
कम से कम मैंने अरुंधती रॉय का मूल वक्तव्य नहीं पढ़ा, मगर शिखा के ब्लाग पर सामान्य ब्लागर जैसी ही प्रतिक्रिया दी है और शायद देना भी चाहिए..
अली सा... एक ही घटना पर आधारित दो पोस्ट, दो विचार, दो मत, दो तर्क और दो पहलू देख पढकर यह एहसास भी हुआ कि हम भावनाओं में बहकर कई बयान और घटनाओं को मन मुआफ़िक गढ़ लेते हैं या ढाल लेते हैं. तिवारी जी का लिखा सम्पादकीय भी पढ़ा और आपका तर्क भी... इतने सादे लफ्ज़ों में सच्ची बात कही है आपने!
जवाब देंहटाएंआलोक खरे जी से एकदम असहमत।(सिर्फ़ लेखक का नाम देखकर उसकी राष्ट्रीयता और दूसरी भावनाओं का अंदाजा लगाना समझदारी नहीं है)
जवाब देंहटाएंउस्ताद जी की दूसरी बात से सहमत।
मज़ाल भाई से सौ फ़ीसदी सहमत।
अली साहब, हर आदमी हर चीज की हर तरह से पड़ताल करके ही कुछ कहे, ऐसा नियम बन जाये तो दुनिया कितनी शान्त हो जायेगी, है न?
आप अरुंधति से सहमत हैं, ऐसा नहीं कहा आपने - उसके देशविरोधी बयानों का जो विरोध कर रहे हैं, उनसे असहमत हैं। अपनी समझ में तो पोस्ट का मतलब यही है। वैसे आजकल बातें समझने में अपने से बहुत चूक हो रही है, हो सकता है यहाँ भी ऐसा ही हुआ हो। अपन तो पुराने दोस्त हैं अली साहब, आप समझ ही जायेंगे:)
अन्शुमाला जी की एक पोस्ट पर देखा था एक भारतीय मुसलमान द्वारा मियाँ मुशर्रफ़ को लताड़े जाते हुये, उसके कितने भी विरोधी क्यूँ न हों हम, उस दिन गर्व महसूस हुआ था उसपर। हमारे घर की बात है, हम सुलझा लेंगे, बाहर वाले कौन होते हैं? ये अलग बात है कि बाहर वाले तो पहचाने हुये हैं, लेकिन इस पोस्ट की नायिका, जो आजकल अखबारों में, टीवी पर छाई हुई है, जैसे लोगों की बौद्धिकता और तर्कशक्ति हर उस चीज के हक में है जिससे देश को नुकसान पहुँचता है।
वैसे आपकी पोस्ट के लास्ट पैरे से अक्षरश: सहमत, बशर्ते यह संभव हो। लेकिन सैलेक्टिव रूप से सहमति या असहमति का कोई मतलब नहीं।
आलोक को अली के आलोक में देख रहा हूँ, अली को आलोक के आलोक में देखने को सोच भी नहीं सकता। 'खरे'पन का क्या अर्थ होता है?
जवाब देंहटाएंकोशल, मगध, वज्जि, शूरसेन, चोल, चेर, पांड्य, बंग, लाट, अश्मक, माहिष्मती, मल्ल...उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली, हरयाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बंगाल...नागपुर,रामपुर, पडरौना, देवरिया, बाँदा, विलासपुर...खिरकही, अमरिया, हरकेसवा, सिवान, रायगंज, गुलरिहा...साउथ सिटी, ड्रीम सिटी, एल्डेको, पेरिस पीक...कैटोली, बाभनपट्टी, सिपैहिया टोली, मियाँटोली, पिपरा बुजुर्ग...वार्ड नं 1,2,3...मकान नं. 420, 16,36, 52, 57... रामरतन कुशवाहा, जाफर अली, जोजफ, खुशबख्त सिंघ, कुलवंत कौर, विमला पाँड़े, इमिरती बी...चुन्ना, मुन्ना, मुन्नी, दुधपियनी...नौ महीना, आठ महीना... सोचो विचारो, सोचते रहो, विचारते रहो ...सबको आज़ादी दे दो!
आज़ाद होने के बाद सब...आगे नहीं। अपने ब्लॉग पर अभद्र लिख सकता हूँ, यहाँ नहीं।
अभय तिवारी के यहाँ मुनीश बाबू ने फरमाया है:
...जाट -पुत्र सन्नी देओल कहता है '' दूध मांगो खीर देंगे , कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे '' --और यही एक तर्कसंगत उत्तर है जिसे क्रियान्वित किये जाने की ज़रुरत है . हालांकि सनी जी का ये ऐलान पाकिस्तान वासियों के लिए था किन्तु समय -चक्र देखिये देश के भीतर ही इस आदर्श वाक्य की आवश्यकता आन पडी है.
हम फुल्ली सहमत हूँ और बुद्धिजीवी नहीं बस जीवी हूँ। अकेला नहीं हूँ।
अली साहब, अस्सालामु अलैयकुम
जवाब देंहटाएंशायद पहली बार आपका लेख पढा अगर इससे पहले कभी पढा हो तो याद नही...
मैरा इस विषय पर होमवर्क पुरा नही है लेकिन मसला कश्मीर का इसलिये सब लोगों से कुछ सवाल करना चाहुंगा...
1) क्या वाकई कश्मीर को हमारी सरकार भारत का अंग मानती है?
2) कश्मीरियों की मांगो को सुनने और उनको पुरा करने के लिये पिछ्ले 63 सालों में किस सरकार ने ठोस कदम उठाये?
3) कश्मीर में 300 मन्दिर तोड दिये गये और वहां से पन्डितों को मारकर निकाल दिया गया तो ये देशभक्त संघ, शिवसेना, बंजरग दल क्या कर रहे थे?
4) उस मन्दिर के लिये मसज़िद तोड दी जिसे किसी ने देखा नही है लेकिन अपने देश में मौजुद 300 मन्दिरों को ये टुटते हुये देखते रहे?
5) वहां के लिये कारसेवक क्यौं जमा नही किये जा रहे है?
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"दहशतगर्द कौन और गिरफ्तारियां किन की, अब तो सोचो......! "
"कुरआन का हिन्दी अनुवाद (तर्जुमा) एम.पी.थ्री. में "
Simply Codes
Attitude | A Way To Success
बस इन्हीं की कमी थी! :)
जवाब देंहटाएंका हो अली बाबू!... बढ़िया है।
सीधी सी बात है कि किसी के बारे में बोलने से पहले उसे जानना जरूरी है....यह जानना तो और भी जरूरी हो जाता है जब हम उसकी आलोचना करते हैं। आलोचक को लेखक से अधिक ज्ञानी होना चाहिए.
जवाब देंहटाएं..यह पोस्ट हमे सचेत करती है कि विचारों को दूसरे की आँखों से नहीं अपनी आँखों से देखो.
..दिल की गहराई से निकली इस नायाब अभिव्यक्ति की भावना को समझना आवश्यक है।
@ सतीश भाई ,
जवाब देंहटाएंअरुंधति के वक्तव्य और शिखा जी के ब्लॉग पर टिप्पणी के मसले पर आपकी साफगोई की कद्र करता हूँ ! बहुत बहुत शुक्रिया !
@ संवेदना के स्वर बंधुओ ,
सम्पादकीय और इस पोस्ट पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के आभार !
@ मो सम कौन ?
भाई ,आलोक जी की वज़ह से मेरी पोस्ट अपने मकसद में खरी उतरी मानी जाए :)
आपने मजाल साहब को सहमति दी है तो हमारी फरमाइश भी याद रहे !
अरुंधति से असहमत होने और उनकी निंदा में कोई बुराई ना समझूंगा अगर वह तार्किकता पर आधारित हो ! फिलहाल मैं उनसे ना तो सहमत हूँ और ना ही असहमत क्योंकि मैंने उनका वक्तव्य पढ़ा ही नहीं है बस यही मेरा तर्क है ! पड़ताल कर ही कुछ कहने वाली बात इस पोस्ट का मूल है !
देश के 'मान' पर सोलह आना आपके साथ :)
@ गिरिजेश जी,
क्या कहूं ?
@ काशिफ आरिफ साहब ,
वालेकुम-अस्सलाम !
आप पहली मर्तबा ही आये हैं ! ये पोस्ट काश्मीर के मसले पर नहीं बल्कि मुद्दों पर सोचने और नतीजे तक पहुँचने के एक 'खास नज़रिए' के हक़ में लिखी गयी है ! इसलिए आपके सवालात पर मेरा कुछ भी कहना गैरमुनासिब होगा !
@ देवेन्द्र भाई ,
मेरी मंशा पर भरोसा कायम रखने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया !
ऐसी गंभीर पोस्ट के साथ सबसे बड़ी समस्या होती है कि उसे गंभीरता से पढ़ना होता है, उसके संदर्भों से वाकफियत भी जरूरी है. फिर हम में से अधिकतर अपना सबसे बड़ा दायित्व मतदान के तर्ज पर इस या उस पक्ष में अपनी राय रख देने को मानते हैं, इतना तो वह सिक्का भी करता है, जिसे टॉस किया (उछाला) जाता है. अरुन्धति की व्याख्या और स्थापना से पूरी असहमति के बावजूद भी, उनके विश्लेषण और वैचारिकता का महत्व कम नहीं है.
जवाब देंहटाएंचाहें किसी ने अरुंधति का मूल वक्तव्य पढ़ा हो या न पढ़ा हो, जिस भी तरह से जाना और जितना जाना, यह तय पाया कि चर्चा में बने रहने के लिए अपनाया गया हथकंडा है.
जवाब देंहटाएंफिर सभी को अपनी बात कहने का अधिकार तो है ही- अरुंधति ने कही, आपने भी कही और शिखा जी ने भी. वही बात समस्त टिप्पणिकर्ताओं पर लागू होती है.
सबसे बढ़िया गिरिजेश राव जी का कमेन्ट लगा( बस इन्ही की.....) :-))
जवाब देंहटाएंयहाँ अफ़सोस यही रहता है कि लिख क्या रहे हैं और भीड़ क्या समझ लेगी ! बेहतरीन लेख पर भी पहली और दूसरी नकारात्मक टिप्पणी मिलते ही, लानत मलामत करने वालों की लाइन लग जाती है और उस अच्छे भले लेख का मलीदा बनते देर नहीं लगेगी और यार दोस्त भी समझाने नहीं आयेंगे ! वे भी इस भीड़ के कमेन्ट पढ़कर यही कहेंगे कि यार थोडा साफ़ साफ़ लिखा करो !
कई बार यह नहीं लगता कि हम किसके लिए लिख रहे हैं ...???
ब्लागजगत के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करते हैं !
kyaa kahein...?
जवाब देंहटाएं@ राहुल सिंह जी,
जवाब देंहटाएंसाफगोई का शुक्रिया !
@ समीर लाल जी ,
टिप्पणी का पहला पैरा सौ फ़ीसदी सहमत ! दूसरा पैरा...कहने का हक़ सभी को है...जी बिलकुल ! सभी ने कहा...कोई इनकार नहीं ! बस एक छोटा सा फर्क ये है कि मैंने कहा नहीं बल्कि 'कहने के तरीके' पर छोटी सी शिकायत की है !
@ सतीश भाई ,
गिरिजेश जी पर आपका ख्याल :) उससे आगे...
जो नहीं समझते मैं उन्हें जानता हूं और जो समझते हैं उन्हें भी ,बस इसीलिए बेधडक लिखता हूं ,नासमझों की फ़िक्र किये बगैर :) सुझाव ये कि आप भी ऐसा ही कीजिये !
आपकी दुआओं के साथ मैं भी हूं !
@ मनु जी ,
आपने कोई धारणा नहीं बनाई ,यह भी काफी है !
वैचारिक औदार्यता और सहिष्णुता की ही तो कमी दिखती है हर कहीं।
जवाब देंहटाएंआज आपकी गम्भीर लेखनी लेखकर कायल हो गया आपकी वैचारिक सम्पन्नता का। इन बातों पर मैं भी लिखना चाह रहा था, पर शायद इसके आसपास भी नहीं पहुंच पाता। अच्छा ही हुआ, मैंने जहमत नहीं उठाई।
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सुनामी: प्रलय का दूसरा नाम।
चमत्कार दिखाऍं, एक लाख का इनाम पाऍं।
गहन चिंतन का नतीजा होते है आपके लेख, हर कोई Digest नहीं भी कर पाता. मैरी कमज़ोर लेखनी भी टिपयाने से कासिर है. मैं तो ऐसे विषय पर हलके-फुल्के यूँही गुज़र लेता हूँ:....
जवाब देंहटाएं" उसका 'गीला', 'नी' लगे, 'गंदा' उन्हें !
'अंधी' 'रुत' है, दोस्तों अब क्या करे?
कैसी आज़ादी उन्हें दरकार है,
अपने ही जो देश को रुसवा करे !!" [http://aatm-manthan.com]
फिर भी आपके इस काबिले दाद लेख के टाईटल
"खत तेरा कासिदों के पास जो है सांस मेरी लबों पे अटकी है !"
ने मुझसे जो लिखवा लिया है, डरते-डरते प्रेषित कर रहा हूँ कि कहीं गुस्ताखी में शुमार न हो जाए!
'लेख' आपका 'बालिगो'* के हाथ में है,
ठहरिये, मैं 'उनसे' मिलके आता हूँ!
रोके रखियेगा सांस को जब तक,
'राय' रेकॉर्ड करके लाता हूँ !!
*matured bloggers
-- mansoorali hashmi
@ ज़ाकिर अली रजनीश ,
जवाब देंहटाएंभाई , बस यूं मानिये कि मैंने आपके बिहाफ में लिख दिया !
@ मंसूर अली हाशमी साहब,
शुक्रिया ! आप आये तो सही ! हमेशा टिपियाया जाये ये ज़रुरी नहीं पर मौजूदगी मायने रखती है !
सुबह सुबह आपके ब्लॉग पर एक टिप्पणी झोंकने की कोशिश की , बड़ी मेहनत से लिखी थी , कमबख्त टिप्पणी बाक्स ही उड़ गया :(
अब दोबारा मेहनत करके देखता हूं :)
अली सैयद साहिब
जवाब देंहटाएंआपने कहा
"आपने अरुंधति के समर्थन वाले सवाल का जबाब नहीं दिया :)
चूंकि आपने खुद ही तय कर ही लिया है कि यह पोस्ट अरुंधति को संबोधित है तो ज़रा उनकी आलोचना ही ढूंढ दीजियेगा इस पोस्ट में :) "
मेरा जवाब:
आपकी पोस्ट कुछ इस तरह बुनी हुई हे, जैसे कि कोई कहे , कि गिलास अध खाली या आधा भरा हुआ हे! गलत कौन हे, दोनों ही सही हैं, ऐसा ही आपने कुछ लिखने कि कोशिश कि हे,
या यूँ कहे कि जब टिप्पड़ी आप पर बरसने लगी तो आप बेक-फुट-डिफेंसिव हो गए, और समझाने लगे, बरना प्रथम दृष्टा तो यही हे कि, आपने उन टिप्पड़ीकरों को एक दम से नक्कार दिया, इसका मतलब ये कि आप, मोह्तिर्मा लेखिका कि मुखालफत नही सुनना देखना चाहते, जो ये बयां करता हे कि आप उनका पक्ष ले रहे हैं,.. और जहाँ तक उन्होंने ऐसा कहा या लिखा, इसके ऊपर Ndtv पर बहस छिड़ी हुई थे लास्ट वीक में,कि उन्होंने एक बहुत ही गैर-जिम्मेदाराना बयान दिया, बाबजूद इसके आप कहते हे कि अपने कब उनका पक्ष लिया!
पक्ष कैसे लिया जाता हे ए भी एक तरीका हे, जो अपने अख्तियार किया हुआ हे!
शुक्रिया आपने जवाब माँगा सो दिया, देरी से ही सही!
@ आलोक खरे ,
जवाब देंहटाएंलगता है कि आप हमेशा निष्कर्ष निकालने की जल्दी में रहते हैं...पहले पहल आपने मेरी नागरिकता तय कर दी , दोबारा सम्पादकीय पर आधारित अरुंधति के लिए लेख लिखना बता दिया और अब तीसरी बार आलेख की बुनावट और आधा भरा और आधा खाली गिलास लेकर आये हैं उसपर तुर्रा ये कि मुझे बैकफुट पर भी भेज दिया :)
एक ही आलेख के बारे में अभिमत में इतना वैविध्य :)
बहरहाल आपका स्वागत है !
"जवाब नही दिया तो कहते कि जवाब नही देते
जवाब देंहटाएंजब जवाब देते तो कहते कि ऐसा क्यूँ कहते"
बात ये है कि सामने पड़ी मख्खी निगली नही जाती,
जिसके पीछे इतना शोर मच रहा हो, और आप आवाज लगा
रहे हैं कि भाई लोगो सुनी -सुनाई बातों पर अपना मत न दे,
सोचे विचारे, ! आखिर आप कहना क्या चाहते हैं, !
आप क्या कुछ ऐसा नही बयान कर रहे कि भाई धुंआ तो उठ रहा हे
लेकिन जरूरी नही कि वहां आग ही हो, पहले जाँच पड़ताल कर ले
तब जाकर पानी डालियेगा, जनाब अली सैयद साहिब, आपकी सलहा पर चले तो
तब तक तो कुछ बचेगा ही नही, सब कुछ रख, फिर पानी किस पर डालेंगे!
मेरी बाते कडवी जरूर हैं, लेकिन क्या आपके आलेख से मेल नही खाती!
@ आलोक जी ,
जवाब देंहटाएंये चौथा मौक़ा है ! अब आप गिलास छोड़कर मक्खी , धुआं और आग ले आये :)
बड़ी मुश्किल से आपने एक लाइन मेरी पोस्ट पर फोकस करके कही है...
" सुनी -सुनाई बातों पर अपना मत न दे , सोचे विचारे"
हां बिलकुल मैं यही कह रहा हूं और सत्य तक पहुंचने की विज्ञान सम्मत और निरपेक्ष विधि यही है !
अली साहेब,
जवाब देंहटाएंआदाब!
मुझ फूहड़ का ये मानना है के अभिव्यक्ति की स्वत्नत्रता होनी चाहिए!
नहीं तो......
फिर खबरें चटपटी कैसे होंगी!? स्वाद कैसे आएगा?!
और सबसे बड़ी बात: फिर मैं भारत पर मान कैसे करूंगा?
आशीष
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पहला ख़ुमार और फिर उतरा बुखार!!!
@ आशीष भाई ,
जवाब देंहटाएंअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सहमत ! दिक्कत यही है कि 'खबरवाले' चटपटेपन और स्वाद के चक्कर में सच की बैण्ड बजा देते हैं :)
कारज धीरे होतु है काहे होत अधीर।
जवाब देंहटाएंसमय पाय तरुवर फलै केतक सींचौ नीर॥
दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंभाई , नाहक आपकी ( उदाहरण स्वरूप )बात को लोग दुसरे ढंग से ले बैठे . पूरा हक है किसी को संवाद और तर्क-वितर्क का . आपका संकेत अरुंधती के बहाने संवाद की संस्कृति के क्षरण की ओर है . मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि असहमत होने के लिए असहमत होने का कोई मतलब नहीं है . यह जल्दबाजी इस भावुकपट्टी में खूब होती है ! आभार !
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