रविवार, 15 अगस्त 2010

ग़ुरबत के हिस्से की चिल्हर धूप लॉकर में रख छोड़ी है जिन्होंने...!

कल शाम से सरकारी महकमों की इमारतें जगमग कर रही है...सुबह ध्वजारोहण पर जाने से कब्ल नहाना चाहता हूं , हल्की सी ठण्ड है सो पड़ोसी का सुझाव है कि मुंह हाथ धोकर निकल चलो...कौन सा नमाज़ पढ़ने जा रहे हो  ?  सोचता हूं जन गण मन की शान में पहले कभी बे नहाया गया नहीं ,  तो फिर आज कैसे ?  इधर खब्ती शौहर की फ़िक्र में बीबी गर्म पानी का इंतजाम पहले ही कर चुकी  है  !  दूर किसी  इमारत  में सरकारी आदेश से तैनात लाउड स्पीकर शिद्दत से चीख रहा है और उसके साथ बाथरूम  में , मैं  भी...अब कोई गुलशन ना उजड़े अब वतन आज़ाद है ,रूह गंगा की हिमाला...

वक्त कम है गाड़ी तेजी से सड़क पर मोडता हूं , सामने स्कूल के बच्चे भागते नज़र आ रहे हैं , उन्हें भी देर हो गई लगती है , वे सब मेरे घर के दक्षिणी छोर वाले स्कूल में पढते हैं  !  हुई देरी से उनके पिटने के ख्याल से मेरे अंदर बैठा मुकम्मल आज़ादी का फरिश्ता सहम सा जाता है  !  मुझे उत्तर दिशा में जाना है वर्ना मैं... !   उनकी प्रिंसिपल को फोन करता हूं...सिस्टर कुछ बच्चे देर से पहुंचेंगे खुदा के लिए उन्हें पनिश मत करियेगा कम से कम आज के दिन  !  दो बाथरूम वाले घर में आश्रम की तर्ज़ पर रहने वाले बीसियों बच्चे समय पर तैयार कैसे हो पायंगे  ?  ये वो भी जानती हैं  ! ...पता नहीं कैसे  ?  ख्याल कौंध सा जाता है...नौनिहाल आते हैं...को किनारे कर दो मैं जहां था , इन्हें जाना है वहां से आगे...

चंद नारे और त्योहार खत्म , दोस्त बतला रहा था कि आज उसका क्लब अस्पताल में फल...फल माने , केले...बांटेगा  !  ना चाहते हुए भी मन ही मन में गाली देता हूं...सा...sss ढोंगी , केले बांटेगे और न्यूज पेपर में उससे ज्यादा अपनी समाज सेवा का ढिंढोरा पीटेंगे ! तुम्हारी...समाज सेवा का बिजनेस क्या मैं जानता  नहीं?अंतिम आदमी के लिए सरकारी मदद को रास्ते में हाइजैक करने वाले समाज सेवी ............ कहीं के  !  वो पूछता है चलोगे क्या  ?  मैं कहता हूं , बिलकुल नहीं  ! ...अभी चुप क्यों थे  ?  बस यूं ही तुम्हें गरियाने का दिल किया इसलिए  !  वो बेशर्मी के साथ हंसता है उसे पता है कि मुझे धन पिशाच पसंद नहीं  हैं  !  मैं एक बार फिर से उसे अपनी सर्द निगाहों से टटोलता हूं  !  क्या देख रहे हो वो पूछता है ?  तुम्हारे जिस्म की बनावट देख रहा हूं ...कल्पना कर रहा हूं कि इसपर लदी फंदी चर्बी किस किस बंदे का हक मार कर जुटाई होगी तुमने  !  वो फिर से हंसते हुए कहता है ...ओ यू आउट डेटेड मैन... घर चलें ?  मै सहमति में सिर हिलाता हूं  ! 

इधर टीवी चैनल्स आजादी के परवानों के भाषणों के टुकड़े सुनवाये जा रहे हैं , पर मेरे कान बंद हो चुके है...कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा !  मै सिर्फ देख पा रहा हूं देश के लिए भाग रहे अधिकारी , नये जूते...नई कैप , नई टीशर्ट , बमुश्किल छुपती हुई सेहत , उपदेश देते नेता , खादी के कलफदार कुर्तों से झांकती उनकी विराट देहयष्टि ,मेरा जेहन जानवर खरीदने  गये ग्राहक  सा , उनके बदन की चर्बी टटोलता है  !  कल ही किसी अधिकारी  के लॉकर से  कुछ करोड की चिल्हर बरामद होने की खबर थी , कुछ  किलो सोना  भी  !  लगता है जैसे सोना...रुपया...चर्बी सब गडमड हो रहे हों  !  स्वतंत्रता दिवस अमर रहे , कहता तो हूं पर आवाज गले से बाहर नहीं आती , मेरा दाहिना हाथ बेदम सा हवा में उठा हुआ  !  मुझे लगता है कि आज़ाद भारत के इन आबाद जिस्मों में जमा चर्बी बाहर निकालने से पहले तेज चाकू से इनकी खाल खींचना होगी  !  मै क्रूर होना चाहता हूं पर आंखें साथ नहीं देतीं...वहां कुछ भीगा हुआ खारापन सा है !  फिलहाल तो ग़ुरबत के हिस्से की धूप लॉकर में रख छोड़ी है जिन्होंने...उनके लहलहाने के दिन हैं  !   

23 टिप्‍पणियां:

  1. अली साहब बेहतरीन. एक बार फिर कहूँगा आप बहुत अच्छा लिखते हैं. लेख पढ़ते हुए ध्यान भटकता नहीं बस एक बार शुरू करो तो अंत तक एक ही साँस में ख़त्म होता है. बढ़िया! लाजवाब! और क्या कहूँ........

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  2. अली साहब,
    पोस्ट पूरी न दिख पाने की शिकायत क्या और किसी ने भी की है आपसे?
    आधी अधूरी पोस्ट देखकर अजब हालत बनती है।
    सच में आऊटडेटिड आदमी हैं आप।
    ज़िल्द आपकी भी महीन ही होगी, हा हा हा।
    ये सारा तंत्र ही ड्रामा तंत्र है, यहां सुखी वही है जो यह जानता है कि कब आंख, मुंह और कान खोलने हैं और कब बंद रखने हैं।

    लॉकर में रखने की जरूरत भी इसलिये पड़ती है ऐसे लोगों को, ताकि गाहे बेगाहे हाथी के दांतों की तरह इसकी नुमायश की जा सके।

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  3. @ विचार शून्य जी ,
    सोचता हूं कि जब लिखते वक़्त मेरा ध्यान नहीं भटकता तो पढते वक़्त आपका क्यों भटकना चाहिए :)
    बहुत बहुत शुक्रिया !

    @ रमेशकेटीए जी,
    आपको भी बहुत शुभकामनायें !

    @ समीर भाई ,
    निर्दयता को बतौर नेकी स्वीकारने के लिए आपका आभारी हूं :)

    @ मो सम कौन जी ? ,
    भाई आपके सिवा ये शिकायत तो किसी नें भी नहीं की आज तक ,पता नहीं कैसे आपकी पूरी की पूरी नज़रे इनायत मुझपर नहीं हो पा रही है ! आपके कम्प्यूटर को मुझसे क्या बैर है ,उससे ज़रा धमका कर पूछिए तो सही :)

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  4. स्वतंत्रता दिवस अमर रहे , कहता तो हूं पर आवाज गले से बाहर नहीं आती ,
    मैंने खुद बड़े मेहनत से यह नारा लगाया -स्वतंत्रता दिवस अमर रहे ...सोचने को विवश करती पोस्ट !

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  5. स्थिति इतनी दर्दनाक है कि एक सम्वेदनशील लेखक की कलम से निर्दयी शब्द चलित हो जाय।
    वाकई दुखद!!

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  6. अभी तक, यथास्थिति को स्वीकार कर लेने के दो कारण समझ आते थे... पहला बेबसी, दूसरा आशावादी प्रवृत्ति. अब लगता है कि शायद बढ़ती उम्र भी इसमें शामिल हो गई हो...

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  7. @ अरविन्द जी ,
    आपको अनंत शुभकानाएं !

    @ सुज्ञं जी ,
    भाई संवेदनायें जीवित रहेंगी यकीन जानिए ! आक्रोश को अंदर शेष नहीं रहना चाहिये बस! आपको इस पावन दिवस की कोटि कोटि बधाईयां !

    @ काजल भाई ,
    बढ़ती उम्र भी यथार्थ का ही एक हिस्सा है ,स्वीकारना होगा !

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  8. तथाकथित समाज सेवा और समाज सेवियों की असली सेवा ...

    एक समाजसेविका का नाम लिख कर मिटा दिया ...
    हम आज़ाद है ...कम से कम भौंकने के लिए तो ...इसलिए जितनी भी आज़ादी है ...मुबारक हो ...!

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  9. आजादी को खंगालते-टटोलते रहने से ही वह कायम रहेगी, मुबारक हो.

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  10. अली साहब...
    आपकी लेखनी के दरबार में हम बार-बार कोर्निश बजाना चाहेंगे..
    आपको पढ़ते ही हम जैसे बस कुलबुलाने लगते हैं...
    अब देखिये न रात के २.२० हुए हैं...और मेरी रचनाधर्मिता उठ कर बैठ गई...
    अर्ज़ है ....
    उसने आज अपने ज़मीर को
    झाड़ा-पोंछा
    रेशम में लपेट कर
    बैंक लाकर में महफूज़
    बंद कर दिया
    क्योंकि उसे
    दौलत और शोहरत कमाना था....

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  11. इधर टीवी चैनल्स आजादी के परवानों के भाषणों के टुकड़े सुनवाये जा रहे हैं , पर मेरे कान बंद हो चुके है...कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा !

    कैसे सुनाई देता , आप तो खुद को सुनने में लगे थे .

    सर्द निगाहों से टटोलता हूं ! क्या देख रहे हो वो पूछता है ? तुम्हारे जिस्म की बनावट देख रहा हूं ...कल्पना कर रहा हूं कि इसपर लदी फंदी चर्बी किस किस बंदे का हक मार कर जुटाई होगी तुमने ! वाह ...आईना दिखा रहे हैं ...

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  12. @ बेनामी जी ,
    शुक्रिया !

    @ वाणी जी ,
    कुछ तो है जिस पर खुश रहा जा सकता है :)

    @ राहुल सिंह जी ,
    हां ,खंगालना टटोलना बेहद जरुरी है ,आपको भी मुबारक !

    @ अदा जी ,
    हहा...अलसुबह की रचनाधर्मिता खूब रही ! बहुत खूबसूरत लिखा आपने ज़मीर को रेशम में लपेट , दौलत का आकांक्षी होना ! शुक्रिया !

    @ शारदा अरोरा जी ,
    आपका ह्रदय से आभारी हूं !

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  13. डॉ.अरविन्‍द मिश्र जी नें अपनी टिप्‍पणी में जो कहा कि वे बड़ी मेहनत से स्‍वतंत्रता दिवस अमर रहे यह नारा लगा पाये, इस बात का अहसास हमें पंद्रह अगस्‍त के दिन प्रत्‍यक्ष हुआ, उस दिन हम एकदम सुबह बिना नाहाए धोये रंग निदेशक अइय्यर भईया के साथ उनके कैमरे में कुछ गांवों के प्रायमरी स्‍कूलों में 'झंडा तिहार'मनाते बच्‍चों के फोटो लेने निकल पड़े। दो-तीन गांवों में नाक निकले झंडा थामे बच्‍चो से शहरी शिक्षिकायें नारा लगवाती रही पर हमें उनमें वह जोश नजर नहीं आया जो इसी उम्र में हममे होता था। रास्‍ते भर अइय्यर भईया इस पर चर्चा करते रहे, वापसी में शहर के पूर्व वृद्धाश्रम में भी ध्‍वजारोहण हो रहा था तो हम वहां रूक गये मन था कि ये भले वृद्ध हैं पर इनमें वो उर्जा होगी पर वहां भी थके हारे शव्‍द थे, स्‍वतंत्रता दिवस अमर रहे, भारत माता की जय.

    और हॉं भईया... ये चर्बी कम करने का आपका अंदाज पेटेंड कराना आवश्‍यक है। :)

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  14. @ संजीव तिवारी जी ,

    "बिना नाहाए धोये रंग निदेशक अइय्यर भईया" ?

    आपका इंतज़ार था :)

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  15. सिर्फ और सिर्फ...नेक विचार....

    कहीं कोई निर्दयता कम से कम हमें तो नहीं लगी...

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  16. हो सकता है शायद मैं गलत होऊँ, लेकिन मैने निजि तौर पर कईं बार अनुभव करने का प्रयास किया है किन्तु मैं आज तक तय नहीं कर पाया हूँ कि भीतर का आक्रोश, पीडा,बेबसी,छटपटाहट को एक पोस्ट में उडेल कर रख देने से पुन: भावनाओं का अन्तर कलश उतनी ही तीव्रता से क्यूं भरने लगता है.....मुझे उम्मीद है कि आपके पास जवाब जरूर होगा.

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  17. @ मनु जी ,
    आपका आभारी हूं !

    @ पंडित डी.के.शर्मा वत्स जी,
    शायद अंतर्मन रिक्त रहने के लिए बना ही नहीं !

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  18. हे राम!
    "अमर हो स्वतंत्रता" से "स्वतंत्रता दिवस अमर रहे" तक का लम्बा सफर तय कर लिया इन 64 सालों में! बढ़िया लेखन!

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  19. अनुभूति की इतनी तीव्रता अगर मेरे पास भी होती तभी शायद आपकी इस शानदार पोस्ट में टंगने लायक कमेण्ट छोड़ पाता। फिलहाल इतना ही कहूँगा कि आपकी लेखनी के आगे अभिभूत हूँ।

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  20. पोस्ट की शुरूआती पंक्तियाँ पढ़ बरबस ही कुछ याद आ गया...बचपन में, स्कूल में, पापा के ऑफिस में, उस कस्बे के छोटे से अस्पताल में, हर जगह हम बच्चों का झुण्ड 'जन-गण-मन....' गाने जाता और हम तीनो जगह राष्ट्र गान गाने से पहले कुछ नहीं खाते....एक पवित्रता की भावना रहती थी मन में.

    बचपन में शायद हरेक के मन में होती होगी...फिर बड़े होने पर क्या बदल जाता है...कि अपने देश को ही लूटने में जुट जाते हैं सब?

    पूरी पोस्ट पढ़...आपकी तरह ही आक्रोशित हो आया मन...पर अपनी बेबसी पर ज्यादा...

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  21. @ स्मार्ट इन्डियन जी ,
    भाई सफर की लम्बाई अखरने लगी है अब !

    @ ज़ाकिर अली रजनीश ,
    आप का आना ही मेरे लिए टिप्पणी है :)

    @ रश्मि जी ,
    राष्ट्रीय पर्व के समय पवित्रता की भावना बचपन के बाद साथ क्यों छोड़ देती है मै भी नहीं समझ पाया !
    प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया !

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  22. सुन्दर पोस्ट, छत्तीसगढ मीडिया क्लब में आपका स्वागत है.

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  23. गुरबत के हिस्से की धूप.... यह तो कविता है भाई !!!

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