माह सितम्बर 1982 की कोई तारीख रही होगी जबकि मैं उससे मिला था, बाज़ार से गुजरते हुए एक मित्र नें उससे परिचय करवाया, तब वो अपने टेंट हाउस व्यवसाई मित्र की दुकान में बैठा हुआ था, बड़ी गर्मजोशी से मिले हम, पर बातचीत सामान्य परिचय तक सीमित रही इसलिए पहली नज़र में उसके प्रति मेरे मन में कोई धारणा बनी ही नहीं ! करीब एक महीने बाद पता चला कि वो प्राइवेट सेक्टर से सरकारी सेक्टर में छलांग लगा चुका है और उसने येन केन प्रकारेण अपना भविष्य सुरक्षित कर लिया है ! बढती हुई मुलाकातों के साथ साथ हम एक दूसरे के और अधिक निकट आये बस यहीं से उसके प्रति मेरी धारणाएं पुख्ता होने लगीं !
कैरियर के हिसाब से उसकी उपलब्धियां साधारण ही थी पर ग्राम्य परम्पराओं के अनुरूप वो,नौंवीं कक्षा में विवाहित होने से लेकर ग्रेजुएट होने तक गौने की उपलब्धि हासिल कर चुका था और मुझसे परिचय होते होते एक पुत्री और एक पुत्र का पिता भी ! उसकी पत्नी ज्यादातर गांव वाले घर में ही रहतीं, लिहाजा पत्नी की अनुपस्थिति में उसने अपनी मकान मालकिन से रागात्मक सम्बन्ध विकसित कर लिए थे ! अपने मित्रों के बीच विवाहेतर संबंधों को लेकर वो कभी भी शर्मिन्दा होता नहीं दिखा! भाभी आ जायेंगी तो क्या करोगे ? पूछने पर मुस्करा कर प्रश्न का उत्तर टाल जाया करता ! आहिस्ता आहिस्ता कई और मामले भी उजागर हुए पर वो निश्चिन्त भाव से शहर की सर्व दिशाओं में व्याप्त अपने प्रेम संबंधों के सम्यक निर्वहन में लगा रहा!
शाम को अक्सर किसी ना किसी मित्र के घर एकत्रित होकर गपशप का सिलसिला चलता पर जब भी उसके घर महफ़िल जमती चाय पानी की व्यवस्था मकान मालकिन की ओर से की जाती ! बड़ा असहज होता है राज़ से अपरिचित बने रहने का नाटक करना, ये सबक तब वहीं से मिला ! आनंद और पुन्नी के रूप में हमने उन दोनों के सांकेतिक नाम विकसित कर लिए थे अतः सारी बातें होकर भी, गोपनीयता की सीमाओं में बनी रहतीं ! पुन्नी यूं तो आनंद से उम्र में 3-4 वर्ष बड़ी थी पर आनंद के इशारों पर नाचती जबकि उसके घर में उसके पति उसके संकेतों के गुलाम नज़र आते !
मित्रों के दरम्यान जब कभी प्रेम की रूहानियत और जिस्मानियत पर बहस चलतीं तो आनंद का प्रेम, जिस्म से एक इंच भी आगे ना बढ़ता, उसका प्रेम आत्मिकता का सौदाई तो कतई भी नहीं था ! वो रूहानियत और ज़ज्बातों भरी हमारी समझ / बेवकूफियों पर ठठाकर हंसता ! बहरहाल मित्रों को उनकी कमियों के साथ स्वीकारने की तर्ज़ पर हम सब लंबे समय तक एक साथ बने रहे पर...एक शाम देर से मैं उसके घर जा पहुंचा, मेरा वहां पहुंचना आकस्मिक और अनियोजित था और फिर लौटना भी त्वरित ! उस रात आनंद...जिस्मों से आगे रिश्तों से आगे बहुत दूर जा चुका था ! पुन्नी की बड़ी बेटी...तौबा ! फिर पता नहीं कि मैं खुद भी तमाम रात सोया कि जागा रहा ? सोचता रहा...प्रेम ? ...इंसान ? ...जानवर ?
क्या कहूँ
जवाब देंहटाएंअली साहब,
जवाब देंहटाएंमहज़ जिस्म को सबकुछ मानने वालों से कुछ भी अनपेक्षित नहीं है। और आप अगर बात करते भी आनंद के साथ, तो बहुत जोरदार तर्क सुनने को मिलते। ऐसे लोग प्रैक्टिकल लोग कहलाते हैं, आजकल।
आपसे जो शिकायत आपका ब्लॉग पूरा न दिखने की कर रहा था, आज भी बरकरार है। लेकिन आज इसका तोड़ खोज निकाला है। आपका ब्लॉग, आलसी गुरुजी और दीपक मशाल का ब्लॉग, इन्हें मेरे डिफ़ाल्ट ब्राऊजर गूगल क्रोम पर देखता हूं तो आधा अधूरा ही दिखता है लेकिन फ़ायरफ़ॉक्स पर एकदम सही। मेरे अपने ब्लॉग का फ़ॉरमेट भी दोनों ब्राऊजर्स पर अलग अलग दिखता है। इसलिये लिख दिया ये सब कि हो सकता है किसी और के साथ भी यह दिक्कत आ रही हो।
Uf! Dil dahal gaya! Aise halaaton se koyi na koyi kabhi na kabhi vabasta kar deta hai,lekin kabhi samajh me na aayaa ki,pratikriya kya honi chahiye! Shurume to man dhikkar deta tha! Ab ek sambhram-sa ban jata hai...bas aise logon se door rahne ka nirnay ho jata hai.
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"मित्रों के दरम्यान जब कभी प्रेम की रूहानियत और जिस्मानियत पर बहस चलतीं तो आनंद का प्रेम , जिस्म से एक इंच भी आगे ना बढ़ता , उसका प्रेम आत्मिकता का सौदाई तो कतई भी नहीं था ! वो रूहानियत और ज़ज्बातों भरी हमारी समझ / बेवकूफियों पर ठठाकर हंसता !"
अली साहब,
यह प्रेम की रूहानियत कुछ होती है क्या... कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस्मानियत को लपेट कर पेश करने वाला चांदी-सोने का वर्क मात्र हो यह...
पामेला बोर्डेस का बोला यह वाक्य याद आता है कभी-कभी... " दुनिया का हर मर्द हरामी और हर औरत छिनाल हो सकती है, बस समाज का डर न हो और मौका मिले ।"
बाई द वे, अगर पुन्नी की बेटी अगर यह पोस्ट पढ़ पाती... तो क्या पता... वह भी रूहानियत और ज़ज्बातों भरी हमारी समझ / बेवकूफियों पर ठठाकर हंसती... हो सकता है न ऐसा... सोचिये !
ज्यादा लिख गया, कहीं रूहानियत और नैतिकता के ठेकेदार लाठी-बल्लम न निकाल लें... ;)
आभार!
...
बात केवल निजी अनुशासन और नैतिकता की ही है .....प्रवीण जी का विचार भी विचारणीय है !
जवाब देंहटाएंबेहद जटिल है यह प्रेम और रिश्ते का खेल ! आप न हिमायत कर सकते हैं न विरोध.साहब राजेन्द्र यादव जैसी कुव्वत चाहिए.
जवाब देंहटाएंसमय हो यदि तो
माओवादी ममता पर तीखा बखान ज़रूर पढ़ें: http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html
अरे ... कबीर बाबा नें गलत कहा था 'प्रेम गली अति सांकरी जा मे दो ना समाय'
जवाब देंहटाएं:)
@ रमेशकेटीए जी,
जवाब देंहटाएंऔपचारिक सम्बन्ध तो अब भी है !
@ मिथिलेश जी ,
नहीं कह कर भी बहुत कुछ कह दिया आपने !
@ समीर भाई ,
शुक्रिया !
@ मो सम कौन ?
भाई ,वहां बेशर्मी ..मतलब प्रेक्टिकल होने की इन्तहा है :)
अधूरेपन की शिकायत किसी और मित्र नें तो नहीं की है चक्कर शायद ब्राउजर का ही होगा ! अब आपने तोड़ खोज ही लिया है तो हम चिंता क्यों करें :)
@ क्षमा जी,
समाज में ऐसे बहुतेरे हैं !
@ प्रवीण शाह जी ,
मेरे लिए तो 'अनुभूति' मात्र को 'रूहानियत' समझ कर काम चला लीजिए बाकी प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए कोई एक नग देह तो लगेगी ही :)
पुन्नी की पुत्री फिलहाल किसी और की पत्नी है और वे बेचारे भी इन सज्जन के एक समझदार मित्र हैं जिन्हें इनकी सद्भावनाओं का ज्ञान नहीं है :)
और हां पुन्नी की बेटी तो अब भी ठठाकर हंस सकती है :)
पामेला बोर्डस के समाज का सच शायद हमारे समाज में शतप्रतिशत लागू ना भी होता हो ,मसलन कुछ पिता अपनी पुत्रियों के साथ यौन सम्बन्ध को जायज़ ठहराते हैं पर सभी नहीं !
चिंता लाठी बल्लम जैसी सीरियस भी नहीं है पर आप जो भी सिस्टम बनायें उसमें इस तरह की दीमक लग ही जायेंगी ! कहने का मतलब है कि शिकायत तब भी इथिकल ही होगी !
@ अरविन्द जी ,
शुक्रिया !
@ शहरोज़ भाई ,
हां ज़रूर ! देखता हूँ उसे !
@ संजीव तिवारी ,
वहां कुछ ज्यादा ही समा गये हैं :)
एक घिनौना सच प्रस्तुत किया है अली सा... यह गाँव से शहर की ओर पलायन, अपने पीछे कई पत्नियाँ छोड़ आता है और रखेलों का होकर रह जाता है... लेकिन यह तो उससे भी एक कदम आगे निकल गया... घटना अविश्वसनीय भी नहीं, क्योंकि मेरे ख़ुद की आँखों देखी भी है...
जवाब देंहटाएंपुनश्चः “वो रूहानियत और ज़ज्बातों भरी हमारी समझ” में कृपया जज़्बातों को जज़्बात कर लें, जज़्बात प्लूरल है. आशा है अन्यथा न लेंगे!
अली साहब बहुत पहले मैंने नागालैंड के कबीलों पर एक किताब पढ़ी थी. नागा कबीलों में व्यक्ति की उपलब्धियों को दर्शाने के लिए तरह तरह के पंख सिर पर बांधे जाते हैं . उनमे से एक विशिष्ट पंख उस व्यक्ति के लिए होता है जिसने एक ही समय में माँ और बेटी से एक साथ सम्बन्ध रखे हों. तो कुछ समाजों में ये उपलब्धि भी है. वैसे ये कहा जा सकता है की वो लोग सभ्य नहीं थे क्योंकि उनके समाज में आपने दुश्मनों के सिर काट कर घर के आंगन में टांग दिया जाना वीरता का प्रतीक समझा जाता था. मुझे तो ये सब नागा समाज में इन्सान की basic instinct को सामाजिक स्वीकृति देना ही लगता है................baten तो बहुत हैं पर अली साहब ये बड़ा उलझा हुआ मामला है.... मैं कुछ सोचता हूँ तो खुद ही ulajh जाता हूँ.....अतः इस masle को jyada samjhdar logon के लिए chhodta हूँ...
जवाब देंहटाएंdekho net ने भी साथ chhod दिया.
@ सम्वेदना के स्वर जी,
जवाब देंहटाएंभाई ,आपसे सहमत हूँ इसे घिनावना ही कहा जा सकता है !
मित्रों के सुझाव अन्यथा क्यों लूंगा ! पर मुझे लगता है कि मैने उसे एकाधिक के लिये ही प्रयोग में लिया था ज़रा सा आगे देखियेगा 'बेवकूफियों' !
मेरे लिये रूहानियत एक और ज़ज़्बात तथा बेवकूफी अनेक ! आपके सुझाव के लिये तहे दिल से आभारी हूँ ! आगे भी आपका इंतज़ार करूंगा !
@ विचार शून्य जी ,
आपका नेट धोखा नही देता तो आप सही दिशा में जा रहे थे क्या आपको पता है कि गारो जनजाति में दामाद अपनी सास का भावी पति कहलाता है :)
असल में मुद्दा अलग समाजों के अलग मानदंडों में तुलना का नहीं बल्कि एक समाज के मानदंड के उल्लंघन का है !
कबीलों, जनजातियों के जो भी नियम बनाये गए थे/हैं, वो ज़रूर उनके लिए तर्कसंगत होंगे, क्योंकि इन्हें न सिर्फ़ उन्होंने बनाया है बल्कि उसे मान्यता भी दी है...यह उनकी अपनी सोच, सामजिक परिवेश, ज्ञान, सामर्थ्य और न जाने किन कीं बातों पर निर्भर होता होगा....परन्तु यहाँ हम बात कर रहे हैं..हमारे अपने परिवेश में रहने वाले ..एक ऐसे इन्सान की जो हमारे ही बीच में रह रहा है....
जवाब देंहटाएंहमारे यहाँ एक कहावत है....डायन भी सात घर छोड़ देती है....जब अपने पर आती है...
लेकिन फिर मैं बात कर रही हूँ डायन की ....अब पुरुष डायन छोड़ेगा या नहीं ...कहना कठिन है....लेकिन जो अब तक देखा है..अपने आस-पास, घर परिवार में तो....ऐसा पुरुष डायन नहीं मिला कोई...
चलिए ..आपने दर्शन कर लिए हैं....हमारी तरफ से भी...जितना संभव..लानत-मलानत दे दीजियेगा...
हमेशा की तरह..भाषा और भाव..गज़ब ढाते हुए....
आभार स्वीकार करें..~
कुछ पिता अपनी पुत्रियों के साथ यौन सम्बन्ध को जायज़ ठहराते हैं????????????
जवाब देंहटाएंफिर लौटा हूँ ,साढ़े तीन बजे रात ...
करीबी रक्त सम्बन्धों में यौनाचार (इन्सेस्ट ,अगम्यागम्य ) एक असहज बात है ,सामान्य नहीं है .ऐसे दृष्टांत बहुत रेयर हैं .आपने अपने कहानी के नायक (जो वस्तुतः खलनायक के रूप में पेश किया गया है ) का जो सम्बन्ध दिखाया है वह क्या रक्त सम्बन्ध में यौनाचार /इन्सेस्ट का उदाहरण है ? अगर नहीं तो फिर बात इतनी नहीं खिचनी चाहिए !
चिम्पान्जियों में भी इन्सेस्ट अमूमन नहीं होते जो मनुष्य का निकटतम जैवीय रिश्तेदार है ...मतलब जैवीयता भी निकट अगम्यागम्य रिश्तों पर अंकुश रखती है ...
तो ये विरले दृष्टांत हैं ...आप वाली कहानी में पात्रों में कोई रक्त सम्बन्ध तो लगता नहीं ....तो फिर काहें इतना मगजमारी ...यह नैतिक मुद्दे का विषय हो सकता है मगर बहुत विरला नहीं -प्रवीण शाह से सहमत ...
घृणित ....
जवाब देंहटाएंऐसे इंसानों से औपचारिक मित्रता भी कैसे रखी जा सकती है ...!
@ अरविन्द जी ,
जवाब देंहटाएंमुद्दा मैंने भी नैतिकता के नाते ही उठाया है मां से सम्बन्ध रखते हुए पुत्री से सम्बन्ध केवल अनिथिकल है ! आपकी बात से सहमत हूं ! मेरे आलेख का मूल स्वर भी उतना ही है !
रक्त संबंधी पिता पुत्री की बात का सम्बन्ध पामेला बोर्डस के उद्धरण मात्र से है जहां वो मौक़ा मिलने पर सभी पुरुषों और स्त्रियों का ..........होना तय कर देती है ! एक पिता ने कहा ,बीज मैंने बोया फसल मैं काटूं तो दूसरों को तकलीफ कैसी ! रेयर सही पर पर सच तो है ही !
@ अदा जी ,
जवाब देंहटाएंवे पुरुष प्रेत कहे जायें ! यौन जीवन को नियमित करने वाले सामाजिक मूल्यों के क्षरण का मुद्दा है सो चिंतनीय है ! आपकी सारे तर्क स्वीकार !
@ वाणी जी ,
निश्चय ही घृणित !
औपचारिक मित्रता नहीं ! औपचारिक सम्बन्ध अब भी होने की व्याख्या केवल इतनी कि हमारे कार्यालय इस के लिए उत्तरदाई हैं !
अनाड़ी हूँ। क्या कहूँ?
जवाब देंहटाएंIncest के प्रश्नों पर निराला, सरोज और उनकी सरोज स्मृति याद आते हैं। जाने क्यों?
विपरीतलिंगी की ओर आकर्षण और यौन सम्बन्धों की ओर उन्मुखता सामान्य हैं लेकिन कुछ तो बचे रहना ही चाहिए नहीं तो बस ध्वंस ही रह जाएगा।
हाँ, सामाजिक संरचना को आमूल चूल बदलने की बात करने वाले शायद नैतिकता के प्रतिमान भी बदल दें। फिलहाल तो लोगों की साइकी में जो शुभ संस्कार प्रबल हैं, मुझे ठीक ही लगते हैं।
निराला की पंक्तियों में उस उदात्तता का अनुभव कीजिए जिसके वशीभूत हो एक पिता अपनी युवा होती बेटी के सौन्दर्य का वर्णन करता है। ऐसी पंक्तियाँ विश्व साहित्य की धरोहर हैं:
जवाब देंहटाएं"बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर
आईं, लावण्य-भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यौं मालकौस नव वीणा पर,
नैश स्वप्न ज्यों तू मंद मंद
फूटी उषा जागरण छंद
काँपी भर निज आलोक-भार,
काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल --
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय दल
क्या दृष्टि। अतल की सिक्त-धार
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता उर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील नील,
पर बँधा देह के दिव्य बाँध;
छलकता दृगों से साध साध।"
और पुत्री विवाह के अवसर पर उसका सौन्दर्य वर्णन जो दिवंगत पत्नी और मातृहीना पुत्री को जोड़ देता है:
"देखती मुझे तू हँसी मन्द,
होंठो में बिजली फँसी स्पन्द
उर में भर झूली छवि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर
तू खुली एक उच्छवास संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग,
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैनें वह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त की प्रथम गीति –
श्रृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग –
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।"
कितना कंट्रास्ट है उन पतित पिताओं से जो इंसेस्ट की ओर उन्मुख होते हैं।
@ गिरिजेश जी ,
जवाब देंहटाएंटिप्पणी सह कविता पा अनुग्रहीत हुआ !
नर-मादा संबंध प्राकृतिक हैं। प्रकृति उन्हें किसी बंधन में नहीं बांधती। मनुष्य जाति में परिवार और समाज के विकास के साथ ही निषिद्ध संबंधों का आरंभ होता है और काल व स्थान भेद से ये निषेध भिन्न-भिन्न हैं। निषेधों के बावजूद भी मनुष्य का मूल जैविक गुण नहीं छूटता। कुछ निषेधों का पालन करते हुए समाज के नियमों में जीवन गुजारते हैं, तो कुछ उन्हें तोड़ते हुए बिताते हैं।
जवाब देंहटाएंमेरे एक निकट के मित्र के अस्थाई संबंध (कभी कभी तो केवल कुछ घंटों के लिए ही) अनेक स्त्रियों से रहे हैं, लेकिन इस के बाद भी अपनी पत्नी के साथ उन का जो संबंध है वह सर्वोपरि है। वह कभी अपने इन संबंधों को छुपाता भी नहीं है। उस मित्र की सामाजिक हैसियत पर इस का कोई गंभीर असर भी नहीं है। वह इन संबंधों को धर्म और सामाजिक दृष्टि के प्रतिकूल भी नहीं मानता जब तक कि वे दोनों और से स्वैच्छिक हैं। हाँ सामाजिक संबंधियों, मित्रों आदि के परिवारों के बीच इतर संबंध बनाता भी नहीं है।
यह विषय एक गंभीर विमर्श की जरूरत महसूस करता है। इस में जीव-विज्ञानी और मनोविज्ञानी दोनों ही दृष्टिकोणों से एक साथ विचार करना पड़ेगा और समाज तो बीच में होगा ही।
sunder lekh...
जवाब देंहटाएंन रिश्ते देखे है ना नस्ल, ना ही नाम देखे है
जवाब देंहटाएंन बदकारी का होगा आगे क्या अंजाम देखे है
हवस पेशा को क्या मतलब कि क्या बोलेगी ये दुनिया
हवस बस काम है उसका वो अपना काम देखे है..
@ दिनेश राय द्विवेदी जी ,
जवाब देंहटाएंआपका दोस्त ही क्यों ,लगभग हर मर्द सामाजिकता से अपने विचलन को जस्टीफाई करने के तर्क ढूंढ ही लेता है ! अब आपसी सहमति ही सही !
जैविकता की प्रमुखता / प्रबलता के दुष्परिणामों से निपटने के लिहाज से ही हर समुदाय नें लंबी कालावधि के दौरान , सर्वसम्मति से अंतरसमुदाय नियमन किया हुआ है फिर नियमन से विचलन , विचलन ही माना जाएगा ! उसके लिए बहाने स्वीकार्य नहीं होने चाहिए जब तक कि सामाजिक नियमन में अपेक्षित संशोधन ना हो जाएँ !
@ मनु जी ,
बड़ी सुन्दर सी लाइनें गढ़ दी हैं आपने ! शुक्रिया !
कहते हैं कि मनुष्य जंगली जीवों का ही परिष्कृत(?) संस्करण है. ऎसे वाकये देख/सुनकर इसी नतीजे पर पहुँचने को मन करता है कि हो सकता है कि शायद कोई कोई मनुष्य अभी भी पूरी तरह से परिष्कृ्त नहीं हो पाए हों.....जिनमें जानवरों की कुछ मौलिक प्रवृत्तियाँ अभी भी शेष बची हैं...
जवाब देंहटाएंअली भाई, जरा ये पोस्ट दर पोस्ट फोटू बदलने का राज तो बतला दीजिए :)
जवाब देंहटाएं@ दिनेश भाई,
जवाब देंहटाएंहमारी पोस्ट पढ़ पढके सब लोग हमें बूढा ना समझनें लग जायें बस इसी डर से गुज़रे ज़मानें की फोटो लगा दे रहे हैं ! उम्र छुपाने का कोई और रास्ता दिखा ही नहीं :)
प्रिय अली साहब ,
जवाब देंहटाएंआपने सही पहचाना . मैं वही स्वराज्य करुण हूँ . मरहूम शायर गनी जी तब जीवित थे .उनकी लेखनी
से प्रभावित हो कर ही मैंने 'हिन्दी और उर्दू के सेतुबंध गनी आमीपुरी' शीर्षक से वह आलेख लिखा था .
लेकिन उनके सम्मान में हिन्दी दिवस पर हुए समारोह के आयोजन में मेरे अकेले की नहीं ,बल्कि
तरुण साहित्य समिति के सभी साथियों और आप जैसे मित्रों की बहुत बड़ी भूमिका थी .
बहरहाल ब्लॉग के ज़रिए आपने मुझे याद किया , आपका आभारी हूँ . मेरे ब्लॉग 'दिल की बात '
के आलेखों पर आपके बहुमूल्य विचारों का मुझे इंतज़ार रहेगा. जौर आप कैसे हैं . इन दिनों ब्लॉग लेखन
के अलावा और क्या कर रहे हैं ? आपके ब्लॉग के कई आलेख बहुत दिलचस्प हैं . लेखन जारी रखें .
शुभकामनाओं सहित --- स्वराज्य करुण
@ प्रिय स्वराज्य करुण जी ,
जवाब देंहटाएंमैंने आपको मेल किया है ! नि:संदेह जगदलपुर की सुखद स्मृतियाँ अब भी होंगी आपके मन में !
बस सोच रहा हूँ कि आदमी मूलतः जानवर है या कि प्रयत्नतः या फिर भूलतः ! प्रवीण जी की बात झकझोरती है | राव जी टीप गहरे कुछ संप्रेषित करती है | मुझे लगता है कि खुलेपन को नकारता फिजूल का 'मेंटीनेंस' परदे के भीतर विकृति को उभार देता है ! इज्जत बचाने के हवाई चक्कर में बेज्जत होती मानव प्रजाति !
जवाब देंहटाएं@ अम्रेन्द्र जी ,
जवाब देंहटाएंपहले तो ये बताइये कि आप थे कहां ?
@ अली जी ,
जवाब देंहटाएंपिपली लाइव के गाने की एक पैरोडी सूझ रही है ;
'हुजूर , ब्लागरी तौ बहुतै सुहात है , बेरोजगारी डाइन मारे जात है !' / यह बात तो स्थायी भाव हो गयी है और इधर नेट-कनेक्सन भी डिस्टर्ब हो गया था !
समाज का एक बहुत ही घृणित और अमानवीय सच लिखा डाला है आपने ..
जवाब देंहटाएं@ शिखा वार्ष्णेय जी ,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !