समझ में नहीं आता कि रोज रोज क्या लिखूं, इन दिनों मेरा ब्लॉग बेचारगी के दौर से गुज़र रहा है...लगभग खालीपन से जूझते हुए ! कुसूर उसका नहीं मेरा है...? शायद मेरा भी नहीं...उन बादलों का है जो लेह में फट कर बस्तियां तबाह कर गये ! उदास...तिक्त मन से, मैंने तो यही जाना कि एक खास ऊंचाई पर तैरती बूंदों का संघनन किसी ठोस अथवा ऊष्ण यथार्थ से टकराते ही अपना आपा खो बैठता है और फिर धरती पर कहर बन कर टूट पड़ता है ! बस कुछ ही क्षणों में , बस्तियां मरघट में और जीवन , लाशों में तब्दील हो जाते हैं ! महीनों तक मानसून के इंतज़ार और आसमान में तिरती मृदु बूंदों की कल्पना से जीवन के परवान चढ़ने की आस लगाए गांव के गांव इस ट्रेफिक संघनन की क्रूरता से पल में अतीत हो जाते हैं !
कुदरत की अयाचित बेरहमी से परेशान , मन अवसादग्रस्त सा हो चला है, सोचता हूं कि आभासी संसार की गोद में मुंह छुपा लूं ! एक टुकड़ा सुख की कामना लिये ब्लॉग जगत के द्वार खोलता हूं, कि अरविन्द जी राममय हुए जाते हैं और गिरिजेश जी भी प्रेमपाश को तोड़ कर हिंदुत्व बोध में हुंकारे भरने लगे, उनसे पहले भी कुछ ब्लाग स्थाई तौर पर,स्टीरियो टाइप बजते हुए अपने अपने ईश्वरों को शरणागत मानते हुए अभयदान देने की मुद्रा अख्तियार किये हुए थे ! यहां माहौल बड़ा धार्मिक है कहूंगा तो गलत होगा , इसलिए कहता हूं कि ओह बेचारा ईश्वर...क्या साबुत,सही सलामत बचा रह पायेगा ? उन दिनों जबकि कारगिल युद्ध हुआ तब भी माहौल बादलों के फट पड़ने सा घनघोर / भयंकर / घनीभूत / मानसूनी ही था और लैला आई तब भी !
पिछले कई दिनों से बादलों और साइबर संसार में अजीब सी सादृश्यता देख रहा हूं मैं ! सम्मान और असम्मान से जूझते ब्लागर...दुश्मन देश हाय हाय...देश के नेता बाय बाय...क्विजयाते...चरचराते...मरमराते...फुसफुसाते... घिघियाते... उबलते...बिलबिलाते...छिनाल से उछाल तक की, मानसूनी प्रविष्टियों का ट्रेफिक संघनन, कोलाहल में बदलने लगता है ! हर बार साइबर संसार का ट्रेफिक एक खास ऊंचाई पर संघनित होकर फट पड़ता है और कीचड भरी बाढ़ से मेरे अंदर की कुछ बस्तियां फिर से तबाह हो जाती हैं ! हालत ये कि पिछली बार के आंसू भी खुश्क नहीं हो पाते कि एक और नया सैलाब एक और नई तबाही ! अब तो बादल ज्यों ही फटते हैं स्यापा दूर तक पसर जाता है मेरे अंतर्मन में ! यूं समझिए कि नव चिंतन नई बस्तियां पल में तहस नहस !
बादलों के बहाने पूरे ब्लॉग जगत के संक्रमणकाल को आरेखित करता हुआ लेख मजबूर करता है कि ओढ़ी हुई मानसिकता का बोझ जब वैचारिक चिंतन को अपने बोझ तले दबाता है तो कसमसाहट ही स्यापे में बदल जाती है।
जवाब देंहटाएंशायद यह कसमसाहट ही मजबुती का संबल बेचारगी नही......आप भी मेरि बात से सहमत होंगे?
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
अली साहब वर्षा कि एक बूंद जब आसमान से गिरती है तो बड़ा सुखद एहसास कराती है पर जब यही बूंदें बिना किसी नियंत्रण के एक साथ ही गिरती है तो विनाश का कारण बनती हैं. ठीक इसी तरह मैं आपने इर्द गिर्द धार्मिकता का बदल फटते हुए देख रहा हूँ. आज शिवरात्रि है. सभी आधुनिक कावड़ लाने वाले शिव भक्तों का बादल फट कर दिल्ली कि आम जनता को त्रस्त कर रहा है. इस विषय पर लिख ही रहा था कि आपकी पोस्ट आ गयी. वैसे बादल का फटना एक प्राकृतिक घटना ही है अतः सह ले पर मानवीय बादलों के फटने को तो रोका जा सकता है. ब्लॉग जगत का तूफान तो मुझे बुलबुले का फूटना लगता है. देखना एक दो दिन में सब शांत हो जायेगा.
जवाब देंहटाएंबादलों पर सवार सुविचार ! सार्थक पोस्ट !
जवाब देंहटाएंमुझे तो इस पोस्ट में बहुत काम की बातें दिखाई दे रही हैं।
जवाब देंहटाएंएक नियम के रूप में यदि रुई पर रुई पर रूई रखते चले जाएँ तो वह भी बहुत वजनी हो जाएगी, अपने ही दबाव की गर्मी और घर्षण से जलने भी लग सकती है। वस्तु का एकत्रीकरण खतरनाक है,उसे समान वितरण चाहिए।
अपना पानी सब को थोड़ा थोड़ा बाटों!
यही सब बातें मेरे मन में भी उमड़ घुमड़ रही हैं -बरस न जाय ..... :) लिखा बहुत मस्त है -भाषा का प्रवाह !
जवाब देंहटाएं@ बेनामी जी ,
जवाब देंहटाएंअच्छा हुआ आपने मज़ाक समझा:)
@ मुकेश कुमार तिवारी जी ,
जी जरुर सहमत हैं ! आपका शुक्रिया , पोस्ट को ब्लाग जगत के संक्रमणकाल के नज़रिये से देखने के लिए !
@ समीर भाई , रमेशकेटीए जी ,
शुक्रिया !
@ विचार शून्य जी ,
ये तो कमाल हुआ भाई आपके ख्याल पर मैं लिख बैठा ! इसे कहते हैं दिल से दिल के तार मिलना :)
@ द्विवेदी जी ,
निसंदेह समान वितरण से अतिरेक दोष मिट सकते हैं ! प्रकृति के बहाने मेरा इशारा चिंतन की
विकलांगता और भीड़ व्यवहार की ओर है ! बड़ी कोफ़्त होती है कई बार !
@ अरविन्द जी ,
बरस ही जाइये :)
... सुपर-डुपर ब्लागिंग !!!
जवाब देंहटाएंघनीभूत होती उमड़न-घुमड़न, चमक-कौंध के साथ.
जवाब देंहटाएंप्रकृति अपना इशारा देती रहती है मगर हम लोंग समझे तब ना ...
जवाब देंहटाएंसुना है लेह की बाढ़ में कुछ जवान पडोसी मुल्क की तरफ बह गए हैं ...
ये बादल खतरनाक मिशन वाले स्थानों पर क्यों नहीं फटते....!
सम्मान और असम्मान से जूझते ब्लागर..
जवाब देंहटाएं-जाने क्यूँ यही कुछ मैं भी आसमान ताकते सोच रहा हूँ...सेम पिंच मित्र.
@ उदय जी ,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
@ राहुल सिंह जी ,
हहाहा...उमडन घुमडन चमक चौंध छूट गया था !
आपकी टिप्पणी को मेरी फीलिंग्स के साथ खडा देख पा रहा हूं मैं ! शुक्रिया !
@ वाणी जी ,
प्रकृति से तालमेल बना कर ही चलना चाहिए इसी में मनुष्य जाति की भलाई है !
@ समीर लाल जी ,
सही है !
अली साहब,
जवाब देंहटाएंआपको पढ़ कर यूँ लगा जैसे गीत हमारे हैं... बस सुर आपके हैं....
ब्लॉग जगत का आलम यूँ है कि ..लगता है अन्दर से सब कुछ बुहार कर बाहर फेंक दिया जा रहा है..रिक्तता का ऐसा अनुभव पहले कभी नहीं हुआ जैसा अब हो रहा है....अधिकांश ब्लोग्गर इसी मनोदशा से गुजर रहे हैं...आपने तो जैसे सबके मन की बात कह दी है...फिर भी...प्रयत्नरत हैं..कि हिम्मत न टूटे...
आपकी भाषा कितनी स्पष्ट, सीधी, सरल, काव्यमय और धाराप्रवाह है .....बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है...
इस प्रविष्ठी के लिया आपका आभार..
@ अदा जी ,
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत शुक्रिया !
बहुत खूब लिखा है।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
मन में, पिछले कुछ समय से अक्सर ये विचार उठने लगे हैं कि कहीं ये सन्यासाश्रम अपनाने का वक्त तो नहीं आ गया है....ब्रह्मचर्याश्रम से सीधे ही सन्यासाश्रम...
जवाब देंहटाएंजातस्य हि ध्रुवो मृत्यु: ! क्या स्थायी है ! बादल फटेंगे , अपना ही खो देंगे ! उसके बाद आवाज के लायक भी नहीं , बरसने लायक भी नहीं ! चूंकि अब सब घटता ही है , इसलिए यह भी प्राकृतिक है ! जन्म-मृत्यु सा ! सृष्टि के विनाश पक्ष से भी लोग प्रेरणा लेते हैं , सिर्फ सृजनात्मक पक्ष से ही नहीं ! यही मान लिया जाय | पर अपनी तरफ से सचेतक धर्म का निर्वाह भी चलता रहे , बस ! आभार !
जवाब देंहटाएंबादलों से बरस रही है ब्लागजगत के लिये एक चेतावनी इसे समझ लेना और उपाय कर लेना चाहिये। शुभकामनायें
जवाब देंहटाएं..हर बार साइबर संसार का ट्रेफिक एक खास ऊंचाई पर संघनित होकर फट पड़ता है और कीचड भरी बाढ़ से मेरे अंदर की कुछ बस्तियां फिर से तबाह हो जाती हैं !..
जवाब देंहटाएं..बहुत खूब.
@ घुघूती बासूती जी,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया !
@ पंडित डी.के.शर्मा वत्स जी ,
यहां लोग सन्यास से गृहस्थ आश्रम में कूद रहे हैं वहां आप किनारे वाली गली से निकलने की बात बोल रहे हैं :)
@ अमरेन्द्र जी ,
तर्क स्वीकार है !
@ निर्मला कपिला ,
आपका बहुत आभार !
@ देवेन्द्र भाई ,
शुक्रिया !
समझ नहीं आता..
जवाब देंहटाएंहमें लेखन से मतलब होना चाहिए...या सिर्फ ब्लॉग-जगत की फ़िक्र...
और फ़िक्र भी हो तो किस चीज की....?