मंगलवार, 18 मई 2010

कहां तुम चले गये ...



पिछले  दिनों  की  तरह  कल  फिर  से  क़हर  टूटा ... कुछ  और  जिंदगियां ...ना  रहीं  !  अम्मा  के  सीनें  में दफन  एक   और  लैंडमाइंस  अबकी  बार  यात्री  बस  के  लिये  नियत  की  गयी  थी ...इसमें  नागरिकों  के साथ  एसपीओ , कोया कमांडोज...क्यों  और  कहां  से  बैठे  ये  सब  तो  उनके  अधिकारी  तय  करेंगे ...लेकिन यह  निश्चित  है  कि  इसकी  सूचना  नक्सलवादियों  को  पहले  से  ही  थी ...इसके  बाद  सरकारें ...उनके कारिंदे ...निर्णय  लेंगे ...लेते  रहेंगे  कि  चूक  कहां  पर  हुई ...मुआवजे  की  घोषणायें ...श्रद्धांजलियां ...आह जिंदगियां  असमय ...मैं  भी  उदास  हूं  फिर  से  ...फिलहाल  उनके  लिये....कल  शायद  कोई  और  उदास होगा ...?  कुछ   और  कलेजे  फट  जायेंगे ... स्मृतियां  फफोलों  सी  हर  दिल  में  उभरती  रहा  करेंगी ... 
चिट्ठी ना कोई सन्देश 
जाने वो कौन सा देश जहां तुम चले गये 
इस दिल पे लगा के ठेस जाने वो  कौन सा  देश 
जहां तुम चले गये 
इक आह भरी होगी हमने ना सुनी होगी
जाते जाते तुमने आवाज तो दी होगी
हर वक़्त यही है गम. उस वक़्त कहां थे हम 
कहां तुम चले गये 
चिट्ठी ना कोइ सन्देश ...
हर चीज़  पे  अश्को से  लिखा है तुम्हारा नाम 
ये रास्ते घर गलियां तुम्हें कर ना सके सलाम 
है  दिल में  रह गई बात. जल्दी से छुडा कर हाथ 
कहां  तुम चले गये ...
अब यादों  के कांटे इस दिल मे चुभते  हैं    
ना दर्द ठहरता है ना आंसू रुकते हैं 
तुम्हे ढूंढ रहा है प्यार हम कैसे करें इक़रार 
कहां  तुम चले गये...

( शायर से क्षमा प्रार्थना सहित पंक्तियां उद्धृत कर रहा हूं ) 

6 टिप्‍पणियां:

  1. बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |

    बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
    अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
    बस्तर की कोयल होने पर

    सनसनाते पेड़
    झुरझुराती टहनियां
    सरसराते पत्ते
    घने, कुंआरे जंगल,
    पेड़, वृक्ष, पत्तियां
    टहनियां सब जड़ हैं,
    सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |

    बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
    पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
    पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
    तड़तड़ाहट से बंदूकों की
    चिड़ियों की चहचहाट
    कौओं की कांव कांव,
    मुर्गों की बांग,
    शेर की पदचाप,
    बंदरों की उछलकूद
    हिरणों की कुलांचे,
    कोयल की कूह-कूह
    मौन-मौन और सब मौन है
    निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
    और अनचाहे सन्नाटे से !

    आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
    महुए से पकती, मस्त जिंदगी
    लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
    पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
    जंगल का भोलापन
    मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
    कहां है सब

    केवल बारूद की गंध,
    पेड़ पत्ती टहनियाँ
    सब बारूद के,
    बारूद से, बारूद के लिए
    भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
    भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।

    फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

    बस एक बेहद खामोश धमाका,
    पेड़ों पर फलो की तरह
    लटके मानव मांस के लोथड़े
    पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
    टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
    सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
    मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
    वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
    ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
    निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
    दर्द से लिपटी मौत,
    ना दोस्त ना दुश्मन
    बस देश-सेवा की लगन।

    विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
    आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
    अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
    बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
    अपने कोयल होने पर,
    अपनी कूह-कूह पर
    बस्तर की कोयल होने पर
    आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?

    अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से

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  2. Ekadh do din yah narsanhaar surkhiyon me rahega..agle hamle ke baad phir ekadh do din..

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  3. इसे क्या कहा जाए? नियति...या..

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  4. असह्य हो रहा है यह !
    अत्यन्त दुखद !
    जगजीत की आवाज़ में इस गज़ल को सुनकर तो कलेजा फटता है !

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