भाई अजित वडनेरकर के ब्लॉग शब्दों का सफ़र में अमूमन रोज़ ही हाज़िरी लगाता हूं आज उनके सौजन्य से चंदू भाई की अनकही की तेरहवीं किश्त पढ़कर कुछ पुरानी स्मृतियां जाग गईं ...होशमंद होते ही मेरे बाल सखा, सहपाठी, अभिन्न मित्र, पड़ोसी अपने कैरियर के लिए कानपुर चले गये ...पक्का पता नहीं कि उनका कायाकल्प कब हुआ होगा लेकिन बिछड़ने के एक वर्ष के भीतर ही हमारी मुलाकात इस तरह से हुई कि वे बजरंग दल के बैनर तले उग्र प्रदर्शन मे भाग ले रहे थे ! माथे पर भगवा पट्टी और जुबान पर वही 'कटुआ ब्रान्ड' नारे ! उन्हे इस रूप मे देख...मै हतप्रभ सा वहीं खडा रह गया...मेरा वहां से गुज़रना एक संयोग मात्र था जिसकी उम्मीद उन्हें भी कहां रही होगी...अचानक मुझ पर नज़र पड़ी और वे अकबका कर भीड़ में गुम हो गये...फिर महीनों तक गांव आये ही नहीं! मेरे परिजन उनके परिजनों से खैर खबर लेते तो पता चलता कि काम में व्यस्त हैं ! खैर जाते भी तो कहां...एक पारिवारिक आयोजन के सिलसिले में गांव आये ...जैसे ही सामने पड़े ...सिर झुका लिया...मैंने पूछा अबे संतोष मैं तेरे लिये कटुआ कब से हो गया बे ? हकलाते हुए केवल इतना कह सके...फंस गया था यार...'बाद' में सब डिटेल बताऊंगा? लेकिन वो 'बाद' आज तक आई ही नहीं और अब मैं ...दोस्त को शर्मिन्दा करने का इच्छुक भी नहीं हूं ! तब कारण चाहे जो भी रहे हों !
Mere saath bhi aisa hi ek ajeebo gareeb waqaya huaa..jo mujhe bahanse badhkar manti thee,usne achanak muh mod liya! Itnahi nahi,peethpeechhe badnami bhi!Aaj tak us sadme se ubhar nahi payi hun!
जवाब देंहटाएंदुखद।
जवाब देंहटाएंदु:खद. इतना तो भला है कि आंख की शर्म बाक़ी रही.
जवाब देंहटाएंकिशोरावस्था में भेड़ धसान में ऐसा होता है किन्तु समय के साथ ही एवं संस्कार से ऐसी भावनांए धुल जाती हैं.
जवाब देंहटाएंसंतोष का नजर ना मिला पाना उसके अफशोस को जता रहा था. ईश्वर उसे सदबुद्धि दे.
संजीव जी ने मार्के की बात कही। उनसे सहमत
जवाब देंहटाएंदुखद है ये बेहद अफ़सोस हुआ ... :( : ( : (
जवाब देंहटाएंकिसी को ऐसा ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए कि जब मिलें तो निगाहें शर्म से झुक जाएँ...
जवाब देंहटाएंकोई देखे या न देखे अल्लाह देख रहा है...
कोई देखे या न देखे ईश्वर देख रहा है...
जन्मदिवस की शुभकामना के लिए आपको बहुत धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंमैं वामपंथी
जवाब देंहटाएंमैं दक्षिणपंथी
मैं कुपंथी
मैं सुपंथी
मैं साम्प्रदायिक
मैं सैद्धांतिक
मैं अवसरवादी
.\.\
कितने मैं ...!
अब सिर्फ 'पंथी' हूँ।
..एक दूसरे अली की याद आ गई। कुछ शरारती टाइप के उसे जब चिढ़ाते तो वह बहुत गुस्साता और सबको 'सूअर के पिल्ले' कहता था। उसके बाद 'लाहौल बिला..'। मुझे आज तक समझ नही आया कि सूअर के पिल्ले कैसे हो सकते हैं ?
जूनियर सेक्सन के हिसाब से वह कुछ अधिक ही मैच्योर(?)था। सरस्वती पूजा के बाद कभी तिलक नहीं लगवाता और प्रसाद को फेंक देता। वहीं एक मुहम्मद _____ नाम का साथी भी था जिसे कोई फरक नहीं पड़ता था। लेकिन उसे कोई चिढ़ाने की हिम्मत भी नहीं करता था क्यों कि वह डायरेक्ट ऐक्शन माने 3-4 घूँसों और बाद में आचार्य जी लोगों से पिटने में यकीन रखता था।