शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

हमसे इंसान नहीं सधते.. उन्होंने प्रेत साध रखे हैं !

कितनी  अजीब बात है  जब भी  कोई फिल्म  देखता हूं  नायिका पलक झपकते ही मेरी बांहों में सिमटी सिमटी नजर आती है मेरी  धडकनें उसके अहसास से रफ़्तार पाती हैं और बदन गोया उसके जिस्म की खुशबू से नहा उठता हो ! उस वक्त स्क्रीन पर मेरे सिवा कोई 'दूसरा' कहां होता है ! कई बार सोचता हूं डायरेक्टर नें हीरो को बेवजह कास्ट किया , कमबख्त पैसे लेकर भी मोहब्बत का नाटक करता है ... यहां... मैं हूं  जो धेला पाये बिना मुहब्बत में गिरफ्तार हूं और यकीन जानिए ज़र्रा बराबर  भी नाटक नहीं कर रहा हूं ! कुछ घंटे बाद भले ही फिल्म ख़त्म...ख्वाब चूर के  हालात में सिनेमा हाल छोड़ना पड़े पर मुहब्बत का नशा घंटों तारी रहता है एक बेहद खुशनुमा  एहसास  !  फिर  ख्याल  आता है अगर  आभासी दुनिया में मुहब्बत जिन्दगी को इतना पुरलुत्फ़ कर जाती है तो क्या वजह है कि असल जिन्दगी में मुहब्बत...का कोई बेहतरीन रोल ना हो  ? बाहर सड़क पर बच्चे , बूढ़े और ...ना जाने कितने लोग ...भांति भांति के लोग ... झुण्ड  की शक्ल में खरामा खरामा आगे बढ़ते हैं और मुझे इनसे कोई शिकायत नहीं ! मैं इश्क में ...हूं ...जेहन फिर भटकता है...ये बच्चे जवान  होने पर  मुझ 'से' हो जायेंगे तब नायिका इनके सीनों में जिन्दगी के / आह्लाद के सुर फूंक रही होंगी और ...और वे बूढ़े...?  वे भी तो कभी ...? एक शानदार रिश्ता बूढ़े बच्चों और मेरे दरमियान कायम हो चुका है ...मैं इश्क में मुब्तिला हूं और मेरे अन्दर कहीं  वे  सब भी इश्क में मुब्तिला हैं  !  लम्हा दर लम्हा दुनिया बेहद खूबसूरत हो चली है  मुझे पता नहीं उनके कपडे , उनके जज्बात ,उनके मजाहिब और उनकी जुबाने मुझसे मैच करती हैं  की नहीं  ?  लेकिन ...फिलहाल  वे हैं ...मैं हूं ... और इश्क है  ! यानि कि ... इश्क है और हम हैं फिर हमारे दरमियान किसी जुबान ...किसी मजहब ....किसी... किसी और किसी  ?  की जरुरत भी कहां है ?
बहुत दिनों से  कुछ लिखा नहीं दोस्तों का ख्याल है जरुर लिखना चाहिए पर इश्क का अहसास लिखने नहीं देता  मुझे  ! सोचता हूं  रेत में मुंह छुपा कर शुतुरमुर्ग बन जाऊं ?  सच का सामना करने का साहस  नहीं है  मुझमें , वहां सिनेमा हाल के अन्दर और बाहर सारे 'अपरिचित अपने' थे लेकिन यहां 'बहुतेरे परिचित' पानी पी पी कर मेरी जात पूछने पर उतारू हैं ! वे ढूंढना चाहते हैं मेरे माथे पर स्याह या केसरिया निशानों को !  उनके निशाने  पर हैं मेरे कपडे , मेरी जुबान ...क्या लिखूं और क्यों लिखूं ..वे परिचित जरुर हैं पर उन्हें मेरी लिखावट में  खास तरह की आदमखोर गंध की तलाश है ...वो मुझमें मुहब्बत और इंसान की खोज नहीं करते उन्हें  मेरी सांसों में बारूद और हांथों में खून के संकेत सूंघने हैं ! वहां कितना खुश हूं मैं जहाँ सारे अपरिचित बिना लाग लपेट इश्क में मुब्तिला हैं और यहां...?    यहां तो मेरा दम घुटता है ! कितने परिचित ?  कितने सारे परिचित ... इंसानों के दरमियान फर्क करने के नए नए तरीके इजाद करने में  मुब्तिला है  ? आखिर कौन हैं वे 'ताकतें' जिन्होंने इन जीते जागते इंसानों को प्रेत बना डाला है !  इधर हम हैं हमसे इंसान नहीं सधते उन्होंने प्रेत साध रखे हैं ...फिलहाल मैं वापिस जा  रहा हूं  !  उन अपरिचितों से मुझे बड़ी उम्मीदें हैं  !  उन्हें इश्क है ! मुझे इश्क  है  !...और एक दिन हम सब मिलकर सारे परिचित जीवन  प्रेत बाधा से मुक्त   करा लेंगे  !

3 टिप्‍पणियां:

  1. भाषा और भाव बहुत अच्छे हैं किन्तु आप थोड़ा सा साफ कहते तो उलझन न होती। वैसे तो मानव की एक ही जाति होती.. मानव, तो कितना अच्छा होता।
    घुघूती बासूती

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  2. ..काश यह ब्लागजगत एक सिनेमाहाल बन जाता ...अब क्वालीफाई भी करता है यहाँ भी एक से बढ़कर एक .....

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