शनिवार, 26 दिसंबर 2009

अपने आपसे ...फ़िलहाल एक सवाल ?

कई  दिनों से  कुछ  लिखा  नहीं ...क्या लिखूं ...जब से होश  संभाला दलीय राजनीति पर आस्था रही, हालांकि सिद्धांतवादी   विकल्पों  के अभाव में  लगातार  वोट नहीं देनें  के अपने  अधिकार का प्रयोग  करता रहा !  मन के किसी कोने में यह विश्वास छुपा बैठा था कि शायद व्यक्तिवाद /  परिवारवाद /  जातिवाद  वगैरह से मुक्त कोई राजनैतिक दल लोकतंत्र के क्षितिज पर धूमकेतु की तरह उभरेगा और तब मैं ख़ुशी ख़ुशी वोटिंग मशीन के बटन पर अपनी अंगुलिया टेक दूंगा, परन्तु लम्बी नाउम्मीदी नें मुझे कहां ला पटका , कैसे कहूं...कैसे लिखूं ...हुआ  यह कि स्थानीय निकाय के चुनाव  में पता नहीं किस  तरह से  ,  सुबह सुबह पोलिंग बूथ जा पहुंचा और  'नितांत व्यक्तिगत पहचान'  के आधार पर वोट दे आया !  कहने के लिये  पार्षद और महापौर पद के ये दोनों प्रत्याशी  किसी राष्ट्रीय राजनैतिक दल के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं  !  लेकिन मेरे हिसाब यह दल देश बांटू और लोकतंत्रीय राजनीति का कलंक है ! हो सकता है आगे चलकर  मैं अपने अपराध बोध को कम करनें के लिये 'स्थानीयता' जैसा कोई  तर्क भी गढ़ लूं  ?  परन्तु  मेरा वोट  दलगत राजनीति और सिद्धान्तवादिता से मेरी फिसलन का प्रतीक  तो बन ही बैठा ना ?     

5 टिप्‍पणियां:

  1. स्थानीय निकायों को पल भर के लिए भूल जाएं तो, 542 भले लोगों को जिता कर संसद भेजने से ही भला होगा, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों क्योंकि आज सभी पार्टियों की एक ही विचारधारा है, एसे में भले लोगों को खोज निकालना और भी मुश्किल होता जा रहा है

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  2. यदि व्यक्ति सही है तो भी बहुत है.
    घुघूती बासूती

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  3. विषय गंभीर है, और आपने नब्ज भी सही ढंग से पकडी है। पर फिरभी सवाल तो अपनी जगह है ही।
    नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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    पुरूषों के श्रेष्ठता के जींस-शंकाएं और जवाब।
    साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन के पुरस्‍कार घोषित।

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  4. आपको सपरिवार नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाऎँ!!!!!!!!!!

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  5. अली साहब, आपसे मुझे शिकायत है। सिर्फ टिप्पणियों में ही नहीं, पोस्ट में भी सक्रियता दिखाइए। गम्भीर और सुलझे हुए लोगों को पढना अच्छा लगता है।

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