शनिवार, 21 नवंबर 2009

यहां नहीं पिलाई तो पक्का समझ ले जन्नत में तुझे पीने नहीं दूंगा !

आज भाई अनिल पुसदकर ने अंडे के बहाने, फ़ूड हैबिट्स को लेकर पुरानी पीढ़ी बनाम नई पीढ़ी की सोच के अंतर और फिर एक बढ़िया तालमेल की ओर ध्यान आकर्षित किया है ! उनके संस्मरण को पढ़ते हुए , दिलचस्प लगा कि दादी के लिए अंडा सर्वथा त्याज्य है फिर भी डाक्टर के सुझाव और बच्चे की सेहत को ध्यान में रख कर उन्होंने एक स्पेस दिया कि, घर के अन्दर नहीं चलेगा लेकिन बाहर खिला देना ! इधर बच्चे के पिता ने भी कितनी शालीनता से घर से बाहर जो भी व्यवस्था की, उस पर पर्देदारी की गुंजायश रखी ताकि पुरानी पीढ़ी की भावनायें आहत ना हों ! दरअसल ये किस्सा दोनों पीढ़ियों के पारस्परिक सामंजस्य का शानदार उदाहरण है और समाज में अमूमन ऐसा ही होता है, यानि कि परिवर्तनों की अपरिहार्यता और किंचित ना नुकुर के साथ उनकी संस्वीकृति !...इस तरह के सभी किस्सों में, भांडा फोड़ का संयोग, ज्यादातर बच्चों, यानि कि तीसरी पीढ़ी के हिस्से में ही आता है ! संस्मरण पढ़कर सुखद अनुभूति हुई और एक पुराना वाकया याद आ गया !

हुआ यूं कि...एक मजहबी मित्र कुछ फिक्रमंद से, मेरे पास आये और बोले डाक्टर ने कहा है सर्दियां हैं, बच्चे को हर दिन एक ढक्कन ब्रांडी पिलाओ ! ये ब्रांडी तो शराब हुई ना जी ? मैंने कहा बच्चा कमजोर है...बीमार है, डाक्टर ने कहा है तो पिला दे ना भाई ! वे हिचकिचाये और बोले, लेकिन शराब...? मैंने कहा वो तो, तुम भी पीते हो, फिर बच्चा पी ले तो क्या फर्क पड़ेगा ! वो नाराज होने लगे बोले, क्या वाहियात बात करते हो मैं कब शराब पीता हूं ? मैंने पूछा तो परसों शाम क्या पी रहे थे ? वे बोले 'कफ़ सिरप', लेकिन कफ़ सिरप तो दवा हैं ना जी ! मैंने कहा भाई मेरे, इस दवा में भी अल्कोहल है और ब्रांडी में भी ! अब आगे तू तय कर ले कि बच्चे को दवा मान के पिलायेगा या शराब ! ...और हां, यहां नहीं पिलाई तो पक्का समझ ले जन्नत में तुझे पीने नहीं दूंगा !

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