सुबह से मन में था कि चाहे जो भी हो जाए आज तस्लीम वालों की सारी की सारी टिप्पणियों का क़र्ज़ चुका कर ही लौटूंगा , फ़िर चाहे उन्होंने समीक्षा लिखी हो , आलेख लिखा हो या कि पहेली पूछी हो ~ टिप्पणी करूं या पहेली हल करूं ~ खाली हाथ तो क़तई भी नहीं लौटूंगा ! मगर .... पहुंचते ही वहां जो कुछ देखा , मेरे हौसले पस्त हो गये ! लगा ज़ाकिर भाई ने पहेली पूछ तो ली मगर मुझे मुसीबत में डाल दिया ! पहेली में दिखाई देने वाली तस्वीर पहले नंगी आँखों से , फ़िर चश्मा लगा कर देखी ! कई .....कई बार देखी ! मुझे तो ये 'मासूम' परिंदा ही लगा !
शायद आपको अंदाज नहीं कि , आसमान में परवाज़ करते परिंदे , दरख्तों की शाखों पर बैठे परिंदे , शाम को घोंसलों की सिम्त डैनों का रुख मोड़ते परिंदे ...और उनकी चहचहाहट का , मेरे लिए एक ही मानी हुआ करता था कि पूरा आसमान....पूरे दरख़्त , सारे परिंदों ....सारे के सारे परिंदों का अपना है !
मेरे ख्याल से इन परिंदों के आसमान का अपना कोई राजनैतिक भूगोल नहीं , वहां कोई सरकारें नहीं , छल प्रपंच में लिप्त राजनेता / गुंडे / मवाली / उन्मादी / फसादी नहीं , कोई फ़तवा / कोई निषेधाज्ञा भी नहीं ! धर्मान्धता और भाषाई पाखंड से मुक्त / अक्षत / मासूमियत भरे परिंदों का आसमान !
कभी लगा ही नहीं कि परिंदे कौन सी जुबान बोलते होंगे ? कभी नमाज पढ़ते या भजन कीर्तन भी करते होंगे ? उन्होंने अपने लिए आसमान के छोटे छोटे टुकड़े भी कर रखे होंगे कि नहीं ? और क्या.... कोई उनकी चहचहाहट को भी 'डिक्टेट' करता होगा ?
परिंदे......मासूम परिंदे , पूरे आसमान में बेलौस , बेख़ौफ़ , परवाज़ के हकदार परिंदे ! आसमान..... सारा का सारा आसमान , परिंदों का और परिंदे आसमान के ! अब तक तो ऐसा ही लगता आया है ! मगर क्या पता ऐसा लगना ग़लत हो ? सिरे से ही ग़लत ?
ज़ाकिर भाई आपकी पहेली का जबाब देने से डरता हूँ ! मुझे भले ही लगता है कि ये एक मासूम परिंदा है और पूरा का पूरा आसमान भी इसका है लेकिन परिंदे की "जात / जुबान और वल्दियत" वगैरह वगैरह तय करने से पहले मुझे बुजुर्गवार का फ़तवा तो सुनना ही होगा और शायद मानना भी होगा ?
अब ये मत कहियेगा कि बाला साहब बीमार हैं याकि बुजुर्गवार बढती उम्र में सठिया गये हैं ! .....खैर आप जो भी कहें हमारा संविधान कहता है कि बुजुर्गवार को परिंदों को डांटने डपटने / पीटने पिटवाने का पूरा पूरा हक़ है !
मासूम परिंदे...... ऊँ....हूँ ....कमबख्त परिंदे , पिंजरे की सरहद से बाहर आसमान में उडनें की ख्वाहिश रखते हैं ! दारोगा - ऐ - जिन्दान इनके 'पंख कलम' कर दो !
बहुत सही व्यंग्य किया है। किन्तु मुझे इसमें क्यों हम सबकी बेचारगी नजर आ रही है?
जवाब देंहटाएंकृपया परिंदों को ऐसे विचार मत दीजिए। कहीं वे भी बँट ना जाएँ।
घुघूती बासूती