वर्षो हो गए फ़िल्म नहीं देखी ! कारण कभी सोचा ही नहीं ...शायद नायक के सौभाग्य से ईर्ष्या ...हॉल में बहुतायत से उपलब्द्ध खटमलों से वितृष्णा या फ़िर कहानियों के रिपीटेशंस से होने वाली वमन की आशंका या कुछ और... ! जो भी हो उन दिनों परदे पर बरसती चिल्हर , हॉल में गूंजती हुई सीटियाँ और मध्यान्ह में ट्रेलर देखने पर उतारू लोग फ़िल्म के हिट होने का पर्याय हुआ करते थे ! हॉल से बाहर फ़िल्म की कथा को छोड़कर समीक्षा के केवल दो ही बिन्दु मुख्य हुआ करते एक नायिका का सौन्दर्य और दूसरा नायक का देहबल बनाम खलनायक की गुंडई ! यहाँ जगदलपुर में शब्द चयन और भाषाई संस्कार भी अनूठे हैं सो अचरज भी होता और समीक्षा भी अनूठी लगती है ! वे कहते .... हीरोइन तो 'विकट सुंदर' है और ये भी कि फ़िल्म देख कर 'भयंकर मजा' आया ! सौन्दर्य की विकटता और मजे की भयंकरता जगदलपुर की खासियत है लेकिन फिल्मों से दर्शक रूठे क्यों अभी भी प्रश्न चिन्ह है !
अभी पिछले दिनों सुना कि हमारे राज्य के मुखिया नें पुलिस हेड क्वार्टर में बैठक ली और आतंकवाद के खतरे से निपटने के लिए गुटबंदी से दूर रहने के सख्त निर्देश दिए लिहाजा अधिकारी लोग दूसरे गुट के कारिंदों को और भी शिद्दत से निपटाने में लग गए हैं ! रील लाइफ से दूर रियल लाइफ की इस फ़िल्म को देखने के बाद भी किसी सिनेमा हाल में जाने की जरुरत शेष रह जाती है क्या ? वहां नायक के सुखद भविष्य के संकेतों पर ख़त्म होने वाली काल्पनिक फिल्मों से मोह क्यों करें जब वास्तविक जीवन के नायक परस्पर टांग खिचाई के माहौल में 'खलनायक ' को सुदीर्घ जीवन की शुभकामनायें दे रहे हों तो आम आदमी , नायिका के विकट सौन्दर्य और भयंकर मजे के लिए सिनेमा हाल पर पैसे क्यों बर्बाद करे ?
बिलकुल सही बात है आभार्
जवाब देंहटाएं