अभी परसों ही मैंने लिखा 'कोतो टका ' उस पर मित्रों की प्रतिक्रियायें पढ़कर अच्छा लगा और महसूस किया कि बात अभी अधूरी है ! पर उससे पहले ये कहूं कि हमारे लखनऊ को क्या हुआ है पहले जाकिर अली "रजनीश" हुए अब वहीं से भाई "निशाचर" भी आए हैं ! खुदा खैर करे ! वहां सब खैरियत तो है ? पुराने मित्रों के साथ भाई "वत्स" भी आए और "वो यादें" भी ! बहुत दिनों से कहने में संकोच हो रहा है पर आज कहे देता हूं ! वो जो सुब्रमनियन साहब और घुघूती जी हैं ना वो अपने ही एरिया और अपनी ही जाति वाले हैं ! इसीलिए चाहे मैं जैसा भी लिखूं वो हमेशा तारीफ ही करते हैं बस यही हाल मेरा भी है ! पर लगता है कि हमारी बिरादरी छोटी सी है इसलिए सरकार बनाने में हमारी कोई भूमिका भी नहीं है ! इसीलिए विद्युत एवं दूरसंचार विभाग हमें अच्छी सेवाएं नहीं देते हैं ! ये ससुरे....ब्लागिंग और टिप्पणी लेखन में बेहद खलल डालते हैं ! खैर....!
बात 'कोतो टका' से शुरू हुई थी इसलिए मुद्दे पर आता हूं ! मैं उस दिन की घटना में अपनी भूमिका के कुछ हिस्से देखता हूं ! सज्जन नें पूछा ...उखाने तार घर आछे ? मैंने जबाब में " कंधे उचकाए " ! सज्जन नें कन्फर्म किया कि वहां तार घर है ! मैंने "मुस्कराकर" कृतज्ञता ज्ञापित की ! अब मैंने पूछा ...कोतो टका ! उनके अपनेपन के एवज में मैं अस्वाभाविक तौर पर ही सही मुस्कराता रहा !
इस पूरे घटना क्रम में वो सज्जन तीन बार और मैं केवल एक बार मुखरित हुआ लेकिन हमारे दरमियान एक पूरा संवाद एक पूरा रिश्ता कायम हुआ और काफी देर तक बना रहा ! भले ही इस पूरी की पूरी अवधि में हमारी भाषा में ध्वनि शामिल नहीं थी पर हमारा रिश्ता देह की भाषा ( बाडी लैन्गुएज ) के दम पर कायम था ! मेरा ख्याल है कि इंसानों ने अपने संपर्क के लिए भाषा का विकास चाहे जितनी भी मुद्दत में किया हो पर वह प्राथमिक रूप में ध्वनि के बिना ही रही होगी ! यानि पहली भाषा देह की और बाद में प्रतीकात्मक ध्वनियों वाले शब्दों की ! अगर मैं ग़लत नहीं हूं तो ये तय है कि देह भाषा के उदय के समय में कोई जाति /धर्म , कोई पंथ/ कोई अपना कोई पराया /कोई वाद / जैसा भेदभाव नहीं था ! आज भी दुनिया के हर क्षेत्र के तमाम इन्सान हंसने /रोने /प्रेम /वात्सल्य जैसी और पारंपरिक संबंधों के लिए आवश्यक अनगिनत अभिव्यक्तियां , देह भाषा में करते समय ये याद नहीं रखते कि उनके मज़हब /उनकी जाति /उनका क्षेत्र क्या है ! किसी भी रंग / कद काठी और खान पान वाले लोग हों पर देह भाषा उनके ख्यालात में संकीर्णता नहीं पैदा करती जबकि भाषा में ध्वनि और प्रतीकात्मक शाब्दिक भिन्नता के शामिल होते ही यह सब भेद भाव शुरू हो जाता है !
मुझे तो लगता है कि देह भाषा दुनिया के तमाम इंसानों की एक मात्र मातृ भाषा है जबकि शब्दों और ध्वनियों पर आश्रित शेष भाषायें पितृ भाषा हुआ करती हैं जोकि इंसानों को पितृ कुलनाम जैसे फ्रेम में फिट कर देतीं हैं ! भेदभाव /अपनेपन के लिए उत्तरदायी इन पितृ भाषाओं के लिए अर्ज़ किया है !
न फ़लक ही कुछ कहेगा न ज़मीं उदास होगी !
उसे क्या फ़रक पड़ेगा जिसे तुम सदा न दोगी !!
फ़लक = आसमान , फ़रक = फर्क /अन्तर , सदा = ध्वनि /आवाज
सच में यह देह भाषा शायद सदा अधिक अहम बात कह जाती है। मैं इतने प्रदेशों में रही हूँ व नई भाषा सीखने में अच्छी न होने के कारण यही भाषा सदा मेरे अधिक काम आई है।
जवाब देंहटाएंइस सबके अतिरिक्त भी एक भाषा होती है मन की। शायद यही वाइब्रेशन्स का मिलान भी कहलाती है। यह बेहद अचूक होती है।
अपने बिल्कुल सही कहा, हमारी जाति व क्षेत्र एक हैं। बहुत अपनापन लगता है, जब कोई आपकी बात समझे या समझने की कोशिश करे। :)
घुघूती बासूती