रविवार, 19 अप्रैल 2009

तुम मुझे अच्छी लगती हो...

कई बार ऐसा होता है कि थोड़ा बहुत तनावों भरा समय गुज़ार लेने के बाद हम हब्शियों की तरह आराम कर डालते है !... इधर चुनाव की मारामारी के बाद का सन्नाटा था, इसलिए जरुरत से ज्यादा, यूं कहूं कि जम कर सोया, कुछ इस तरह कि नींद ने भी तौबा कर ली और मुझे निद्रालीन परिजनों के दरम्यान अकेले भूत की तरह खुली आंखों रात गुजारना पड़ रही थी ! मरता क्या ना करता वक़्त गुज़ारने के लिये स्मृति को आवाज़ दी और वो... !  उसे तो जैसे मेरे बुलावे का ही इंतजार ही था दौडी चली आई ! सच कहूं तो स्मृति को हमेशा मुझसे एक ही शिकायत रही कि मेरी व्यस्ततायें उसकी सौत जैसी हैं ! जिनकी वज़ह से मैं उसे समय नहीं दे पाता ! आज वो खुश है कि मैंने उसे बुलाया है, मुझे उसकी ज़रूरत है ! उसे परवाह नहीं कि मेरा बुलावा स्वार्थ से भरा है ! अगर मैं फुर्सत में नहीं होता तो क्या उसे बुलाता ?... पर वो तो निस्वार्थ, निश्चल प्रेममयी है ! जब बुलाओ हाज़िर ! मुझे तो कई बार अपराध बोध हो जाता है और सोचता हूं कि अगली फुर्सत ज़ल्द हो बस वो रहे और मैं रहूं तीसरा कोई ना हो !

इससे पहले कि विषयांतर हो, मैं मुद्दे पर आना चाहूंगा, जैसा कि मैंने कहा कि मुझे अपराध बोध हुआ सो स्मृति के आते ही मैंने उसे सीने से लगा लिया और कहा कि 'तुम मुझे अच्छी लगती' हो ! फिर क्या था उसने भी शिकवे भूल कर मेरे दिल पर हलकी हलकी थपकियां देना शुरू कर दिया ! ...और मैं ...!

अरे भैय्या ये सिर्फ़ मेरी ही नहीं, सारी दुनिया के तमाम इंसानों, मर्दों, औरतों की स्वार्थ भरी प्रेम कहानी है जैसे ही फुर्सत हुई, बेचैनी हुई, अकेलापन महसूस हुआ, कि स्मृति को आवाज़ दी ! ... है ना ? और मैं... उसकी सोहबत में अकेलापन बेचैनी सब कुछ भूल चला था ! मुझे फुर्सत थी, मैं था और स्मृति, मेरी परवाह कर रही थी !

मैं बखूबी जानता हूं कि कुदरत ने सिर्फ और सिर्फ 'स्मृति' को ही ये सलाहियत बख्शी है कि आप चाहें या ना चाहें वो आपके 'दिल' में ( आप इसे 'अंतर्मन' कहे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी ) हुकूमत कायम कर ही लेती है !

फिर तमाम रात मैं उसकी पनाह में खुश रहा वो कहती रही और मैं सुनता रहा !

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