ये संस्मरण मेरे आदरणीय मित्र का है जोकि मुझसे उम्र में लगभग १०-१२ साल बड़े हैं ! उनकी जन्म तिथि के किसी रिकार्ड के बिना भी उन्हें १०-१२ साल बड़ा कहने की ठोस वज़ह ये है कि जब मैं पहली क्लास में पढता था तब वो दसवीं बोर्ड में फ़ेल हुए थे फ़िर लगातार वो उसी क्लास में बने रहे यहाँ तक कि मैंने भी उनके साथ दसवीं बोर्ड की परीक्षा दी और वो 'आदरणीय से क्लास मेट ' और फ़िर 'दोस्त' बन गए हालाँकि वो बाद में मेरे जूनियर भी हुए मगर दसवीं क्लास से उनका प्रेम बना रहा !
बढती उम्र को छोड़ दिया जाए तो वो आज भी बेहद हसीन ख्याल , कमसिन जवान हैं और मुहल्ले पड़ोस के तमाम लोग उनके पुरखुलूस व्यक्तित्व से प्रभावित हैं ! चूँकि उन्हें अपनी तालीमाती ( शैक्षिक ) असफलताओं का गिला भी नहीं है इसलिए उनका जीवन बिना किसी अपराध बोध , के खुलकर जियो ,वाली शैली में गुजर रहा है !
पर उन्हें एक मलाल भी था ?
उनके अब्बा उन्हें बचपन में जबरदस्ती ,मदरसे भेजते थे और उन्हें बड़ा धार्मिक विद्वान् बनाना चाहते थे ! उनके वालिद का ख्याल था कि बच्चे को दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा )देना बेहद जरुरी है क्योंकि इससे मुक्ति का मार्ग खुलता है जन्नत मिलती है ! शायद इसी आपा धापी में वो अपनी स्कूली शिक्षा ठीक से पूरी नहीं कर सके !
मैंने जब दसवीं क्लास में उनके साथ पढ़ना शुरू किया तो वो अक्सर कहते कि मैं अपने अब्बा से कुछ कहना चाहता हूँ पर क्या ? मुझे नहीं पता ! काफी साल गुजरे उनके अब्बा का इन्तकाल हुए पर उन्हें मलाल बना रहा कि वो अपने अब्बा से जो ? कहना चाहते थे वो अब्बा के जीते जी कह ना सके !
आज अचानक वो मुझसे मिलने आए और बेइंतिहा खुश थे ! वो किसी बच्चे की तरह चहक रहे थे ! आज उनकी बरसों की ख्वाहिश पूरी हो गई थी , उन्हें "समझ" में आ गया था कि वो बचपन में अपने अब्बा से "क्या कहना " चाहते थे और वो अपने अब्बा की कब्र के पास जाकर अपनी तमन्ना पूरी कर , सीधे मेरे पास लौटे थे उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपने मरहूम अब्बा से सब कुछ साफ साफ कह दिया है !
उन्होंने बताया कि किस तरह से अब्बा की कब्र के पास उनकी आवाज देर तक गूंजती रही : "अब्बा मुझे बख्श दो , मेरे लिए जन्नत की चिंता मत करो ,मुझे खेलने दो , मेरा बचपन , मेरा आज संवार दो !"
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